उत्तम मार्दव
एक बार कुऍं ने सागर से शिकायत भरे स्वरों में कहा कि तुम्हारा कैसा पक्षपातपूर्ण रवैया हैं, सारी नदियों, नालो को अपने में समाहित कर लेते हो पर मैं भी तुम्हारे ही वंश का हूँ, मुझे अपने में समाते क्यों नहीं, मेरी उपेक्षा क्यों, सबको अपने आप में समाहित करने वाले तुम मेरी उपेक्षा क्यों करते हो। सागर ने कुँए से कहा, समाना तो मैं भी तुम्हें चाहता हूँ पर क्या बताऊँ तुमने चारो ओर जो दीवारें खड़ी कर रखी हैं, इन दीवारों को हटा लो तो मैं अभी तुम्हे समा लूँगा। वस्तुतः लोग कुआँ बने हुए हैं, सागर बन सकते हो, बशर्ते अपने चारों ओर खड़ी की गई, अहंकार की दीवार को ढ़हा दिया जाए। अहंकार वह अवरोध हैं, जो हमारे अस्तित्व को संकुचित करता हैं, जो हमारे जीवन की विराटता की अभिव्यक्ति में बाधक बनता हैं तो हमें चाहिए कि हम उस अहंकार की दीवार को ढहा दे। आज का दिन उसी अहम के विसर्जन की बात करने का दिन हैं, सच्चे अर्थों में देखा जाए तो अहंकार के विसर्जन के उपरांत ही धार्मिकता की वास्तविक शुरुआत होती हैं। हम लोग प्रतिवर्ष अहंकार की बात सुनते हैं, अहंकार के विसर्जन की बात करते हैं और कहते हैं कि हम अपना अहंकार छोड़ दे, छूटता क्यों नहीं। आज मैं आपसे चार बातें करूँगा जो हमारे अहंकार और विनम्रता दोनों ही चीजों के साथ जुड़ा हुआ हैं।
मानना
मनवाना
मनाना और
मान जाना
पहले के दो शब्द अहंकार के पोषक हैं और बाद के दो शब्द विनम्रता की अभिव्यक्ति हैं।
मानना– अहंकार क्या हैं? प्रायः लोग बोलते हैं, मान करने का नाम अभिमान हैं, अहंकार हैं। ये मान क्या हैं? अपने आप को कुछ मानना। आपने कभी कल्पना की कि हमारे अंदर अहम कब भरता हैं, जब हम अपने आप को कुछ मानते हैं और जो हमने अपने आप को मान रखा हैं, हमने अपनी जो छवि गढ़ रखी हैं, हमने अपनी जो इमेज बना रखी हैं, उसकी पुष्टि होती हैं तो सीना फूलता हैं और उस पर आघात पहुंचता हैं तो मन कलपता हैं, क्षोभ होता हैं। अहंकार और आवेश यह दोनों साथ-साथ चलते हैं। मैंने अपने आप को कुछ मान रखा हैं कि मैं इतना बड़ा मुनि हूँ, हजारों लोग मेरे पास आते हैं। लोग मुझे समझते क्या हैं, मैंने मान लिया मैं मुनि हूँ, कितना बड़ा, अरे इतना बड़ा मुनि, सारे लोग सुनते हैं, लाखों लोग सुनते हैं, हजारों लोग आते हैं, मैं मुनि हूँ और बस जब मैंने अपने आप को इतना बड़ा मुनि मान लिया तो मेरे अंदर की कुछ अपेक्षाएँ बढ़ गई कि मैं इतना बड़ा मुनि हूँ तो मेरा सारा काम मेरे स्टेटस के अनुकूल होना चाहिए, जैसा मैं हूँ वैसा व्यवहार होना चाहिए, श्रावकों को मेरे साथ उसी तरह का व्यवहार करना चाहिए, मेरे साथ जुड़े हुए लोगों की वैसी ही व्यवस्थायें होनी चाहिए और यदि उसमें कुछ कमी हो जाए तो मैं झुँझलाउँगा। अरे यह क्या कर दिया तुमने, तुम लोग समझते क्या हो, हमें पहचानते नहीं, यही हैं अहंकार। बोलो रोज इस से दो-चार होते हो कि नहीं, तुम हमें समझते क्या हो, यह जो सोच हैं ये अहंकार। अहंकार का सृजन कब होता हैं? जब हम अपने आप को कुछ मानते हैं। आप बोलो, आप क्या हो, सब अपने आप को कुछ ना कुछ मान रखे हो कि मैं बड़ा हूँ, छोटा हूँ, रूपवान हूँ, कुरूप हूँ, मूर्ख हूँ, ज्ञानी हूँ, मुर्ख हूँ, शक्तिवान हूँ, शक्तिहीन हूँ, धनवान हूँ, निर्धन हूँ, अधिकारी हूँ, सेवक हूँ, सेठ हूँ, रंक हूँ, राजा हूँ, भिखारी हूँ, स्त्री हूँ, पुरुष हूँ, बाल हूँ, वृद्ध हूँ, युवा हूँ, मुनि हूँ, अमुनि हूँ, कुछ ना कुछ मान रखा हैं कि नहीं। अपने आप को अपना परिचय किसी विशेषण के साथ हैं या निर्विशेषण। यही विशेषण अहंकार हैं, इसी विशेषण का नाम हैं अहम।
आचार्य कुंदकुंद कहते हैं- आत्मा के अतिरिक्त जगत के पदार्थों या संयोगों में जो अहम का प्रत्यय हैं, वही अहंकार हैं।
