Letter U- यूज़, यूज़फुल, यूज़लेस, अंडरस्टेण्ड

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Letter U- यूज़, यूज़फुल, यूज़लेस, अंडरस्टेण्ड

एक पिता के तीन पुत्र थे। तीनों के मध्य उत्तराधिकारी के चयन का प्रश्न था। किसे उत्तराधिकारी बनाया जाए? पिता ने तीनों पुत्रों को बुलाया और पांच-पांच हजार रूपए दिए और कहा कि ये तीन अलग-अलग महल हैं, उसके जो मुख्य कक्ष है, उसे तुम्हें इन रुपयों से भरना है। बड़ा सारा महल, उसके अंदर बड़ा सारा हॉल और मात्र 5 हजार रूपए में कैसे भरा जाए? पहले ने सोचा- भैया! अब तो भाग्य की बात है, चलो! भाग्य आजमा लो। 5 हजार रूपए को सट्टे पे लगाया, सोचा एक के अस्सी हो जाएंगे, पर हार गया। दूसरा बड़ा कैलकुलेटिव था। दिमाग लगाया, सबसे सस्ते से सस्ता क्या हो सकता है? तो सस्ते से सस्ते की तलाश में उसने दिमाग लगाकर के, कॉर्पोरेशन के आदमी से मिला और कहा- भैया! तुम लोग कचरा कहां फेकते हो? बोले- शहर के बाहर। बोले- हफ्ता भर तक तुम अपना कचरा शहर के बाहर मत फेंकना, मेरे हॉल को भर देना। 5 हजार रूपए दे दिए। पूरा शहर का कचरा उस हॉल में भर गया, खचाखच पैक। तीसरा बहुत समझदार था, उसने बहुत दिमाग लगाया- पिताजी ने पांच हजार रूपए में भरने को कहा है, सात दिन में भरने को कहा है, जरूर कोई रहस्य है। अब कैसे भरे? छ: दिन बीत गए। सातवें दिन शाम को भगवान के मंदिर में गया। अंधेरा था, उसी बीच मां सांय कालीन वंदना के लिए मंदिर पहुंची। जैसे ही मंदिर पहुंचे, उसने दीप जलाया- मंदिर प्रकाशित हो उठा, उसने अगरबत्ती जलाई- मंदिर श्वासित हो गया। इसी में उसे अपना हल मिल गया।

आखिरी दिन जब पिता ने तीनों पुत्रों को बुलाया और पूछा- क्या तुम लोगों ने कक्ष भर लिया? पहले ने कहा- पिताजी! क्या करूं? भाग्य ने साथ नहीं दिया। भाग्य ने साथ नहीं दिया, मैंने पांच हजार रूपए दांव पर लगाए, हार गया, भर नहीं सकता। दूसरे से पूछा- क्यों, तुमने महल भर लिया? बोले- हां, भर लिया, चलिए। पिता को लेकर के गया, तो जैसे- जैसे उस कक्ष के नजदीक गया, नाक फटने लगी। बदबू के मारे हालत खराब, मुंह में रुमाल लगाना पड़ा। बोले- क्या किया? बोले- भर दिया, आप चलो तो सही। दरवाज़ा खोला, कचरे का अंबार लग गया। उसे अपने आप को पीछे करना पड़ा। छिटें भी पड़ गए, कपड़े भी खराब हो गए। बोला- इसी से भरा? बोला- पांच हजार में इससे सस्ता और क्या होगा? बोला- बेटा! तुने व्यर्थ कर दिया। तीसरे से पूछा- क्यों, तुमने कक्ष को भर लिया? बोले- पिताजी चलें। आप जब चलेंगे, कक्ष आपको भरा मिलेगा। पिता पुत्र कक्ष में प्रवेश किए, पूरा का पूरा कक्ष खाली था। केवल कक्ष के एक कोने में एक छोटी-सी टेबल थी, उसपर एक भगवान की तस्वीर थी, एक दीप रखा था, माचिस का पुडा था और एक अगरबत्ती का पैकेट था। बोले- यह कक्ष तो खाली है, कुछ भी नहीं भरा। बोले- पिताजी! एक मिनट, एक मिनट, मैं अभी इस कक्ष को भर देता हूं। उसने दीप जलाया- पूरा कक्ष प्रकाश से भर गया, उसने अगरबत्ती जलाया- पूरा कक्ष श्वास से भर गया। दीप के जलते ही पूरा कक्ष प्रकाश से भर गया, अगरबत्ती के जलाते ही कक्ष श्वास से भर गया और कहा- पिताजी! लीजिए, आपने मुझे पांच हजार रुपए बोले थे, मैंने पचास रुपए में भर दिए। ये सारे के सारे पैसे बचे हैं, आपकी कृपा है। पिता ने उसे छाती से लगा लिया और कहा- बेटे! मुझे तुझसे यही अपेक्षा थी।
बंधुओं! तीनों को बराबर अवसर मिला, तीनों को बराबर पैसा मिला, तीनों को बराबर समय मिला लेकिन परिणाम अलग-अलग निकला। किसके कारण? किस वजह से, तीनों ने अलग-अलग यूज़ किया?

