अपनी योग्यता को कैसे संवारे

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अपनी योग्यता को कैसे संवारे

नदी के किनारे, एक पत्थर लगा। सैलानी उस पर बैठकर नदी की धार के साथ अठखेलियाँ खेलते, तो कभी धोबी उसी पत्थर पर कपडा फींचा करता था। एक रोज एक शिल्पी की नजर उस पत्थर पर पड़ी। उसने पहली ही नजर में उस पत्थर को पहचाना, उसने उस पत्थर को वहाँ से निकाला, अपनी कार्यशाला में लाया और उसे तराशना शुरू किया। तराशते तराशते उस पत्थर को आकार मिलना शुरू हुआ और थोड़े ही दिनों में कल तक पत्थर की तरह पड़े रहने वाला, भगवान का रूप धारण कर लिया। हर पत्थर में भगवान है और पत्थर के भीतर छुपे भगवान को प्रकटाना ही भारत की संस्कृति है। पत्थर, पत्थर है। पर हर पत्थर से भगवान प्रकट नहीं होता, हो सकता है। पर किस पत्थर से भगवान प्रकट होते हैं? उसी पत्थर से जिसे लोग पहचानते हैं। और पहचानने के बाद जिसे योग्य शिल्पी का सानिध्य मिल जाता हैं। संत कहते हैं हमारा जीवन भी एक पत्थर की भांती हैं। इस पत्थर के भीतर भगवान बनने की योग्यता है। आवश्यकता है उसे पहचानने की और तराश कर के उसे उभारने की। आज बात “य” की है, चार बातें आप सब से करूँगा। योग्यता, अयोग्यता, योग्य, और अयोग्य। बस इन्ही चार बातों पर हमें विचार करना हैं।

सबसे पहली बात है अपने भीतर अंतर्निहित योग्यताओं को पहचानने की। हर मनुष्य के भीतर कोई न कोई विशेषता होती है। उसके अंदर योग्यता, योग्यता एक नहीं असीम योग्यतायें होती हैं। पर मुश्किल केवल इतनी है कि वो उसे पहचानता नहीं। और पहचानता नहीं यही बात नहीं और पहचानना चाहता भी नहीं। संत कहते हैं – तुम क्या हो इसे पहचानो। चाहे हम आध्यात्मिक जीवन की बात करें अथवा व्यावहारिक जीवन की। लोक और लोकोत्तर दोनों क्षेत्रों में प्रगति वे ही कर सकते हैं जो अपनी योग्यताओं को पहचान करके उसको उभारते हैं। संत कहते हैं – अपने भीतर की योग्यता को पहचानिए। अध्यात्म  की साधना तो अपने भीतर की संभावनाओं को पहचानने के बाद ही होती है। भगवान कहते हैं – कि तुझे आगे बढ़ना है तो पहले अपने आपको जान कि तू है क्या? तू अपने आप को जिस रुप मान रहा है, तू अपने आप को जिस रुप जान रहा है, तू अपने आपको जिस रूप अनुभव कर रहा है और तुमने अपने आप को जिस रूप में अपनी पहचान बनाई है, वह तू नहीं है। तेरी योग्यता अनंत है, तेरी क्षमता असीम है, तू अनंत सुख का भंडार है, तेरे भीतर अनंत ज्ञान है, अनंत शक्ति है, तू अतुलनीय हैं, अनुपम हैं उसे पहचान! जिस दिन तू अपने आप को अच्छे तरीके से जान लेगा, अपने भीतर छिपी हुई शक्तियों को पहचान लेगा और अंदर की योग्यता का आभास कर लेगा उसी दिन तेरा जीवन धन्य हो जाएगा। तेरा जीवन धन्य हो जाएगा तू निहाल हो जाएगा। सबसे पहले अपनी योग्यता को पहचान। जब तक तू नहीं जानेगा तब तक तो दीन-दुःखी दरिद्री बना रहेगा। जिस दिन तू जान लेगा उसी दिन तू निहाल हो जाएगा, मालामाल हो जाएगा। जैसे कोई व्यक्ति बहुत प्यासा हो, पानी के लिए तरसता हो और जहाँ वो रहता है उसी के नीचे अपार पानी का स्रोत हो तो उसके लिए हम क्या कहेंगे? पानी के लिए प्यासा था, तरस रहा था और जब अपनी तरस और पीड़ा की बात लोगों तक पहुँचाई, लोगों ने कहा भैया! तू इतना तरसता क्यों है, तड़पता क्यों है, प्यासा क्यों है? घबरा मत! जिस चट्टान पर तू बैठा है इसी के नीचे जल का अजस्त्र स्रोत है। इस चट्टान को हटा, देख! कैसी जल की धारा फूटती है और उसने उसे समझा। उस चट्टान को हटाया भीतर का स्रोत्र फूट गया और वह अपनी प्यास को पूरी तरह तृप्त कर लिया, बुझा लिया। आप बताइए ऐसे व्यक्ति को हम क्या कहेंगे? वह अपने आप को भाग्यशाली समझेगा ही न। वस्तुतः सामने वाले ने पानी दिया नहीं, केवल पानी होने का बोध कराया। काश उसे इस बात का पहले का एहसास होता कि पानी तो मेरे पास है, मुझे इधर उधर भटकने की जरूरत क्या है? पानी के ऊपर बैठकर के मैं प्यासा तड़पता रहा। मैं कितना अभागा हूँ! काश! मुझे इसका पता होता, तो मुझे प्यासा तड़पना नहीं पड़ता। संत कहते हैं – यही स्थिति हर प्राणी के साथ है। तुम प्यास से तड़प रहे हो पर उस प्यास को बुझाने का पानी भी तुम्हारे पास है। पर उस पानी के ऊपर अज्ञान की चट्टान पड़ी है, जो तुम्हें उसका बोध नहीं करने दे रही है। जिसके कारण तुम उसे पहचान नहीं पा रहे हो। और जब तक इस अज्ञान की चट्टान को नहीं हटाओगे उस जल के अजस्त्र स्रोत का रसपान नहीं कर पाओगे। उस चट्टान को हटाओ वो अज्ञान हमारे जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। शास्त्र की भाषा में इसे ही मिथ्यात्व कहा जाता हैं। उस मिथ्या अज्ञान की चट्टान को जब हम हटाते हैं तब हमें हमारी पहचान होती है और भगवान कहते हैं – अरे! तू अपने आप को दीनहीन भिखारी मान रखा है, अपने आप को सुखी दुःखी मान रहा है तू तो परम आनंद का धाम है। इस धरा में तेरे समान और कोई दूसरा है ही नहीं। इसे पहचान! जब एक बार पहचान लोगे तो फिर इधर उधर भटकने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, इधर उधर भटकने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