मैंने अपने आप को कुछ मान रखा हैं। क्या मान रखा हैं? सब अपने आप को तीसमार खां मानते हैं, यह विशेषण जब तक जुडा रहेगा तब तक तुम्हारे भीतर अहम पलता रहेगा और मनुष्य की ये दुर्बलता हैं, वो इन्ही विशेषणों को अपना मान कर सारा जीवन उनकी ही पुष्टि में बिता देता हैं। भाइयों, थोड़ा विचार करो, जो तुम अपने आप को मानते हो, क्या यथार्थतः तुम हो। आज तुम सेठ हो, क्या अनादि से सेठ हो, जीवन के अंत तक सेठ बने रहोगे। आज तुम्हें सुंदर रूप मिला तो तुम रूपवान हो और अपने आप को रूपवान अनुभव कर रहे हो तो क्या यह रूप अनादि से तुम्हारे साथ हैं और अनंत काल तक बना रहेगा। आज तुम बड़े नामचीन अपने आप को मानते हो, मेरा जग में बड़ा नाम हैं, मेरी गजब की धाक हैं, मेरी अजब प्रतिष्ठा हैं। हाँ कब से हैं और कब तक रहेगी। कभी इसका विचार किया, यथार्थतः ना तुम्हारा धन तुम्हारे साथ अनादि से हैं, ना तुम्हारा नाम तुम्हारे साथ हैं, ना तुम्हारा रूप तुम्हारे साथ हैं, यह तो सब पल-पल बदलने वाले हैं, समय पाकर सब बदल जायेंगे, विनष्ट हो जायेंगे, हाथ में क्या रहेगा। मुश्किल यह हैं कि जो तुम हो, उसे तुम जानते नहीं और तुम अपने आप को जिस रूप मानते हो, वह तुम हो नहीं।
संत कहते हैंं- ‘अपनी इस मान्यता को बदलो और अपने आप को जो मानते हो उस भ्रम को छोड़ो और जो तुम सही में हो उसे पहचानने की कोशिश करो’। मैं हूँ, बस यह होना चाहिए। मैं यह हूँ, मैं वह हूँ, यह अहंकार हैं और मैं हूँ, यह अनुभूति हैं, इसका अनुभव करो। अध्यात्म इसी का पाठ पढ़ाता हैं। मैं हूँ, का अनुभव। मैं क्या हूँ, कोई विशेषण नहीं, बस हूँ। मैं हूँ, वह तुम्हारा स्वरूप हैं, उसे पहचानो। क्या हूँ? जो दिख रहा हैं, वह मैं नहीं हूँ, यह धन दौलत नहीं, यह नाम नहीं, यह प्रतिष्ठा नहीं, यह रूप नहीं, यह शरीर नहीं, यह इन्द्रियां नहीं, यह विचार नहीं, यह विकार नहीं, कुछ भी नहीं, क्या हूँ। बस हूँ, कोई विशेषण नहीं, विशेषणों से परे मैं खुद में विशेषणों का विशेषण हूँ। मेरे साथ कोई विशेषण नहीं, बस मैं हूँ। मैं हूँ, यह एक निर्दोष अभिव्यक्ति हैं और मैं के साथ जैसे ही कोई विशेषण जुड़ता हैं, अहम की सृष्टि हो जाती हैं। मैं आपसे पूछता हूँ, क्या मानते हो अपने आप को? आत्मा या कोई विशेषण लगा कर। जब तक तुम्हारे साथ यह विशेषणों का चक्कर रहेगा, अहम पलता रहेगा, उसका अंत नहीं होगा और अज्ञानी प्राणी उसी विशेषण के पीछे पागल होता हैं, आपको अगर कोई संबोधन दे तो सीधे-सीधे बुला ले तो इतना मजा नहीं आता। अमुक व्यक्ति, उच्चाधिकारी, बड़े नेता, पदाधिकारी, बड़े मंत्री और तुम्हारी ढेर सारी विशेषताओं को, जिसे तुमने अपनी dignity का आधार बना रखा हैं, उस designation को प्वाइंट आउट करके कोई उल्लेख करे तो छाती फूल जाती हैं और जो तुमने अपने आप को मान रखा हैं, लोक में उसकी मान्यता नहीं मिलती तो तब तकलीफ होती हैं। खुशी मिलती हैं या तकलीफ होती हैं?
अशांति कहाँ से आती हैं? हमारे अहंकार के कारण आती हैं और अहंकार कब होता हैं, जब हमारे अहंकार को चोट पहुँचती हैं तो हमें अशांति मिलती हैं और अहंकार ऐसा तत्व हैं जो अक्सर चोट खाता हैं। लोग अहंकार को पुष्ट करने की कोशिश करते हैंं लेकिन अहंकार का स्वभाव ही ऐसा हैं बहुत जल्दी चोटिल होता हैं, वह चोट खाता जाता हैं, मैंने अपने आपको मान लिया कि मैं महाराज का बड़ा भक्त हूँ। मुझे पता हैं, महाराज! मुझे देखते ही मुस्कुराएंगे और मुझे बुलवायेंगे। देखिये, क्या हाल होता हैं, आप लोगों का। महाराज का मैं इतना बड़ा भक्त, 30 साल से जुड़ा हूँ और हमेशा आता हूँ और महाराज! मुझे देखेंगे, मुस्कुराकर आशीर्वाद देंगे, बुलवायेंगे और श्रीफल चढ़ाने का मौका मिलेगा। मैं महाराज का बड़ा भक्त हूँ और तुम आ गये, मान लो, कदाचित महाराज की दृष्टि नहीं पड़ी और तुम्हें नहीं बुलाया गया तो जब तक नहीं बुलाया गया, तब तक बेचैनी और कदाचित महाराज की दृष्टि पड़ गई पर महाराज ने कोई रिस्पांस नहीं दिया, आप क्या? क्या मामला हैं, गड़बड़ हो गया, लगता हैं महाराज का किसी ने कान भर दिया, महाराज भी कान के कच्चे हो गए। कहाँ पहुँच रहे हो तुम, अपने मन को देखो, क्या-क्या चलेगा तुम्हारे भीतर और एक बात