उत्तम संयम

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 उत्तम संयम  

आज बात संयम की हैं, जब कभी भी संयम की बात आती हैं, संयमी व्यक्ति की बात आती हैं, हमारे सामने एक ऐसे व्यक्ति की छवि झूलने लगती हैं, जो कायदे से रहता हो, जिसका खान-पान सधा हो और प्रवृत्तियां संयत, संतुलित हो। निश्चयतया ऐसे लोग आदर्श होते हैं और उन का प्रभाव हम सब के जीवन पर बहुत गहरा पड़ता हैं लेकिन संयम का संबंध केवल प्रवृत्तियों के नियंत्रण तक नहीं हैं, संयम प्रवृत्तियों के साथ-साथ वृतियों के नियंत्रण का नाम हैं। चिद्वृत्ति के नियंत्रण को ही संयम कहते हैं।

सबसे बड़ा, संयम का मतलब हैं, अपनी भावनाओं पर नियंत्रण। सेल्फ कंट्रोल  और वह एक ऐसी प्रक्रिया हैं, जिसे अपनाये तो हमारा जीवन अत्यंत विशुद्ध बन जाए। सवाल हैं भावों में संयम लाने का, हम भाव संयम कैसे लाएं। एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल हैं, अभी आप सब लोग देखा जाए तो संयम से रह रहे हैं। दसलक्षण की सारी व्यवस्थाएं ही ऐसी बनी हैं कि आप चाहो भी तो कोई उपाय नहीं। आप संयम से रह रहे हैं, पर  अपने मन से पूछो तुम्हारा संयम पल रहा हैं। संयम से रहना और संयम पालना, संयम का अनुभव करना इनमे बड़ा मौलिक अंतर हैं। मन से पूछो, मन क्या कहता हैं, तुम्हारा मन तुमसे क्या बोल रहा हैं, तुम्हारे मन में संयम पल रहा हैं तो पाओगे, महाराज! जिस बात को कंट्रोल करना चाहते हैं, वह ज्यादा उभरती हैं। जिस से दूर होना चाहते हैं, वही बार-बार मन में दौड़ता हैं। कैसे बचे? संयम, अपने मन पर कैसे लाएं? धर्म की जब भी बात की जाती हैं, मन की शुद्धि की बात होती हैं। अपने मन को शुद्ध या विशुद्ध बनाने की बात होती हैं। हम अपने मन को शुद्ध कैसे बनाएं, निर्मल कैसे बनाएं, उज्जवल कैसे बनाएं? बहुत ही अहम प्रश्न हैं यह। और आज चार बातें अगर अपने अंतःकरण की शुद्धि तक पहुंचना हैं तो आपसे कहूंगा-

  • निषेध
  • नियंत्रण
  • नियम
  • शुद्धि

सबसे पहले निषेध, अपने मनो-मस्तिष्क में हमें कुछ चीजें ऐसी बैठानी पड़ेगी जो हम एकदम निषिद्ध समझे। एक सीमारेखा, एक बाउंड्री लाइन खींचिये, अपने जीवन को निर्मल बनाना चाहते हैं तो कुछ बातों का निषेध होना चाहिए। मुझे ये कार्य नहीं करना हैं तो नहीं करना हैं, इससे दूर रहना हैं तो दूर ही रहना हैं, इसे नहीं छूना हैं तो नहीं छूना हैं, उस दिशा में नहीं जाना हैं तो नहीं जाना हैं। निषेध, मन में? कहाँ? मन में। एक बात ध्यान रखना, जब हमारे किसी कार्य पर किसी दूसरे का निषेध होता हैं तो मन उसके पीछे भागता हैं लेकिन जब हम खुद किसी कार्य के लिए खुद को निषिद्ध कर लेते हैं तो मन उधर ताकता भी नहीं हैं। निषेध खुद के द्वारा खुद तय करो, यह कार्य नहीं तो नहीं। बोलिए, अपने-अपने मन में कोई निषेध आज्ञा लगाइये, कोई चीज का निषेध। जो संयमी होता हैं, वह निषेध पहले करता हैं। जिन चीजों में हमारा निषेध हैं, वहां संयम हैं और जहाँ निषेध नहीं, वहां असंयम।

आप अपने मन को पलट कर के देखिए, प्रतिज्ञा लेना क्या हैं, निषेध की शुरुआत। मैंने एक लाइन खींच दी, अब इस लाइन से बाहर मैं नहीं जाऊंगा, वह मेरे जीवन की लक्ष्मण रेखा हैं, उसका उल्लंघन में नहीं करूंगा तो कोई निषेध मैंने सुनिश्चित किया या नहीं किया हैं। आपके जीवन में किसी बात का निषेध हैं कि नहीं हैं? हैं ना। क्या-क्या निषेध हैं? हम उस कार्य के लिए निषेध करते हैं, जिसे देखकर हमारी छवि खराब होती हो, हम उन बातों को निषिद्ध मानते हैं जिससे हमें कभी लज्जित या अपमानित होना पड़ता हैं। हम उन बातों को निषिद्ध समझते हैं, जिससे हमारी प्रतिष्ठा धूमिल होती हो। हम उन बातों को निषिद्ध समझते हैं, जिससे हमारा व्यवहार बिगड़ता हैं लेकिन आप ने उन बातों को निषिद्ध किया जिनसे हमारे विचार बिगड़ते हैं, जिनसे हमारे भाव बिगड़ते हैं, बाहरी क्षति ना हो उसकी तुम्हारे लिए सावधानी हैं, भीतर का नुकसान ना हो उसकी कोई तैयारी। मन को टटोलिये, मुझे लज्जित ना होना पड़े, मुझे अपमानित ना होना पड़े, मुझे नुकसान ना उठाना पड़े, मेरे संबंध ना बिगड़े, मेरे व्यवहार न बिगड़े, मेरी प्रतिष्ठा धूमिल ना हो इन बातों का ख्याल रखते हुए तुम बहुत सारी क्रियाओं से अपने आप को दूर रख लेते हो लेकिन मेरे भाव ना बिगड़े, मेरी आत्मा ना बिगड़े, मेरे मन में मलिनता ना आए, मेरे भीतर खोटे विचार ना आए, यह सावधानी कभी आई? नहीं आती ना। बल्कि हम बाहर से बहुत सारी चीजों को निषेध करते हैं लेकिन भीतर वह उबलता रहता हैं।

