उत्तम सत्य
एक राजा रात सपने में देखा कि अचानक अपरिचक्र का आक्रमण हो गया हैं। अपरिचक्र के इस अप्रत्याशित आक्रमण से वह अपने आप को बचा नहीं सका। उसे अपना राजमहल छोड़कर भागना पड़ा, एकाकी जंगल की ओर भागा, भागते-भागते उसके सारे राज-चिन्ह उतर गए, धूल दूषित शरीर हो गया। कपड़े भी गंदे और बहुत अंशों में फट गए, 3 दिन से राजा को कुछ खाने को भी नहीं मिला। 3 दिन का भूखा था तभी कहीं एक जगह एक लंगर लगी थी, वो खाने की इच्छा से लंगर की लाइन में लग गया। उसे थोड़ी सी खिचड़ी मिली, वो खिचड़ी की थाल लेकर खाने ही वाला था कि अचानक चार कुत्ते आए और आपस में लड़ते-लड़ते उसके खिचड़ी पर लौट गए, पूरी थाल पलट गई। जो थोड़ी सी खिचड़ी मिली थी, वह भी धूल दूषित हो गई और कुत्तों की इस उछल-कूद में उसकी नींद खुल गई। कुत्तों की इस उछल कूद में उसकी नींद खुल गई, दरबार में आने के बाद उसने अपने राजगुरू से पूछा कि गुरुदेव! रात मैंने सपने में यह देखा, वह सच हैं या अभी देख रहा हूँ, वह सच हैं। रात सपने में मैंने जो देखा वह सच हैं या अभी जो देख रहा हूँ, वह सच हैं। राज गुरु ने उसे सम्बोधा और कहा राजन! ना वो सच हैं, ना यह सच हैं। वह एक सपना था, यह एक सपना हैं। वह बंद आंख का सपना था, ये खुली आँख का सपना हैं। आज बात ‘सच’ की हैं। सच क्या हैं? आप जानते हो, आज चार बाते आपसे करूंगा।
- जानो
- जिओ
- ध्याओ
- पाओ
सच को जानो। बोलो, सच क्या हैं? सच, मनुष्य के जीवन के साथ एक बहुत बड़ी विडम्बना हैं, वह सब चीजों को जानता हैं पर जीवन की सच्चाई का उसे पता नहीं हैं। किसी ने बहुत सार्थक लाइने लिखी हैं-
‘कोई सोता हो जैसे किसी डूबती हुई किश्ती के तख्ते पर’।
अगर सच पूछो तो दुनिया की बस इतनी ही हकीकत हैं। सच पूछो तो दुनिया की बस इतनी ही हकीकत हैं, यह एक बहुत गहरी सच्चाई हैं। तुम्हें अपने सच का कोई पता हैं, क्या सच हैं? तुम्हारा ये जीवन सच हैं, तुम्हारी ये संपत्ति सच हैं, तुम्हारा यह शरीर सच हैं, तुम्हारी ये सामर्थ्य सच हैं, तुम्हारी ये सत्ता सच हैं, क्या सच हैं? कभी समझे, मनुष्य की जिंदगी की बड़ी विडंबना यह हैं कि सारा जीवन झूठा हैं और झूठ में ही वो मगन हैं। काश हम इस झूठ को समझे और जीवन को सच की राह पर ले जाने का संकल्प करें तो हम अपने जीवन में कुछ स्थाई कामयाबी हासिल कर सकते हैं। सच क्या हैं? जो शाश्वत हैं।, सच क्या हैं? जो स्थाई हैं। सच क्या हैं? जो यथार्थ हैं, जो असली हैं। यथार्थ पर दृष्टि दौड़ाएं, यथार्थ को जाने हमें दो सच को समझना हैं।
एक मर्त सच, एक अमर्त सच। मर्त सच, जो बाहर का हैं, जो हमें संसार की वास्तविकता का बोध कराता हैं और अमर्त सच जो हमारे भीतर का हैं, जो हमारी आत्मा की शाश्वतता का भान कराता हैं। दोनों सच को हमें स्वीकारना होगा, दोनों सच को हमें जानना होगा। जब तक हम इस सच को नहीं जानेंगे, जीवन में परिवर्तन घटित नहीं हो सकता। सच क्या हैं? इसे पहनिए, जानिये और अपने जीवन को उसी अनुरूप ढालने का प्रयत्न करिये।