बताओ दृष्टि पड़ गई और तुम्हारे बाजू में बैठे हुए व्यक्ति को जो साल भर पहले जुड़ा हैं और तुम्हारा विरोधी हैं उसको बुला लिया, तुम्हें नहीं बुलाया तो विरोधी को बुला लिया, तुम्हारे बाजू में बैठा, साल भर पहले जुड़ा और तुम 30 वर्ष से जुड़े हुए हो तो बोलोगे क्या हो गया महाराज को, महाराज भी समझते नहीं हैं। नया 9 दिन पुराना, सौ दिन, यह क्या हो गया, यह हलचल, यह उथल-पुथल कौन करा रहा हैं। मैं महाराज का खास भक्त हूँ, इसमें से खास को हटा देते और भक्त हूँ बनाए रखते तो जीवन का मजा ही कुछ और होता हैं, इसे व्यापक संदर्भ में समझना हैं।
जीवन के हर क्षेत्र में तुमने अपनी जो इमेज बना रखी हैं, काल्पनिक छवि हैं वास्तविक नहीं हैं, आरोपित छवि हैं यथार्थ नहीं हैं। हम अपने आप को मान ले, मान लो, मानने में क्या होता हैं। तुम भगवान मान लो, मानने से भगवान थोड़ी हो जाओगे, हो तो वही जो तुम हो लेकिन अहंकारी अपने आप को कुछ विशिष्ट मानता हैं और औरों को अपने से कमतर साबित करने की कुचेष्टा करता हैं, यही उसकी अशांति का कारण होता हैं तो में जो ये मानता हूँ ना, उसे बंद करो और अपने आप को बड़ा मानना बंद करो, अहंकार खत्म| सास बोलती हैं, मैं बड़ी हूँ, बहू को मेरी बात माननी चाहिए, मेरी बात ही नहीं सुनती, मानती नहीं। पिता बेटा मेरा सुनता नहीं हैं, अरे भैया, नहीं सुनता हैं तो तुम सुनाने की कोशिश क्यों करते हो। अपने अंदर के अहंकार को आप शांत करना चाहते हो तो पहला सूत्र बड़ा मानना बंद करो खुद को, औरों को बड़ा मानना पर खुद को बड़ा मानना बंद कर देना। नहीं तो महाराज! आपने बोल दिया ना तो मैं अपने आप को बड़ा मानूँगा, न किसी को बड़ा मानूँगा तो अहमेन्द्र बन जाओगे, औरों को बड़ा मनो, अपने आप को बड़ा मानना बंद करो, ईगो खत्म, फिर कोई प्रॉब्लम नहीं आएगी। महाराज! ये बड़ा कठिन हैं, कठिन हैं तो फिर आप जानो, भोगो, हम क्या करें। मैं तो रास्ता बता रहा हूँ, जब तक अपने आप को बड़ा मानोगे ना, तब तक जीवन छोटा होता रहेगा। हमारे गुरुदेव ने बहुत अच्छी बात लिखी-
जो मानता स्वयं को सबसे बड़ा हैं, वह धर्म से अभी बहुत दूर खड़ा हैं।
बस इस शब्द को समझो और अपने जीवन को तदअनुरूप ढालने की चेष्टा करो। मैं अपने आप को बड़ा नहीं मानूँगा और मुझे अपने से जो बड़ा दिखेंगे, उनको मान दूँगा, मैं अपने आप को बड़ा नहीं मानूँगा। यह मनोवृति, ये मनोदशा अगर हमारे भीतर जग गई तो हमारा जीवन उसी क्षण निहाल हो जाएगा, फिर हमें ज्यादा कुछ कहने और करने की आवश्यकता नहीं होगी। मनुष्य की बड़ी दुर्बलता हैं, अपने आप को बड़ा मानने में कभी पीछे नहीं हटता और अपने से बड़े को बड़ा मानने के लिए राजी नहीं होता तो मैं आपसे पहला सूत्र देता हूँ, अपने आपको बड़ा मानना बंद करो और अपने से जो बड़े हैं उनको बड़ा मान देना शुरू कर दो तो जीवन धन्य हो जाएगा तो पहली बात मानना।
दूसरी बात मनवाना और खतरनाक हैं। मैं बड़ा हूँ, यह मानना उतना खतरनाक नहीं हैं जितना कि लोग मुझे बड़ा माने, यह दबाव, हुकूमत चलाने का प्रयास। बड़ा माने, लोग मुझे बड़ा माने, कोई मुझे कमजोर ना माने, सब मुझे बड़ा माने। मान दे, मैं बड़ा हूँ, मुझे reward मिलना ही चाहिए, यहां दबाव होता हैं, प्रभाव होता हैं। कोई किसी का अपना प्रभाव होता हैं और कोई अपना प्रभाव जमाने या दिखाने की कोशिश करते हैं। मैं आपसे पूछता हूँ, आप किस से प्रभावित होते हैं, जिसका स्वभाविक प्रभाव होता हैं उससे या जो अपना प्रभाव जताते हैं उससे? संत कहते हैं- ‘जहाँ खुशबू होगी, भौरें अपने आप आएंगे पर तुम यह क्यों चाहते हो कि सब भौरें मेरे पास ही आये’। अपने आप को बड़ा मानना जैसी हमारी भूल हैं, बड़ा मनवाने का प्रयास भी उससे भयानक भूल हैं। लोग मुझसे नीचे रहे, ये superioty का जो भाव हैं ये अहम का बड़ा विकृत रूप हैं और लोग इसी में मग्न रहते हैं।