देखिए, उदाहरण देता हूं। दुकान पर बैठे हैं, ग्राहक दिमाग चाट रहा हैं, कुछ ले नहीं रहा हैं और ऊपर से कह रहा हैं, तुम्हारी दुकान में कुछ हैं ही नहीं।  गुस्सा आ रहा हैं पर क्या करते हो, ग्राहक को गाली देकर भगा देते हो। नहीं, महाराज! आप क्या समझते हैं, ऐसे करेंगे तो धंधा ही चौपट हो जाएगा। मुस्कुरा कर के कहते हो,  ठीक हैं, बहन जी फिर आइयेगा, अभी नया माल आने वाला हैं। मुस्कुरा रहे हैं, प्रेम से बोल रहे हैं, क्यों? आपने एक निषेध भीतर बैठा रखा हैं, नहीं, ग्राहक से हमें अच्छा बिहेव करना हैं, यदि मेरा बिहेवियर खराब होगा, धंधा चौपट हो जाएगा। यह निषेध आ गया हैं ना, उसने आप को नियंत्रित कर दिया, आप को रोक दिया लेकिन उस घड़ी भी मन में गाली निकल रही हैं, कहां से आ गया? सुबह से दिमाग चाट रहा हैं। अंदर गाली हैं, आप उसको प्रकट नहीं कर रहे हैं, उस तूफ़ान को दबाये हैं। बाहर से आप कितने मिलनसार दिख रहे हैं, कितने विनम्र, कितने व्यवहार-कुशल। भीतर क्या हो, उसे  देखो। यह अंतर क्यों आया केवल इसलिए क्योंकि आपने बाहर का निषेध तो रख लिया, भीतर का निषेध तो नहीं रखा। बाहर का निषेध केवल आपने इसलिए रखा क्योंकि बाहर के नुकसान से आप बचना चाहते हो और बाहर के नुकसान से बचना केवल इसलिए चाहते हो क्योंकि बाहरी नुकसान, आपको नुकसान दिखता हैं। भीतर का नुकसान तुम्हे नुकसान नहीं दिखता, इसलिए भीतर के नुकसान से बचने का तुम्हारा कोई प्रयत्न भी नहीं हैं। भीतर के नुकसान से बचो, बाहर के नुकसान की तो क्षतिपूर्ति थोड़े से प्रयासों से हो सकती हैं। भीतरी नुकसान को संभालना बहुत मुश्किल हैं, मन में निषेध देख लो क्या होता हैं। एक बार मन में जो बात बैठ जाए, दोबारा कभी नहीं आती, कभी नहीं आती और मन भी नहीं बैठे तो कितना भी कहो, व्यक्ति नहीं सुधरता।

मेरे संपर्क में एक व्यक्ति हैं, जो चैन स्मोकर था। परिवार के लोग बहुत दु:खी रहते थे, एक-दो बार मैंने भी समझाया पर उसने कहा, महाराज! मैं इतना आदी हो गया हूं कि इसे छोड़ नहीं सकता। मैंने देखा इसकी मानसिकता नहीं हैं तो मेरे जोर भी नहीं दिया लेकिन कुछ दिन बाद वह जब मेरे पास आया जब आता था तो जब आता था तो उसके शरीर से स्मोक करने की smell आती थी। उस दिन कोई smell नहीं आई  तो हमने पुछा, क्या बात हैं, भाई, तुम सुधर गये क्या? वो बोला, सुधर नहीं गया, महाराज! मैंने छोड़ दी। मैंने कहा- अच्छा, तुमने छोड़ दिया, मुझे विश्वास नहीं हो रहा। वो व्यक्ति बोला- हाँ, महाराज! सच में छोड़ दिया। महाराज! अब तो में सोचता तक नहीं हूँ और देखता तक नहीं हूँ। बहुत अच्छी बात हैं, छोड़ा कैसे? उसकी आंखों में पानी आ गया और बोला, महाराज! मैंने एक दिन सिगरेट पी कर के उसकी अद्धी फेंकी, मेरी ढाई साल की भतीजी ने उसे उठाया और मुंह में लगा लिया। छोटे भाई की ढाई साल की बेटी उसे देखी, मैंने सिगरेट पी के उसकी अद्धी फेंकी, उसने अपने मुंह से लगा लिया। उस अबोध बच्ची ने सोचा कि शायद कुछ अच्छी चीज होगी तभी तो बड़े पापा ले रहे हैं, उसने ले ली। महाराज! मेरे हृदय में घोर आत्मग्लानि हुई और उसी दिन से सिगरेट मेरे मन से उतर गई, अब मैं नहीं लेता। महाराज जी! आपके पास 3 माह बाद आया हूं, अब सिगरेट का कभी मन भी नहीं होता। यह क्या हैं? मन का निषेध।

