उत्तम आकिंचन्य

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उत्तम आकिंचन  

पिता की मृत्यु के उपरांत पिता की संपत्ति को लेकर चार भाइयों के मध्य अंतर-मंथन चल रहा था। एक प्रकार का द्वन्द चल रहा था, एक कह रहा था, यह मेरा है, यह तेरा है, यह मेरा, यह तेरा और दूसरा आपस में तेरा और मेरा कर रहा था, तीसरा इन बातों को देखकर एकदम तटस्थ बना हुआ था। पहला कह रहा है, यह मेरा है, यह तेरा है। मेरा-मेरा, तेरा-तेरा। तेरा तू ले ले और मेरा मैं लूं लेकिन दूसरा यह तेरा-मेरा, तेरा-मेरा कर रहा था। तीसरा जब तटस्थ था तो  उससे पूछा, तुम क्या कहते हो तो उसने कहा, मैं क्या कहुँ, ना तेरा है और ना मेरा है, जग चिड़िया रैन बसेरा है। आज बात मैं आप से केवल चार करूंगा-

 

  • मेरा
  • तेरा
  • तेरा-मेरा और
  • ना तेरा ना मेरा जग चिड़िया रैन बसेरा

 

आज का धर्म हैं- आकिंचन्य धर्म आकिंचन्य का मतलब है- यह मेरा है, इस प्रकार के अभिप्राय की निवृति का नाम आकिंचन है। आपसे मैं पूछता हूँ, बहुत सी चीजों को आप मेरा, मेरा, मेरा, मेरा कहते हो, थोड़ी सी एक लिस्ट बनाइए, मेरी क्या-क्या चीजें हैं। बोलो क्या हैं तुम्हारा? मेरा क्या हैं? कुछ नहीं हैं। मनुष्य को वो जानने की आवश्यकता हैं, सारा जीवन जिसके पीछे मनुष्य खफा देता हैं, जीवन के आखिरी क्षण तक नहीं समझ पाता कि आखिर में मेरा क्या हैं। क्या हैं? विचार करो, यह संपत्ति मेरी हैं, नहीं हैं, तो फिर पकड़े क्यों हो। कहते हैं, मेरी नहीं हैं फिर भी पकडे हैं। मान रखा हैं, ऊपर से हम कह भले दे कि मेरी नहीं हैं लेकिन अगर कोई इस पर दखल देने लगे तो नींद उड़ेगी कि नहीं उड़ेगी। महाराज! प्रैक्टिकल बात करो आप तो। हमने बहुतों को अपना मान रखा हैं जिनके पीछे हम रात-दिन आकुलित होते हैं, दु:खी होते हैं, बेचैन होते हैं, व्यग्र होते हैं, परेशान होते हैं। पड़ताल कीजिये कि ये मेरा हैं या नहीं। पड़ताल कीजिए कि यह मेरा हैं या नहीं। मैंने मान रखा हैं कि वो मेरा हैं, मेरी संपत्ति मेरी हैं, मेरे पास जो सामग्री हैं वह मेरी हैं, मेरा यह जो शरीर हैं वह मेरा हैं, मेरे ये जो परिजन हैं, संबंधी हैं वो मेरे हैं, सब तुम्हारे हैं। महाराज! मेरा तो सारा संसार हैं। मैं तो तुम लोगों से कहता हूँ, अगर मेरा, मेरा, मेरा, मेरा मानना हैं और कहना ही हैं तो थोड़ी सी चीजों को मेरा क्यों मानते हो, पूरे संसार को मेरा क्यों नहीं मान लेते हो और जिस दिन पूरा संसार तुम्हारा होगा जीवन बदल जाएगा लेकिन किस को मेरा मानते हो? संसार को। नहीं महाराज! मेरा अपना एक संसार हैं, उसे में मेरा मानता हूँ। मुझे दुनिया से कोई लेना-देना नहीं, मेरा संसार जिसे मैंने  बनाया हैं, मैने जोड़ा हैं, वह मेरा हैं और उसके पीछे में रात-दिन लगा रहता हूँ। क्या हैं तुम्हारा? जिस दिन पैदा हुए थे, उस दिन क्या लेकर आए थे. कुछ था साथ में कुछ, नहीं ना। मरोगे तो क्या लेकर जाओगे? मुट्ठी बांधे आया जगत में हाथ पसारे जाएगा। हम खाली हाथ आए हैं और खाली हाथ जाएंगे, ना हम कुछ लेकर आये हैं, ना हम कुछ लेकर के जायेंगे, जीवन की एक बहुत बड़ी सच्चाई हैं, उसके बाद भी मेरा-मेरा-मेरा कहकर मरे जा रहे हैं।