आज क्या है? यू (U), ‘U for Use’.
सबके पास समान शक्ति है, संसाधन है, समय है। पर महत्वपूर्ण वो नहीं कि हमारे पास क्या चीजें हैं, महत्वपूर्ण ये है कि हम उसका उपयोग कैसे करते हैं, यूज़ कैसे करते हैं। जीवन हमको मिला है, सबको मिला है, सब जी रहे हैं लेकिन अपने इस जीवन का उपयोग कैसे कर रहे हैं? अपने जीवन को दांव पर लगा रहे हैं, कचरे से भर रहे हैं या सद्गुणों के प्रवास और अच्छाइयों के श्वास से भर रहे हैं- ये हमे तय करना है। कैसे कर रहे हैं? कैसे हमारे जीवन का उपयोग है? आप भी अपने जीवन का उपयोग कर रहे हैं, हम भी अपने जीवन का उपयोग कर रहे हैं, सड़क पर भीख मांगने वाला भी अपने जीवन का उपयोग कर रहा है, जैसे-तैसे गुजर बसर करने वाला भी अपने जीवन का उपयोग कर रहा है। महत्वपूर्ण जीवन नहीं, महत्वपूर्ण जीवन का उपयोग है। तुम्हारे हाथ में एक दियासलाई है, उस दियासलाई से किसी के घर में चिराग भी जला सकते हो, तो किसी बस्ती को खाक में भी बदल सकते हो। दियासलाई अपनी जगह है, सब कुछ उसके यूज़ पर अवलंबित है। आपने उसका कैसा उपयोग किया? सदुपयोग किया या दुरूपयोग किया? ठीक तरीके से यूज़ किया या मिसयूज़ किया? अपने जीवन का आप क्या कर रहे हैं? विचार करिए। हमे शरीर मिला, संपत्ति मिली, संसाधन मिले और बुद्धि मिली। हम इनका क्या उपयोग कर रहे हैं? शरीर मिला है, शरीर का क्या उपयोग? यूज़ कर रहे हैं? महाराज! शरीर मिल रहा है, शरीर का रस ले रहे हैं, शरीर का आनंद ले रहे हैं, भोगों में मग्न हैं, विषयों में लीन हैं। संत कहते हैं- ‘विषय और विलास में उलझना शरीर का सही यूज़ नहीं है, मिसयूज़ है’। तुम्हे यदि शरीर मिला है, तो इसका सदुपयोग करो। इस शरीर को पाकर संसार से पार उतरने का रास्ता अंगीकार करो। ये तुम्हारे लिए अवसर है। पूरे संसार में एक मानव शरीर ही ऐसा है, जो मुक्ति का आधार है। इसी शरीर के बल पर मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है। और कोई दूसरा जीवन नहीं है। तुम्हें ये मनुष्य जीवन मिला। इस जीवन को पाकर के तुम चौबीस घंटे गोरख धंधे में ही उलझकर के रह गए या अपनी आत्मा का स्मरण किया, आत्मा का चिंतन किया, आत्मकल्याण के मार्ग में लगे? तुम्हे इस पर विचार करना है। जो लोग इस मानव शरीर को पाकर उसका सदुपयोग करते हैं, वे पुरी मानवता के आदर्श बन गए और जिन्होंने उसका सदुपयोग नहीं किया, वे आज भी दुर्गति के पात्र बने हुए हैं।

तन मिला, तुम तप करो, करो कर्म का नाश।
रवि, शशि से भी अधिक है, तुममें दिव्य प्रकाश।
गुरुदेव कहते हैं- ‘ये तन मिला है, तप करो, कर्म का नाश करो’।

तुम्हारे लिए एक बहुत अच्छा अवसर है। इस मनुष्य जीवन को पाकर के, यदि तुमने ठीक तरीके से जीवन जीया, तो भवसागर से पार उतर सकते हो, अपना जीवनोद्धार कर सकते हो। तुम्हे कुछ सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। सच्ची तपस्या करो, सच्चे रास्ते पे निकलो। तन तो सब कोई पा लेते हैं, लेकिन तन को पाकर के उसका सदुपयोग करने वाले लोग, विरल होते हैं। हम लोग बोलते हैं-
यह तान पाए, महातप कीजे, या में सार यही है।
और राचन योग स्वरूप ना याको, विर्चन योग सही है।

कभी लगता है कि मैं मनुष्य जीवन को पाया हूं, तो इसका सही उपयोग करूं? कभी लगता है? कितनी कठिनाईयों से मनुष्य जीवन मिला, एक दिन तो ख़तम हो जाएगा। और मनुष्य जीवन ही नहीं मिला, मनुष्य जीवन के साथ-साथ स्वस्थ शरीर मिला। मानव शरीर मिलना, फिर भी सुलभ है; पर स्वस्थ मानव शरीर पाना, ओर दुर्लभ है। तुम्हारा शरीर स्वस्थ है और स्वस्थ ही नहीं सशक्त है। तो स्वस्थ ओर सशक्त शरीर को पाकर के तुमने क्या किया? उसी विषय, कषाय में उलझकर के अपने आप को बर्बाद कर दिया। एक दिन तुम शक्तिक्षिन हो जाओगे, तुम्हारा शरीर शिथिल हो जाएगा, बीमारियां तुम्हे आक्रांत कर लेंगी। फिर तुम कुछ करने लायक नहीं बचोगे। जीवन लीला समाप्त हो जाएगी। इसलिए तय करो- ये तन मिला है, इसको मुझे यूज़ करना है। ठीक तरीके से यूज़ करना है, अपने लिए यूज़ करना है, अपने आत्मा के हित के लिए यूज़ करना है। अंदर से ये पुकार तुम्हारे अंदर जग गई, जीवन बदल जाएगा। लेकिन ये समझ कहां है? समझ कहां है कि मैं यूज़ कैसे करूं? जैसे-तैसे अपना जीवन जी के लोग ख़तम कर देते हैं। अपने कीमती जीवन का सही उपयोग करिए। इस मनुष्य जीवन को कड़वी तुम्बी की तरह कहा है। कड़वी तुम्बी अगर खाने में आ जाए, तो फूड पॉयजन हो जाए। जानलेवा बन जाए। लेकिन उसी तुम्बी को पेट में बांध लो, तो नदी-नालों को भी तैरकर पार कर सकते हो। तो गुरुदेव कहते हैं- जीवन कम कड़वी तुम्बी की तरह है। इसका उपयोग करो, उपभोग नहीं। उपयोग करोगे, तर जाओगे; उपभोग करोगे, मर जाओगे। एक दिन मरना है। तय कीजिए कि मैं अपने शरीर का क्या यूज़ कर रहा हूं? कैसा यूज़ कर रहा हूं? एक विवेकी मनुष्य सुंदर तन पाकर के साधना के लिए तत्पर होता है और अविवेकी मनुष्य रमनियों में रमने के लिए तत्पर होता है। दोनों अपनी-अपनी जगह उद्यत हैं। लेकिन एक अपना उत्थान कर रहा है, तो दूसरा अपना पतन कर रहा है। एक भवसागर से पार उतर रहा है और एक भवसागर में डूब रहा है। क्या कर रहे हैं आप? कैसा यूज़ कर रहे हैं? सही यूज़ कीजिए। अपने जीवन को सही दिशा दीजिए। नितिकार कहते हैं-
येनेव देहेन विवेकहीन:, संसार बिजम परिपोष्यंती।
तेनेव देहेन विवेकभाज:, संसार बिज़म परिशोष्यंती।