तुम निषेध करना शुरू करो, यह प्रक्रिया अपनाओ, यह चीज नहीं, यह कार्य नहीं, यह क्रिया नहीं, यह विचार नहीं, नो एंट्री हो जाएगी लेकिन आप लोगों की क्या? आने दो, इनकमिंग चालू हैं हमें अपने विचारों का प्रहरी बनना होगा। जिन बातों से मार्ग स्खलन होता हैं, उनसे अपनी दूरी बनाइये। अपने आप को अलग कर लीजिए, नहीं, यह कार्य मुझे नहीं करना हैं, संयम लाना हैं। तो पहला पाठ क्या हुआ, निषेध। आज से किसका-किसका निषेध। गुटखा, तम्बाकू, शराब, मादक पदार्थ, अन्य प्रकार के विवाहेत्तर संबंध। यह मन से तन से नहीं। अब उधर झांकना ही नहीं। एक कोडिंग फीड कर दो, कोडिंग कंप्यूटर का सिस्टम होता हैं, उसमें अलग-अलग कोडिंग होती और जैसा कोड डाल दिया, वह सारा सिस्टम वैसा होता हैं। यही हमारे माइंड का हैं, निषेध की कोडिंग हो। नहीं, ये कार्य अब मुझे करना ही नहीं हैं।आप लोग कई बार बोलते कि कई चीजें ऐसी होती जो हमारे मन से उतर जाती हैं तो उसको करने का कभी भाव् होता हैं क्या, कितना भी अच्छा हो, जिसके तुम दीवाने रहे हो, जिसके बिना एक पल ना रह सको, मन से उतर जाने के बाद ख़त्म। बात छोटी कर रहा हूं लेकिन यह एक उप लक्षण हैं, एक-एक चीज़ कर के हम संयम के क्षेत्र में आगे बढ़ेंगे। अगर मन में निषेध हैं तो  अब मुझे आगे इसे नहीं लेना। और एक बात बताऊँ, मनुष्य को किसी का गुलाम नहीं बनना चाहिए। देखो, मन कितना गुलाम हैं, जब तक मन में किसी चीज की चाह बैठी रहेगी, सिर फटता रहेगा और चाह को निकाल दोगे तो आनंद ही आनंद होगा। तय कीजिए, क्या? निषेध बहुत छोटा सा शब्द हैं, संयम के रास्ते पर चलना हैं, निषेध, यह मेरी सीमा रेखा हैं, इसका मुझे उल्लंघन नहीं करना, निषेध। किसी हालत में मुझे अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करना हैं। तो पहले तो यह बताइए, आपने अपनी कुछ सीमाएं सुनिश्चित की हैं या नहीं, हर मनुष्य को अपने जीवन की सीमा रेखा बनानी चाहिए और नहीं हैं तो आज अपनी बाउंड्री लाइन को फिक्स कर लीजिए बॉउंड्री लाइन को फिक्स कर लीजिए, मैं मर्यादित जीवन जीऊंगा, मैं सदाचारी बनूंगा, मैं अपने भाव और विचारों पर नियंत्रण रखूंगा, उसकी एक सीमा बनाऊंगा। ईर्ष्या, द्वेष, भय, चिंता से अपने आप को मुक्त रखूंगा। यह सीमा हमने अगर सुनिश्चित कर ली तो समझना हमारा जीवन सुरक्षित हैं और सीमा नहीं तो क्या हुआ? सीता का हरण क्यों हुआ था? सीमा में रहने के कारण की सीमा को लांघने के कारण। तो एक सीता तो हरी गई, वापस लौटा ली गई पर तुम्हारे भीतर की शांति की सीता का रोज तुम्हारा अभिमानी रावण हरण कर रहा हैं। तुम्हे उसका ख्याल हैं, बचो, उससे बचने का केवल और केवल एक ही उपाय हैं, निषेध, मुझे अपनी सीमा रेखा बनानी हैं।

एक अच्छे मनुष्य होने के नाते, एक सच्चा जैन होने के नाते, मुझे जो कुछ करना हैं, मेरे लिये जो कुछ करणीय हैं, वह मुझे करना ही हैं। मुझे उसका निषेध करना हैं तो करना हैं। क्या संभव नहीं हैं, सब संभव हैं। सब संभव हैं, अभी कहा गया, महाराज! रात्रि भोजन के लिए छोड़ो। मन को मजबूत बनाइए, नहीं, मुझे नहीं करना हैं तो नहीं करना हैं। इससे मेरी पहचान खंडित होती हैं। आजकल तो तुम सब जितने हो तुम लोगों में कोई संयम नहीं, पहले कहा जाता था जब मैं छोटा था, दूध लेने जाता था तो ग्वाला कहता था कि जैनी लोग सियार भोंकने के बाद नहीं खाते। अब आप इतने होशियार हो गए तो कोई कितना ही भोंके, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।  कहाँ चले गए, तुमने अपनी पहचान खो दी हैं, तुम्हारे अंदर निष्ठा नहीं बची, निषेध होना चाहिए। तय कर लो, अब यह सब बातें मेरे व्यवहार में और मेरे विचार में नहीं होंगे और निषेध करने के बाद का अगला चरण हैं नियंत्रण।