क्या हैं मेरा? जानने की बात हैं। जिनको तुम मेरा मानते हो वो ममत्व हैं और जहां ममत्व का भाव होता हैं, वहां दु:ख अपने आप उपजता हैं। जिन को तुम मेरा मानते हो, उनके संरक्षण, संवर्धन, सम्पोषण में तुम्हारी चेतना 24 घंटे लगी रहती हैं और उनमें जब कुछ उलटफेर होता हैं तो तुम्हारे मन में अशांति और उद्वेग उत्पन्न हो जाता हैं। बात इतनी सी हैं जो चीज तुम्हारी हैं, उस पर तुम्हारा अधिकार हैं और जिस पर तुम्हारा अधिकार हैं, वह तुम्हारे हिसाब से काम करेगा तो कोई दिक्कत नहीं लेकिन जो चीज तुम्हारे अधिकारिता से बाहर हैं, जिसे तुम ने अपना मान रखा हैं और वो तुम्हारे नियंत्रण से बाहर हैं, तुम उसे करना, चलाना। किसी और तरीके से चाहते हैं और वह और रूप में चलती हैं तो क्या होता हैं, मन उसको स्वीकार कर पाता हैं, नहीं कर पाता हैं, इसीलिए दु:ख होता हैं। तुमने किन-किन को मेरा माना। हिसाब लगाओ और जिनको-जिनको तुमने मेरा मान रखा हैं, क्या वे सब तुम्हारे हिसाब से चल रहे हैं, उन पर तुम्हारा अपना अधिकार हैं, उन पर तुम्हारा अपना नियंत्रण हैं, वह सब तुम्हारी इच्छा अनुरूप वर्तन कर रहे हैं। बोलो, तुम्हारा धन तुम्हारे हिसाब से आया। महाराज! हमने तो मेहनत किया तो कमाया और जैसा चाहा वैसा कमाया, बोल सकते हो ऐसा। मेहनत करके पैसा कमाया, बिल्कुल मान लिया लेकिन तुम यह बोल सकते हो कि मैंने जितना चाहा उतना कमाया और जो मैंने कमाया उसे मैं जैसे चाहूँ वैसा रख सकता हूँ। भाई, जब तुम्हारा हैं तो तुम्हारे हिसाब से चलना चाहिए। पैसा तुम्हारा हैं, तुम्हारे हिसाब से चलना चाहिए। क्यों नहीं चलता? क्योंकि वह तुम्हारा नहीं हैं, तुमने उसे अपना मान रखा हैं। किसका हैं? तुम्हारा नहीं हैं। किसी और का या हमारे बाप-दादा का। बाप-दादा छोड़कर गए क्या? छोड़ कर के गए जरूर, उनका भी नहीं हैं। उनका होता तो लेकर जाते। नहीं था, इसलिए छोड़ कर गए और तुम्हें भी छोड़ कर जाना होगा क्योंकि तुम्हारा नहीं हैं। किसका हैं? संयोग ने तुम्हें यह सब दिए हैं और जब तक संयोग अनुकूल हैं सब ठाट बना हैं और संयोग बदलते ही करोड़पति को रोड़पति बनते कोई देर नहीं लगती।

करोड़पति पल में रोडपति बन जाता हैं, शिखर पर बैठा व्यक्ति सतह पर आ जाता हैं और अर्श पर रहने वाला फर्श पर आ जाता हैं। आपने अपनी इन्हीं आंखों से अनेक लोगों को ऊपर से नीचे आते देखा होगा और अनेक लोग आपकी दृष्टि में ऐसे भी होंगे जो कल तक एकदम जमीन पर थे और आज आसमान को छू रहे हैं। देखा, आपने। ये समय का चक्र हैं, कल तक जिनकी तूती बोलती थी, आज उन्हें कोई पूछता नहीं और कल तक जिसे एकदम सामान्य, नाचीज माना  जाता था, आज उसकी हुकूमत चलती हैं, यही तो दुनिया हैं। यह किसके अंडर में हैं, इस पर किसका नियंत्रण हैं। जिस दिन इस सत्य का बोध हो जाएगा उसे तुम्हारे जीवन की दिशा और दशा सब परिवर्तित हो जाएगी। मुश्किल ये हैं कि मनुष्य इस सच्चाई का बोध नहीं करना चाहता, सच्चाई का बोध नहीं करना चाहता, इस सत्य को स्वीकार करना नहीं चाहता। जीवन के इस परम सत्य को स्वीकारिये, इस सच्चाई को आत्मसात करने की कोशिश कीजिए और अपने जीवन की दिशा-दशा को परिवर्तित करने का प्रबल पुरुषार्थ कीजिए।

मेरा क्या हैं, यह धन मेरा नहीं हैं, मेरे पास हो सकता हैं, किसके पास हैं, मेरे पास हैं पर मेरा नहीं हैं। देखो कोई चीज़ आपके पास हो, उसमें जिसे आप मान करके चलो कि मेरे पास किसी ने धरोहर दी, उसमें और कोई चीज वो जिसे आप अपनी मानते हो, उसमें। दोनों के प्रति आपका दृष्टिकोण क्या होता हैं? एक सा रहता हैं क्या? अलग-अलग रहता हैं ना, रुपया आपके पास भी हैं और आपके घर के तिजोरी में भी रुपया और अगर आप में से कोई बैंक में कर्मी तो बैंक का रुपया भी आपके पास हैं। चाबी दोनों जगह आपके पास हैं, आपके घर की तिजोरी की भी चाबी आपके पास हैं और बैंक के लॉकर की भी चाबी आपके पास हैं। आपके घर में 10-20-50 लाख रुपया होगा और आपके घर की संपत्ति 2-4 करोड़ की होगी और बैंक में तो करोड़ो होते हैं। अब बोलो कोई बैंक का केशियर हैं और बैंक के सारे धन को अपना धन मान बैठे तो उसे हम क्या कहेंगे। ऐसा मानता हैं क्या? हम तो कस्टोडियन हैं, कस्टोडियन, हमें तो केवल प्रबंध करना हैं, मेरे पास हैं पर मेरी नहीं हैं, बस मेरी जिम्मेदारी इतनी हैं कि जिसने लाकर के दिया हैं, समय पर लाकर के उसे वापस लौटाऊं, कोई जमा करना चाहे तो मैं जमा कर लूँ और कोई वापस लेना चाहे तो वापस कर लूँ। मेरे को तो कुछ नहीं करना, नाम और जमा कर लेना हैं। यही हैं ना। लाखों-करोड़ों रुपया अपने हाथ से इधर से उधर करता हैं, उसको कोई परेशानी होती हैं क्या। आज तो बैंक से withdrawl ज्यादा हुआ, आया नहीं। उसमे कोई चिंता। किसी दिन खूब जमा हो गया तो अगर खुशी होगी तो केवल इस बात की होगी कि बैंक का ट्रांसेक्शन अच्छा हुआ हैं, टर्नओवर अच्छा हुआ हैं, हमने बिजनेस अच्छा दिया, हमें बोनस अच्छा मिलेगा, हमको इंक्रीमेंट मिलेगा। ये अपने पर्सनल हित की बात करेगा लेकिन उन रुपयों से उनको कोई सरोकार नहीं क्योंकि मेरा रूपया नहीं हैं, कोई रूपया निकालने आया तो कहो, भैया, मत निकालो, बैंक में घाटा हो जायेगा। आपने दिया हैं, आप ले रहे हो, जमा करने वाले भी आप, निकालने वाले भी आप, मैं तो केवल कस्टोडियन हूँ, उसको रंच मात्र दुःख नहीं होता।