सच, पहले मैं बाहर के सच की बात करता हूँ तो तुम्हारे पास जो हैं वह सब झूठ। सब झूठा, तुम्हारा नाम झूठा, तुम्हारा रूप झूठा, तुम्हारा रुतबा, तुम्हारा रूपया झूठा। कैसे झूठ हैं? साबित करता हूँ। झूठ कौन हैं, जो आया था और थोड़ा वास्तविक हो उसका नाम झूठ हैं और जो यथार्थ हो, वास्तविक हो उसका नाम सच हैं। सच वह जो सदा साथ निभाए, जो साथ ना निभाए वह सच कैसा। तुम्हारा नाम कब से हैं तुम्हारे साथ? जन्म लेने के बाद एक दिन परिवार के लोगों ने तुम्हारा नामकरण कर दिया और तब से तुम अपने आप को उस नाम के माध्यम से पहचानने लगे। अपने आप को उस नामरूप जानने लगे। ये कब तक रहेगा? जब तक जिंदा रहेंगे, तब तक रहेगा। कुछ अच्छा कर जाएंगे तो मरने के बाद कुछ दिन लोग याद करेंगे और नाम भले रह जाएगा, नामधारी नहीं रहेगा। ये रूप कब तक, कहां हैं? कहां से शुरुआत हैं, इस रूप की कहानी की? कहां से शुरू होती हैं, इस रूप की कथा। मां के पेट से लेकर चिता की राख तक, यही तो हैं तुम्हारे रूप की कथा। माँ के पेट में तुम्हारे रूप की रचना शुरू हुई, 9 महीने तक धीरे-धीरे तुमने अपने इस रूप को गढ़ा, मां की कृपा से, पिता के संरक्षण से। जन्म लिया, अंत? किस रूप की बात करते हो ? अभी जहाँ हो, वहां से 25-50 वर्ष पीछे मुड के देखो। तुम्हें दिखाई पड़ेगा, मिट्टी में खेलता हुआ, घुटने के बल चलता नंग-धडंग एक शिशु और थोड़ा पीछे जाओ तो तुम्हें नजर आएगा माँ के पेट में उल्टा लटका हुआ, विकासोन्मुखी, एक भ्रूण और अभी जहाँ हो उससे 25-50 वर्ष और आगे चल कर देखो, तब तुम्हे दिखाई पड़ेगा, लाठियों के सहारे हांकता-कांपता, चलता हुआ एक वृद्ध हैं और उससे थोड़ा और आगे देखोगे तो तुम्हे नजर आयेगी, सुलगती हुई एक चिता, जिसमे तुम्हारा यह सुंदर सलोना रूप धूं-धूं कर राख में परिवर्तित होता दिखेगा। यही हैं ना तुम्हारे रूप का सच तो यह रूप तुम्हारा हैं, ये सच हैं या झूठ तो तुम झूठ को सजाने में लगे हो कि सच को पाने में। महाराज! सारा जीवन झूठ में, झूठ-झूठ में झूठ की जिंदगी में ही सब कुछ निकल गया। न रूप तुम्हारा, न रुपया तुम्हारा, मेरा रुपया, मेरा रूपया ठीक हैं, मर जाओगे तो किसका होगा। किसका? किसका, पीछे वालों का। यही तो मेरा कहाँ?
कन्हैंया लाल मिश्र प्रभाकर ने बहुत अच्छी बात कही, मनुष्य की रूप, संपत्ति की बात की। एक धनी आदमी ने अपना बड़ा मकान बनाया और जब उनको अपना मकान दिखाया। बड़े बाग़, बड़े ठाठ, सब कुछ दिखा और उन्होंने पूछा, कैसा लगा मेरा घर? मैंने कहा, बहुत अच्छा , बहुत सुंदर कि तभी मुझे लगा कि मेरी इस उत्तर से मकान मुस्कुरा रहा हैं और उसकी मुस्कुराहट में मिठास नहीं व्यंग हैं। क्यों जी तुम क्यों हँसे, बस यूं ही तुम्हारे मित्र की बात सुनकर हंसी आ गई। कहता हैं मेरा घर, मेरा घर, मेरा घर, तो इसमें हंसने की क्या बात हैं। अजी, इसमें हंसने के सिवा और बात ही क्या हैं। कहता हैं, मेरा घर, मेरा घर, मेरा घर तो फिर। तो फिर, क्या? इसका बाप भी यहीं कहा करता था और वही उसके बाप का बाप। दोनों न जाने कहां चले गए, उनकी तस्वीरें मेरे दीवारों पर जरूर टंगी हैं, जिन्हें नन्ही सी छेद में रहने वाली छोटी सी दीमक कुछ ही पलों में चट कर सकती हैं। मैंने देखा, मकान, अब भी मुस्करा रहा हैं। मकान ही क्या, दुनिया की सारी चीजें मनुष्य की नादानी पर हंसती हैं कि तुम कैसा झूठा भ्रम और विश्वास पाल के रखे हो, ना शरीर तुम्हारा, न संपत्ति तुम्हारी, न सत्ता तुम्हारी, ना संबंध तुम्हारे। सब नदी-नाव संयोग हैं। यह तुम्हारे मन का अज्ञान हैं भ्रम हैं। जब तक इस भ्रम को नहीं तोड़ोगे, सत्य का ज्ञान नहीं होगा, जीवन का कल्याण नहीं होगा। जानो, जो सत्य को जानता हैं, वह ही सम्यक दृष्टि होता हैं। यह मर्त सत्य हैं। सब बताता हैं कि यह सब नश्वर हैं, चार बातें इस बाहर के सच को जानने के लिए याद रखो-