निषेध के बाद नियंत्रण जब हम निषेध करते हैं तो कई-कई बार हमारा मन जिसे हमने निषेध किया, उसकी तरफ भागता हैं। हालाँकि ऐसा कम होता हैं, अगर हमने मन से किसी बात को स्वीकार कर लिया तो फिर मन उसके विरुद्ध बहुत कम जाता हैं और दूसरों की देखा-देखी कर लिया तो मन भागता हैं तो चलो, अच्छा कार्य खुद की प्रेरणा से करो या औरों की से अच्छा कार्य, अच्छा कार्य हैं। हमेशा करना चाहिए, उसमें कोई दिक्कत नहीं हैं लेकिन अपने मन से तुमने कोई कार्य किया हैं, उसके बाद भी मन भागता हैं तो उसे नियंत्रित करें। हमारे यहां कहा गया कि तुम मुनि बने हो। हम मुनि बने, अपनी इच्छा से बने हैं, किसी ने जबरदस्ती मेरे कपड़े नहीं उतारे। मैं मुनि बना अपनी इच्छा से बना, अपनी भावना से बना और जिस पल मुझे मुनिव्रत मिला, मुनि बनने की जो घड़ी थी, वह मेरे जीवन की स्वर्णिम घड़ी थी। उस घड़ी में मैं अपने आप को बड़ा कृतार्थ महसूस कर रहा था। मुझे लग रहा था कि आज मैंने जीवन की अमूल्य निधि पा ली वह निधि, जिसे मैं भव-भव में नहीं पा सका। यह अहो भाव मेरे भीतर था क्योकि मैं अपने मन से मुनि बना, अपने कल्याण की भावना से मुनि बना। किसी की देखा-देखी में या किसी के दबाव, प्रभाव में आकर के मुनि नहीं बना तो मेरे भीतर मुनिपन की वह अनुभूति, पर आज जब मैं मुनि बना तो हमारे गुरुदेव ने उसी दिन कहा था कि देखो, मुनि बन गए इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हें मोक्ष मिल गया। यह मत समझना कि मुनि बन गए तो मोक्ष मिल गया, अभी तो मोक्ष मार्ग की शुरुआत हैं, क्षण-क्षण सावधान रहना तो मेरे जो व्रतों की मर्यादायें हैं। मेरे जो व्रतों की सीमा हैं, जिनका मैंने निषेध कर रखा। उनका मुझे 24 घंटे ध्यान रखना पड़ता हैं कि कहीं मेरा मन भागता तो नहीं हैं, भागे तो नियंत्रित करो और यदि मैं ध्यान ना दूँ तो पता नहीं, मन कहां रम जाए। मन का तो स्वभाव ही ऐसा हैं, मन को भागने का अभ्यास हैं, वह भागेगा। कहां भाग जाए, इसका कोई पता नहीं। तो भाई नियंत्रण करो, नियम ले लिया, मुनि बन गए, दीक्षा ले ली, बढ़िया मंच पर कार्यक्रम हो गया, बैंड-बाजे बजने लगे, जय-जयकार हो गई, लोग पूजा कर रहे हैं, हजारों की भीड़ आ रही हैं, उसी में मुग्ध हो जाऊं और जिसके लिए मैं मुनि बना उसको भूल जाऊं तो क्या होगा? ऊपर से मुनि रहूंगा, भीतर कोई मुनि नहीं बचेगा तो कहते हैं, नियंत्रण करो।

नियंत्रण करो, उस पर हमेशा ध्यान रखो, कहीं कुछ गड़बड़ हो, नियंत्रण रखो। किस के बल पर नियंत्रण रखो? महाराज! मन भाग जाए तो क्या करें। आप लोगों का सवाल होता हैं, मन को नियंत्रित कैसे करे, मन तो उटपटांग कार्यो में ज्यादा भागता हैं, बड़ी तेजी से भागता हैं, यह मन का स्वभाव हैं। गौतम स्वामी कहते हैं-

मन बड़ा साहसी और दुष्ट घोड़ा हैं। कैसा घोड़ा हैं? दुष्ट और साहसी। ऐसे दुष्ट घोड़े को जो बहुत तेजी से भागता हैं, वश में करने के लिए क्या करना हैं। धर्म और शिक्षा की लगाम से उसका निग्रह किया जा सकता हैं तो शिक्षा दो, मन को ज्ञान दो, आप मन को खुद रूप, खुद से दिशा निर्देशन दो। सम्यक दिशा निर्देशन, सेल्फ मोटिवेशन।

कहाँ जाता हैं मन? एक बार मेरा लगातार 3 दिन का अंतराय हुआ, 1994 की बात हैं, विदिशा में थे, गर्मी का समय था। 3 दिन लगातार अंतराय हुआ और विदिशा शहर में तो ऐसी मध्यप्रदेश में सर्वाधिक गर्मी विदिशा में पड़ती हैं। गर्मी प्रचंड थी। एक इंजीनियरिंग छात्र ने मुझसे पूछा, महाराज जी! मैं देख रहा हूँ, तीन दिन से आपका अंतराय हो रहा हैं। क्या, आपके मन में यह नहीं आता कि कहीं से कुछ मिल जाए, कही से कुछ मिल जाए, आप अपने मन को कैसे सँभालते होंगे, सवाल तो आपके मन में भी आता होगा, नहीं आता तो आना चाहिए, हिम्मत नहीं कर पाए वो बात अलग हैं। परसों एक युवक ने मुझसे पूछा कि महाराज जी! कहीं आप का मन नहीं होता। बस इतना ही अंतर हैं तुम्हारे मन में और हमारे मन में। तुम मन के हिसाब से जीते हो और हम मन को अपने हिसाब से चलाते हैं। जिस घडी अंतराय आता हैं, उस घडी यह नहीं आता मन में कि यह अंतराय क्यों आ गया? उस घडी यह आता हैं कि अरे, अशुद्ध आहार हो गया, छोड़ो। मन तो मलिन भी हो सकता हैं, मुंह लटका ले, देखा आपने साधु को, आ गया कोई बात नहीं, चलो अंतराय आ गया, कर्म काट गया, जाने दो, अशुद्ध भोजन मुझे नहीं करना, यह मैंने निषेध अपने मन में बिठा रखा हैं और नियंत्रण हैं। और नियंत्रण खो दे तो बेईमानी भी कर सकते हैं।  ईमानदार साधक कभी बेईमानी नहीं कर सकता और जो बेईमानी करता हैं वह साधक हो नहीं सकता। महाराज! मन नहीं करता? नहीं। जिस समय अंतराय आता हैं, उसी घड़ी मन से कह देते हैं, देख, तेरे खातिर मैंने श्रावको के आगे हाथ फैलाया। आज तेरे भाग्य में इतना ही था, अब 24 घंटे तेरी कोई सुनवाई नहीं होगी। अब जो होगा कल होगा। शरीर शिथिल होता हैं, गर्मी हैं, पानी की कमी हैं, होंठ सूखते हैं, कंठ सूखता हैं, शरीर में दाह होती हैं। ठीक हैं, इतना तो मन हो सकता हैं कि चलो हो गया, थोड़ी बहुत कोई उपचार कर ले, ऊपरी उपचार कर ले, वैयावृत्ति कर ले लेकिन यह मन कभी नहीं होता चलो, कुछ नहीं तो चुपचाप से पानी पी लूं । कमंडल में तो रखा हैं, 24 घंटे रखा हुआ हैं, दरवाजा बंद करो, पी लो। देखो, अगर व्यक्ति चाहे तो सब अनर्थ कर सकता हैं लेकिन नियंत्रण हो तो कुछ भी नहीं करता। इसी का नाम साधना हैं, इसी का नाम तपस्या हैं। निषेध, नियंत्रण, नहीं यह तेरे लिए हितकर नहीं हैं, तू मुनि बना, सबको छोड़ा, अगर यही करना था तो अंतराय क्यों किया। यही करना था, तूने दीक्षा क्यों ली। यही करना था तो इतनी तपस्या का रास्ता क्यों चुना फिर तो गृहस्थी ही अच्छी थी। तूने सर्वस्व त्यागा और त्रिलोक पूज्य स्वरुप को धारण किया, उसके बाद तू अपना मन उधर ले जा रहा हैं। नहीं, ऐसा नहीं करना हैं, मन मुड़ गया, कितनी सी वेदना हैं। थोड़ी सी तो वेदना हैं, नरको की वेदना के आगे ये वेदना कहाँ हैं, कुछ भी नहीं चलो, सहो, जितना सहोगे  उतना समर्थ बनोगे। कर्म झड़ रहे हैं, छोड़ो, मन को सम्बल आ गया। इतना ही तो चाहिए, एक बात बोलूं , मन को नियंत्रित करना बहुत कठिन हैं और मन को साधना बहुत सरल हैं।