विवेकहीन व्यक्ति जिस शरीर को पाकर संसार के बीज को पुष्ट करते हैं, विवेकहीन व्यक्ति जिस शरीर को पाकर संसार के बीज को पुष्ट करते हैं, विवेकीजन उसी शरीर से संसार के बीज को नष्ट कर डालते हैं। विवेक जगना चाहिए। इसके मूल्य और महत्व का भान भर होना चाहिए।
तुलसीदास को याद करो, जो अपने धर्मपत्नी के राग में मुक्त हो गया, मोह में पागल था। सब कुछ भुला दिया। मुर्दे को तख्ता मानकर तैरकर पार हो गया, सांप को रस्सी मानकर ऊपर चढ गया। कहानी अपनी जगह है, पुरी कहानी का विस्तार मैं नहीं करूंगा। लेकिन रत्नावली की एक, रत्नावली की एक वाक्य ने उनके चित्त की दिशा को फेर दिया। क्या कहा था उन्होंने?
अस्थि चर्ममय देहेमम तास्मेसिप्रित की होती रघुनाथ से काहे होत भवभित।

इस हाड़मांस के शरीर के प्रति तुम जितना राग कर रहे हो, प्रीति रख रहे हो, उतनी प्रीति अपने भीतर के परमात्मा से किए होते, तो तुम्हारा संसार सिमट जाता। इस एक वाक्य ने उसके चित्त को बदल दिया। और अभी तक तुलसी-तुलसी थे, अब वो स्वामी तुलसीदास बन गए। जीवन में परिवर्तन हो गया, ये है विवेक की अभिव्यक्ति का परिणाम। यह मनुष्य शरीर मिला है, इसका सदुपयोग करो। जितना बने, संयम-साधना में लगो, धर्म-ध्यान करो। कल तुम्हारे लिए कोई बीमारी आ जाए, कुछ नहीं कर पाओगे। कई लोग हैं, जो कहते हैं- महाराज! हमने पहले कुछ किया नहीं, अब करने लायक बचे नहीं। सोचते हैं, तो रात्रि भोजन भी नहीं छोड पाते क्योंकि हाईली डायबिटीज है, डेली इंसुलिन लेना पड़ता है। ब्लड प्रेशर साथ में है और ढेर तरह की बीमारियां हैं- चला नहीं जाता, उठा नहीं जाता, बैठा नहीं जाता। अरे भाई! उस स्थिति में पहुंचो, उससे पहले ठीक तरीके से जीना शुरू कर दो, तो ये दुर्दशा होगी क्यों? जिनकी नियमित दिनचर्या होती है, शुद्ध आहार-विहार होता है, वे व्यक्ति कभी इस तरह से दुखी नहीं होते और जिनका ठीक ठिकाना नहीं होता, उनका हाल तो भगवान ही जानते हैं। इसलिए कहते हैं- यूज़ करो, सही यूज़ करो। एक कवि ने बहुत अच्छी बात की-

जो लों देह तेरी कोनो रोग से ना घेरी, जो लों जरा नाही नेरी जासू पराधीन परी है।
और जों लो जमुना मा बेरी देह ना दमामा, जों लो माने कान रामा बुद्धि जाए ना बिगारी है।
तों लो में तो मेरे निज कारज संभार लेहे पौरुष थकेंगे फिर पाछे काहे करे है।
और आग के लगाए जब झोपरी जरन लागी, कुआं के खुदाए पाछे कौन काम सरी है।
कितनी मोहक प्रेरणा है। कवि कहता है कि अरे भाई! ‘जो लो देह देरी कोनो रोग से ना घेरी’: जब तक तुम्हारे शरीर में कोई रोग का आक्रमण नहीं होता, जब तक बुढ़ापा पास नहीं आता, जब तक तुम्हारी बुद्धि नहीं बिगड़ती (वृद्धावस्था में मती भ्रमात्मक स्थिति हो जाती है), जब तक तुम्हारा अपने आप पर नियंत्रण है, जब तक मौत का नगाड़ा नहीं बजता, तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट नहीं होती। ‘तों लो में तो मेरे निज कारज संभार लेहे’: मित्र! तब तक अपनी करनी सुधार लो। ‘पौरुष थकेंगे फिर पाछे काहे करे है’: जब शरीर में सत्त ही नहीं बचेगा, तो तुम क्या करोगे? और कितना अच्छा उदाहरण दिया- ‘आग के लगाए जब झोपरी जरन लागी, कुआं के खुदाए पाछे कौन काम सरी है।’: अगर घर में आग लग जाए, झोपडी जलने लगे और फिर कोई कहे कि अब कुआ खोदो, पानी चाहिए। तो क्या होगा?