अध्यात्म की साधना अपने आप की पहचान से शुरू होती है और उसकी उपलब्धि से पूर्ण होती है। अपनी योग्यता को पहचानिए – नंबर वन। नंबर दो अपनी योग्यता को उभारिये। योग्यता को पहचानने के बाद, योग्यता को उभारने का उद्यम। जब हम साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं और जब हमें यह कहा जाता है कि मैं एक शुद्व ज्ञान दर्शनमय चेतन आत्मा हूँ, आनंद स्वरूप हूँ, चैतन्य स्वरूप हूँ, सुखस्वरूप हूँ, देहातीत हूँ, विकार रहित हूँ, मैं आनंद का धाम हूँ, तो जो मैं हूँ उसकी अभिव्यक्ति के लिए प्रयत्न करें। मेरे भीतर कितनी शक्ति है पहले इसे जानो फिर उसकी अभिव्यक्ति का उद्यम करो। योग्यता को पहचानने के बाद योग्यता को उभारना, और उभरेगा कब? पाषाण के भीतर भगवान है यह केवल एक शिल्पी जानता है। आम आदमी की आँखों में पाषाण तो केवल पाषाण के रूप में दिखाई पड़ता है लेकिन शिल्पी! शिल्पी जब उस पाषाण को देखता है तो उसे पाषाण नहीं उसके भीतर छिपे भगवान नजर आते हैं। अब भगवान को प्रगटाने के लिए उसे धीरे धीरे तराशना शुरू करता है। और ज्यों ज्यों तराश जारी होती हैं, आगे बढ़ती है, उस पाषाण के भीतर छिपे भगवान का आकार उभरना शुरू होता है। बस स्वयं की योग्यता को तराशने का नाम ही योग्यता को उभारना है। तराशो! यही साधना हैं। हमारी साधना का मूल उद्देश्य हमारे ऊपर जो विषय विकार है, हमारे अंदर जो दोष है, दुर्बलता है, दुर्गुण है इन्हे दूर करो। इन्हे हम ज्यों ज्यों दूर करते जाएंगे, त्यौं-त्यौं हमारी योग्यता अपने आप उभरकर के आगे आने लगेगी। और जब हमारी योग्यता उभर जाएगी, एक बार योग्यता को उभारने के बाद उसे निखारना हैं ।

आप देखते हैं कोई शिल्पकार मूर्ति बनाता है तो प्रथम चरण में उसे तराश कर उसके अक्ष को उभारता हैं और जब उभर अक्ष जाए तो उसके बाद उस पर पॉलिश करके उसे निखारता है। उभारना अलग हैं, निखारना अलग हैं। योग्यता को पहचानना, योग्यता को उभारना और योग्यता को निखारना यानी अपनी साधना में और प्रखरता लाना पॉलिश करना। ध्यान में डूबने का मतलब है अपनी योग्यता को पूरी तरह निखार लेना, योग्यता को पूरी तरह निकाल लेना और ज्यों ज्यों हम योग्यता में निखार लाते हैं तो हमारी योग्यता पूरी तरह प्रकट हो जाती हैं। तो जो मेरे भीतर अंतर्निहित योग्यताएं हैं मैं उसे जानू, पहचानू, उसे उभारूँ, उसे निखारूँ, तब कहीं जाकर अपने भीतर की योग्यता को प्रकट कर पाएंगे। अध्यात्म की साधना का निचोड़ यही है कि तू चैतन्य आत्मा है इसे तू पहचान। अपने भीतर की उस आत्मा को उभारने के लिए आत्मा में छाए हुए विकारी भावनाओं का शमन करना शुरू कर, उनका शोधन करना शुरू कर यह सारे दोष है, यह दुर्बलता है, यह दुर्गुण है, जो तेरे स्वरूप को प्रकट नहीं होने देते। इन्हें धीरे-धीरे, धीरे-धीरे शांत करो। ज्यों ज्यों यह शांत होंगे तेरे भीतर की योग्यता उभरेगी और ज्यों ज्यों