मैं तुमसे केवल इतना कहता हूँ जिस दिन तुम्हें यह बात समझ में आ जाएगी कि यह धन मेरा नहीं हैं, उसी दिन तुम्हारे पास धन रहेगा पर तुम्हारे मन में स्वामित्व का भाव नहीं होगा, तुम केवल उसके कस्टोडियन बन जाओगे। मेरे पास हैं मेरा नहीं हैं। ये कर्म की धरोहर हैं। कर्म ने दिया हैं, कर्म लेगा तो क्या होगा। पाने में खुशी नहीं, खोने में गम नहीं। अभी क्या होता हैं? थोड़ा सा पा जाते हो, चंद उपलब्धियां होती हैं, फूले नहीं समाते और कहीं कोई नुकसान होता हैं तो एकदम टूट जाते हो, डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। संत कहते हैं- ‘जीवन जीने की एक कला हैं, इस सच्चाई को समझो”। मेरे पास जो कुछ भी हैं, वह मेरा नहीं हैं, मेरे पास जो कुछ भी हैं वह मेरा नहीं हैं। मेरे पास हैं पर मेरी नहीं हैं। कर्म की धरोहर हैं। पुण्य का योग रहने तक सारे अनुकूल संयोग प्राप्त होते हैं और पुण्य क्षीण होते ही संयोग बदल जाते हैं। कभी मनुष्य उन बुलंदियों को छूता हैं तो उसका बंटाधार हो जाता हैं, यह तो चित्र हैं समय का। तुम बुलंदियों को छुओ तो भी गर्व मत करो और कदाचित बंटाधार हो जाए तो भी मन में हीनता मत आने दो। तुम सोचो, मैं तो एक छोटा सा पात्र मात्र हूँ। मुझे हर स्थिति को निभाना हैं तो मैं निभा रहा हूँ, मेरा नहीं हैं।

जहां मेरा जुड़ा, वहां दु:ख हैं और मेरापन छूटा वहां सुख हैं। मेरा जुड़ते ही दु:ख होता हैं, समझ गये। जहाँ मेरा जुड़ा, जिससे मेरा जुड़ा, दु:ख होगा। नौकर के हाथ से एक घड़ी खो गई, घड़ी पुरानी सी थी। मालिक बहुत बेचैन हुआ, उसने नौकर से बार-बार बोला, भैया, वह घड़ी खोज, घड़ी खोज, घड़ी मिल नहीं रही, एंटीक पीस थी और कंपनी ने अब उसे बनाना बंद कर दिया हैं, उसकी काफी कीमत थी, मैंने बहुत दिन से सहेज कर रखा था। नौकर बोला- बाबू घड़ी तो बंद थी। मालिक बोला- बंद थी तो क्या हो गया, एंटीक वाच थी, उसका मूल्य था और मैंने सोच रखा था कि ये  घड़ी में तुम्हें गिफ्ट कर दूँ। अब क्या करूँ, घडी खो गई। अब क्या हुआ? नौकर के चेहरे से हवाइयां उड़ने लगी और खुद से कहा, अरे कहाँ चल गई घड़ी, अगर आज मुझे मिल जाती तो मैं लखपति हो गया होता। घड़ी 2 मिनट पहले भी खोई थी और अब भी खोई हैं। 2 मिनट पहले जब तक घड़ी थी, तब तो वह घड़ी थी, मालिक की घड़ी थी, नौकर की घड़ी नहीं थी, उसे कोई तकलीफ नहीं थी और अब जैसे ही नौकर के साथ मेरा जुड़ गया, हृदय टूट गया।

एक व्यक्ति के एक करोड़ रुपए की लॉटरी खुल गई, वो रिक्शा चालक था। उसकी धर्मपत्नी ने सोचा कि अचानक इतनी बड़ी खुशी बर्दाश्त कर पाए या ना कर पाए, कोई पता नहीं और  कहीं ऐसा ना हो कि एक करोड़ की लॉटरी का समाचार सुनकर के इनको कुछ हो जाए, कोई तकलीफ हो जाए तो वो अपने एक गुरु के पास गई। एक पंडित थे, जिसे वह अपना गुरु मानती थी तो उसके पास गई, बोले, आप हमारे पति को समझाइए, एक करोड़ की लॉटरी निकली हैं ताकि इनको कुछ रास्ता मिले। वो गये सत्संग में और एकांत में बुलाया, बताओ, तुम्हारे अगर 10000 की लॉटरी खुल जाए तो क्या करोगे, वो आदमी बोला, 5000 आपको दे दूंगा और 100000 की खुले तो वो आदमी बोला, 50000 आपके और 1000000 की खुले तो वो आदमी बोला, 500000 आपके और 10000000 की खुले तो वो आदमी बोला, 5000000 आपके। और गुरु ने जैसे ही सुना उसका हार्ट फ़ैल हो गया। उसे लगा, 500000 मुझे मिल गये। वो कल्पना में खो रहा था और उसे पता था की इसके एक करोड़ की लॉटरी खुली हैं तो 5000000 उसका और वो खुशी को बर्दाश्त नहीं कर पाया और वही ढेर हो गया। यही हैं मेरापन, यह हैं ममता। जो रुलाती हैं, हिलाती हैं, व्यग्र और बैचेन बनाती हैं। अगर तुम्हारे अंदर इतनी समझ हो जाए कि मैं कौन हूँ, मेरा क्या हैं तो कुछ भी हो, ना तुम्हारे सामने मेरा होगा, ना तेरा होगा, न तेरा-मेरा होगा।