जिसने जन्म लिया हैं, उसका मरना निश्चित हैं लेकिन इस सच को मनुष्य जिंदगी भर झूठलाना चाहता हैं। सारे जीवन लोग अपने इस सच को झूठलाना चाहते हैं, हम बोलते हैं, हम मरेंगे पर अभी नहीं। अभी मेरा नंबर नहीं, अभी तो औरों का हैं, जब सब मर जाएंगे, तब हम मरेंगे। मेरा नंबर आखिरी में आएगा, क्या हो गया? जिसने जन्म लिया हैं उसका मरना सुनिश्चित हैं। यह जीवन का एक बड़ा सच हैं, इस सच को कोई नकार नहीं सकता। कोई कितना नकारने की कोशिश भी करे, ये नकारा जाने योग्य हैं ही नहीं। जन्म लिया हैं तो मरेंगे, मरना तय हैं केवल यह तय करना हैं कि कब मरेंगे। सब सोचते हैं, मरेंगे तो अभी थोड़ी मरेंगे, अभी तो लंबी चौड़ी आयु हैं। भोगेंगे, 60-80 वर्ष तो कम से कम भोगेंगे, फिर मरेंगे। भैया, भ्रम में मत रहना, मैं आपको बता दूं, आप सब अल्पआयुस्क हो।
आज भगवान ने हमें सुबह से संदेश दिया और कहा जाकर के शिविर में जितने सब लोग हैं उनको चेता देना, सबके लिए बड़ा खतरा हैं। भगवान ने हमसे कहा कि सारे शिविरार्थी को चेतावनी दे देना कि जाग जाओ, खतरा हैं। बता दूं, क्या खतरा हैं? सब की उम्र 7 दिन की हैं, हफ्ते भर की उमर हैं। एक हफ्ते से ज्यादा उम्र किसी की नहीं हैं, सुधर जाओ। एक हफ्ते की उम्र हैं कैसी उम्र हैं। सब जितने यहाँ बैठे हैं सब शिविरार्थी, सप्ताह भर की उमर हैं तुम्हारी। बता दूं, कैसे? सोमवार को मां के पेट में आए, मंगलवार को जन्म हुआ, बुधवार को पढ़े-लिखे, गुरुवार को ब्याह हुआ, शुक्रवार को बच्चा हुआ, शनिवार को बूढ़े हुए, रविवार को मर गए और एक बात बताओ, मैंने तुम लोगों से कहा कि सप्ताह भर की उम्र हैं तो यह बताओ आज तक इन सात वारों के अलावा कोई आठवें वार में मरा हैं। सात ही वार हैं, आठवां वार नहीं हैं तो आज कौन सा वार हैं, मंगल हैं, अगला मंगला आये इसका भरोसा नहीं हैं। महाराज! मंगल की बात जाने दो, पल का भरोसा नहीं हैं। इस सच को स्वीकारों-
‘आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं।’
यही तो झूठ हैं, जिसने जन्म लिया उसका मरना सुनिश्चित हैं। यह जीवन का एक बड़ा सच हैं, मर्त सच। ना कुछ लेकर आए हैं, ना कुछ लेकर जाएंगे, यह जीवन की एक बड़ी सच्चाई हैं। इस पर विश्वास हैं तो बटोर किसके लिए रहे हो। लेकर आए नहीं लेकर जाओगे नहीं तो बटोर किस के लिए रहे हो? मन से पूछो, मन से पूछो, जीवन के इस सच को जानो। जिस दिन इसे जान लोगे जीवन निहाल हो जाएगा तो जिसने जन्म लिया हैं, उसका मरण सुनिश्चित हैं, जीवन का यह सच हैं। ना कुछ लेकर आए हैं, ना कुछ लेकर जाएंगे, जीवन का यह सच हैं। जो हम करेंगे, वही भरेंगे, यही जीवन का सच हैं। जैसा करेंगे, वही भरेंगे कि नहीं तो फिर अपनी करनी का ख्याल हैं, करते समय मनुष्य को विवेक नहीं, भोगते समय रोता हैं। इस सच्चाई को हर पल अपने मन मस्तिष्क में रखो कि जैसा करेंगे, वैसा भरेंगे। यह जीवन का एक बड़ा सच हैं, ना हम किसी के हैं, न कोई हमारा हैं, यह जीवन का एक सच हैं। तुम हो किसी के? जब तुम किसी के नहीं तो तुम्हारा कौन होगा, यह जीवन की एक सच्चाई हैं। सब नदी-नाव संयोग हैं, सब हिल-मिल कर रहो लेकिन भ्रमित मत हो। सब के बीच रहते हुए भी स्वयं में रमने की कला विकसित करो। ना हम किसी के ना कोई हमारा, यह जीवन का सच हैं। जिस दिन तुम इस मर्त सच को जाने लोगे, तुम्हारे जीवन की दिशा बदल जाएगी।
‘जिंदगी पर डाल ली जिसने हकीकत की नजर, जिंदगी उसकी नजर में बेहकीकत हो गई।’