मन को रोकना कठिन हैं और मन को साधना बहुत सरल हैं एकाएक मन भाग रहा हैं, रोकोगे तो वैसे ही होगा, जैसे तेज स्पीड में गाड़ी जा रही हैं और तुमने ब्रेक लगाया एक साथ, आगे-पीछे का, 120 की स्पीड में गाड़ी और एक साथ चारों पहिए के ब्रेक लगा दिए, क्या होगा? पहले उसकी स्पीड को मेंटेन करते हैं, फिर गाड़ी रोकते हैं। मोड़ना संभव हैं, रोकना संभव नहीं हैं। तो कहते हैं, मन को साधने का मतलब, मन को रोकना नहीं, मन को मोड़ना, सम्यक डायरेक्शन, सम्यक दिशा-दर्शन दो, राइट डायरेक्शन में उसे मोड़ दो। सेल्फ मोटिवेशन में नहीं। अभी बहुत सारे लोग उपवास कर रहे हैं, भोजन तो छोड़ दिया, अब समय आने वाला हैं, चतुर्दशी के बाद पारणा होगी, मन में यह तो नहीं आ रहा हैं कि पारणा ऐसी करूंगा और पारणा वहाँ पर करूँगा। मन में यह तो नहीं आ रहा हैं कि पारणा में ऐसा करूँगा, वैसा करूँगा। आ सकता हैं, मन हैं। पर मन में यह आना चाहिए जब मैंने सब छोड़ ही दिया तो उसका आनंद लेना हैं। दस दिन बाद। दस दिन तक अब कुछ नहीं, मन में आए तो भी मन को कहे, अभी तो मैं सब पापों से मुक्त हो गया भोजन तक छोड़ दिया, फिर तू क्यों सोच रहा हैं, मुझे अवसर दे, अभी 10 दिन तू मेरे साथ रह, फिर मैं तेरे साथ रह जाऊंगा, मन शांत हो जाएगा। कुछ भी हो, निषेध किया, मन भागे उसे सही गाइडलाइन दो और नियंत्रण करो।  ‘to be control’ जहां नियंत्रण कर लिया, काम खत्म। मन में, तुम्हारे मन में किसी के प्रति दुर्भाव आ रहा हैं, नियंत्रण करो। मुझे गलत भाव आ रहा हैं, कोई विकार आ रहा हैं तो नियंत्रण करो, नियंत्रण अशांति का कारण हैं, यह पाप हैं, यह असंयम हैं, यह मर्यादा के बाहर का कार्य हैं, मुझे नहीं करना। यह शोभनीय नहीं हैं, इसमें सार नहीं हैं, यह व्यर्थ हैं, यह बेकार हैं। मुझे इस चक्रव्यूह में नहीं फंसना, मुझे इस सब्जबाग में नहीं उलझना, मुझे इस प्रलोभन में नहीं फंसना। इतना विवेक जगा लो तो कोई भी असंयम तुममे नहीं होगा। तो निषेध फिर नियंत्रण।