योग्यता उभरें अपनी साधना की प्रखरता को बढ़ाकर उसे और निखारो, और निखारो, और निखारो। और जब तुम ध्यान की गहराई में डूब जाओगे तो एक पल तुम्हारी योग्यता पूरी तरह प्रकट हो जाएगी। अभी तेरे भीतर परमात्मा होने की योग्यता है और जब तू साधना के शिखर पर पहुँचेगा तो तू खुद परमात्मा हो जाएगा, यही साधना का निचोड़ है। योग्यता को पहचानने से लेकर उसे प्रकटाने तक की संपूर्ण प्रक्रिया ही हमारी साधना का एक रास्ता है, मार्ग है, क्रम है हम उसे पहचाने। तो यह अध्यात्मिक जीवन की बात है। अपनी योग्यता को पहचान कर उस पर विश्वास और भरोसा करना, जैन शास्त्र की भाषा में सम्यक दर्शन कहलाता है। यानि अपनी दृष्टि को सही बना लेना और जब यह होगा इस सम्यक दर्शन की तुम्हे प्राप्ति होगी तब कहीं जाकर तुम अपने भीतर के समत्व भाव को जगा कर परमात्मा को प्राप्त कर पाओगे। जैन दर्शन कहता है “अप्पा सो परमप्पा” आत्मा ही परमात्मा है, हर आत्मा में परमात्मा है। पर विडंबना केवल यह है कि वो उसे जानता नहीं, पहचानता नहीं और यदि उससे कहा जाए तो भरोसा नहीं करता। उसे इसका पता नहीं, उसका एहसास नहीं अपने आपको दीन-हीन मान बैठें।

एक बच्चे का बच्चा बचपन में खो गया, करोड़पति का बच्चा बचपन में खो गया। माँ-बाप ने उसे खूब खोजने की कोशिश की, वह मिला नहीं। किसी भिखारी ने उसे पाला, पाँच वर्ष का बच्चा भटका और भिखारी के पास रहा। पंद्रह वर्ष बाद उसके चाचा की नजर उस पर पड़ी तब तक उसके माता-पिता गुजर चुके थे। उसके पास जो कुछ था माता-पिता का, वह सब भी हाथ से निकल चुका था। पंद्रह वर्ष बाद उसकी चाचा की नजर जब उस पर पड़ी, उन्होंने उसे पहचान लिया और बोला-तू कौन? तू अपने बारे में कुछ जानता नहीं? बोला-मैं तो भिखारी हूँ बोला बेटा -तू भिखारी नहीं, तू तो करोड़पति सेठ का बेटा और आज भी करोड़पति है। क्यों मजाक कर रहे हैं बाबूजी! मैंने तो जब से होश संभाला, तबसे अपने आप को भिखारी के रूप में ही देखा और मैं तब से ही भिखारी हूँ। बेटे, देख- मैं तेरे साथ मजाक नहीं कर रहा, तुझे सत्य का बोध करा रहा हूँ। तू अपना बायाँ हाथ दिखा, बायाँ हाथ देखा उसमें गुदना लिखा था। बोला – बेटा! मुझे पता है तेरे पिता ने बचपन में तेरे हाथ में गुदना लिखवाया था, यह तेरा नाम है और यह तू है। अब मैं तेरे चेहरे-मोहरे से तुझे अच्छी तरह से पहचान गया हूँ, तू यह है अब तू अपने भिखारीपन को छोड़, भिखारीपन को छोड़, बोले-आप कैसी बात कर रहे हो, में इनको छोड़ दूंगा तो रहूँगा कहाँ? मेरा है कौन? मैं तो दीन-दरिद्र। बोले – बेटा! तू आज भी करोड़पति है अपनी मानसिकता को बदल, तू भिखारी नहीं अभी भी करोड़पति है। क्या बात कर रहे हो चाचा! हाँ! मैं कह रहा हूँ तू अभी भी करोड़पति है। बोले- क्या, बोले यह तेरे गले में क्या है? यह ताबीज है, बोले -कब से, मुझे नहीं पता, मैंने जब से होश संभाला है तब से यह ताबीज देख रहा हूँ। बस ठीक, इस ताबीज़ को खोल, देखने में तो साधारण सी ताम्बे की ताबीज़ थी, उनने ताबीज की पहली परत हटाई तो अंदर चांदी की परत निकली, दूसरी परत को हटाई तो सोने की परत निकली, देखकर उसकी आँखें चमक गई कि मैं कहाँ कंगाल बना, तांबे के भीतर चांदी, चांदी के भीतर सोना, पर चाचा ने कहा-बेटा! अभी नहीं रुकना। इस सोने की भी परत को हटा और जैसे ही सोने की परत को हटाया उसके भीतर छिपा नगीना नजर आ गया। एक बेश-कीमती नगीना था। उसे देखकर उसकी आँखें फटी रह गई। यह क्या! बेटा-मैं इसीलिए तो कहता हूँ कि तू आज भी करोड़पति है, छोड़ इसको और आ मेरे साथ। मुझे पता है बचपन में तेरे पिता ने तेरे गले में यह ताबीज बांधी थी। तेरे भीतर यह ताबीज जो करोड़ों का ताबीज है। काश! तुझे इसका पहले पता लगता तो तुझे भिखारी नहीं बनना पड़ता, भीख मांगने को मजबूर नहीं होना पड़ता। उस भिखारी को बोध हो गया और वह वापस निहाल हो गया।

बंधुओ! यह जीवन की एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि ना केवल उस भिखारी के साथ, अपितु संसार के हर प्राणी की दशा भी यही हैं। तुम्हारे भीतर एक बहुत बेशकीमती नगीना है, जो गले के ताबीज की तरह तुम्हारे ऊपर है पर उसका परिचय तभी होगा जब तुम अपने दोषों के, दुर्बलताओं के, दुर्गुणों के तीन आवरण को उतार फेंकोगे, तब तुम्हारे भीतर का वह परमतत्व प्रकट होगा। पहचानो! अपनी योग्यता को जानो! योग्यता को पहचानो! उसका सही आकलन करके अभिव्यक्ति देने का प्रयत्न करें। तो अपनी योग्यता, आध्यात्मिक योग्यता। हमारे भीतर की आध्यात्मिक योग्यता इतनी अधिक हैं कि उसे हम प्रकटा लें तो हमारे जीवन की भौतिक समस्याएं भी हमारे पास नहीं फटक सकती। कही बार लोग कहते हैं-महाराज! लौकिक जीवन की समस्याओं का समाधान तो लौकिक तरीके से ही होता हैं। लेकिन सच्चाई कुछ और है। यदि तुम्हारा अध्यात्मिक चेतन जाग गया, तुम्हारी अध्यात्मिक चेतना प्रकट हो गई तो तुम अपने जीवन में आने वाली लौकिक समस्याओं से भी मुक्त हो सकते हैं।

