कैसी हो रुचि?

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कैसी हो रुचि?

आज बात ‘र’ की है। ‘क’ से ‘य ‘तक आपने काफी रस लिया और मैं देख रहा हूँ कि आप सबने बड़ी रुचि पूर्वक सुना। आज मैं आपसे बात रुचि की करूंगा। हमारे संपूर्ण जीवन में हमारी रूचि का महत्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य की जैसी रुचि होती है उसके जीवन का झुकाव वैसा ही होता है और उसकी बदौलत वह अपना जीवन वैसा ही बना लेता है। हर व्यक्ति की अलग-अलग रुचि होती है। अलग-अलग रूचि के अनुसार अलग-अलग प्रवृत्ति भी होती है। एक विचारक ने लिखा है कि सभी प्रकार के गुण और दोष मनुष्य की रुचि के अनुरूप गतिमान होते हैं। गुण हो या दोष, हमारी जैसी रूचि हो उसी अनुरूप बढ़ते है। अगर हमारी रूचि अच्छी है या हमारी प्रवृत्ति अच्छी होगी तो हमारे गुणों में अभिवृद्धि होगी उसे कोई रोक नहीं सकता। लेकिन बुरी रूचि हो तो हमारा बिगाड़ हुए बिना कोई रोक नहीं सकता। आज बात मैं रुचि की करता हूँ। रूचि शब्द किसी से अनजाना नहीं है, बड़ा परिचित शब्द है। लेकिन हम इसे थोड़ा व्यापक संदर्भ में देखें, तो सामान्यता से जब भी रुचि की बात आती है तो रुचि का अर्थ होता है विश्वास, लग्न, अभिलाषा, इच्छा, पसंद, दिलचस्पी, उत्कंठा, उत्सुकता आदि, यह सब रुचि के अर्थ में प्रयुक्त शब्द है। मनुष्य का जिस किसी के प्रति जैसा विश्वास होता है, उस विश्वास के अनुरूप ही उसकी रुचि होती है। जिसे वह पसंद करता है उसकी तरफ उसका झुकाव होता है। जिस चीज में उसकी रुचि होती है उसके प्रति प्रबल उत्सुकता, उत्कंठा बनी रहती है, एक अलग प्रकार की दिलचस्पी होती है। कई बार आपके जीवन में ऐसे प्रसंग आते है कि कई कार्य को देखकर आप बड़ा रस लेते है, रुचिपूर्वक सुनते है और कई कार्य ऐसे होते है जिनके प्रति आपकी कोई रुचि नहीं होती तो आप सीधे-सीधे शब्दों में कह देते है कि मेरी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं। निश्चित तौर पर किसी कार्य में आपकी दिलचस्पी है या किसी में आपकी रूचि नहीं है। किसी क्षेत्र में आपकी रुचि है या किसी क्षेत्र में आपकी रुचि नहीं है। जिनमें आपकी रुचि है आप उसमें आगे बढ़ जाते है और जिनमें आपकी रूचि नहीं हैं उनमें आप पिछड़ जाते हैं, यह जीवन का अनुभव है। जो कार्य आज आप रुचिपूर्वक करते है उसमें एक अलग रस रहता है, एक अलग प्रकार की आनंद की अनुभूति होती है। जिस कार्य में आपकी रुचि नहीं है, अनमने भाव से आप उसे करते है, अगर करना हो तो वो काम आपके लिए एक बोझ बन जाता है। ऐसा जरूरी नहीं कि जो काम आप करते है रुचिपूर्वक ही करते है या अपनी रूचि का ही काम करते है। कई बार आपके साथ ऐसे प्रसंग बन जाते है जिसमें आपकी रुचि नहीं है या फिर दूसरों के दबाव या प्रभाव वश करना पड़ता है, किसी के लिहाज या संकोच-वश करना पड़ता है, अरुचि-पूर्वक करते है। जिस कार्य के प्रति आपकी स्वभाविक रूचि होती है उस कार्य को करते समय आपकी एक अलग ही धारा बन जाती है। जब हम जैन शास्त्रों के संदर्भ में रूचि शब्द के अर्थ को देखते है तो उसका बड़ा ही गहरा अर्थ है। रुचि का अर्थ है- प्रीति, रुचि का अर्थ है- श्रद्धा, रुचि का अर्थ है- प्रतीति, रुचि का अर्थ है- निश्चय और रूचि हमारी आत्मा का एक परिणाम विशेष है जो हमें हमारी आत्मा से तन्मयता दिलाता है। रूचि शब्द बहुत व्यापक है। सबकी अपनी-अपनी रुचि है, अब चाहे वह अच्छी हो या बुरी।