एक आदमी एक लोहार की दुकान पर गया। बड़ी सारी बाल्टी पसंद किया और बाल्टी पसंद करने के बाद बोला- भैया! घर भेज दो। और चार कदम गया, वापस लौटकर आया, बोला- भैया! थोड़ा जल्दी भेजना, मेरे मकान में आग लगी है। उसको हम क्या कहेंगे? हां? क्या कहेंगे उसको? आग लगने के बाद, अब तुम बाल्टी खरीदने जा रहे हो। आग लगने के बाद, कुआ खोदने जा रहे हो। संत कहते हैं- ध्यान रखो, बाहर के मकान में आग लगे, घंटे दो घंटे लेट भी हो जाओ, तो कोई बड़ी क्षति नहीं होगी। लेकिन जीवन के महल में एक दिन आग लगेगी और वो आग जिस दिन लगी, अगर तुमने बुझाने का प्रबंध नहीं किया, सब स्वाहा हो जाएगा। ये आग कभी भी लग सकती है। ज्यादातर आग कब लगती है? पता है? ज्यादातर आग कब लगती है? जब शॉर्ट सर्किट होता है। यही होता है ना? शॉर्ट सर्किट होता है, तो शॉर्ट सर्किट कब होता है? कभी आपने सोचा? दो तार जब तक अपनी-अपनी धारा में बहते हैं, कभी शॉर्ट सर्किट नहीं होता। और दोनों तार जब अपनी सीमा का उल्लघंन करके एक दूसरे से टकराते हैं, तो शॉर्ट सर्किट होता है। संत कहते हैं- जब तक तुम अपनी मर्यादा में बहोगे, तुम्हारे जीवन में कोई शॉर्ट सर्किट नहीं होगा और जिस दिन मर्यादा तोड़ दोगे, शॉर्ट सर्किट के अलावा कुछ नहीं। सुरक्षित दूरी रखो। और नहीं, तो इंसुलेटिड वायर का यूज़ करो। एक जगह रह लेंगे, इंसुलेशन। तुम्हारे जीवन की इस तार पर यदि संयम का इन्सुलेशन चढ गया, कभी शॉर्ट सर्किट नहीं होगा। कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है और आजकल तो फायर सेंसर लगाया हुआ रहता है। होता है ना? कहीं कुछ होता है, तो तुरंत सेंसर बता देता है। तो ये सारा मार्ग हमे भगवान ने दिया। कहीं दुर्घटना हो, उससे पहले सावधान हो जाओ, यूज़ करो, सही यूज़ करो। तो पहली बात- ‘जीवन का, शरीर का यूज़ करें’।

दूसरी बात- ‘शक्ति का यूज़ करें’। शक्ति, आपके पास शक्ति है? पता है? कोन- सी शक्ति है? प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को तीन मौलिक शक्तियां दी हैं- मन की, वचन की और शरीर की। बोलो- ये है कि नहीं? सबके पास मन, वाणी और शरीर रूप शक्ति सबके पास है। इसका क्या यूज़ कर रहे हो? मन तुम्हे मिला है, मन का क्या यूज़ कर रहे हो? मन की शक्ति इतनी मौलिक शक्ति है कि इसका सही उपयोग करो, तो आत्मा से परमात्मा बन जाओ और दुरुपयोग करो, तो नर से नारकी बन जाओ। ये मन ही नर से निरंजन बनता है, मन ही नर से नारकी बना देता है। एक मन है जो हमें चढ़ा देता है और एक मन है जो हमें गिरा देता है। मन की दिशा क्या है? शक्ति है, कैसे उपयोग करते हो? किस दिशा में लगाते हो? अगर तुमने मन को रचनात्मक दिशा में लगा दिया, तो तर गए और मन ने नकारात्मक राह पकड़ ली, तो मर गए।
नितिकार कहते हैं-
बंधाए विषया सक्तम, मुक्तिये निर्विष्यम मन:, मना एव मनुष्यानाम, कारनम बंध मोक्षिकम’।