कुछ पंक्तियाँ हैं- ‘अहंकारी की परिणीति क्या होती हैं’? अपने आप को श्रेष्ठ मानने और जताने के लिए वह क्या करता हैं? हरे-भरे सुंदर सुमनो और कोमल कलियों से लदी टहनियों ने तने से कहा कि हम कितनी सुंदर हैं, हम कितने सुंदर हैं। तने ने सहजता से कहा, हाँ! बेटी तुम सचमुच सुंदर हो। सौंदर्य का दर्प इससे तृप्त ना हो सका, वो अपनी महत्ता की स्वीकृति तो चाहता ही हैं, सामने वाले की हीनता स्वीकृति भी आवश्यक मानता हैं, अहंकार की यह परिणीति हैं और तुम कितने कुरूप हो जो काला भूत सा रंग और खुरदरी खाल, छीः! प्रतिक्रिया कंठ तक भर आई, फिर भी स्वयं को यथासंभव मसोस कर तने ने अत्यंत संयुक्त स्वरों में कहा- हाँ! बेटी तुम सचमुच सुंदर हो। मुझमें सौंदर्य नहीं पर तुम अपने जिस सौंदर्य पर इतना इतरा रही हो, उसके आधार रस का भंडार प्रकृति ने मुझे ही दिया हैं। यदि उसमें से मैं तुम्हें अपना झूठन प्रदान ना करूँ तो तुम्हारा सारा सौंदर्य पल भर में बिखर जाएगा। बात समझ में आ रही हैं, लोग मुझे बड़ा माने, यह मेरी प्रतिभा हैं लेकिन लोगों को मुझे बड़ा मानना ही चाहिए, यह मेरा अहंकार हैं। सच्चाई यह हैं कि जो बड़े होते हैं, उन्हें लोग बड़ा मान अपने आप देते हैं।
सदाकत खुद-ब-खुद करती हैं, शौहरत जमाने।
कभी खुशबू भी कहती हैं कि मुझे तुम सूंघ कर देखो।
कोई जरूरत नहीं, जो बड़ा होगा वो होगा लेकिन कुछ लोगों की प्रवृत्ति ऐसी होती हैं जो चाहते हैं कि सारे लोग मुझे बड़ा माने। खुद को बड़ा मानना, खतरनाक हैं पर उससे ज्यादा इस बात का आग्रह खतरनाक हैं कि सारी दुनिया मुझे बड़ा माने, वो सबको बड़ा मनवाने की कोशिश करता हैं। एक बार ऐसा हुआ कि एक बड़ा आदमी एक भले आदमी के पास पहुँच गया, जैसे ही बड़ा आदमी आया, अपने आसन से उठ कर खड़ा हुआ और सामने की कुर्सी पर उसे बैठने का इशारा किया, विनम्रता से निवेदन किया, बैठे लेकिन वह कुर्सी साधारण सी कुर्सी थी, उस बड़े आदमी को लगा कि ये कुर्सी मेरे लायक नहीं। जिस कुर्सी पर मुझे बैठाने के लिए इशारा दिया जा रहा हैं, वह कुर्सी मेरे लायक नहीं हैं। बड़ा आदमी बड़ा संकोच करने लगा कि मैं इस कुर्सी पर कैसे बैठूँ तो तुरंत भले आदमी ने उस कुर्सी के ऊपर दो कुर्सी और लगा दी और कहा, आप बड़े आदमी हो, आप छोटी कुर्सी पर नहीं बैठ सकते तो यह बड़ी कुर्सी पर बैठ जाइए, चाहे तो मेरे पास चार कुर्सियाँ और हैं, उनको इस पर लगा सकता हूँ पर अपने सिर पर आपको नहीं बैठा सकता।
बात समझ में आ रही हैं, लोग सिर पर बैठने की कोशिश करते हैं। आज तक जो भी सिर पर बैठने की कोशिश किए हैं, वो पाँव तले रौंदे गए हैं। इसलिए मैं आपसे कहता हूँ, कभी किसी के सिर पर बैठने की कोशिश मत करना, ऐसा जीवन जीना कि दुनिया तुम्हें सिर पर बैठाने को पागल हो उठे, यह प्रयास करो पर ध्यान रखना दुनिया उसे ही सिर पर बैठाती हैं, जो औरों का जीवन ऊँचा उठाते हैं, बस हम औरों को ऊँचा उठाने का पुरुषार्थ शुरू कर दे तो लोग हमें सिर पर बैठाना अपने आप शुरू कर देंगे तो मानना और मनवाना, यह दोनों प्रवृत्तियां अहंकार की हैं, जबरदस्ती इसको तो मानना ही पड़ेगा, देखता हूँ ना, कहाँ रहेगा, मेरे आगे लगता कहाँ हैं, एक क्षण में मानेगा। कही लोग अपना रुतबा दिखाते हैं, ये रुतबा हैं, ये दबाव हैं, ये दबंगी हैं, ऐसे लोगों का भय तो हो सकता हैं पर ऐसे लोगों की प्रतिष्ठा नहीं होती। जिन लोगों के पास सत्ता-बल होता हैं, धन-बल होता हैं या अन्य प्रकार की शक्ति होती हैं, वो अपनी दबंगी के दमखम पर रुतबा जमा लेते हैं पर प्रतिष्ठा नहीं पाते। ऐसे लोगों के सामने लोग सैल्यूट करते हैं, हाथ जोड़ते हैं और पीठ पीछे गालियाँ देते हैं लेकिन जिस व्यक्ति के जीवन में महानता होती हैं, उस व्यक्ति को लोग अपने हृदय में बसाते हैं, सपने में भी उसकी आलोचना नहीं सुन सकते, करने की बात तो बहुत दूर की हैं, अपनी काबिलियत ऐसी बनाइये तो मानना, मनवाना, आज से इन दोनों में परिवर्तन कीजिए। हम अपने आप को बड़ा नहीं मानेंगे और कभी किसी से बड़ा मनवाने की कोशिश नहीं करेंगे। अब थोड़ा विनम्रता की तरफ चले- मनाना और मान जाना।