फिर तुम्हारा सारा मोह, तुम्हारा भ्रम, तुम्हारा अज्ञान, तुम्हारी आसक्ति पल में नष्ट हो जायेगी पर सब झूठ में फूल रहे हैं। संत कहते हैं- ‘तुम्हारा फुलना ही झूठा हैं‘ क्योंकि यहाँ फूलने जैसा कुछ हैं ही नहीं और एक बात बोलूँ, थोड़ी देर फूल जाओ फूलने के बाद क्या होता हैं, बैलून को देखा हैं, बैलून को फूलाते हैं तो या तो फट जाता हैं और फटने के बाद अगर ना फटे तो उसकी हवा निकलने के बाद शक्ल कैसी होती हैं। फूले हुए बैलून की हवा निकलने के बाद शक्ल कैसी हो जाती हैं। कब हवा निकले और तुम्हारी शक्ल उतर जाए, भरोसा नहीं। इसलिए फूलने की आदत छोड़ो, यह झूठ हैं। सच को जानो यह मर्त सच हैं। जो विनाशीकता को बताता हैं, इसका सार संसार के सारे संयोग-वियोग में हैं। यह जीवन का एक सच हैं, भीतर के अमर्त सच को पहचानो कि संसार के सारे संयोग भंगुर हैं, मेरी आत्मा शाश्वत हैं। एक आत्मा शाश्वत हैं, जो सदा से हैं और सदा रहेगी जिस में आज तक कोई परिवर्तन नहीं। जिसका एक प्रदेश भी इधर से उधर नहीं हो सकता। वो मैं हूँ, चाहे इसे कितना भी ऊपर-नीचे होना पड़े, उसके मूल स्वरूप में रंच मात्र भी अंतर या फेर नहीं आता, वह मैं हूँ, मैं शाश्वत आत्मा हूँ। उसे पहचानो जो जीवन का असली सच हैं, जो चिरस्थाई हैं, जो शाश्वत हैं, जो अपना हैं, जो निजी हैं, जो स्वाभाविक हैं, वह मैं हूँ, उस सच को जानो। जगत की नश्वरता और आत्मा की अमरता का बोध ही सत्य का ज्ञान हैं और जो जगत की नश्वरता को और आत्मा की अमरता को पहचानते हैं, सत्य का साक्षात्कार उन्हें ही होता हैं।
मैं एक मात्र शाश्वत ज्ञान-दर्शन, स्वभावी आत्मा हूँ। मुझसे भिन्न बाहरी जितने भी पदार्थ हैं, वे सब संयोग लक्षण वाले, वे संयोग धर्मा हैं, वह मेरे स्वभाव में मुझसे भिन्न, मुझसे पृथक हैं। वह मैं हूँ, ये समझ अपने भीतर विकसित करो, वह सत्य हैं। जब कभी भी हम सत्य की बात करते हैं तो केवल सच बोलने की बात आती हैं। जिस दिन तुम सत्य को जानोगे तभी सत्य को जी सकोगे, सत्य को जानोगे नहीं तो जिओगे कैसे। तो जानो, सच क्या हैं, बोलो क्या हैं सच, जो बाहर हैं वह या भीतर हैं वह। कौन हैं सच जो दिख रहा हैं वो या जो देख रहा हैं वह। क्या? देख रहा हैं वह कौन हैं? देखने वाले को देखो, दृश्य को नहीं, दृष्टा को पहचानने की कोशिश करो। दृश्य का मूल्य नहीं, दृष्टा का मूल्य हैं, वह जीवन का परम शब्द हैं, जो हमारे भीतर हैं, उसे पहचानो। वह मैं हूँ, मैं एकमात्र शुद्ध आत्मा हूँ, दर्शन ज्ञान मयी हूँ, अरूपी हूँ, इन इंद्रियों के द्वारा अलिप्त नहीं, अगम्य हूँ। मुझसे भिन्न जगत का एक परमाणु भी मेरा नहीं हैं, इस सच को जानो और यह सच शाश्वत सच हैं, जो सबके साथ लागू होता हैं। केवल कुछ व्यक्ति या व्यक्तियों के लिए नहीं, सबके साथ जो लागू हो वो सच इसे कोई झूठला नहीं सकता। उस सच को जानो, जान जाने के बाद तो सब बदल जाता हैं।
मैं आपसे पूछता हूँ, रात आप सपने में सोते हैं और भयानक सपना आता हैं तो डर लगता हैं कि नहीं लगता और नींद खुल जाने के बाद डर ख़त्म क्योकि जान लिया वह सपना था। सच सामने हैं, सच को जानते ही सब डर दूर हो जाता हैं। संत कहते हैं- ‘इसी तरह जिस पल तुम अपने भीतर के सच को जानोगे, सारा दु:ख दूर हो जाएगा‘। सारा दु:ख दूर हो जाएगा फिर तुम्हारे मन में ना अभिमान होगा, ना आसक्ति, ना भय होगा, ना चिंता, ना शौक होगा, ना संताप। सच को जानो, तुम लोग जानते तो हो लेकिन बुद्धि के स्तर से, हृदय के स्तर से जानो। बुद्धि के स्तर से जानने वाले केवल जानने तक सीमित होते हैं लेकिन जो हृदय के स्तर पर जान लेते हैं, वह जीना शुरू कर देते हैं। तो पहली बात जानो।