विषयासक्त मन बंधन का कारण है और विषयातित मन मुक्ति का आधार है। मन ही मनुष्यों के बंधन और मुक्ति का कारण है। एक मन, जो पूरे संसार को समेट दे और एक मन, जो हमे संसार में जकड़ दे। मन को मोड़िए। मन की दिशा को मोड़िए। मन को राईट डायरेक्शन में आगे बढाने की कोशिश कीजिए। अगर मन धर्म से जुड़ जाता है, सही आल्मबनों को पकड़ता है, मन उत्कर्ष करता है। मन यदि गलत आलम्बनों से जुड़ता है, हमारा पतन कर देता है। मन को अच्छे आलंबन दीजिए, मन को अच्छी दिशा दीजिए। देखिए, कीचड़ कैसे होता है? कीचड़ कैसे प्रकट होता है? पानी गिरने से। पानी गिरता है, तो कीचड़ होता है। और कीचड़ को साफ कैसे करते हैं? जो पानी कीचड़ मचाता है, वही पानी कीचड़ को साफ भी करता है। जो मन पाप करता है, वही मन पाप को साफ भी करता है। अगर मन को हमने सही दिशा दे दी, तो वो सारे पाप को साफ कर देगा और मन गलत दिशा में गया, तो हमारे ऊपर पाप पर पाप लाद देगा। मन को सही दिशा में बढ़ाइए। मन का काम विचार करना है और मालूम है- एक आदमी दिन भर में कितने विचार करता है? 60 हजार विचार। कितने? चौबीस घंटे में वैज्ञानिकों के अनुसार, एक मनुष्य के मन में 60 हजार विचार होते हैं। बोलो, उसमे काम के कितने? फालतू कितने? महाराज! फालतू ही ज्यादा, काम के तो एक-आध। तो कहते हैं- उसको फालतू के काम से हटाओ और अच्छे काम में लगाओ। क्या करो? सही आलंबन दो। मन का प्रयोग करो। मन के कारण ही मनुष्य को इस प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा गया है। देखो, आदमी में और दुनिया के अन्य प्राणियों में क्या अंतर है? मनुष्य को प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति कहा जाता है। कहते हैं, क्यों कहते हैं? मनुष्य के पास तो कुछ नहीं है। ना शेर जैसा पराक्रम है, ना चीता जैसी चपलता है, ना हाथी जैसी विशालता है, ना घोड़े जैसी शक्ति है। मनुष्य की दशा तो ये है कि एक मच्छर भी काट दे, तो तिलमिला जाए; एक बिच्छू अगर दंस मार दे, तो उचकने लगे। फिर भी मनुष्य प्रकृति की श्रेष्ठतम कृति। क्यों? केवल एक ही वजह से कि मनुष्य के पास मन के रूप में एक ऐसी शक्ति है, मनुष्य के पास इतना सशक्त मन है कि वह शेर जैसे पराक्रमी प्राणी को भी बांध सकता है, हाथी को भी अंकुश में रख सकता है, घोड़े पर भी सवारी कर सकता है और चीते को भी पिंजड़े में बंद कर सकता है। किसके बल पर? मन के बल पर। मनरूप शक्ति मनुष्य के अंदर है, इसलिए मनुष्य शब्द की प्रतितपत्ती करते हुए कहा गया है-
मनेन उत्कटा मानमा:

जो मन से उत्कट या समृद्ध हैं, वो मनुष्य हैं। जिसके पास पुष्ट मन है, परिपक्व मन है, वो मन में सच्चे अर्थों में मनुष्य है। तो हमारे पास ये जो मन की शक्ति मिली है, इसका हम सदुपयोग करें। कब करें? जब अच्छे आलंबनों में जोड़ेंगे। देखो! तन ओर मन, तन को भी खुराक की जरूरत है, मन को भी खुराक की जरूरत है। तन को खुराक ना मिलने पर तन सुस्त हो जाता है, ढीला पड जाता है, शिथिल हो जाता है और मन को खुराक ना मिले तो? तन को खुराक ना मिलने पर तन सुस्त होता है और मन को खुराक ना मिले, तो मन भ्रष्ट हो जाता है। सुस्त तन से उतनी दिक्कत नहीं, जितनी की भ्रष्ट मन की है। मन को आपने अच्छा आलंबन नहीं दिया, तो बुरा आलंबन लेगा, वो तुम्हे बिगाड़ देगा। तो अच्छे आलंबन लो। मन का सदुपयोग क्या, प्रभु का स्मरण करो, आत्मा का चिंतन करो, स्वाध्याय करो, सामयिक करो, पूजन करो। अच्छे कार्यों में अपने मन को लगाओ, अच्छी-अच्छी सोच प्रकट होगी और तुम्हारे जीवन को उच्चाईयों तक पहुंचा देगा। और यदि तुमने उसमे नहीं लगाया, तो मन का तो स्वभाव ही है- गलत दिशा में जाना। ध्यान रखना- गलत दिशा में मन तो खुद लग जाता है, अच्छी दिशा में उसे लगाना पड़ता है। लगाना पड़ता है, उसमे हमे पुरुषार्थ करना पड़ता है। तो वैसे लगाएं, अपने जीवन को आगे बढ़ाएं। उसी अनुरूप यदि हम आगे बढ़ेंगे ओर बढ़ाएंगे, तो हमारा जीवन अपने आप धन्य होगा। हम अपने जीवन को आगे बढ़ाने में समर्थ हो सकेंगे। तो संत कहते हैं- मन की शक्ति का सदुपयोग कीजिए, वचनों की शक्ति का सदुपयोग कीजिए। वाक शक्ति हमारे पास है। प्रकृति में अनंत एकिंद्रिय हैं, जिनके पास बोलने की भी शक्ति नहीं है। दो इंद्रिय में बोलने की शक्ति है, लेकिन उनके पास भाषा नहीं है। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है इस धरती पर, जिसके पास न केवल वाक शक्ति है, अपितु उसकी अभिव्यक्ति के लिए शशक्त भाषा भी है। हम चाहें जब बोल लेते हैं। कितनी बड़ी ताकत है हमारे पास, पता है? चाहे जब, चाहे जिससे, चाहे जो बोलने की सामर्थ्य हमारे पास है। पर संत कहते हैं- ‘बोलो, पर हिसाब से बोलो’। अपनी इस वाचिक शक्ति का सदुपयोग करो, इसका मिसयूज़ मत करो। इसे व्यर्थ मत जाने दो। अगर तुमने वचनों का सदुपयोग किया, तो तुम सबके चहिते बन जाओगे और वचनों का दुरुपयोग किया, तो सबसे अलग-थलग पड़ जाओगे।