मनाना, किसको मनाया जाता हैं? जो रूठ जाता हैं, उसे मना लिया जाता हैं। मैं तुमसे यह कहता हूँ, कोशिश करो कि कोई तुमसे रूठे ना लेकिन ऐसा संभव नहीं, हम सबको राजी नहीं कर सकते पर इतना तो कर सकते हैं किसी की नाराजगी बढे नहीं, उसे ठीक कर ले। यदि कोई व्यक्ति रूठ जाए तो उस रूठे को मनाने का प्रयास करो, उससे मनुहार करो, अपने विनम्रता पूर्ण व्यवहार से उसे मना लो। जितनी जल्दी सम्भव हो उतनी जल्दी मनाने कि कोशिश करो, उससे बैर की परंपरा आगे नहीं बढ़ेगी और तुम भी सुखी रहोगे, सामने वाला भी सुखी रहेगा, तुम भी शांत रहोगे, वह भी शांत रहेगा और यदि कोई रूठ गया तो रूठ गया तो हम क्यों मनाने जाए, हम क्यों जाएं, हम किसी से कम नहीं, यही तो अहंकार हैं। ‘I am something’। जो अहंकारी नहीं होता हैं, प्रायः उसका किसी से विवाद नहीं होता, मनमुटाव नहीं होता और यदि कदाचित हो जाए और कोई उससे रूठ जाए तो विनम्रता से उसे मनाने के लिए तुरंत चला जाता हैं लेकिन जो अहंकारी होता हैं, वो कहता हैं, हम क्यों जाएं, हम क्यों झुके। आजकल यह ज्यादा हो रहा हैं, देखो, पति-पत्नी के मध्य अक्सर खींचातानी होती हैं, शायद ही कोई जोड़ा होगा जिसके साथ कभी नोकझोंक ना हुई हो, अगर हो तो उसका अभिनंदन होना चाहिए, अगर हो जाए तो खड़ा हो जाए लेकिन ऐसा मिलता नहीं हैं, थोड़ा बहुत नोकझोंक होता हैं। वहाँ एक रूठता हैं, दूसरा मना लेता हैं तो गाड़ी चल जाती हैं क्योंकि वहाँ अपने भावनात्मक दुर्बलताओं के कारण लोग एक दूसरे से अनबन कर लेते हैं लेकिन अंदर का प्रेम उनके अहंकार को श्रेय नहीं देने देता और तुरंत रूठने के बाद मनाने की प्रक्रिया हो जाती हैं। एक रूठ गया, दूसरा मना लिया, मामला सलट गया पर आजकल क्या होता हैं, रूठने के बाद टूटने की बात आ जाती हैं। मनाने की बात तो हैं ही नहीं, कोई किसी को मनाना नहीं चाहता और मानना भी नहीं चाहता।
पहला प्रयास करो कि किसी से रूठो नहीं, अहंकारी रूठता हैं, विनम्र नहीं रूठता। मैं रूठूँगा नहीं और कोई रूठ जाये तो अपने प्रेम-पूर्ण व्यवहार से, अपने विनम्रता पूर्ण व्यवहार से उसे मना लूँगा, उसको मनाने में एक पल का भी विलम्ब नहीं करूँगा तो जीवन का मजा हैं पर आजकल क्या होता हैं, हम क्यों झुके? मनाने के लिए झुकना पड़ता हैं, compromise करने के लिए आगे जाना पड़ता हैं लेकिन ध्यान रखना झुकने वाला महान होता हैं, झुकाने वाला नहीं। हम झुकना सीखे पर मनुष्य के जीवन की एक बड़ी दुर्बलता हैं, वह दु:खी होने के लिए तैयार हैं पर झुकने के लिए राजी नहीं हैं। संत कहते हैं- ‘झुक जाओ और अपने जीवन को आगे बढ़ा लो’। इसमें तुम्हारा कोई नुकसान नहीं हैं, वो तुम्हारे जीवन की एक बड़ी उपलब्धि होगी। कोई रूठ गया, हम उसे मना लेंगे क्योंकि अपना हैं, कोई बात नहीं, किसी वजह से रूठ गया, मना लेंगे। मैं आपसे एक बात पूछता हूँ, घर में छोटा बच्चा भी रूठता हैं, बच्चे तो प्रायः रूठते हैं, आप क्या करते हैं, मनाते हैं। क्यों? बच्चे के साथ आपका इगो आड़े नहीं आता, बच्चा रूठ गया तो बच्चे को मनाने के लिए आपको कोई संकोच नहीं क्योंकि वहाँ आपका अहम आड़े नहीं आ रहा। मेरा बेटा हैं ना, मेरा बेटा हैं या देखकर बच्चा रूठ गया, आप पल में बच्चा रूठ गया तो पल में उसे मनाने को मचल जाते हो और मना के चैन लेते हो। मैं आपसे कहता हूँ, बच्चा रूठता हैं, आप उसे मना लेते हो फिर पति रूठता हैं, उसे क्यों नहीं मनाते। पत्नी रूठती हैं, उसे क्यों नहीं मनाते। उसे मनाने के लिए पीछे क्यों? मनाते हैं, तभी गाड़ी चल रही हैं। जो मना लेते हैं, उनकी गाड़ी चलती हैं, बाकी तो अदालतों में लाइन लगी हुई हैं डिवोर्स की। कौन मनाते हैं? जैसे बच्चा मेरा हैं यह सोच कर के तुम बच्चे को मना लेते हो, उसी प्रकार जिसके हृदय में यह बात रहती हैं कि पति मेरा हैं, वह पति को मना लेता हैं। पत्नी मेरी हैं, वह पत्नी को मना लेता हैं। यही मेरापन आ जाये तो अहंकार कहाँ आएगा लेकिन आजकल वो कहाँ हैं?