निषेध तो बहुत सारा आप लोगों ने कर रखा हैं, नियंत्रण भी पूरा रखना हैं लेकिन आप लोगों का निषेध भी अलग होता हैं और नियंत्रण कैसा होता हैं वो तो आप ही जानते हो। ऐसा काम नहीं करना, जैसा निषेध वैसा ही नियंत्रण, उसमे लचीला रुख अपनाओगे तो कभी टिक  नहीं पाओगे, संकल्प मजबूत रखो, मुझे नहीं करना तो नहीं करना, मुझे रोकना तो रोकना, मुझे रुकना तो रुकना ही हैं। मन का ही खेल हैं, सब अंदर ही, अंदर ही अंदर करना हैं। अपने आप नियंत्रण होता हैं। मनुष्य के भीतर की इच्छाशक्ति अगर जागृत हो तो उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं हैं। कोई भी कार्य असंभव नहीं हैं, सब कुछ संभव हैं। आप अपने मन को वैसा जगा के रखिये, देखिए कैसा मजा आता हैं? असंभव जैसा कुछ बचेगा ही नहीं, मन को मोड़ दीजिएगा, मन को बदल दीजिएगा, जीवन में आनंद ही आएगा। तो निषेध के बाद नियंत्रण। आज से नियंत्रण सीखिए, कभी मन भागे नियंत्रण, नहीं उधर मुझे अपनी गाड़ी को ले जाना ही नहीं हैं, कंट्रोल करना हैं, कंट्रोल करना हैं, कंट्रोल करना हैं। गुस्सा आये तो नियंत्रण, गाली देने का मन हो तो नियंत्रण, किसी से उलझने का मन हो तो नियंत्रण, वासना का विकार आये तो नियंत्रण, क्षोभ आये तो नियंत्रण, लालच आये तो नियंत्रण, किसी भी पाप में मन जाए तो नियंत्रण।

तीसरा हैं नियम, तुरंत नियम ले लो, तुरंत संकल्प ले लो, संकल्प से सिद्धि होती हैं। निषेध कर दिया, नियंत्रण कर दिया, अब नियम लो और नहीं करना, प्रतिज्ञाबद्ध हो जाओ। सुबह भावना-योग में मैंने आप सब को प्रार्थना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान किया। यह प्रत्याख्यान क्या हैं, स्वयं के प्रति कमिटमेंट हैं, प्रत्याख्यान। आज के दिन में ऐसा रहूंगा, इनको स्वीकारूँगा, इनको त्यागूंगा। आज मुझे गुस्सा नहीं करना, यह मेरा प्रत्याख्यान हैं। आज मुझसे कोई बेईमानी नहीं करना, यह मेरा प्रत्याख्यान हैं। आज प्रतिक्रियाओं से प्रभावित नहीं होना, यह मेरा प्रत्याख्यान हैं, नकारात्मक प्रतिक्रियाये नहीं देना, यह मेरा प्रत्याख्यान हैं। मर्यादाओं को लांघना नहीं, यह मेरा प्रत्याख्यान हैं। विषमताओं में विचलित नहीं होना यह मेरा प्रत्याख्यान हैं। मन में स्थिरता बनाए रखना यह मेरा प्रत्याख्यान हैं। सब रीसॉल्यूशन हैं, मन को मजबूत बनाते हैं, नित्य नियम लीजिए, संकल्पित होइए, नियम और कुछ नहीं सिर्फ सेल्फ कमिटमेंट हैं। हम औरों के साथ दिए गए कमिटमेंट को निभाते हैं पर अपने साथ किए गए कमिटमेंट को भी पूरी तरह फुलफिल कीजिए। हमारा अपने साथ जो भी कमिटमेंट हैं, उसे मुझे निभाना हैं, हर अर्थ में निभाना हैं।

जो व्यक्ति अपने कमिटमेंट पर दृढ नहीं रहते, वह कभी सफल नहीं होते। आजकल मैनेजमेंट में आप लोगों को सिखाया जाता हैं, कमिटमेंट में पक्के होना हैं। यह तो आज सिखा रहे हैं, हमारे भगवान ने तो पहले से कहा, जो तुम अपने आप को कमिटमेंट दो, उस कमिटमेंट को निभाओ, तुम्हारी जिंदगी रफ़्तार के साथ आगे भागेगी, कुछ सोचने की बात नहीं हैं। नियम लीजिए, कुछ लोग होते हैं जिनको नियमों में कोई निष्ठा नहीं होती, नियम नहीं लेना चाहते। हम तो नियम में नहीं बंधेंगे, हम तो नियम में नहीं बंधेंगे।

एक बार ऐसा हुआ, एक युवक था, उसके परिवार के लोग आए, बोले, महाराज जी! इसको कुछ नियम दे दो। मैं उसकी तरफ देखा, बोला, महाराज! मेरी नियम में श्रद्धा नहीं, मैं नियम नहीं ले सकता। मैं कोई नियम नहीं लेता। मैं थोड़ी देर चुप रहा, अच्छा, अभी किस से आये हो ? बोला, गाड़ी से। गाड़ी चलाकर लाये हो। बोला, हाँ। तो गाड़ी कैसे चलाई गाड़ी, लेफ्ट साइड में या राइट साइड में। वो बोला, लेफ्ट साइड में। मैंने पुछा, लेफ्ट साइड में क्यों चलाये, राइट साइड में क्यों नहीं चलाए। यह एक रूल हैं, लेफ्ट साइड में चलाना रूल हैं। अच्छा, आये थे तो रास्ते में कोई लालबत्ती वगैरह मिली? बोला, मिली। तो क्या हुआ तुम ने गाड़ी रोकी की चलाई? बोला, गाड़ी क्यों रोकी? वो बोला, महाराज जी! रूल हैं। ठीक हैं, किसी को ओवरटेक करना पड़ा तो तुमने इंडिकेटर दिया, हॉर्न दिया? वो बोला- रूल हैं। हमने कहा, भैया, अभी तो तुम कह रहे थे कि मेरा नियम में कोई विश्वास नहीं, मैं नियम नहीं ले सकता और तुम अभी खुद अपने मुंह से कह रहे हो कि घर से यहां तक आए तो पूरे ट्रैफिक के नियम को पल कर के आये। अगर ना पालो तो फेल हो जाओगे तो हमने कहा ध्यान रखो, जैसे अपने एक छोटे से गंतव्य तक जाने के लिए ट्रैफिक के रूल को फॉलो करना जरूरी हैं, वैसे ही जीवन को आगे बढ़ाने के लिए जीवन के रूल को फॉलो करना बेहद जरूरी हैं। बिना नियम के जीवन नहीं चल सकता, नियम तो नियम ही हैं, जो जैसी व्यवस्था हैं उसके अनुरूप ही हमें करना हैं।  नियम विरुद्ध चलने वाले कभी सुखी नहीं होते।