आज मुझे उसी रूचि के संदर्भ में आपसे बात करनी है और चार रुचियों की बात करूंगा-

  • पाप रूचि
  • भोग रुचि
  • धर्म रूचि
  • आत्म रूचि

रुचि तो तुम्हारे भीतर है, रूचि गुण है हर जीव का, रूचि रहित कोई जीव नहीं रहता।  पर तुम अपनी रुचि की पड़ताल करके देखो। तुम्हारी रूचि किसमें है- पाप में है या नहीं। मन को पलटो। पर इसकी पहचान कैसे करें कि मेरी रुचि पाप रूचि है या नहीं? इसकी सीधी-सीधी कसौटी है- पापात्मक कार्यों के आने पर उत्सुकता और उत्कंठा अगर बढ़ती है, दिलचस्पी बढ़ती है, उसमें लगन बढ़ रही है, झुकाव ज्यादा दिख रहा है तो समझ लेना मेरी रुचि अभी पाप रुचि है। पाप रूचि वाले लोग पाप की क्रियाओं में ही निमग्न रहते है। पापात्मक रुचियों में उन्हें बड़ा रस आता है और उस रस को लेने के लिए वह हर प्रकार के उपक्रम करते है, हथकंडे अपनाते है। अपने मन को पलट करके देखो मेरी रुचि कैसी है? पाप रूचि है या नहीं। यदि आप यह सोच रहे हैं कि “जी महाराज! पाप में रूचि तो है पर मैं पाप रुचि वाला नहीं हूँ। एक व्यक्ति है जिसकी विशुद्धतया पाप में ही रूचि है और एक दूसरा व्यक्ति है जो पाप करता है वो रुचिपूर्वक करता भी है लेकिन पाप के साथ-साथ उसकी धर्म में भी रुचि होती है तो उसके जीवन में थोड़ा संतुलन बना रहता है। पहले हमें पड़ताल यह करनी है कि जब भी कोई पापात्मक प्रसंग आते है तो मेरी रुचि की क्या स्थिति होती है? थोड़ी देर के लिए सोचो- तुम यहाँ प्रवचन सुन रहे हो, रूचि पूर्वक सुन रहे हो। जितनी रुचिपूर्वक तुम प्रवचन सुनते हो, जितनी एकाग्रता और तन्मयता से प्रवचन सुनते हो यदि कोई मूवी देखना हो तो, क्या हो गया? जिसकी प्रवचन में रुचि होगी वह मूवी में बोर हो जाएगा और जिसकी मूवी में रुचि होगी उसे प्रवचन में बोरियत आएगी। होता है ऐसा, क्या हुआ, क्या हुआ? हमारा संपूर्ण जीवन हमारी रूचि के ऊपर निर्भर करता है।  