दूसरी बात जियो। जियो, सत्य को जियो, सत्य के साथ जियो, अब क्या हाल हैं तुम्हारा, लोग जी तो रहे हैं पर किसके साथ? लोग जी रहे हैं, लोगों को यह पता नहीं क्यों जी रहे हैं। एक बार मैंने पूछा, भैया, क्यों जी रहे हो? jio चलाने के लिए जी रहे हैं। एक दफे मैंने पूछा, भैया, क्यों जी रहे हो? तो सामने वाले ने कहा इसलिए कि अभी मरे नहीं हैं। जो इसलिए जी रहा हैं कि मरे नहीं, वह जीते जी भी मरे ही समान हैं। जियो, सच के साथ जियो, सच के लिए जियो, सच्चा जीवन जियो। सच को पहचानने वाले की जीवन की दिशा-दशा परिवर्तित हो जाती हैं। वो सब के मध्य में रहते हुए भी स्वयं में रमता हैं, उसे संसार के सुख, भोग, कुछ नहीं दिखते, उसे वे विषमिश्रित मिष्ठान की तरह दिखते हैं। जो देखने में लुभावने होते हैं, पर परिणाम भयावह होता हैं। उसके ह्रदय में उनके प्रति आसक्ति नहीं रहती, मन में अनुरक्ति नहीं होती, उनका अभिमान नहीं होता। जल से भिन्न कमल की तरह जीवन होता हैं,अनित्यता के साथ जियो, अनासक्ति के साथ जियो। सच को जीने का मतलब यही हैं, रचो-पचो नहीं। ठीक हैं, यह संयोग हैं। मेरे पास हैं पर मेरे नहीं हैं, यह हैं सत्य का बोध। तुम्हारी धन-संपदा, तुम्हारा वैभव, तुम्हारा ठाठ-बाठ, तुम्हारा रूपया, तुम्हारा रुतबा, तुम्हारा रूप तुम्हारे साथ हैं या तुम्हारा हैं? क्या मान कर के जीते हो, यह मेरे साथ हैं या मेरा। तो यह किसको सुना रहे हो, महाराज! हमारे साथ हैं, अब आपके सामने आपकी भाषा न बोले तो क्या बोले, आप भी नाराज ना हो जाए, डर लगता हैं। कैसी विडंबना हैं? सच को जानना दुर्लभ और सच को जीना दुर्लभ। दुनिया के बहुतेरे लोग तो भ्रम में जीते हैं, अज्ञान में जीते हैं, उनको पता ही नहीं, कैसे जीते हैं। देखो कैसा होता हैं, एक आदमी से एक ने कहा, भैया, तुम यहां क्यों खड़े हो? तुम्हारी पत्नी विधवा हो गई। तुम यहां कैसे? पति बोला, सच और वो रोना शुरू कर दिया। अब उसको क्या बोलेंगे, पति जिंदा हैं तो पत्नी विधवा कैसे होगी? लेकिन झूठ में जीने वाले लोग ऐसा ही करते हैं, पत्नी विधवा हो गई। अरे, तू जिंदा हैं तो पत्नी विधवा कैसे होगी, थोड़ा तो जान, थोड़ा तो पहचान पर यह कैसी विडंबना, कैसा अज्ञान। उस अज्ञान का निवारण कीजिए, अपने आप को उस से ऊपर उठाने की कोशिश कीजिए।
मन में ऐसा संकल्प जगाइए, सत्य को जीना शुरू कीजिए, सत्य को जीने का मतलब अहंकार रहित जीवन। सत्य को जीने का मतलब आसक्ति मुक्त जीवन। सत्य को जीने का मतलब अलिप्तता युक्त जीवन। सत्य को जीने का मतलब विनम्रता युक्त जीवन। वह जीवन जियो, अगर तुम्हारे मन में अहंकार हैं, वस्तुतः झूठा ही अहंकार, झूठा होता हैं और झूठे के अंदर ही अहंकार होता हैं तो तुम अभी सत्य को नहीं जी रहे हो क्योंकि तुम ने अभी सत्य को ठीक से समझा नहीं, जाना नहीं, आसक्ति हैं, तुमने सत्य को नहीं जाना। मैं आपसे एक सवाल करता हूँ, आपके बाजू में बैठे व्यक्ति का पर्स खो जाए, आपको कोई बैचेनी होगी। बाजू वालों का पर्स खोया, कोई खास बेचैनी नहीं होगी पर ज्यादा बेचैनी और खुद का पर्स खोये तो महाराज! चैन खो जायेगा, नींद उड़ जाएगी। खुद का पर्स खोया तो मन बेचैन हुआ और औरों का पर्स खोया तो तुम केवल साक्षी बने रहे। क्यों? क्योंकि वह मेरा नहीं, यह मेरा हैं।