एक बार एक बच्चे ने पूछा शंका समाधान में, महाराज! नियम क्यों लेते हैं? बिना नियम के नहीं रह सकते। मैंने कहा, तुम खेलते हो? मै बोला, क्या खेलते हो? बोला, क्रिकेट खेलते हैं। क्रिकेट खेलते हो अगर उसकी बाउंड्री बॉडी हटा दे तो बोला, कोई मतलब नहीं, मजा नहीं आएगा। क्रीज़ हटा दे तो कोई मजा नहीं आएगा। उसमे कोई नियम नहीं हो तो बोला, फिर क्रिकेट का मजा नहीं आएगा। हम बोले- मजा किसका हैं, सारे रूल्स का हैं तो हमने कहा जैसे खेल का मजा उसके नियमों में हैं, वैसे ही जीवन का मजा भी उसके नियमों में हैं नियम हटा दे तो उसका सारा मजा खत्म।

नियम लीजिए, तब मजा होगा। जब भी मौका पड़े, यह नियम मुझे लेना हैं, ले लो। और नियम लो तो निभाओ, गली मत निकालना। तुम लोग इधर नियम लेते हो, इधर गली ढूंढ लेते हो तो वहां गड़बड़ी हो जाती हैं। नियम लो तो निभाओ, पक्के तौर पर निभाओ, देखो, आप लोगों के साथ नियमों में क्या कहानी होती हैं।

एक आदमी एक के घर भोजन करने के लिए गया तो उसके यहां आलू की सब्जी बनी थी और कोई दूसरी सब्जी नहीं थी, केवल आलू की सब्जी थी, दूसरी सब्जी नहीं थी। सामने वाला दुविधा में फंस  गया। उसने कहा, ठीक हैं, एक काम करो, मैं थोड़ा कॉम्प्रोमाइज कर लेता हूं, अब परेशान मत हो। हमें झोल-झोल दे देना, आलू का त्याग हैं, झोल का त्याग नहीं। सामने वाले ने कहा, अच्छा रास्ता निकला, अब जब वो उसको परोसने लगा तो आलू को रोककर झोल परोसने लगा। एक बड़ी झारी में था, उसमें से आलू रोका और झोल परोसने लगा। उसने कहा, हद हो गई, जो अपने आप आता हैं, उसको क्यों रोकते हो, आने दो। अपने आप आ रहा हैं उसको आने दो, इसको क्या बोलेंगे, कितनी बड़ी कमजोरी हैं। नियम लीजिए, नित्य प्रति नियम लीजिए, ये कार्य मुझे नहीं करना हैं तो नहीं करना हैं, मन नहीं भागेगा। आप यहां आए हैं, शिविर में सम्मिलित हुए हैं, पूजा में सम्मिलित हुए हैं। रोज आपको भैया जी नियम देते हैं, अगर आपने नियम ले लिया कि जब तक यहां का कार्यक्रम नहीं होगा तब तक मेरे खाने-पीने का, बाहर जाने का त्याग। भूख नहीं सताएगी, मन नहीं भागेगा, इधर-उधर जाने का मन नहीं होगा और आपने कोई नियम नहीं लिया तो पेट में चूहा कूदने लगा। चलो यहां तो बहुत बोली लग रही हैं, इधर-उधर का हो रहा हैं, चलो घूम कर आते हैं और बाहर चले गए और खुद नहीं गए, किसी बाजू वाले ने कहा चलो बाहर चलते हैं, कुछ ले आते हैं, उठ कर चले जाओगे और नियम होगा तो मेरा नियम हैं, यह नियम का लाभ हैं। नियंत्रण लाने के लिए नियम चाहिए, बिना नियम के कल्याण नहीं होता।

इसलिए जब भी मन में कोई अच्छे भाव आये, तुरंत नियम ले लो, उसमें कोई बंधन नहीं हैं। यह हमारे चित्त के उदारीकरण का एक रास्ता हैं, एक माध्यम हैं। नियम लिया, अब यह कार्य मुझे नहीं करना। भगवान की साक्षी में ले लो, गुरु की साक्षी में ले लो, देवता की साक्षी में ले लो, स्वयं की साक्षी में ले लो। नहीं, यह कार्य मुझे नहीं करना। कुछ ना कुछ, कुछ ना कुछ, नियम तो होना ही चाहिए। घर में गए हैं, आपने नियम ले रखा हैं कि आज मुझे टीवी नहीं देखना, कोई दूसरा टीवी चला भी रहा हो तो मन में इच्छा नहीं होगी। देखने का विचार नहीं हैं, कोई दूसरा चला रहा हैं, अरे चलो, देख लो, बड़ा अच्छा प्रोग्राम आ रहा हैं, देख लो, बैठ गए काम खत्म। मन में अगर कोई बात बैठ जाए तो इच्छा भी उत्पन्न नहीं होती, इसलिए नियम लेना शुरू कीजिए। छोटे-छोटे नियम, तुम्हारा संयम धर्म कब पलेगा। बातें तो लोग बड़ी-बड़ी कर देते हैं लेकिन जो करना चाहिए, उसके बारे में कुछ सोचते  ही नहीं। अपना अनुशासन हो, सेल्फ कंट्रोल और सेल्फ डिसीप्लिन। नियम आत्मानुशासन का पाठ पढ़ाता हैं। नियमित दिनचर्या, नियमित आचार, नियमित विचार को युक्ताहार विहार की संज्ञा दी गई। वो व्यक्ति बड़ा बैलेंस लाइफ जीता हैं, उसके जीवन में बेहद संतुलन कायम होता हैं। तो निषेध, नियंत्रण, नियम। पक्का नियम लेना, कई लोग नियम लेते हैं अंटी बांधकर। बहुत होशियार होते हैं, अंटी बांध ली फिर नियम लिया।