आजकल होना यह चाहिए कि आपस में कोई खटपट हो तो उसको आपस में सलटा लो लेकिन आजकल जो अपना हैं उसको छोड़कर किसी दूसरे को फोन किया जाता हैं और दो के मध्य जब तीसरा आकर के त्रिकोण बना देता हैं तो सारा मामला गड़बड़ा जाता हैं, ये इगो हैं, ये अहम हैं। हमें मानना हैं, मनाना हैं, किसी को छोड़ो मत, अपने सम्बन्धो की मधुरता को बनाये रखना चाहते हो तो पहला प्रयास किसी को रूठने मत दो और कोई रूठ जाए तो मनाने में कोई कोर-कसर मत छोड़ो। नहीं तो क्या होगा, हम बहुतो को देखें हैं, रह रहे हैं एक दूसरे के साथ, मन नहीं मिलता, मन टूटा हुआ हैं, एक पूरब और एक पश्चिम, एक छत के नीचे, एक बिस्तर पर सो रहे, एक का मुँह इधर और एक का मुँह इधर, दोनों एक-दूसरे को देखना नहीं चाह रहे, मुँह फुलाए बैठे हैं, यह क्या जिंदगी हैं। दोनों तरह की दु:स्थितियाँ दिखती हैं, कई लोग तो अपनी सहनशक्ति को खत्म कर देने के कारण, सहनशक्ति की सीमा पार हो जाने के कारण या तो तलाक के रास्ते को अंगीकार कर लेते हैं या फिर रहते हैं कानूनी पचड़ो के कारण एक-दूसरे के साथ रहते हैं पर एक-दूसरे के नहीं हो पाते। एक-दूसरे के मध्य दूरी रहती हैं, यह बड़ी विडंबना हैं, इसको थोड़ा ठीक करें।
एक दंपति जिनके विवाह हुए 4 वर्ष हुए थे, पति-पत्नी में खींचातानी चल रही थी। लड़की के भाई ने मुझसे आकर के कहा, महाराज! मेरी बहन को समझाइये, मुझे ऐसा दिखता हैं कि मेरे बहनोई से ज्यादा दोष मेरी बहन का हैं पर वो मानती नहीं हैं। आप अगर समझाएं तो शायद मान जाए। हमने कहा देख जब मैं फ्री रहूँगा, उसको लेकर आना, अगर मेरे थोड़े से मोटिवेशन से किसी की जिंदगी सुधर जाए तो मुझे आपत्ति क्या हैं। वो लेकर आया, वो लड़की MBA, CA और CS किये हुए थी, यह 3-3 डिग्रीयाँ थी उसके साथ और एक बड़ी कंपनी में जॉब भी करती थी, अच्छा पैकेज था। लड़का M.COM था, उसका अपना पारंपरिक व्यापार था, अच्छा कारोबार था, जब बातचीत हुई, मैंने उस लड़की से बातचीत की, आप सबको हँसी आएगी। बातचीत की चर्चा में बात आई कि मेरा पति मुझसे रूठता हैं, मैं क्या करूँ, वो ऐंठ कर बात करता हैं तो मैंने उससे कहा कि ठीक हैं, तुम्हारा पति रूठता हैं, ऐंठता हैं तो तुम उसको मना लिया करो, बात खत्म। लड़की बोली, मैं क्यों मनाऊँ, मैं MBA, CA और CS हूँ, वो तो M.COM हैं। बोलिए, यह पढ़ाई किस काम की? जो व्यक्ति को अहंकारी बना दे, वह ज्ञान नहीं अज्ञान हैं।
आज इसी ईगो के कारण कोई आगे नहीं आना चाहता, कोई मानने को राजी नहीं। एक अगर छोटा बन जाये और सामने वाले को मनाने के लिए तैयार हो जाए तो कभी किसी को कोई तकलीफ नहीं होगी। वो
आखिरी पल तक मना कर लायेगा तो मनाना सीखिए, मनाने की कला अपनाइये। अगर आपके भीतर विनम्रता होगी तो मनायेंगे, जो महान आदमी होते हैं वो अंतिम क्षण तक मनाते हैं।
श्री कृष्ण को देखो, कौरव और पांडवों के मध्य कितना गाढ़ा मनमुटाव था तो श्रीकृष्ण ने कैसा आदर्श उपस्थित किया। वे आखिरी क्षण तक समझौते की सम्भावना तलाशते रहे, वो कौरवों को मनाने के लिए दुर्योधन के पास दूत बनकर के चले गए, यह विनम्र व्यक्ति का आदर्श हैं। एक नारायण त्रिखंडाधीपति श्री कृष्ण, जिनके आगे दुर्योधन जैसे व्यक्ति की कोई औकात नहीं पर वो अभिमानी नहीं, विनम्र थे। उनको मालूम था कि युद्ध का परिणाम क्या होगा। वो समझौते का शांतिदूत बनकर, समझौते का प्रस्ताव लेकर, दुर्योधन के पास चले गए और दुर्योधन से कहते हैं कि दुर्योधन देख, मुझे पता हैं कि युद्ध का परिणाम क्या होगा। मैं नहीं चाहता कि यह धरा अनेक निरपराध लोगों की लाशों से पट जाए, मैं नहीं चाहता कि अनेक माताओं का आँचल इस युद्ध के कारण सूख जाए, मैं नहीं चाहता कि अनेक अबलाओं के मांग का सिंदूर इस युद्ध के परिणाम स्वरूप धूल जाए, मैं नहीं चाहता कि यह धरती कंकालों के ढेर में बदल जाए, मैं तुम्हारे पास इसीलिए आया हूँ कि किसी भी तरह से तुम मान जाओ, मैं तुम्हें मनाने आया हूँ। मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा इंद्रप्रस्थ, मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे हस्तिनापुर का साम्राज्य, तुम पांडवों के लिए पांच गाँव भर दे दो, मैं उन्हें मना लूँगा, इतना बड़ा आदर्श हैं। श्री कृष्ण जैसे नारायण भी मनमुटाव