हमारे व्यवहार का मुख्य आधार हमारे वचन हैं। हम जब किसी से जुड़ते हैं, तो हमारे व्यवहार की सबसे पहली शुरुआत हमारी बातचीत से होती है, कन्वर्सेशन से, वार्ता से होती है। हम जब एक-दूसरे से बातचीत करते हैं, तो लगता है- हां, ऐसा है, ऐसा है, ऐसा है। हैं ना? अब, एक व्यक्ति की बात का असर ये होता है कि वो दिल में उतर जाता है और किसी व्यक्ति की बात का असर ऐसा होता है कि वो दिल से उतर जाता है। होता है कि नहीं? बोलो। दिल में कौन उतरता है और दिल से कौन उतरता है? बोलो। कौन दिल में उतरता है? जो अच्छा बोलता है, मीठा बोलता है। हैं ना? प्रिय बोलता है, हितकारी बोलता है, वो दिल में उतर जाता है और इसके अलावा, इसके विरूद्ध, जो तीखा बोलता है, कड़वा बोलता है, वो हमारे दिल से उतर जाता है। कभी तुमने सोचा है कि मैं बोलता हूं, तो दिल में उतरने वाली बात बोलता हूं या दिल से उतरने वाली बात बोलता हूं? व्यवस्था तो हमारे पास है। वाचक शक्ति हमारे पास है। हम उसको कैसे यूज़ करें, ये हमे तय करना है। संत कहते हैं- ऐसा बोलो। क्या बोलते हैं?
ऐसी बोली बोलिए, मन का आपा खोए।
ओरण को शीतल करे, आप को शीतल होय।

सामने वाले से तो ये ही अपेक्षा है। खुद के लिए? वचनों पर अंकुश होना चाहिए। इसका कभी मिसयूज़ मत कीजिए। कल तुम्हारी वाक शक्ति कुंठित हो जाए, तो तुम क्या करोगे? मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूं, जो व्यक्ति सिवाय गाली के कुछ बोलता नहीं। अपने बेटे, बहू, सबको गाली से ही बोलता था और गाली भी ऐसी-वैसी नहीं, बड़ी गंदी गाली। परिवार के लोग तो अब used to हो गए थे। रोज़ की आदत है। लेकिन आप सुनकर के आश्चर्य करेंगे- वो व्यक्ति अपने जीवन के आखिरी तीन वर्ष तक बोल नहीं पाया। मर गया। आखिरी में पानी भी नहीं मांग पाया। वाणी ही कुंठित हो गई, एक दिन अचानक ऐसा हुआ कि बोली बंद। क्यों हुआ ऐसा? बोली का दुरुपयोग। ध्यान रखना- उस व्यक्ति की बोली यहीं बंद हो गई, पर हो सकता है- आज नहीं, कल तुम्हारी बोली बंद हो जाए। वाणी का मिसयूज़ करोगे, गूंगे बनोगे, बहरे बनोगे या एकिंद्रियों में चले जाओगे। मुक पशु के रूप में चले जाओगे, बोलने की क्षमता को खो दोगे। अपनी वाक शक्ति का सदुपयोग करो। हमेशा एक बात को ध्यान में रखना- एक छोटा-सा दुर्वचन सारे उपकारों पर पानी फेर देता है, एक छोटा-सा दुर्वचन सारे उपकारों पर पानी फेर देता है। अभी मैं इतना प्रवचन सुना रहा हूं आप लोगों को। रोज-रोज़ आप लोग उत्साह से सुनते हो, टाइम मिलाकर आते हो। आपको अच्छा लग रहा है। लग रहा है ना? और एक उल्टी बात बोल दूं तो? मैंने कितनी अच्छी बातें बोलीं एक तरफ, आज महाराज ने ये बोल दिया। महाराज को ऐसे नहीं बोलना चाहिए, ऐसा बोला जाता है क्या? महाराज ने ये क्या बोल दिया? महाराज होकर ऐसी बातें बोलते हैं? बोलो, होगा कि नहीं होगा? हां? पर चिंता मत करो, मैं बोलूंगा नहीं। क्या हुआ? एक छोटा-सा दूर्वचन, सारे उपकारों पर पानी फेरता है।

मान लो- आप किसी व्यक्ति के यहां गए। आपका मित्र, उसने वर्षों बाद मिलने के बाद आत्मीय स्वागत किया। खूब बढ़िया खातिरदारी, खाने-पीने का इंतजाम और आप उसके उस व्यवहार से अभिभूत हो गए। और अभिभूत क्या हुए, आप उसकी प्रशंसा के पुल बांधना शुरू कर दिए। क्या बोलूं भाईसाहब? बड़ी कृपा है आपकी। अभिभूत हूं आपका, आपसे, आपके इस व्यवहार से। क्या-क्या स्वागत किया आपने? ऐसा स्वागत आज तक किसी नहीं किया। और खाने-पीने की क्या बात करूं? क्या बढ़िया खाना खिलाया। ऐसा खाना तो हमने आजतक नहीं खाया। आप प्रशंसा कर रहे हो- क्या बताऊं, कितना बढ़िया खाना खिलाया। खाने-पीने की क्या बात कहूं? ऐसा खाना तो मैंने आजतक नहीं खाया। तू क्या, तेरा बाप भी नहीं खाया होगा। अब बोलो, क्या होगा? सामने वाले ने एक ही वाक्य बोला- तू क्या, तेरा बाप भी नहीं खाया होगा। अब बोलो, क्या होगा? हां? आग लगेगी? लगेगी कि नहीं लगेगी? आग लगेगी? क्यों? सब कुछ तो अच्छा था। एक छोटा-सा दुर्वचन, सारे उपकारों पर पानी फेरता है। बस एक सिख लीजिए- यदि हमने अपने समय का दुरुपयोग किया, अपने वचनों का दुरुपयोग किया, तो दर-दर के भिखारी बनने को मजबुर होंगे। इसलिए समय का सदुपयोग करना सीखिए, शब्दों का सदुपयोग करना सीखिए। अपनी शक्ति, मैंने कहा- ‘मन की शक्ति का सदुपयोग, वाचिक शक्ति का सदुपयोग, शरीर की शक्ति का सदुपयोग, यह हमारा धर्म होना चाहिए’।