संत कहते हैं- ‘इतना ही तो जानना हैं, जिसे तुम अपना मान रहे हो, वह तुम्हारा हैं कहां, वह तुम्हारा नहीं हैं’। गया सो गया, आया वह भी तुम्हारा नहीं, खोया वह भी तुम्हारा नहीं, जिसके हृदय में इस सच का ज्ञान होता हैं, उसके मन में रंच मात्र आसक्ति नहीं होती। पाने में गर्व नहीं, खोने में तकलीफ नहीं, गम नहीं। दोनों में स्थिरता, सच को जानने का प्रमाण हैं। आजकल लोग पाते हैं तो बिल्कुल फूल जाते हैं और खोते हैं तो एकदम फैल जाते हैं। अब क्या करें? सच को जानो, ना पाना तुम्हारे हाथ में हैं, ना खोना तुम्हारे हाथ में हैं। यह भी बाहर का संयोग हैं, वह भी बाहर का संयोग हैं। क्या पाना और क्या खोना? मेरे भीतर जो हैं उसमें ना कुछ पाने जैसा हैं, ना खोने जैसा हैं, मैं अपने आप में परिपूर्ण हूँ। मैं अपने आप में परिपूर्ण हूँ, उस सच को जानिए।
सच को जिये, जीना शुरू करें, सत्य को जाने, सत्य को जिये लेकिन मरते दम तक मनुष्य अपने जीवन के सत्य को जानने की कोशिश नहीं करता। कदाचित जानने में आ जाए तो जीने का प्रयास नहीं करता, इसीलिए लोग जीते जी राम नाम सत्य नहीं बोलते, मुर्दे को राम नाम सत्य सुनाते हैं। मुर्दे को सुनाते हैं, अरे, बंधुओं! जीते जी समझो, राम नाम सत्य हैं। ये सत्य तुम्हे जिस दिन समझ में आएगा, जीवन की दिशा-दशा बदल जाएगी।
मेरे संपर्क में एक धनपति, अपार वैभव के मालिक, देखिये, जीवन में कैसा बदलाव आता हैं। सत्य को जानने के बाद मनुष्य कैसे मुडता हैं। उसके दो बेटे, दोनों अपना कारोबार करते हैं, अच्छा कारोबार। वो व्यक्ति मुझसे आकर के कहा, महाराज! आप का प्रवचन सुना, पहली बार प्रवचन सुना। मैंने अपने जीवन के 60 बरस तक तो धर्म-कर्म को कुछ जाना ही नहीं, अपने व्यापार-कारोबार और अपनी सोसाइटी के अलावा मैंने कोई दुनिया देखी नहीं लेकिन एक दिन अपने मित्र के यहां गया था, जिनवाणी चैनल पर आपका प्रवचन चल रहा था और आप के प्रवचन का टाइटल था, जीवन की सार्थकता। महाराज! आप के प्रवचन ने मुझे जीवन की सार्थकता का बोध करा दिया, मुझे लगने लगा अब तक मैंने जो जीवन जिया वह व्यर्थ हैं, अब तक जो मैंने जिया, वह औरों के लिए किया। मुझे खुद के लिए कुछ करना चाहिए, अपनी आत्मा के लिए करना चाहिए और तब से महाराज में नियमित आपको सुनने लगा और अब मुझे लगता हैं कि मेरे पास जो हैं, वह मेरा नहीं, वह मैं नहीं, मैं केवल आत्मा हूँ, यह शरीर भी मेरा नहीं, तन के कपड़े भी मेरे नहीं। महाराज! मेरे मन में उनके प्रति कोई आसक्ति नहीं हैं। अब मैं केवल इतना चाहता हूँ कि उनका उपयोग करूँ, सदुपयोग करूँ। ठीक हैं, जीवन की धारा बदल गई, वह आदमी भीतर से बदल गया। उसने कहा कि महाराज! मुझे लगता हैं कि अपनी मोहासक्ति में, मैंने अपनी आत्मा में कितना पाप का लबादा लपेट लिया। आखिर भोगना तो मुझे ही हैं, अब मुझे उन्हें काटना हैं, अपनी आत्मा को साफ बनाना हैं, स्वच्छ बनाना हैं। वह आदमी आज दो टाइम सामायिक करता हैं, खान-पान में नियम आ गया, वो अपनी थाली में चार चीजों के अलावा पाँचवी चीज नहीं लेता। एक अरबपति व्यक्ति की बात कर रहा हूँ मैं, नाम मैं नहीं ले रहा हूँ क्योंकि लाइव प्रोग्राम में ऐसे लोगों को बड़ी दुविधा होती हैं, नाम नहीं ले रहा हूँ लेकिन वह व्यक्ति सुन रहा होगा। जीवन बदल गया, सत्य को जाना तब, दिल से जो जानते हैं, जीना शुरू कर देते हैं।
तो सत्य को जानो, सत्य को जियो, जो तुम्हारे जीवन का उत्कर्ष करें, यह जीवन की सच्चाई को समझो और सत्य को जियो। मुझे इस सत्य को जीना हैं, मुझे इस सत्य को जीना हैं, बस जीवन में सच्चाई को अपनाना हैं। झूठा आचरण तो फिर होगा ही नहीं, जो तुम्हारे पास हैं, तुम्हे वो सब झूठ दिखने लगेगा तो मैं किसके लिए करूं? जीवन को वैसा मोड़ने का प्रयास कीजिये।