पूर्ण स्थिति में इस समझौते का परिणाम लेकर जाने को राजी हैं, तुम कहाँ हो। आज तुम्हारा अपनों से कोई मनमुटाव होता हैं तो क्या कोई compromise करने के लिए या कोई कदम उठाने का तुम्हारा प्रयास होता हैं। सीख लो, यह बात अलग हैं, होनहार होती ही हैं, दुर्योधन की बुद्धि नहीं जागी। उसने कहा, पांडव, तुम नटवरलाल क्या जानो, तुम ग्वाले क्या जानो, कैसे उपेक्षा पूर्ण शब्दों का प्रयोग किया। राज्य क्या भीख में माँगने की चीज हैं? यह तो युद्ध करके लड़ने की चीज हैं, तुम पांच गाँव की बात करते हो और मैं सुई की नोक के बराबर की जगह भी बिना युद्ध के नहीं दूँगा। अगर उन्हें कुछ लेना हैं तो पहले युद्ध करें, फिर ले। अहंकारी ऐसा ही करता हैं तब श्री कृष्ण ने कहा, ठीक हैं, दुर्योधन, अब तु यही चाहता हैं तो मैं तुझे युद्ध ही दूँगा फिर महाभारत हुआ, वह 18 दिन चला, परिणाम सबके सामने हैं पर मैं कहता हूँ| एक महाभारत के परिणाम को सबने भोगा, वह 18 दिन में खत्म हो गया, तुम्हारे घर में रोजमर्रा के दिनों में जो महाभारत होता हैं, उसको अंत करना चाहते हो तो सीख लो, श्री कृष्ण की तरह मनाने के लिए तैयार हो जाओ और अपनी दुर्योधन व्रती को खत्म करो, मान जाने का अभ्यास शुरू कर लो, जीवन धन्य हो जाएगा। कोई रूठे उसे तुरंत मनाओ और तुम्हारा मन यदि रूठ जाए और तुम्हें कोई मनाने आए तो तुरंत मान जाओ।
चौथी बात, मान जाना। अहंकारी नहीं मानता और विनम्री मान जाता हैं, उसको कन्वेंस करने में कोई देर नहीं लगती। ठीक हैं, भैया, चलो। कही ऐसे होते हैं कि मैं माफ नहीं कर सकता, मैं नहीं मानने वाला, यह तो ऐसा हैं तो होगा, तुमने किया तो मैं नहीं छोडूँगा| वह झुकने के लिए तैयार नहीं, मानने के लिए राजी नहीं, समझ लेना उस व्यक्ति का संसार बहुत लंबा हैं, वह महा-अभिमानी हैं। जब मौका आये, कोई रूठे उसे तुरंत मनाओ और कोई तुम्हें मनाने के लिए आए तो तुरंत मान जाओ। जीवन का मजा इसमें ही हैं , मान जाओ। मुझे मालूम हैं मैं कितना भी उपदेश तुम्हें दूँ, अहंकार मत करो तो नहीं वह तो होगा। मैं तुमसे कहूँगा कि किसी से मत रूठो लेकिन मुझे मालूम हैं रूठना तुम्हारा स्वभाव हैं। वो तो बच्चे का भी स्वभाव हैं, एक छोटा बच्चा भी अहंकारी होता हैं, मौका देख कर बात करता हैं। एक बच्चा अचानक 9:00 बजे रोना शुरू कर दिया, माँ मंदिर से आई, माँ को बच्चे ने देखा और रोना शुरू कर दिया। माँ ने पूछा बेटा क्यों क्या हुआ, तू क्यों रो रहा हैं। बच्चा बोला कि मैं गिर गया था और चोट लग गई इसलिए रोया था। माँ बोली, कब गिरा था, कहाँ गिरा था। बच्चा बोला, 8:00 बजे गिर गया था, जब आप मंदिर गई थी तो माँ बोली कि अभी क्यों रो रहा हैं, तो बच्चा बोला उस समय कोई था नहीं, किसके सामने रोता।
मैं आपसे यही कहता हूँ, आज का सूत्र यह लीजिए कि मैं रूठूँगा नहीं और कदाचित रूठ भी जाऊँ और कोई मनाने आए तो मान जाऊँगा। तय करेंगे आप, अगर ऐसा करो तो तुम्हारा मार्दव धर्म आ गया, यही गृहस्थ का मार्दव धर्म हैं। व्यवहारिक तौर पर लीजिये ये चारो शब्द, मैं तो केवल प्रैक्टिकल बातें करता हूँ जो आपके जीवन में काम आए, यदि इन छोटी-छोटी बातों को आत्मसात कर ले तो जीवन का मजा हैं। आपसे पूछता हूँ- जो व्यक्ति पल में बात मानता हैं, उसके प्रति आप की क्या धारणा होती हैं और जो व्यक्ति एकदम ढीठ बन जाता हैं, बात ही नहीं मानता और अपना दर्प दिखाता हैं, उसके प्रति आपका क्या दृष्टिकोण होता हैं। किसके प्रति लाइकिंग ज्यादा, पहले वाले के प्रति या बाद वाले की तरह। आपका स्थान कौन सा हैं? महाराज हम हर काम पहले नंबर पर करना चाहते हैं, इसलिए हम पहले नंबर पर अपना स्थान बनाना चाहते हैं। जो व्यक्ति तुरंत मान जाता हैं ना, अरे यार बड़ा सरल आदमी हैं, तुरंत मन में आता हैं कि सरल हैं और एक बड़ा rough आदमी हैं, उसको मनाना बड़ा कठिन होता हैं, लचीला रूख बनाइये, नम्रवृति को अपनाइये, यह हमारे जीवन का बड़ा आदर्श हैं। यदि हमारा रूख लचीला होगा तो जीवन का मजा ही कुछ और होगा, अपने वचनों में लचीलापन, अपने व्यवहार में लचीलापन, अपनी प्रवृति में लचीलापन हो तो जीवन का मजा कुछ और हैं तो कभी कुछ हो जाए तो मान जाना बोलो मेरी मानोगे कि नहीं। मान जाओ, कोई मनाये तो मान जाओ, बड़ी मुश्किल होती हैं।