जब मेरा होगा तो तेरा आएगा और जब  मेरा और तेरा होगा तो तेरा-मेरा होगा। होता हैं कि नहीं होता रोज। हर घर-परिवार में तेरा-मेरा चलता हैं, क्यों? हमने मेरा और तेरा, यह सीमारेखा खींच दी। जहाँ राग होगा, वह द्वेष होगा, जहां मेरा आएगा, वहां तेरा आएगा। हमने लाइन खींच दी तो यह मेरा हैं, हकीकत में तुम्हारा कुछ भी नहीं हैं, ना धन तुम्हारा हैं, न संपत्ति तुम्हारी हैं, ना मकान तुम्हारा हैं, ना दुकान तुम्हारा हैं, ना ये बैंक-बैलेंस तुम्हारा हैं, ना ये गहने तुम्हारे हैं, ना ये वस्त्र तुम्हारे हैं, यह शरीर भी तुम्हारा नहीं हैं और सच बोलूं तो ये जीवन भी तुम्हारा नहीं हैं। बड़े प्रिय शब्दों में गीत गाते हैं-

जिंदगी एक किराए का घर हैं, इसे इक दिन बदलना पड़ेगा।

जिंदगी एक किराए का घर हैं, इसे एक दिन बदलना पड़ेगा।

मौत तुझको जब आवाज देगी, तुझे घर से निकलना पड़ेगा।

इस सच्चाई को कब समझोगे, यह जीवन भी किराए का घर हैं और जिस दिन यह बात तुम्हारे मन-मस्तिष्क में बैठ जाएगी, तुम्हारे जीने का तौर-तरीका सब बदल जायेगा। आप अपने मकान में रहते हो, उसके प्रति आपकी जो दृष्टि होती हैं और कभी फाइव स्टार होटल में ठहरते हो, उसके प्रति जो आपकी दृष्टि होती हैं, क्या समान होती हैं। आप के मकान में एक हल्का सा कोई निशान भी पड़ता हैं तो वह निशान आपकी छाती में अंकित हो जाती हैं। किसी ने एक धब्बा लगा दिया, एक छींटा लगा दिया या किसी फर्नीचर को इधर से उधर कर दिया तो मन बेचैन हो जाता हैं और कभी आ जाए तो एकाध चपत भी लगा देते हो सामने वाले को। फाइव स्टार होटल में आप रुके हैं, आपके घर से सुंदर हैं, अच्छी सज्जा हैं, अच्छा इंटीरियर हैं, अच्छा फर्नीचर हैं, सब कुछ अच्छा हैं। क्या सोचते हो? कभी होटल में स्थायी रहने का मन बना, नहीं ना और होटल में कुछ ऊंची-नीची हो जाती हैं तो मन में कोई विकल्प आता हैं, नहीं भाई ये होटल हैं, होटल की चीजें हैं हमारा क्या लेना-देना और जब उस होटल को छोड़कर निकलते हो, कभी मन में आता हैं कि इतनी अच्छी जगह छोड़कर जाना पड़ रहा हैं। नहीं ना, क्यों? यह होटल हैं। बस इतना ही तो समझना हैं, जिसमे तुम रह रहे हो वह घर होटल हैं। क्या? होटल हैं। होटल किसको बोलते हैं, घर और होटल में क्या अंतर हैं? तुम घर में भी रहते हैं और होटल में भी रहते हैं। यहाँ तो प्रायः सब होटलों में ही रुके हैं, जो stable हो वो घर और जो temporary हो वो होटल। जिसमे कोई स्थाई रूप से रहे वो घर और जिसमे रोज मालिक बदले उसका नाम होटल तो बताओ भाई तुम्हारे घर में तुम स्थायी रहे हो क्या। आज जिस घर में रहते हो, 25-50 बरस पहले तुम्हारे पिताजी रहते होंगे और उससे पहले बना होगा तो तुम्हारे दादाजी रहते होंगे, अभी तुम रह रहे हो, कल तुम्हारा बेटा रहेगा और बेटे के बाद पोता रहेगा और मौका आ जाये तो बेच दे किसी ओर का हो जायेगा तो जिसका मालिक बदलता रहे वह घर हैं कि होटल। बोलो? तो तुमने होटल को घर मानने की भूल क्यों कर रखी हैं? बस मैं तुमसे इतना ही कहता हूँ, कागज में तुम भले उसे अपना घर कहो, व्यवहार में तुम उसे अपना भले घर कहो पर अंदर से उसे होटल मानना शुरू कर दो, जिंदगी कभी दु:खी नहीं होगी, हमेशा सुख मिलेगा। इतनी मान्यता बदलनी हैं, केवल एक अवधारणा बदलनी हैं, ये होटल हैं, मेरा नहीं हैं, मेरा कुछ हैं ही नहीं, मेरे पास हैं, मेरे साथ हैं, मेरा नहीं हैं। ऐसी समझ अंतरंग में अगर एक बार आ गई तो जीवन का मजा ही कुछ और हैं। आकिंचन धर्म बहुत हाइट की बात करता हैं, किसी के प्रति ममत्व का अभाव, यह मेरा हैं इस बुद्धि का अभाव। संत कहते हैं- ‘रंच मात्र भी तुम्हारा नहीं हैं, एक परमाणु भी तुम्हारा नहीं हैं’। सच में अगर पूछा जाए तो तुम्हारे केवल तुम हो और कुछ नहीं हो और वो तुम क्या हो और कुछ नहीं हो और वह तुम क्या हो, उसे जानो, मैं कौन हूँ।

मैं एक मात्र ज्ञान दर्शन लक्षण वाला शाश्वत आत्मा हूँ, इससे बाहर जो भी पदार्थ मेरे साथ जुड़े हैं, वे संयोग लक्षण वाले हैं, संयोगतः मेरे पास हैं, मेरे साथ हैं ओर तभी तक रहेंगे, जब तक संयोग हैं, संयोग बदलते ही सब कुछ बदल जाएगा, यह समझ चाहिए। मेरा मैं हूँ, बाकी तो सब क्या हैं किराये की चीज हैं, किराए का घर हैं, आता हैं, जाता हैं, स्थाई नहीं हैं, मेरा नहीं हैं और वह मैं नहीं हूँ। यह समझ अगर आ गई, समझ लेना तुम्हारे भीतर आकिंचन्यत्व आ गया।