बात मैं आपसे करता हूँ- भौतिक समस्याओं का आध्यात्मिक समाधान! हम अपनी योग्यता को जानकर के कैसे प्रकट कर सकते हैं इसे थोड़ा गहराई से समझने की कोशिश कीजिए। योग्यता को पहचानने वाला व्यक्ति, अपने आत्मविश्वास से लबरेज रहता है। मुझे मेरी काबिलियत पर भरोसा होगा तो मेरा आत्मविश्वास हमेशा टिका रहेगा और जीवन में किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए सबसे पहली आवश्यकता आत्मविश्वास की है। यह आत्मविश्वास कब प्रकट होगा जब मुझे मालूम होगा कि मेरी क्षमता क्या है। जब तक मुझे इस बात का बोध नहीं, मैं छोटी-छोटी बातों से प्रभावित होगा, बोध हो जाने के बाद बड़ी-बड़ी बातें भी मुझे विचलित नहीं करती। मैंने अपनी आत्मसत्ता को जान लिया और मैंने यह समझा कि मेरे साथ जो भी चीजें जुड़ी हुई है, मेरे जीवन के जो भी दुःख हैं वह मेरे नहीं है बाहर से आयातित हैं। मैं तो इन सब से ऊपर उठने की क्षमता रखता हूँ। मैं अपने जीवन में आने वाले कर्मों की बाधाओं को उखाड़ने में समर्थ हूँ, यह विश्वास जब मेरे भीतर आएगा तो बाहरी बाधाओं को हम क्यों नहीं उखाड़ पाएंगे, सहपाएंगे, अलग से, आराम से कर सकते हैं। जैसे व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन से अपने भीतर की बाधाओं की, जिसकी जड़ कर्म के रूप में, उसे उखाड़ फेंकता है तो बाहर की बाधाएं क्यों नष्ट नहीं होगी? वह अपनेआप नष्ट होगी, उसके लिए ज्यादा कुछ करने की आवश्यकता और अपेक्षा शेष नहीं रहेगी। यह बताइए अपने जीवन में अपनी दुर्बलताओं से कौन हारता है? दुर्बलताओं से कौन हारता है? जिसका अपने आप पर भरोसा नहीं रहता और अपने आप पर भरोसा किसका नहीं होता? जो योग्यता को पहचानता नहीं। मैं जब अपने आपको अनंत सुख का धाम समझ लिया तो मेरा मुझ पर भरोसा होगा। जब मेरे मुझ पर भरोसा होगा तो पर-मुखापेक्षिता अपने आप छूटेगी। और जैसे ही पर-मुखापेक्षिता छूटेगी मेरे जीवन की दिशा-दशा बदल जाएगी, छोटी-मोटी समस्याएं, छोटी-मोटी बाधाएं, मेरे लिए बाधा के रूप में दिखेगी ही नहीं, मेरे अंदर से एक ही पुकार होगी, मैं इसे कर सकता हूँ और करके निकलो। लौकिक क्षेत्र में आपके सामने कोई भी समस्या आये, समस्या को देखकर घबराने की जगह, यह कैसे होगा यह मत सोचो, कैसे करना हैं यह सोचो। एक आदमी अपने जीवन में आई हुई समस्या को देखकर चिंता करता है आखिर यह कैसे होगा? लेकिन ज्ञानी व्यक्ति यह सोचता कैसे नहीं होगा कैसे करना हैं। मैं इसे कर सकता हूँ -I can do it.

यह हो जायेगा, वह विश्वास अपने भीतर जगाइए। मेरे पास अनंत क्षमता है कभी हताशा हावी नहीं होगी। जिस मनुष्य को अपनी योग्यता का भरोसा होता है वह कभी हताश नहीं होता और जिसे योग्यता का विश्वास नहीं होता वह कभी सफल नहीं होता। अपनी योग्यता को हमें पहचाना हैं, पहली बात। मैं सब कुछ कर सकता हूँ मुझमें क्षमता है और उसे उभारने का प्रयत्न करें, निरंतर उभारें, प्रयास करें, साधना करें और साथ-साथ निखारे भी।