पति-पत्नी में तनातनी हो गई, तनातनी होने से दोनों ने एक-दूसरे से कुछ ऊलजलूल बोल दिया तो पहले बक-बक होती हैं, फिर मौन हो जाते हैं तो दोनों की बोलचाल बंद, अब बोलचाल बंद हो गई और एक महाराज आये हुए थे, उनका प्रवचन चल रहा था। उस दिन महाराज ने अपने प्रवचन में एक गीत सुनाया, कठिन वचन मत बोल मनवा, कठिन वचन मत बोल, मन की गाँठे खोल रे मनवा, मन की गाँठे खोल, कठिन वचन मत बोल रे मनवा, कठिन वचन मत बोल। ये शब्द बोले और उनका एक 4 साल का बच्चा भी प्रवचन में आ गया था, उसे प्रवचन में महाराज ने क्या बोला, वह तो कुछ समझ में नहीं आया पर यह मधुर गीत था, उसका मुखड़ा उसे याद आ गया, कठिन वचन मत बोल मनवा, मन की गाँठे खोल मनवा। अब बच्चा घर में आया और गीत गुनगुना रहा था। यह बोल उसके दिमाग में थे तो बच्चे जैसे होते हैं, अक्सर दोहराते हैं तो उसकी मम्मी उसके पिता की तरफ इशारा करते हुए कह रही हैं, उनको सुनाओ, उनको सुनाओ। बच्चा तो बच्चा हैं, वह अपने पिता की तरफ चला गया और बोला, कठिन वचन मत बोल मनवा, मन की गाँठे खोल मनवा। अब जब अपने पापा की तरफ गया तो मम्मी की तरफ इशारा करे, उधर सुनाओ, उधर। बेचारे की स्थिति फुटबॉल की तरह हो गई, कभी माँ की तरफ जाए तो पिता की तरफ भेज दे और पिता की तरफ जाए तो माँ की तरफ भेज दे। एक बार, दो बार तो ऐसा किया जब बार-बार ऐसा हुआ तो बीच दरार में बैठ गया और कभी मम्मी की तरफ देखकर बोले, कठिन वचन मत बोल मनवा, मन की गाँठे खोल मनवा और कभी पिता की तरफ देखकर बोले, कठिन वचन मत बोल मनवा, मन की गाँठे खोल मनवा। अब क्या हुआ? उस बच्चे के बोलने से दोनों एक-दूसरे को देख कर हँसे, पति पत्नी पर हँसे और पत्नी पति पर हँसे और बच्चा भी दोनों को देख-देखकर हँसे। उसे लगा कि मेरा ऐसा कहने से माँ-बाप को मजा आ रहा हैं, मम्मी-पापा को मजा आ रहा हैं तो वो और जोर से उसे बोलने लगा और लगभग 3 मिनट का क्रम चला और एक ऐसा निमित्त बना कि दोनों की मन की गाँठे खुल गई। पहले पति आया, इधर से पत्नी आयी, दोनों एक-दूसरे के गले मिले और कहा हमने मन की गाँठे खोल दी, चलो अब मान जाओ और जीवन की राह अच्छी बनाओ, बस यही रास्ता अपनाओ। मान जाओ, गाँठ खोल दो, तो फर्क पड़ता हैं, फर्क पड़ता हैं। कुछ लोग होते हैं ऐसे, जो रूठते हैं पर इसी ख्याल से रूठते हैं कि कोई हमको मनाये और कभी-कभी रूठने वाले को कोई मनाने वाला ना आए तो बड़ा मजा आ जाता हैं, उसका भी हाल अलग।
एक बहू रूठ गई सास से तो अक्सर वह रूठती तो उसे मना लिया जाता था पर रोज का उसका स्वभाव बन गया कि छोटी-छोटी बातों में रूठे तो कितना मनाये तो क्या हुआ, एक दिन जब रूठ कर के बाहर गई और बोली मैं इस घर में पाँव नहीं रखूंगी, बाहर बैठ गई। अब सब लोगो ने तय कर दिया था कि ये बार-बार रूठती हैं तो इस बार किसी को कुछ बोलना ही नहीं, देखते हैं क्या करेगी। अब कब तक रहे, सुबह से शाम हो गई, भूखी रही, कोई ने कुछ बोला नहीं, पानी के लिए नहीं पूछा, घर आने की बात तो बहुत दूर हैं। अब वह शाम हो गई, क्या करें? तो घर की भैंस जो बाहर से चर कर के आई, वो भैंस की पूँछ पकड़ ली और भैंस अंदर प्रवेश कर रही हैं और बोली मान जा, मुझे मत ले जा, मुझे मत ले जा और भैंस अंदर गई और वो भी अंदर हो गई तो भैया ऐसा मत रूठो कि भैंस की पूँछ पकड़कर अंदर जाना पड़े। अरे पहले से मूँछ नीचे रखो, कोई पूँछ पकड़ने की जरूरत ही नहीं आएगी, फिर कुछ बात ही नहीं होगी, मजा तब होगा।
तो ये मार्दव धर्म हैं और चार बातें हैं बहुत छोटी-छोटी बातें हैं- मानना, मनवाना की प्रवृत्ति से बचे। मनाने और मान जाने की प्रवृत्ति को अपने भीतर विकसित करेंगे, निश्चयतया वो हमारे जीवन को एक अलग प्रकार की आनंदानुभूति देगा, आप सब के हृदय में ऐसा ही उल्लास जगे। यह पर्युषण पर्व हैं और दूसरा दिन हैं, यहाँ का दृश्य देखकर सबको बड़ा आनंद होता हैं। जब धर्म का वातावरण होता हैं तो अलग आनंद होता हैं। अपने जीवन को इसी तरह आगे बढ़ाइये और विनम्रता को अपने जीवन का आदर्श बनाइए और अहंकार पूर्ण प्रवृत्ति से अपने आप को मुक्त करने का सतप्रयत्न कीजिए, इसी शुभ भाव के साथ बोलिये परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की जय।
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