आकिंचन धर्म और आगे की बात करता हैं कि देख कल त्याग की बात हो गई, त्याग दिया, अब क्या त्यागने के बाद भी बहुत कुछ रह सकता हैं, मैंने दान किया, कल बहुत लोगों ने दान दिया, दिया ना, त्याग धर्म में दान देना ही चाहिए, हर व्यक्ति को दान देना चाहिए, बिना दान दिए कभी नहीं रहना चाहिए क्योंकि दान दुर्गति का नाशक हैं लेकिन अध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ो तो अध्यात्म कहता हैं, तूने दान दिया, यह विकल्प भी दुर्बलता हैं। तू दान देने वाला हैं कौन, तेरा था क्या जो तूने दिया। तेरा था कुछ जो तूने दिया। यह धन तेरा था, यह संपत्ति तेरी थी, तूने मान रखा हैं मेरा हैं और इसीलिए निकालने में दिक्कत हैं। तेरा था कहां जो तूने दिया, तू तो केवल निमित्त बना हैं, इधर की बात को इधर पहुंचाया, एक अकाउंट से दूसरे अकाउंट में ट्रांसफर कर दिया। तेरा कहाँ? मैं मुनि बन गया, मैंने घर छोड़ा, परिवार छोड़ा, धन छोडा, व्यापार छोड़ा, सब कुछ छोड़ा। अगर तूने बोला मैंने यह छोडा, यह छोडा, यह छोड़ा तो तूने जिसे छोड़ा उसे अभी भी पकड़े हैं। अध्यात्म बहुत गहरा हैं, मैंने छोड़ा पर तेरा था ही नहीं तो तू छोड़ने वाला कौन होता हैं। अगर तू छोड़ा, छोड़ा, छोड़ा बोला हैं तो अभी भी पकड़े हुए हैं। इस पकड़ को छोड़ तब तू आत्मा में डूब पाएगा। जब तक बाहर की चीजों को पकड़ेगा, दु:खों से जकड़ा रहेगा। निर्द्वन्द हो जाओ, निःसङ्घ हो जाओ, तब जीवन का आनंद हैं। मेरा केवल मैं हूँ, बस और कुछ नहीं।

मैं एक शुद्ध ज्ञान दर्शनमयी आत्मा हूँ, मुझसे अतिरिक्त एक परमाणु भी मेरा नहीं हैं, इस सच्चाई को अपनी श्रद्धा में गहरी बैठा लो और रहो संसार में। मैं यह नहीं कहता कि महाराज ने कह दिया मेरा कुछ नहीं हैं तो सब छोड़कर निकल जाए। अगर इतनी बुद्धि तुम्हारी जग जाए तो कहना क्या हैं लेकिन ध्यान रखना किसी के कहने से कोई नहीं छोड़ता और जो कहने से छोड़ता हैं वह सच्चा त्यागी हो ही नहीं पाता। आत्मा की पुकार से जब कोई त्यागी बनता हैं, तभी सच्चा त्यागी हो पाता हैं। अपनी आत्मा की पुकार से अपने अंतस की पुकार को टटोलो कि आखिर हैं क्या मैं किसके लिए जी रहा हूँ, क्यों जी रहा हूँ, क्या कर रहा हूँ, क्या बटोर रहा हूँ, यह समझ अपने भीतर विकसित कर लो। क्या तेरा हैं, कुछ भी नहीं, मेरा कुछ नहीं, ना धन मेरा, ना संपत्ति मेरी, न शरीर मेरा, ना संबंधी मेरे, कौन हैं तुम्हारे? बोलो, मेरी पत्नी, मेरा बेटा, मेरा पति, मेरे पिता, मेरे भाई, सब हैं ना, कब तक? बोलो, जब तक मतलब सधे तब तक, एक की धर्मपत्नी मर गई, वह बहुत फूट-फूट कर रो रहा था, धर्मपत्नी मरी वह फूट-फूट कर रोए जा रहा था। लोगों ने पूछा, भैया, साल भर पहले तेरी दादी मरी तब तू इतना नहीं रोया, छह महीना पहले तेरी माँ मरी तब भी तू इतना नहीं रोया। आज पत्नी के मरने से तू इतना क्यों रोए जा रहा हैं, तेरा पत्नी से कितना प्रगाढ़ प्रेम था, पत्नी के मरने के बाद तू इतना क्यों रोए जा रहा हैं। क्या बताऊं, भाई? मेरी दादी मरी, पूरी मोहल्ले की दादीयां आ गई, बेटा चिंता मत कर मैं तो हूँ। माँ मरी, अड़ोस-पड़ोस की माताएं आ गई, बेटा चिंता मत कर, मैं तो हूँ। पत्नी मरी, 4 घंटे हो गए, अभी तक एक नहीं आई। सब अपने लिए रोते हैं, कोई किसी के लिए नहीं रोते, यही मोह हैं, यही ममता हैं, इसको जीतो तो जीवन में आगे बढ़ोगे। जीवन की उपलब्धि तभी घटित होगी। मेरा क्या हैं? कुछ भी मेरा नहीं हैं। बात हंसने की नहीं, समझने की हैं।