नंबर तीन सत्य को ध्याओ। सत्य क्या हैं, भीतर की आत्मा, आत्मा का ध्यान करो,आत्मा को ध्याओ तो आत्मा को भाओ। तुम आत्मा की जितनी भावना भाओगे, आत्मा का जितना ध्यान करोगे, उतनी जल्दी तुम परमात्मा को पा जाओगे। सत्य को पाओ, कब? जब सत्य को ध्याओगे तब जो सत्य को ध्याता हैं, वही सत्य को पाता हैं। ध्यान करो, आत्मा का ध्यान करो, अपने आप का ध्यान करो, भावना भाओ तो जानो, जियो, ध्याओ, मन को रिचार्ज करो। बाकी तो सब जड़ हैं, नश्वर हैं, बिना सीखे यहीं छूट जाने वाला हैं, मेरा तथ्य तो मेरे भीतर हैं, जिसे मैंने अब तक जाना नहीं, पहचाना नहीं, वह मैं हूँ, अब मैं उसे ध्याऊँगा। मैं उसे ध्याता हूँ जो अपनी आत्मा को ध्याता हैं वही आत्मा को पाता हैं। ध्याओ, प्रतिदिन अभ्यास करो, एक स्थान पर बैठ कर अपने स्वरूप का चिंतन करो, आत्मा को ध्याने का प्रयास करो। जितनी गहराई से तुम आत्मा को ध्याओगे, तुम्हारा जीवन उतना निर्मल होगा। फिर तुम्हारे भीतर की राग-द्वेष, मोह के विकार सब पल में दूर हो जाएंगे, उनके लिए ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं होगी । उस विकार को शांत करो, अपने शुद्ध स्वरूप की अभिव्यक्ति करना चाहते हो। अपनी अंतरात्मा को विशुद्ध बनाना चाहते हो तो आत्मा का ध्यान करो, आत्मा को भाओ, आत्मा को ध्याओ।
प्रात:काल जो भावना योग की मैंने शुरुआत की वह उसी आत्मा को ध्याने का एक उपक्रम हैं। वहां तक पहुंचने के पहले भावना तो भाओ, जानो तो कि मैं कौन हूँ? जिस दिन तुम जान लोगे, तुम्हारा सारा दु:ख चला जाएगा, जीने लगोगे, दोष दूर हो जाएंगे, जान लोगे, दु:ख दूर होगा और ध्या लोगे तो अपने स्वरुप को शुद्ध पा लोगे। जानते ही दु:ख दूर होता हैं, जान लो। संसारी प्राणी की दीन-दशा कैसी हैं? वह जिस रूप में रहता हैं, अपने आप को उस रूप मानता हैं, सुखी-दु:खी मानने लगता हैं। पर ये जितने भी रूप हैं यह तो संसार की अवस्थाएं हैं, पर्याय हैं, पल-पल बदलती हैं, कोई शाश्वत नहीं हैं, बदल रही हैं, जैसे कोई नाटक देखते हैं तो नाटक में एक एक्टर को अनेक एक्टर की एक्टिंग करनी पड़ती हैं, रोल करना पड़ता हैं, डायरेक्टर जैसा उसे रोल बताता हैं, उसके अनुरूप उसे रोल निभानी पड़ती हैं पर एक्टर कभी रोल को रियल मानता हैं, रोल उसके लिए रोल हैं, रोल रियल नहीं हैं, क्यों? क्यों नहीं हैं? उसे मालूम हैं, ये तो रोल हैं। एक बड़े एक्टर को कभी भिखारी भी बनना पड़े तो वो सहज रूप से स्वीकारता हैं क्योंकि स्टोरी कह रही हैं कि मुझे भिखारी बनना हैं पर उसे मालूम हैं, मैं क्या हूँ, मुझे पता हैं। उसे पता हैं यह रोल हैं रियल नहीं। बस जिस दिन तुम्हें सच समझ में आएगा, जीवन में दु:ख हैं, यह रोल हैं। विपत्ति हैं, रोल हैं, रियल नहीं हैं। परेशानी हैं, रोल हैं, रियल नहीं हैं, सब ठीक हो जाएगा। मैं जो हूँ सो हूँ, उसे कोई बदल नहीं सकता।
अमर सत्य को मिटा ना पाया, कोई परिवर्तन हैं। बचपन,यौवन और बुढ़ापा सब तन की उतरन हैं।
यह ऊपर की उतरन हैं, इसे भूलो। सत्य को ध्याओ,हमारी दृष्टि वैसी होनी चाहिए तब तुम सत्य को पाने में समर्थ हो सकोगे तो बस यह भावना भाओ और जब तक वहां तक नहीं पहुंच पाऊं तो जो सत्य के पथ पर चल रहे हैं, जो सत्य का अन्वेषण कर रहे हैं, जो सत्य की साधना कर रहे हैं, जो सत्य को जी रहे हैं, उनकी शरण ग्रहण करो। देखते-देखते-देखते-देखते तुम्हारा सत्य के प्रति लगाव बढ़ेगा, सत्य के प्रति झुकाव बढ़ेगा और तुम्हारा यह लगाव, तुम्हारा यह झुकाव एक दिन तुम्हें सत्य के अनुसंधान में प्रवृत कर देगा, सत्य की प्राप्ति में तुम्हे छोड़ देगा। वह पुरुषार्थ तुम्हारा होना चाहिए, अन्यथा एक दिन तो सब ख़त्म होना ही हैं, सब समाप्त होगा, सब समाप्त हो उसके पहले उसे