एक बात बताता हूँ योग्यता आप पहचानो, योग्यता को उभार भी लो और योग्यता के लिए सक्रिय भी हो जाओ लेकिन आप उसे निखारोगे नहीं तो आपकी योग्यता कुंद हो जाएगी। जैसे आपको उदाहरण देता हूँ एक व्यक्ति के पास अच्छा टैलेंट है। उसने जाना मेरा टैलेंट है, मेरा ‘आई क्यू लेवल’ बहुत हाई है, मैं पढ़ सकता हूँ। फिर उसने अपनी योग्यता को उभारने के लिए पढ़ाई शुरू कर दी और अच्छे से पढ़ाई करके उसने योग्यता को उभार भी लिया लेकिन एक बार पढ़ाई करने के बाद किताबें बंद करके रख दी उसका प्रयोग नहीं किया, उसे निखारा नहीं, प्रैक्टिस में नहीं लिया, अभ्यास नहीं किया तो उसका वह ज्ञान कहाँ  रहेगा? टिकेगा या चला जाएगा? खत्म हो जाएगा। निखारने के लिए अभ्यास चाहिए ना। मेरे पास कितनी भी बड़ी शक्ति क्यों ना हो यदि मैं उसको अपने प्रैक्टिस में नहीं लूंगा तो वह कुंद हो जाएगी। धार देना जरूरी है, प्रैक्टिस में नहीं लूंगा तो वह मंद हो जाएगी, धार देना जरूरी है। एक लकड़हारा बेरोजगार था, एक सेठ ने उसे काम दे दिया। बोला, ठीक है, तुझे पेड़ काटना है तुम पेड़ काटो तुम्हें कुल्हाड़ी देते हैं। एक धारदार कुल्हाड़ी उसे दिया गया और कहा गया कि तुम दिन भर में जितने पेड़ काटोगे, प्रत्येक पेड़ के हिसाब से ₹100 तुमको देंगे। पहले दिन उसने एक कुल्हाड़ी से दिन भर में 30 पेड़ काट दिए, ₹3000 मिल गए। दूसरे दिन उसी कुल्हाड़ी को लेकर के वो दिन भर मेहनत किया और मुश्किल से 15 पेड़ काट पाया। रुपये उसे ₹1500 मिले। तीसरे दिन वह सुबह से शाम तक पसीना-पसीना रहा पर कुल 5 पेड़ काट पाया तो मात्र ₹500 मिले। उसके मन में ये बात आई, क्या बात है? पहले दिन मैंने ₹3000 कमाए, दूसरे दिन ₹1500, तीसरे दिन ₹500। क्यों? जबकि मैं पूरी ताकत लगा रहा हूँ, क्या मेरी ताकत कम हो गई? इतनी शक्ति कम हो गई, क्यों नहीं कर पा रहा हूँ? उसने जाकर अपने मालिक से कहा कि मैं मेहनत तो बहुत कर रहा हूँ, पर पता नहीं मेरे साथ किसी ने कुछ कर दिया पेड़ कटते ही नहीं। आजकल आप लोगों को यह वहम बहुत जल्दी होता है, किसी ने कुछ कर दिया। यह पेड़ नहीं कटते, मेहनत ज्यादा, पहले दिन मेहनत कम, समय कम लगा और मैंने 30 पेड़ काटे, दूसरे दिन 15 पेड़ काटे, तीसरे दिन 5 पेड़। क्या बात है भाई? उन्होंने कहा, कुल्हाड़ी दिखा। भाई, केवल कुल्हाड़ी चलाने से काम नहीं होगा, कुल्हाड़ी में धार देना भी जरूरी है। तुमने पहले दिन 30 पेड़ काटे तो उसकी धार थोड़ी मंद हो गई। यदि पेड़ काटने के साथ कुल्हाड़ी की धार को भी ध्यान में रखा होता और उसे धार दे दिया होता तो दूसरे दिन 30 क्या, तुम 40 पेड़ काटने में समर्थ हो गए होते। केवल प्रयास जरूरी नहीं है, उसमें धार दीजिए, योग्यता को निखारिये। योग्यता को निभाने का कोशिश कीजिए तब आप अपने भीतर छिपी हुवी योग्यताओं को प्रकट कर सकेंगे। तो पहली बात योग्यता, योग्यता के संदर्भ में दो बातें और कहूँगा। दूसरों की योग्यता का सत्कार कीजिए और स्वयं की योग्यता का अभिमान कभी मत कीजिए। देखने में आता है, कुछ लोग होते हैं जिन्हे अपनी योग्यता का कोई भरोसा नहीं होता। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो अपनी योग्यता का अभिमान करते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं जो दूसरों की योग्यता का सम्मान नहीं करते, तिरस्कार करते हैं। यह तीनों स्थितियाँ ठीक नहीं। अपनी योग्यता को पहचान कर उसे उभारने की बात तो मैंने आपसे की। अगर तुम्हारे अंदर कोई योग्यता है तो उसका अभिमान मत करना। कई लोग ऐसे हैं, जो अपनी योग्यता का जरूरत से ज्यादा अभिमान करते हैं, उनके भीतर सुपीरिऑरिटी कॉपलेक्स बन जाता है। उनको लगता हैं कि मेरे आगे कोई टिकता ही नहीं। सच्चे अर्थों में योग्य व्यक्ति की पहचान नहीं है। तुममें जो भी काबिलियत है, जो भी योग्यता है निश्चयतया वह तुम्हारी एक उपलब्धि है लेकिन इस उपलब्धि की सार्थकता तभी और केवल तभी होगी, जब तुम औरों की योग्यता का सम्मान करना सीखो, अभिमान नहीं। अभिमानी का तो सिर नीचा होता है। रावण के पास उसे अपनी शक्ति का बड़ा अभिमान था, रावण के पास योग्यता भी थी। वह तो आकाश में उड़ने की क्षमता रखता था, वह विद्याधर था, वो योग्य था लेकिन रावण का पतन उसी योग्यता के अभिमान ने करा दिया। ध्यान रखना, योग्यता का निखार, हमें शिखर पर पहुँचाता है तो अभिमान हमारा पतन कर देता हैं। कई बार लोग अपने तुच्छ अभिमान में औरों का तिरस्कार करते हैं और उस तिरस्कार के कारण फिर स्वयं को नीचा देखना पड़ता है। आज कोई आदमी भी तुम्हें बहुत साधारण दिख रहा है तो उसे यह सोच कर के कि यह किसी काम का नहीं है, अयोग्य नहीं है, उस की अवमानना मत करना। हो सकता है, कल वह तुमसे आगे निकल जाए। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ, जो थोड़ा संपन्न था, कारोबार अच्छा चलता था। उसके बाजू में जो व्यक्ति रहता था, अत्यंत साधारण, छोटा सा मकान पर बड़ा मृदुभाषी और विनम्र था। लेकिन ये व्यक्ति अपनी शक्ति और संपन्नता के अभिमान में अक्सर उसका तिरस्कार किया करता था, उसे अपने आगे एकदम नाचीज समझता था, उसे लगता था की ये कुछ कर ही नहीं पाएगा लेकिन कहते है एक दिन घूरे के दिन बदलते हैं। उसका बेटा बहुत होशियार था वो पढ़ा और उसने IIT पास आउट किया। लोगों के सहयोग से उसकी पढ़ाई हुई और उसे एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई और उसका शुरुआती पैकेज 28 लाख का था। वो लड़का अपने पिता का भक्त था, कोई किसी प्रकार की कमी नहीं थी और जब उसकी कमाई होने लगी तो उसने अपने घर में पैसा लगाना शुरु किया। बढ़िया मकान बना दिया फिर अपने पिता के लिए गाड़ी दे दी। अब उसके इस स्टेटस को देखकर वह आदमी डिप्रेशन में आ गया। अरे, यह आदमी मेरे से इतना आगे बढ़ गया। अभिमानी की एक बहुत बड़ी दुर्बलता होती है। वो अपने आप को ऊँचा उठाने की कोशिश कम करता है, किसी को ऊँचा उठता देखकर तकलीफ ज्यादा पाता है। कल तक जिसे वह तुच्छ समझता था, आज इतना ऊँचा। हालाँकि आज भी उस व्यक्ति के हृदय में सामने वाले के प्रति वही सम्मान लेकिन जहाँ हमारे भीतर सुपेरियरिटी का कांपलेक्स जुड़ता है, वह कहीं ना कहीं हमें अपनी अक्षमता का एहसास भी कराए बिना नहीं रहता, वह स्थिति उसके साथ हो गई। मैं आप से कहता हूँ, आपके जीवन में भी कभी ऐसा हुआ होगा कि किसी को आप एकदम अयोग्य समझते होंगे, उसकी उपेक्षा करते होंगे, उसका तिरस्कार करते होंगे, उसका अपमान और अनादर आपने किया होगा लेकिन समय पाकर वह कहीं आपकी आशा और अपेक्षाओं के विरुद्ध आप से भी आगे निकला होगा। उस समय क्या फीलिंग?