अध्यात्म कहता हैं, सब में रहो, स्वयं में रमो, सब के बीच रहते हुए भी अपने में रमने की कला विकसित करो। पूछोगे नहीं, तुम सब काम करो, कर्तव्य भाव से करो, कर्ता बुद्धि से मत करो। कर्तव्य भाव और कर्ता बुद्धि में क्या अंतर हैं? कर्तव्य भाव में ड्यूटी हैं, जो मुझे करना हैं और कर्ता बुद्धि में मालकियत हैं, स्वामित्व हैं कि मुझे ही करना या कराना हैं तो वहां ईगो बढ़ता हैं, वह आकुलता देता हैं। ठीक हैं, मैं परिवार के मध्य हूँ, पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करना मेरी जिम्मेदारी हैं, जो मैं निभाऊंगा। मेरी कोशिश होगी कि मैं सबको खुश रख सकूं, सबकी जरूरतों को पूर्ण कर सकूं और सबमें सहायक बन सकूं, यह मेरी जिम्मेदारी हैं लेकिन सबको खुश रहना ही चाहिए, यह कर्ता बुद्धि हैं, जैसा मैं कहूँ सब माने ही, यह कर्ता बुद्धि हैं। क्यों? वह मेरा बेटा हैं, मेरी बात नहीं मानता। तेरा बेटा हैं, कब से तेरा बेटा हैं? एक बात बोलूं, एक रहस्य की बात बोलता हूँ, बाप ने बेटे को जन्म दिया या बेटे ने बाप को जन्म दिया। बोलो, क्या हो गया? बाप बेटे को जन्म देता हैं, बेटा बाप को जन्म देता हैं? बोलो, सोच कर बोलो। बोलो, तो बाप ने बेटे को जन्म दिया, इसलिए बाप हैं और बेटा हुआ, तभी तो आप बाप बने, बेटा नहीं होता तो बाप बनते तो तुम्हारे बेटे ने तुम्हें जन्म दिया कि नहीं दिया तो अगर कह दूं कि बाप ने बेटे को जन्म दिया और बेटे ने बाप को जन्म दिया तो कोई गलत हैं। नहीं ना तो बाप इस बात को लेकर के अपना मन आहत क्यों करता हैं कि मैं बाप हूँ, मेरा बेटा मेरी सुने ही, इतना ईगो क्यों और जब बेटा ना सुने तो उसी को अपना बाप मान लो, क्या फर्क पड़ता हैं। ठीक हैं, भैया, आज का जमाना हैं, आज के बच्चे नहीं सुनते, नहीं सुने, हमारा काम खत्म, हम माथा-फोड़ी क्यों करें, अब हम मालिक नहीं मेहमान की तरह जीयेंगे। क्यों मालकियत थोपते हो, अपने दायित्वों को पूर्ण कर लेने के उपरांत भी घर से चिपक कर के क्यों रहते हो। मालिक की तरह नहीं, मेहमान की तरह रहो लेकिन एक बात ध्यान रखना बाप सोचे कि मैं मालिक नहीं मेहमान हूँ, बेटा ना सोचे की ये तो मेहमान हैं। आजकल उल्टा होता हैं, बाप चाहता हैं कि मैं मालिक बना रहूँ और बेटा चाहता हैं, मेहमान हैं 4 दिन के, जल्दी खिसके। बड़ी विडंबना हैं, इस विडंबना को दूर करने की आवश्यकता हैं, इसके प्रति अपनी जागरूकता रखिए। मालिक की तरह नहीं मेहमान की भांति रहिये, अंदर से अपने आप को अलिप्त रखिये, कभी उलझन नहीं होगी, कभी दु:खी नहीं होओगे, तो मेरा क्या, इसे जानो और जब मेरा क्या हैं, यह खत्म तो तेरा भी खत्म। अभी जब तक तुम जड़ को मेरा मानोगे, सम्पति को मेरी कहोगे, शरीर को मेरा मानोगे, संबंधी को मेरा मानोगे, अपने साथ जुड़ी सामग्री को मेरा कहोगे, सत्ता को मेरा कहोगे तो तेरा-तेरा आएगा ही आएगा। भाइयो में भी हैं यह मेरा, यह तेरा तो पहले मेरा, फिर तेरा, बाद में तेरा-मेरा, तेरा-मेरा। मारवाड़ी में जब विवाह होता हैं तो क्या कहते हैं- थे मारा, थे मारी। फिर बाद में क्या हो जाता हैं, मारामारी। यह जहाँ मेरा हैं वहां तेरा होगा और जहां मेरा-तेरा होगा वहां तेरा-मेरा होता ही रहेगा। झगड़े की जड़ क्या हैं, तत्व ज्ञान से संपन्न व्यक्ति का जीवन कैसा होता हैं।

तीन भाइयों का परिवार, दो भाइयों की दृष्टि एकदम विशुद्धतया मैटेरियलिस्टिक और तीसरा भाई तत्व ज्ञानी। पूरे व्यापार के साम्राज्य को बढ़ाने में उसका ही योगदान था। पिताजी काफी छोटी उम्र में चले गए थे, जिस दिन पिताजी गए थे, उस दिन बड़े बेटे की उम्र 32 साल की थी और सबसे छोटा बेटा 18 साल का था। कारोबार बढ़ा, आगे बढ़ा, अब संपत्ति को लेकर के आपस में मनमुटाव हुआ। कौन कितनी संपत्ति ले? सब अपने-अपने क्लेम करने लगे। बड़े भाई का सब लिहाज करते थे, सीधे-सीधे बोलने की हिम्मत किसी में थी नहीं लेकिन बाकी दो भाइयों में आपस में बड़ा क्लेश था, बड़े भाई को इसकी जानकारी मिली। उसने अपने दोनों भाइयों को बुलाया, देखिये, आप इस बात को थोड़ा गहराई से समझिये, घटना की तरह मत देखियेगा। धर्म की समझ जीवन में कितनी शांति देता हैं, उसने दोनों भाइयों को बुलाया और बुलाने के बाद बोला, बोलो, क्या चाहते हो? वो दोनों बोले, हम अपना हिस्सा चाहते हैं। बड़ा भाई बोला, एक काम कर लो, मेरी उम्र अब 62 साल की हो गई हैं। मैंने पिताजी के बाद 30 साल तक ये सब कुछ साम्राज्य संभाला। ठीक हैं, एक काम कर लो, अब  ऐसे भी मुझे कोई ज्यादा लगाव रहा नहीं और अब मैं कुछ करना भी नहीं चाहता। तुम लोगो की उम्र अभी काम हैं और तुम्हारी जरूरतें भी ज्यादा हैं। मेरी तो केवल एक संतान हैं, एक बेटा हैं और वह भी योग्य हैं। मैंने उसे पढ़ा लिखा कर योग्य बना दिया, काम संभाल रहा हैं। मैं अब रिटायर होना चाहता हूँ और मैं इस उलझन से बचना चाहता हूँ। एक काम कर लो, तुम दोनों को जो लेना हैं, ले लो और मेरे लिए जो देना हैं दे दो। सीधा ऑफर तुम दोनों को जो लेना हैं ले लो और मेरे लिए जो देना हैं दे दो और नहीं चाहो तो तुम आपस में बांट लो, मेरा काम तो हो गया। मैं अपना मार्ग दूसरा चूनना चाहता हूँ और मेरा बेटा अपना काम कर ही लेगा। यह बात जब दोनों छोटे भाइयों ने सुना तो कहा, भैया, आप ऐसा कैसे कह रहे हो। आपने ही सबको खड़ा किया, पिताजी के बाद आप ही हमारे लिए पिता तुल्य हो, आप ऐसा क्यों कह रहे हो। उसने कहा, जब तुम हमें पिता तुल्य मानते हो तो पिता के द्वारा सौपी गई थोड़ी सी संपत्ति के पीछे तुम लोग आपस में उलझ क्यों रहे हो। जब हमारे पिताजी ही इस संपत्ति को नहीं ले जा सके तो हम तुम कौन होते हैं, ले जाने वाले, आपस में जो कुछ करना हैं, उसे सलट लो और मेरी तो तुम लोगों से एक राय हैं। एक काम करो, पिताजी के जाने के पहले तक की जो संपत्ति थी, उसे अलग करो और पिताजी के बाद की जो संपत्ति हैं, उसे बांट लो और एक काम कर लो, 40%-40% तुम लोग ले लो और मुझे 20% दे दो, मैं इतने में संतुष्ट हो जाऊंगा, मेरा बेटा संतुष्ट हो जाएगा और मेरा तुम लोगों से कहना हैं जो संपत्ति पिता ने छोड़ी, उसका एक ट्रस्ट बना दो और पारमार्थिक कार्य में लगा दो, वही हमारे पिता के प्रति कृतज्ञता होगी। भाई की बात दोनों भाइयों को समझ में आ गई और जब भाई ने कहा कि 40%-40% तुम लोग ले लो। दोनों भाई बोले, नहीं, तीनों का बराबरी से बंटवारा होगा और आपने जो कहा हैं, बिल्कुल सही कहा हैं, पिता के प्रति हमारी कृतज्ञता यही हैं कि पिता के द्वारा छोड़ी गई संपत्ति को हम पारमार्थिक कार्य में लगा दे। यह दृष्टिकोण, भाई ने संबोधा, आखिर धन हैं किसका, हैं यह तुम्हारे अंदर ऐसी समझ।