पहचानने का उद्यम करें। जो हमारा अपना हैं, असली हैं, निजी हैं, शाश्वत हैं। वो सच हैं, सच हैं, सच हैं, भ्रम टूटना चाहिए और सत्य से लगाव बढ़ना चाहिए, जुड़ना चाहिए। वह जगाइए लेकिन क्या करें झूठ में जीने का इतना पुराना अभ्यास हो गया कि सच के प्रति दृष्टि ही नहीं जाती। सुन भी लेते हैं, पर लगता हैं, हैं तो सही। पर बड़ा मुश्किल हैं, सही हैं पर मुश्किल हैं। संत कहते हैं- ‘कोई मुश्किल नहीं हैं’। मुश्किल किस बात की? सच को जानोगे, जिस दिन तुम्हारी निष्ठा जग गई, एक पल लगेगा।
देखो, जो सत्य को जानता हैं वो सत्यपथ पर कैसे लगता हैं? हमारे यहां एक राजा की कथा आती हैं, एक राजा था, शायद वज्रदंत चक्रवर्ती, उसको प्रतिदिन एक 1000 पंखुडिओं वाला कमल दिया जाता था। सहस ह्रिदल कमल। चक्रवर्ती था, सहस दल कमल रोज आता, रोज आता, रोज आता। एक दिवस कमल में एक मरा हुआ भौंरा दिखाइ दिया। भोरें को देखते ही राजा का मन विरक्त हो उठा, अरे, मेरी दशा भी तो इस भोरें की तरह हैं। गंध का लोभी यह भौंरा, रात भर इसी कमल में रहा। सूरज के अस्त होने से इसकी पंखुड़ियाँ मुरझाई, मुकलित हुई और इसका जीवन दम घुटने से पूरा हो गया। जैसे गंध का लोभी यह भौरां हैं, वैसे ही विषयों का लोलुप मैं भी हूँ। मेरे जीवन को कब क्या हो जाए, क्या पता? कल मेरा भी अंत ना हो जाए, मुझ पर भी काल का प्रहार ना हो जाए, इससे पहले कि कालमेघ मुझ पर प्रहार करें, मैं काल के पांव उखाडूँगा और अब मैं संन्यास के मार्ग को अंगीकार करता हूँ। उसके ह्रदय में वैराग्य आ गया और वैराग्य आया तो राजधर्म निभाने के लिए अपने बेटे से अपने मन की बात कही और उसका राजतिलक करना चाहा। बेटे ने पूछा, पिताजी, आप यह राजपाट क्यों छोड़ रहा हैं तो पिताजी बोले, बेटा ये नश्वर हैं। यह सब झूठा हैं, मैं इन्हे छोड़ रहा हूँ तो आप मुझे क्यों छोड़ रहे हो? जब आप सच के रास्ते पर चल रहे हो तो मैं भी सच के रास्ते पर चलूंगा। जिस रास्ते पर पिता, उसी रास्ते पर पुत्र चला गया। अंततः पोते का राजतिलक करके जाना पड़ा। यह हैं सत्य का ज्ञान, तुम लोगों का क्या होगा?
तुम लोगों की कहानी तो आजकल बिल्कुल अलग हो गई, बहुत होशियार हो गये। पहले तो थोड़ा शमशानियाँ वैराग्य भी होता था, अब तो शमशान में भी पार्टियां चलती हैं। क्या कहानी हैं तुम्हारी, मैंने सुना हैं। ऐसा होता हैं ना, चाय-पानी चालू हो जाता हैं, वहां कई तरह की मीटिंग चालू हो जाती हैं, लोग अपने फोन में व्यस्त हो जाते हैं। कहां रहोगे तुम? क्या हाल हैं? इस पर विचार करना चाहिए, विचार करना चाहिए, पहले शमशान में योगीजन जाते थे इसलिए कि उसे देखकर वैराग्य हो। अब शमशान जाने वालों को भी वैराग्य ना हो तो क्या होगा? अभी लंबा हैं संसार, अभी तुम्हे दु:खों से बहुत प्रेम हैं। अपने आप को जब तक मोड़ोगे नहीं, जीवन में बदलाव घटित नहीं होगा, कुछ भी हासिल होने वाला नहीं हैं तो बस सच की बात मैंने आप सबसे की, सत्यनिष्ठ बनिए, सत्य को जानिए. सत्य को जिये, सच को ध्याये, सच को पाए। सच को नए संदर्भ में देखने की कोशिश करिये और यह तय कीजिये झूठ का जीवन तो मैंने खूब जिया, आज सत्य धर्म के दिन सच के रास्ते पर चलने का संकल्प लूंगा और जीवन के परम सत्य को पा कर ही दम लूंगा। जिस दिन यह संकल्प तुम्हारे मन में जग गया, तुम्हारा बेड़ा पर हो जायेगा फिर तुम्हें कोई रोक नहीं सकेगा। बोलिये, परम पूज्य आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज की जय।
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