एक अच्छे मनुष्य की यह पहचान है, योग्यता को बढ़ाएं, योग्यता को जगाए, योग्यता को निखारे और सामने वाले की योग्यता का सम्मान करें, अभिमान नहीं। आजकल कोई भी समाज में, घर में, परिवार में, कोई भी योग्य आदमी होता है, लोग उसकी योग्यता का मजाक उड़ाते हैं, उससे ईर्ष्या करते हैं, उसका सत्कार कम करते हैं, सम्मान कम करते हैं, जिसके परिणाम स्वरुप आज हमारी प्रतिभाएं कुंठित होती है, उन्हें अवसर नहीं मिलता और हमारे घर-परिवार और समाज का प्रेम, समरसता, आत्मीयता छिन्न-भिन्न हो जाती है। जिसमें जो योग्यता है, तुम्हारी कोशिश होनी चाहिए कि तुम उस योग्यता का सम्मान करो, सत्कार करो, उसको और उभारने की कोशिश करो तो आप को समझ में आएगा। एक बात, यह तो योग्यता की हुई और दूसरी बात अयोग्यता, अपनी अयोग्यता को देखो, औरों की अयोग्यता को नहीं। कई बार लोगों के साथ ऐसा होता है, उसको अपने अलावा बाकी सब अयोग्य दिखते हैं, यह प्रवृत्ति ठीक नहीं। मेरी क्या योग्यता है, मेरी क्या कमियाँ है, उसे मैं देखूँ और मेरी उपलब्धि इसी में है कि मैं अपनी अयोग्यता को योग्यता में बदल डालूं, बदला जा सकता है। यदि हम अपनी कमियों को जाने, उसका एहसास करें और उसे दूर करने का प्रयास करें, अयोग्यता भी योग्यता में परिवर्तित हो जाएगी। लगन चाहिए, निष्ठा चाहिए, समर्पण चाहिए, हमारे संघ में एक महाराज, हमारे साथ दीक्षित हुए, नाम नहीं ले रहा हूँ, उनके साथ यह होता था कि एक कायोत्सर्ग करें तो एक झपकी आती थी। कायोत्सर्ग करने में भी झपकी, खड़े-खड़े सामायिक करते थे तो भी उनको झपकी आती थी। कर्म का उदय। तो हमारे साथ के कई महाराज जी उनको देखकर के हँसते थे कि यह क्या कर रहा है, यह क्या करेगा। जिनको आचार्य भक्ति करने में झपकी आ जाए, एक कायोत्सर्ग करने में झपकी आ जाए लेकिन एक दिन गुरुदेव ने कहा, देखो, कभी किसी का उपहास मत उड़ाओ, इसके प्रयास में कोई कमी नहीं है, यह जीव पुरुषार्थी है, आज तुम इसका मजाक उड़ा रहे हो, कल यह तुमसे आगे भी बढ़ सकता है। और उन्होंने वो कर दिखाया, कर दिखाया। लगन के साथ उन्होंने अध्ययन किया, ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन आज व्याकरण में चोटी के विद्वान बन गए। यह स्थिति है। जिसके भीतर योग्यता नहीं थी, उसने अपने भीतर की योग्यता को जगा लिया। तुम देखो, तुम्हें क्या लगता है, किस काम को मैं नहीं कर सकता, जो काम नहीं कर सकता, उसको कर पाने की क्या संभावनाएं है। सीखो, सीखने का कोई अंत नहीं होता और मनुष्य ज्यों-ज्यों सीखना शुरू करता है त्यों त्यों उसकी योग्यता में निखार आता है।