अगर ऐसी समझ विकसित हो जाए तो कभी झगड़ा होगा लेकिन मेरा-तेरा, तेरा-मेरा, चक्कर चलता हैं। कितने भाइयों के घरों में झगड़े, मैं अच्छे-अच्छे स्वाध्याय मुनिभक्तों के घरों में पारिवारिक झगड़े देखा हूँ, कइयों को तो सलटाया भी हैं। चंद संपत्ति के पीछे, यह व्यामोह हैं, जबकि मालूम हैं कि एक ढेला भी नहीं जाने वाला फिर भी भाई थोड़ा तो सोचो। जब यह शरीर भी तुम्हारे साथ नहीं जाने वाला, यह भी रख में परिवर्तित हो जाना हैं तो क्यों मोह करते हो, क्यों मेरा-तेरा-तेरा-मेरा करते हो, भूल जाओ और अपने जीवन की दिशा परिवर्तित करो, एक सही समझ विकसित लेकर के चलो तो जीवन का मजा आएगा, यही गृहस्थ का आकिंचन्यत्व हैं। भ्रान्ति तोड़ो, सत्य को पहचानने की कोशिश करो, जीवन को उस दिशा में अग्रसर करने का उद्यम करो तो जीवन में एक अलग मजा आएगा तो  तेरा, मेरा, तेरा-तेरा-मेरा इन तीनों से बचने के लिए क्या करो, एक बात अपने हृदय में अंकित कर लो ना तेरा, ना मेरा, जग चिड़िया रैन बसेरा। यह जीवन की सच्चाई हैं, किसी का नहीं हैं, संसार की कोई भी चीज किसी की नहीं हैं, ना तेरा, ना मेरा, जग चिड़िया रैन बसेरा, बस यह वाक्य अपने हृदय में अंकित कर लो स्थाई रूप से सारी जिंदगी खुश रहोगे, कोई दु:ख नहीं होगा। तुम्हारे भीतर का दु:ख तुमने स्वयं सृजित किया हैं, वो तुम्हारी वजह से हैं। यह मेरा, यह मेरा, यह मेरा, तू क्या तेरा-तेरा-तेरा रट रहा हैं। मेरी, मेरी रटते-रटते बीत गई उमरिया। ये उम्र बीत गई, जो तेरा हैं उसे पहचान यह तो रैन-बसेरा हैं, सुबह शाम का डेरा हैं, आना हैं और जाना हैं, कोई भरोसा नहीं, मौत के समय कोई काम आने वाले नहीं। जिसे तुम मेरा-मेरा कहते हो, जब मौत आये तो सारी संपत्ति को दांव पर लगा दो तो भी वह एक सांस के लिए तुम्हें बचा नहीं सकती। कोई तुम्हारा नहीं हैं, उसे समझो और अपने जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश करो।