शरीर का, शक्ति का, संसाधनों का; मेरे पास संसाधन हैं, मैं अपने लिए प्राप्त संसाधनों का क्या उपयोग करता हूं? मेरे पास जो संसाधन हैं, उनका क्या उपयोग? यह हमे देखना है। अपने संसाधनों का सदुपयोग करें। तुम्हारे पास पैसा है, गाड़ी-घोड़ा है, अन्य संसाधन हैं। जितने भी रिसोर्स हैं, क्या उपयोग कर रहे हो? केवल अपनी शान बढ़ाने में? या किसी की लाज बचाने में? एक व्यक्ति है, जो अपनी शान को बढ़ाने में, अपने संसाधन को लगा रहा है और दूसरा व्यक्ति अपने संसाधनों से किसी की लाज बचा रहा है। बोलिए, आप किसको पसंद करोगे? हां? लाज बचाने वाले को। अपने मन से पूछो- तुम्हारा नाम कहां लिखा जाए? शान बढ़ाने वालों में या लाज बचाने वालों में, कहां लिखा जाए? क्या बोल रहा है मन? मन से पूछके बोलना? हां? लाज बचाने वालों में, फिर तो बहुत अच्छा नंबर मिलेगा। महाराज! हमारा मन कहता है- कभी शान बढ़ाने में, कभी लाज बचाने में। मौका देखके काम कर लेते हैं। जैसा मौका पड़ जाए, वैसा काम। संत कहते हैं- नहीं, सही प्रयोग करिए, सही उपयोग कीजिए। यदि आप सही दिशा में चलेंगे, सही परिणाम आएंगे और गलत दिशा में चलेंगे, गलत परिणाम आएंगे। अपने संसाधनों का सही प्रयोग कीजिए।
अब आपके पास गाड़ी है। देखिए, क्या अंतर होता है, छोटी-छोटी सी बातों में। बहुत गहरा अर्थ आएगा। गाड़ी है, गाड़ी लेकर आप सैर-सपाटे में भी जा सकते हैं और गाड़ी लेकर के आप तीर्थ यात्रा में भी जा सकते हैं। क्या मन होता है ज्यादा? अगर तीर्थ यात्रा में है, तो संसाधन का सदुपयोग है और सैर सपाटे में है, तो मिसयूज़ है। हर संसाधन का सदुपयोग करना सीखिए। यूज़ कीजिए, मिसयूज़ नहीं। बस एक सिद्धांत अपने जीवन का बनाकर चलिए- ‘मुझे यूज़ करना है, मिसयूज़ नहीं करना’। समय का यूज़ कीजिए, मिसयूज़ मत कीजिए। शरीर का, शक्ति का, संसाधन का, समय का यूज़ कीजिए। संपत्ति का यूज़ कीजिए, मिसयूज़ मत कीजिए। यूज़ क्या, पैसे का क्या यूज़ है? पैसे का यूज़ है- खाओ और खिलाओ। ये यूज़ है। उपयोग करो, उपभोग करो- ये यूज़ है। बाकी, पैसा कमाकर के इकट्ठा करके रखते जाओ, फिर छोड़कर चले जाओ, वो पैसा किसी काम का? पैसा पाया है, यूज़ करो। और यूज़ करने के लिए क्या करो? अपने पर खर्चों, औरों पर खर्चों। परसो मैंने बोला था ना, कल ही बोला था, परसो- ‘पैसा बचाना- अच्छी बात; पर पैसे से किसी ओर को बचाना, और अच्छी बात’। यूज़ करो। पैसा पाया है, यूज़ करो। उसे संग्रहित करके मत रखो। नहीं तो एक दिन तो नष्ट हो जाने वाला है।

कार्तिकेय अनुपेक्षा में एक बहुत अच्छी बात लिखी कि जो मनुष्य धन को संग्रहित करने के बाद, उसे धरती में गाड़कर के रख देता है, वो अपनी संपत्ति को पाषाण के समान विफल कर देता है। पुराने जमाने में लोग गाड़ के रखते थे। अब गाड़ने की व्यवस्था नहीं है, पर दूसरी व्यवस्था है- अब भारत और भारत से बाहर पहुंचाने की भी व्यवस्था है। क्या यूज़? क्या यूज़? यूज़ करने के लिए आज तुम्हारे पास है, यूज़ करो। तो ये यूज़ करने की बात है। समझ गए? तो पहली बात- यूज़ करो।