तो पहली बात अपनी अयोग्यता को जानो और उसे योग्यता में परिवर्तित करने का पुरुषार्थ करो। दूसरी बात औरों कि अयोग्यता का उपहास मत करो और उसका फायदा मत उठाओ। कोई व्यक्ति किसी क्षेत्र में अयोग्य दिखता है तो उसको उसका एहसास करा कर, उसका मजाक मत उड़ाओ बल्कि उसको प्रेरणा और प्रोत्साहन देकर उसे भी आगे बढ़ाने का प्रयास करो और कभी उसकी अयोग्यता का फायदा उठाने की कोशिश मत करो। यह दोनों बातें योग्यता और अयोग्यता के संदर्भ में हमेशा ध्यान देने योग्य है। प्रायः उल्टा देखने को आता है, व्यक्ति अपनी अयोग्यता को कभी नहीं आंकता, अपनी दुर्बलता और अपनी कमजोरियों को कभी नहीं देखता, उन्हें अनदेखा करता है, नतीजा योग्यताओं में निखार नहीं आता और अयोग्यता के कारण व्यक्ति अपना विकास नहीं कर पाता। अपनी प्रगति करना चाहते हो तो देखो मैं कहाँ कमजोर हूँ, मेरी वीकनेस कहाँ है, उसे खत्म करो। जो मैं नहीं कर सकता, वह मुझे करना है और मनुष्य थान ले तो उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। और दूसरे में यदि कोई अयोग्यता है तो उसको ठीक तरीके से समझाओ। आप लोग कहते हो, इससे तो कुछ होता ही नहीं, यह तो कुछ कर नहीं सकता, यह तो किसी लायक है ही नहीं है, बड़ा गड़बड़ हो जाता है।