भगवान महावीर के जीवन काल की एक घटना हैं जो आज के संदर्भ में बहुत ही प्रासंगिक हैं, हमारी आंखें खोलने वाली हैं। सम्राट श्रेणिक अपनी रानी चेलना के साथ राजगृही में रथ पर सवार होकर भगवान महावीर के दर्शन के लिए जा रहा था, रास्ते में वो देखता हैं कि एक तरुण तपस्वी पेड़ के नीचे बैठकर साधनारत हैं। उस तपस्वी को देखकर राजा श्रेणिक एक पल को मुग्ध हो उठा। इतने कांतिमान, दिव्यमान तपस्वी को उसने अपने जीवन में पहली बार देखा था, उसने महाराज को नमन किया और एक और बैठ गया पर मन ही मन में उसके अंतर्द्वंद चलने लगा कि आखिर इतने कांतिमान युवक को इस सन्यास के मार्ग को अंगीकार करने की जरूरत क्यों पड़ी। तब तक महाराज अपने ध्यान से बाहर उठे और श्रेणिक और चेलना के नमन करने पर दोनों को एक साथ सहज भाव से आशीर्वाद दिया और श्रेणिक पूछ बैठा कि स्वर्गों की कल्प कुसुम सैय्या में आनंद लेने वाली उम्र में आपने जंगलों का ये कंटकारी मार्ग क्यों चुना। अपनी इतनी सुंदर, सुकोमल देह को इन कंकरो और पत्थरों पर बर्बाद करने के लिए आप क्यों तुले हो तो मुनिराज ने कहा सम्राट केवल इसलिए कि मैं अनाथ था, केवल इसलिए कि मैं अनाथ था। राजा श्रेणिक अचंभित रह गया, इतने सुंदर, सुकुमार, देवों की तरह रूप वाले युवक को कोई नाथ नहीं मिला। सम्राट श्रेणिक के राज्य में कोई अनाथ नहीं रह सकता, मैं तुम्हें सनाथ करूंगा। महारानी चेलना का आंचल तुम्हें आश्रय देगा। महाराज! तुम, तुम्हारा सम्राट और तुम्हारी महारानी सभी तो अनाथ हैं। जो स्वयं अनाथ  हैं, वह दूसरे को सनाथ कैसे कर सकते हैं। श्रेणिक आश्चर्य, ऐसे तेजस्वी पुरुष को कोई नाथ नहीं मिला, कोई साथ नहीं मिला और ये मुझे अनाथ कहने की बात करता हैं, जिसके राज्य, महलों में स्वर्ग का वैभव भी न्योछावर होता हैं, उसे अनाथ कहता हैं। युवक भटका हुआ सा प्रतीत होता हैं लेकिन तभी मुनिराज ने अपने उद्गार प्रकट करते हुए राजा को, थोड़ा उसके भ्रम को दूर किया और कहा राजन! काश तुम अनाथत्व और सनाथत्व के परम अर्थ को जान पाते पर यह तो केवल अनुभव गम्य हैं, काश तुम अनाथत्व और सनाथत्व के परम अर्थ को जान पाते पर यह तो केवल अनुभव गम्य हैं। श्रेणिक ने कहा, यदि आपत्ति ना हो तो मैं आपका अनुभव जानना चाहता हूँ तो मुनिराज ने अपनी कहानी सुनाना शुरू की। उन्होंने कहा, उज्जैनी के राजा मेघरथ का नाम आपने सुना होगा, मैं उसका ही पुत्र मेघ विजय हूँ, एक रोज मेरे शरीर में तीव्र दाह ज्वर व्याप्त हो गया और उस ज्वर की तीव्रता में मेरे रोम-रोम अंगारे की तरह उमेठने लगे। उस घड़ी बड़े-बड़े वैद्य आये, चिकित्सा की पर कोई औषधि काम नहीं कर सकी। यही मेरा अनाथत्व था। बड़ी-बड़ी मणियाँ, मन्त्र और औषधियों का प्रयोग किया गया पर वे भी मेरी पीड़ा को नहीं हर सके, यही मेरा अनाथत्व था। मैं जब अपनी पीड़ा से कराहता तो मेरे परिजन अपनी आंखें मूंद लेते, यही मेरा अनाथत्व था। मेरे पिता का प्यार और मेरी मां की ममता भी मेरी पीड़ा को ना हर सकी, यही मेरा अनाथत्व था और मेरी एक प्राण प्रिया पत्नी थी जिसे मैं हृदय से चाहता था और वह भी मुझे खूब चाहती थी, वह 24 घंटे मुझ में ही रमी रहती थी, मेरी पीड़ा के पीछे अपने खाने-पीने और सोने की भी सुध नहीं रखती थी लेकिन एक रोज जब मैं अपनी पीड़ा से कराह रहा था, वह मेरे सिरहाने बैठी। मेरे मुख से कराह निकली और उसकी आंखों के आंसू का एक बूंद मेरे गाल पर गिरा और व्यर्थ होकर ढुलक गया और मैं पूर्ण रूप से अनाथ हो गया। तभी मैं आपने भीतर जाकर जाग उठा और  मैंने मन ही मन संकल्प लिया कि इस रोग से मुक्त होते ही मैं भगवान महावीर के चरणों में जाकर प्रवार्जित हो जाऊंगा, दीक्षित हो जाऊंगा और राजन! इतना सोचते ही मेरा बुखार, मेरा ज्वर उतरते ज्वार की भांति उतर गया और रात भर में मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गया। सुबह उठते ही मैंने अपने पूर्ण निर्णय के अनुसार भगवान महावीर के चरणों में जाकर यह दिगम्बरत्व को धारण कर लिया और अब मैं पूर्ण सनाथ हो गया।

राजन! समझो, संसार की हर वस्तु अनाथ हैं, संसार का हर व्यक्ति अनाथ हैं। कोई किसी का साथ देता नहीं, ये तो बहुत छोटी बात हैं। साथ दे नहीं सकता, यह सच्ची बात हैं। सब संयोग हैं, नदी-नाव संयोग हैं, इस सच्चाई को समझोगे तो कभी किसी के प्रति ममत्व का भाव नहीं होगा, मन में एक अलग प्रकार की प्रसन्नता होती, एक अलग प्रकार की आनंद की अनुभूति होगी और जीवन में रस आएगा तो बस चार बातें याद रखने की हैं- मेरा, तेरा, मेरा, तेरा से बचना हैं और क्या करना हैं, न तेरा न मेरा, जग चिड़िया रैन बसेरा। बस यही वाक्य दोहराना तो कभी उलझोगे नहीं, फिर कभी उद्वेग नहीं आएगा, फिर कभी अशांति नहीं आएगी, जीवन में एक अलग आनंद की अनुभूति होगी, वो आनंद अनुभूति सबके हृदय में हो। जो जीवन की सच्चाई हैं, उसे हम आत्मसात कर ले, छोटे से शब्द हैं, अर्थ गहरा हैं। यदि हम इन्हे अपना लेंगे तो निश्चयतया अपने जीवन को सुखी कर सकेंगे। बोलिये आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की जय।

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