अब दूसरी बात- यूज़फुल। क्या? यूज़फुल और अन-यूज़फुल, इसको जानो। यूज़ तो करो ही; यूज़फुल क्या है? अन-यूज़फुल क्या है? इसको भी समझो। थोड़ा विचार करो- तुम्हारा समय, तुम्हारी शक्ति, तुम्हारा संसाधन, तुम्हारा धन यूज़फुल कार्यों में ज्यादा लगता है या अन-यूज़फुल बातों में? बोलो। हां? तो अन-यूज़फुल में रहोगे, तो तुम फ्यूज़ हो जाओगे। जो यूज़फुल है, पास रखें, जो अन-यूज़फुल है उसे दूर रखें। सीधी-सीधी बात। जो यूज़फुल, क्या-क्या यूज़फुल है? क्या उपयोगी है? क्या लाभदायक है? क्या बेनेफिशियल है? मुझे उसे टारगेट बनाना है। जो यूज़लेस है, उसको हमे बिल्कुल महत्त्व नहीं देना है। यूज़फुल को महत्त्व देना है, यूज़लेस को महत्त्व नहीं देना। पर अभी तक क्या हुआ? हमने यूज़लेस के पीछे अपने आपको पागल बनाया; जो यूज़फुल था, उसे पहचाना ही नहीं। संत कहते हैं- ‘धारा मोड़ो, यूज़लेस को छोड़ो और यूज़फुल को अपनाओ’। जो-जो यूज़फुल है, उसे अपनाकर के, अंगीकार करके अपने जीवन को आगे बढ़ाओ। क्या यूज़फुल है? बोलो। लाभदाई क्या है? उपयोगी क्या है? बोलो। धर्म कि धन, वैराग्य कि विलास, त्याग कि भोग? कितने जानकार हैं, आप लोग! सब ज्ञानी हैं, सब पता है। हैं ना? पूरा पता है। अगर बैठा दूं प्रवचन करने, तो कहीं हमसे भी अच्छा कर बैठो। हां? हैं ना? कितने होशियार हो, आप लोग! लेकिन करते क्या हो?- सवाल इस बात का है। क्या यूज़फुल है और क्या यूज़़लेस है। इसको हमेशा विचारना चाहिए और जो अनुपयोगी है, उससे दूर रहें और जो उपयोगी है, उसे सुरक्षित करें। भई! क्या आप लोग घर में बुहारी लगाते हैं? तो बुहारी लगाते-लगाते अचानक किसी उपयोगी वस्तु पर ध्यान चला जाए, तो क्या करते हैं आप? इग्नोर करते हैं। क्यों? एक पिन भी मिल जाए, तो उसे उठा लेते हैं कि काम में आएगा। उठाते हो कि नहीं? हां? उठाते हो, रोज़ का अभ्यास है। घर में बुहारी लगाते हुए अगर छोटी- सी पिन भी मिलती है, तो उसे यूज़फुल मानकर के तुम संभालकर रखते हो। ज़िन्दगी के विषय में ऐसी संभाल क्यों नहीं करते? मेरे जीवन में ये काम की चीज है, इसे मुझे संभाल के रखना है। उसकी तरफ ध्यान क्यों नहीं? कभी ध्यान जाता है? क्यों नहीं? क्या- क्या मेरे लिए यूज़फुल है, उसे ही मुझे स्वीकारना है और जो यूज़लेस है, उसमे हमे दिमाग ही नहीं लगाना। पर कैसे होगा ये सब? यूज़ करने की कला, यूज़फुल और यूज़लेस को पहचानने की स्थिति कब होगी? जब तुम्हारी अंडरस्टैंडिंग ठीक होगी।

यू (u) है ना, चार बातें हो गईं- यूज़, यूज़फुल, यूज़लेस, अंडरस्टैंड।
समझ लो- क्या यूज़लेस है? क्या यूज़फुल है? किसका यूज़ करना है? और किसको थ्रो (throw) करना है? आजकल तो यूज़ एंड थ्रो कल्चर ही चल गया है, यूज़ एंड थ्रो। संत कहते हैं- यूज़फुल को यूज़ करो, यूज़लेस को थ्रो करो। तुम लोग यूज़लेस को यूज़ करते हो, यूज़फुल को थ्रो करते हो; उल्टा काम। ‘यूज़ एंड थ्रो’ सबके साथ। जिसको अपनाना है, उसे छोड़ते हो; जिसे ठुकराना है, उसे गले लगाते हो। जीवन आगे कैसे आगे बढ़ेगा? ये यूज़ एंड थ्रो का कॉन्सेप्ट बहुत अच्छा कॉन्सेप्ट नही है। यूज़ एंड थ्रो चीज़ों तक हो तो फिर भी समझ में आए, अब तो आदमियों के साथ होने लगा है। आदमियों के साथ ऐसा होने लगा। ‘उपयोग करो और ठुकराओ’। गलत है। युज, जो यूज़फुल है, उसको यूज़ करो; जो यूज़लेस है, उसे थ्रो करो।
एक समझ हमारे अंदर विकसित होनी चाहिए- हेय और उपादेय की। समयगदर्शन है क्या? अंडरस्टैंडिंग का ही नाम तो सम्यगदर्शन है। जीवन और जीवन की व्यवस्था की अंडरस्टैंडिंग का नाम सम्यगदर्शन है। क्या उपादेय? क्या हेय? जो यूज़फुल, वो उपादेय और जो यूज़लेस, वो हेय। हेय-उपादेय के विवेक का नाम ही सम्यगदर्शन है और ये हमारे अंदर जागृत हो गया, जीवन धन्य हो जाएगा। तो, क्या उपादेय? क्या हेय? इसकी समझ हमारे भीतर होनी चाहिए।

आज की चार बातें- यूज़, यूज़फुल, यूज़लेस, अंडरस्टैंड। इतना सब कुछ करोगे, तो क्या होगा? Up (अप) हो जाओगे। क्या हो जाएगा? अप। अप यानि ऊपर उठ जाओगे। grow up, अपने आप को ऊपर उठाओ। बस, अपने आप को ऊपर उठाना चाहते हो, यूज़ करो, यूज़फुल को जानो, यूज़लेस से अपने आप को दूर रखो। ये समझ बढ़ाओ। हमेशा आप अप बने रहोगे, अपने आपको अपग्रेड कर सकोगे, अपडेट बने रहोगे और अप टू डेट बन जाओगे। अप- अपग्रेड, अपने आपको अपग्रेड करते रहो, हर पल करते रहो और अपनी अपग्रेडिंग को अपडेट भी करते रहो। एकदम देखते रहो- सब कुछ ठीक-ठाक, है कि नहीं? तो ऐसी स्थिति रहेगी, तो हमेशा अप टू डेट रहोगे और नहीं, तो आउट आफ डेट हो जाओगे। अप टू डेट बनो, जीवन को आगे बढ़ाने का उपक्रम करो। यहीं हमारे जीवन का मार्ग है, यही हमारे जीवन का मर्म है। तो आज यू की बात आई है। हम अपने जीवन का सही यूज़ कर सकें और अपने जीवन का उद्धार कर सकें, इस स्वभाव के साथ आज यहीं पर विराम दूंगा।

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