एक घटना ऐसी हुई, एक व्यक्ति है मेरे संपर्क में, एक दिन मेरे पास आया और बोला महाराज जी बहुत दु:ख है मन में। मैं बोला, क्या बात है? बहुत सोचा था, बहुत उम्मीदें रखी थी पर हमारे बेटे तो लायक ही नहीं है, हमारे बेटे में कोई योग्यता ही नहीं है। महाराज! मैं तो सोचता था कि अब आप लोगों की सेवा मे आऊँ, वह सब संभाल लेंगे। महाराज! क्या बताएं, मुझे उनमें कोई योग्यता ही नहीं दिखती। मैं उसके बेटे को जानता था, बेटा बहुत ही मिलनसार, व्यवहार-कुशल और काबिल लड़का था, समाज में उसकी अपनी एक पहचान बन गई थी 22- 24 साल की उम्र में। लेकिन पिता ने जब यह बात कही तो मुझे थोड़ा अटपटा सा लगा। मैंने कहा, ठीक है, मैं तुम्हारे बेटे से बात करूँगा। जब मैंने उसके बेटे को अकेले में बुलाकर के बात किया तो बेटे ने जो बात कही वह आप सब को ध्यान देने योग्य है। बेटे ने कहा, महाराज जी! क्या करूँ? मेरे पिताजी को मुझ में कोई योग्यता दिखती नहीं, वो हर रोज सुबह से एक ही बात बोलते है, तू कुछ कर ही नहीं सकता, तुझमे कोई योग्यता ही नहीं है, तू उस लायक ही नहीं है, तेरे को सौंप दो तू तो सब मटियामेट कर देगा। तो महाराज! सुबह से रोज उनका प्रवचन कौन सुने? बस सुबह होती है, महाराज! मैं कुछ भी करना चाहता हूँ, आज तक उन्होंने कभी मेरे किसी कार्य की सराहना नहीं की, उनको मुझ पर भरोसा ही नहीं। तब मैंने भी तय कर लिया, वह जो बोलते है मैं उसके विरुद्ध करता हूँ। महाराज! मेरी योग्यता क्या है, आप जानते है, आपने भी मुझे दो-चार काम बताए, मैंने जो काम किया, आपको मेरा परफॉर्मेंस कैसा लगा। मैंने कहा, बात तो ठीक है, कैसे समझाए कि देख कुछ भी हो पिता, पिता होते है। पिता तेरे भले के लिए सोचते हैं, तेरे को डिमोटेड नहीं कर रहे, तू अपने आप को ठीक कर, तू demoralised मत हो, अपने आपको आगे बढ़ा और जो मुझे उसे बताना था, मैंने बताया। बाद में उसके पिता को मैंने बुलाया, हमने कहा, भैया, तुम अगर नहीं सुधरे तो तेरा बेटा हाथ से गया। वो बोला, हमको क्या सुधारना है? एक काम करना है कि बेटे की आलोचना करने की जगह, उसे हतोत्साहित करने की जगह, गलतियों को नजरअंदाज करना है और जब भी कोई अच्छा कार्य करें, उसकी पीठ थपथपाना है, उसे शाबाशी देना है, उसकी सराहना करना है। तुम ये करना शुरू करो, देखो दो-तीन महीने में क्या चमत्कार होता है और बंधुओं! यह घटना लगभग 20 साल पुरानी है, उसने मेरी बात को अपनाया। वो कहता है, महाराज! चमत्कार हो गया। जिस बेटे पर उसे कोई भरोसा नहीं था, आज सारा कारोबार वही बेटा चला रहा है। यह है योग्यता के सम्मान का उदाहरण। रिलेशन अच्छे हो गए, विश्वास-भरोसा हो गया और बेटे ने अपने आपको साबित कर दिखाया। तो योग्यता का सम्मान करना सीखें। अयोग्यता का उपहास न करें, हतोत्साहित न करें, तो व्यक्ति आगे बढ़ेगा, यह बहुत बड़ी आवश्यकता है। आखिरी दो बातें, योग्य और अयोग्य। योग्य यानि उचित और अयोग्य यानि अनुचित। मनुष्य को एक अच्छे मनुष्य की पहचान है जो औचित्य गुण से युक्त हो। औचित्य गुण का मतलब है, कोई भी कार्य करें तो उसके उचित-अनुचित का विचार करके करें। आप कोई भी काम करना प्रारंभ करो तो सबसे पहले देखो, यह मेरे योग्य है या नहीं, यह काम मुझे करना चाहिए या नहीं, यह मेरी गरिमा अनुरूप है या नहीं है, यह मेरे लायक है या नहीं। योग्य कार्य को करने में कभी कोताही मत करो और जो करने के अयोग्य है, उसके लिए कभी झांकने की कोशिश मत करो। अगर तुम्हारे मन में भाव-भोर बैठ गया, क्या योग्य है और क्या अयोग्य है तो तुम्हारे जीवन से कभी कुछ गलत होगा ही नहीं, कोई गलत नहीं होगा। देखो, मेरे कुल की गरिमा अनुरूप है या नहीं, मेरे परिवार की गरिमा अनुरूप है या नहीं, मेरे स्वास्थ्य के अनुरूप है या नहीं, मेरे धर्म के अनुरूप है या नहीं, मेरी संस्कृति के अनुरूप है या नहीं, मेरे राष्ट्र के अनुरूप है या नहीं। यदि है तो वो काम करणीय है, करने योग्य है और यदि नहीं है तो चाहे उसमें कितना भी आकर्षण क्यों ना हो, प्रलोभन क्यों ना हो, वो अयोग्य है। हर कार्य के योग्य और अयोग्यपने का विचार करना चाहिए। देखिये जब व्यक्ति योग्य और अयोग्य का विचार करता है तो कभी अकार्य नहीं कर पाता। अभी आपसे कोई व्यक्ति यहाँ अगर कहे कि कोई मर्यादाहीन आचरण करो, तो आप करने को राजी होंगे? कोई भी भला आदमी, नहीं होगा। क्यों, यह मेरे योग्य नहीं है। इस सभा में आपसे कोई व्यक्ति कहे कि बीच में महाराज को टोक दो, आप टोकने को तैयार होंगे, नहीं यह योग्य नहीं है। पर मैंने कोई बात कही, एक ने ताली बजाई आपने फट से ताली बजा दी, क्यों? यह योग्य है। गुरु ने कोई अच्छी बात कही तो उस की अनुमोदना करना मेरा कर्तव्य है, यह मेरे योग्य है। तो योग्य कार्य को करने में कभी कोई व्यक्ति पीछे नहीं रहता और समझदार आदमी अयोग्य कार्य करने के लिए उत्साहित नहीं होता। तो मैं आपसे कहता हूँ, हर पल, हर दिन, हर क्षण इसका विचार करो क्या योग्य है, क्या अयोग्य है चाहे वह आपके जीवन-व्यवहार से जुड़ी बात हो, चाहे आप के धार्मिक क्षेत्र की बात हो, चाहे आपके सामाजिक क्षेत्र की बात हो अथवा आपके व्यापार और कारोबार की बात हो। जो करणीय है, उसे करना और जो करने के योग्य नहीं है, उसे कभी मत करना। दूसरी बात, अपना कोई काम किसी से कराना है तो जिम्मेदारी उसे ही दो, जो उसके योग्य हो। योग्य आदमी के कंधे में जिम्मेदारी दो तो कभी विफलता नहीं आएगी और अयोग्य को सौंप दोगे तो शिकायतें ही होती रहेगी। जो योग्य है, उस योग्य व्यक्ति के कंधे पर आपने अपनी जिम्मेदारी सौंपीये और जो योग्य आदमियों को दे देता है, वह निश्चिंत होता है। क्यों? हमने जिसको दिया है, वह फिट है, वह योग्य है, वह सब बातों को लाइनअप कर लेगा, हमें कुछ करने कि जरुरत नहीं है और कोई काम किसी अयोग्य व्यक्ति के हाथ में सौंप दो तो सामने समस्या। अब क्या करें, एन्ड मोमेंट में कुछ किया ही नहीं जा सकता, हमने ऐसे को जिम्मेदारी सौंपी, उसने ले भी ली लेकिन किया नहीं। वही काम करो, जो करने योग्य हो और उसी से काम कराओ, जो करने योग्य हो। जिसमें योग्यता नहीं तो उस लायकी को धारण नहीं करता। आप उसे कभी ऐसा काम मत सौंपो, जिससे कल आपको परेशानी का सामना करना पड़े। दूसरी बात किसी से कोई भी अयोग्य कार्य मत कराओ, जो उसके लायक हो, योग्य हो, वह कराओ और अयोग्य व्यक्ति से या योग्य व्यक्ति से भी अयोग्य कार्य कभी मत कराओ। क्योंकि अयोग्य कार्य करना और कराना, बात तो बराबर ही है, दोनों को हम गंभीरता से ध्यान में रखेंगे तो हमारा जीवन धन्य होगा। एक अच्छे सच्चे धर्मात्मा की यही पहचान है, एक सफल मनुष्य की यही पहचान है।

तो आज बात मैंने आपसे की योग्यता, अयोग्यता, योग्य और अयोग्य। इन चारों बातों को आप ध्यान में रखें और अपने जीवन को उसी अनुरूप ढालने का सत्प्रयत्न करें। जीवन में जो भी योग मिला है, उससे अपनी योग्यता को पहचान कर योग्यताको निखारिये, अपनी अयोग्यता को मिटाने की कोशिश कीजिए और जो करने योग्य है उसे करने में रंच मात्र भी कमी ना करें, अपना उत्साह वर्धित करते रहें।

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