एक महाराज थे, हमारे संघ में बहुत नियम देते थे और वो नियम में क्या करते थे कि जब तक चाय नहीं छोड़ो तब तक हम लेंगे नहीं। अब वो महाराज से मुंह लगा हुआ युवक था, वो आहार देना चाहता था, चाय छोड़ नहीं सकता था। आहार दे लिया, महाराज जी! मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार जल शुद्ध हैं, चाय का त्याग। सबको आश्चर्य हुआ, सबके टारगेट में था कि इसका चाय छुड़वाना ही हैं। अब वो चाय का त्याग बोल कर आहार दे दिया। बाद में बोला, भैया, तुमने आहार दे दिया, चाय का त्याग कर दिया। वो बोला, मुझे आहार देना था दे लिया। नियम लिया था तुमने तो, तो वह व्यक्ति बोला- हमने तो अंटी बांधकर के नियम लिया था। ऐसे बेईमानों के लिए क्या कहेंगे। बहुत होशियार हैं आप लोग। साधु को भी लपेट लो। हालाँकि, एक बात सदैव ध्यान रखना, नियम देने की चीज नहीं होती, नियम लेने की साधना हैं। मैं किसी को नियम नहीं देता, लोग नियम लेते हैं। नियम लेने का मतलब हैं, जीवन को स्वयं में लीन करना, तो जीने का आनंद हैं। जबरदस्ती हम नियम दे देंगे तो वो बोझ हो जाएगा और नियम लोगे तो वो जीवन का रस बनेगा। रस प्रकटाओ, थोपो नहीं।

मुझसे कहते हैं, महाराज जी! शिविर हैं। शिविर में कुछ लोग इधर-उधर कर लेते हैं। आज किसी ने बताया महाराज जी 1,2 लोग ऐसे दिखे जो  जनरल भोजनशाला में से चाय ले आये। हम बोले वो शिविरार्थी नहीं होंगे और ले भी ले तो किनके पीछे तुम चौकीदार बन कर के घूमोगे? यहां जो अपना घर-परिवार, व्यापार-धंधा सब कुछ त्याग कर के आया हैं, यह उसे सोचना हैं कि मैं किसलिए आया हूं और जिस लिये मै आया हूँ, वो लाभ मुझे लेना हैं और कोई आदमी अपने प्रति बेईमान हो जाए तो उसके लिए हम डंडा लेकर के थोड़ी सुधारेंगे। हम साधु हैं, कोई पुलिस थोड़ी हैं। इसलिए हमारे पास डंडा चलाने का काम भी  ही नहीं। एक बार आप को बता दिया गया, 98% लोग सही काम करते होंगे। मुझसे बोला गया, 8 -10 लोग होंगे। हम बोले, 2000 में 10 लोग कितने होते हैं। आधा परसेंट भी नहीं, तो आधा परसेंट में दिमाग क्यों लगा रहे और हो सकता हैं, वह शिविरार्थी नहीं हो। बाद में आया हो, दसलक्षण मनाने आया हो लेकिन हमारा खुद का इतना आत्मानुशासन होना चाहिए कि मैं क्यों आया हूं? मुझे क्या करना हैं? मन का प्रमाद मुझ पर हावी ना हो तो मजा हैं। नियम का रस हैं, इसलिए नियम लो। किसी को नियम देना ना पड़े, लो उल्लास-पूर्वक लो, उसका रस लो तो निषेध, नियंत्रण, नियम फिर शुद्धि।

फिर अपने आप शुद्धि हो जाएगी, भाव शुद्धि होगी, विचार शुद्धि होगी, जीवन शुद्ध हो जाएगा। तो शुद्धि चाहते हो? चाहते तो हैं पर बिना निषेध, बिना नियंत्रण, बिना नियम के। ऐसा, बिना निषेध, बिना नियंत्रण और बिना नियम के शुद्धि। ‘न भूतों न भविष्यति’ यह तीनों प्रक्रियाओं को अपनाओगे तो चौथी प्रक्रिया तुम्हें स्वतः उपलब्ध हो जाएगी और प्रकट हो जाएगी। उसके लिए अपने हृदय के उल्लास को जगाए। संयम धर्म के दिन सोचिए कि हम उन महा मुनीराजो के अनुयायी हैं, जो संयम की प्रतिमूर्ति हैं, जिनकी प्रवृत्ति में और वृति में महान संयम दिखता हैं, जो संयम के अवतार हैं, जिनका उठना-बैठना, खाना-पीना, चलना-फिरना और सोचना-विचारना। सब एक लय में हैं, एक संयम में हैं। उन संयमी महामुनिराजों के अनुयायी होने के उपरांत ही यदि हम अपने मन के असंयम को निवारित ना कर पाए तो हमसे बड़ा अभागा इस दुनिया में कौन होगा। गुरुओ से संयम का पाठ लेना सीखिए, संयम का पाठ पढ़ कर अपने जीवन को आगे बढ़ाने का सत्प्रयास कीजिए तो हमारा जीवन धन्य होगा।

आज संयम का दिन हैं, आप सब लोगों को संयम लेना चाहिए, अपने जीवन में निषेध, नियंत्रण, नियम के साथ शुद्धि की प्रक्रिया को अपनाना चाहिए। निषेध हो गया, नियंत्रण हो गया, नियम हो गया, शुद्धि हो गई तो सिद्धि हो गई। फिर कुछ कहने की जरूरत नहीं हैं। तो आज की ये चारो बाते आप याद रखियेगा- निषेध, नियंत्रण, नियम, शुद्धि बोलिए परम पूज्य आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज कि जय।

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