 एक विचारक ने लिखा कि रूचि मनुष्य को अंधा भी बनाती है तो दिव्य दृष्टि भी देती है। जिसकी पाप रुचि होगी वो अंधा होगा और जिसकी धर्म में रूचि होगी या सम्यक रुचि होगी वह दिव्य दृष्टि से संपन्न हो जाता है। अपने मन को पलट कर देखो पापात्मक क्रियाओं में और पापात्मक प्रवृत्तियों में तुम्हारा कितना झुकाव है। भगवान की भक्ति में तुम्हारा मन लगता है, कि मौज-मस्ती में तुम्हारा मन लगता है, त्याग-संयम में तुम्हारी रुचि है या भोग-विलास में तुम्हारी रुचि है।  अपने मन को पलट करके देखो, बहुत सारे धर्मी लोगों को भी मैं देखता हूँ, धार्मिक क्रियाओं के प्रति उनका रस होता है लेकिन जितना रस धर्म के प्रति होता है उससे ज्यादा रस निंदा में, ईर्ष्या में, द्वेष में, चुगली में, घृणा में, अभिमान में होता है। यह कौनसी रूचि है? बोलो! पाप रुचि, पंचेंद्रिय के विषयों की रूचि, जो जन्मान्तरों से हमारे संस्कार वश बनी हुई है। मनोविज्ञान की भाषा में हम कहें तो मनुष्य की दो प्रकार की रुचि होती है। एक जन्मजात रूचि जो हमें जन्म से मिलती है, जैसे व्यक्ति की पढ़ने की, लिखने की, खाने की, रुचि जो होती है- वह नैसर्गिक रूचि है, जिसे हम अपने आप सीख जाते है। व्यक्ति का हर किसी एक कार्य विशेष के प्रति रुझान होता है, यह जन्मजात रूचि है। दूसरी है- अर्जित रुचि जो हम वातावरण से सीखते, समझते है। पाप रूचि मनुष्य की नैसर्गिक रूचि है, जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार हमारे ह्रदय में ऐसे बैठे हुए है जिनके कारण हमारा रुझान पापों के प्रति अपने आप हो जाता है। उसके लिए कहीं किसी से ट्रेनिंग लेने की जरूरत नहीं होती है, किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती, पंचेंद्रिय के विषयों के प्रति हमारा झुकाव स्वभाविक होता है। ऐसा क्यों? यह जन्मजात संस्कार है।  हमारे सबकॉन्शस माइंड में ऐसे संस्कार जन्मों के पड़े है। वह संस्कार समय-समय पर उभरते है और वह हमारी वैसी प्रवृत्ति बना देते है। जैसी रुचि होती है वैसी ही प्रवृत्ति होती है। पाप रुचि तो तुम्हारे भीतर है ही और जिसकी पाप रुचि होगी उसकी भोग रुचि भी होगी। पाप की रुचि, भोगों की रूचि, पंचेंद्रिय विषयों के सेवन की रूचि, जिसकी जैसी रूचि होती है वह वैसा काम करता है। जिसकी धर्म में रुचि है, उसको थोड़ा भी समय होगा तो भगवान का नाम लेना चाहेगा, स्वाध्याय करने की सोचेगा, सत्संग में जाने की बात करेगा या आत्म चिंतन की बात करेगा या कोई अच्छा कर्म करने की बात करेगा। जिसकी भोगों में रुचि है अगर उसको थोड़ा भी समय मिला तो कहेगा- चलो, घूमने चलो, सैर-सपाटे के लिए चलो, मौज मस्ती के लिए चलो, इधर जाओ, उधर जाओ। जैसी रुचि वैसी क्रिया तो तुम्हें यह देखना है कि मेरी पाप रुचि है कि नहीं, अपने अंदर झांक कर देखना है। पहला सवाल- मेरी रुचि का स्वरूप क्या है- पाप रूचि या भोग रूचि? यदि मेरे भीतर पाप की रुचि है या भोग की रूचि है तो उसका स्तर क्या है? पाप में रुचि रखने वाले सभी लोग एक समान रुचि नहीं रखते और भोगों में रुचि रखने वाले सभी लोगों का स्तर भी एक समान नहीं होता, हमें जाँच-परख कर देखना है कि मेरी रुचि का स्तर क्या है?  इसका आकलन हमें खुद करना है।

 तीसरे क्रम में- धर्म रूचि मेरे हृदय में धर्म के प्रति कैसी रूचि है?  निश्चित ही आप लोग यहाँ आए है आपके हृदय धर्म रूचि है, तभी आए है और आपके लिए रुचिकर बातें सुनाने को मिलती है तब आए है। धर्म में रुचि रखने वाले कई लोग कई तरह की मानसिकता से भरे होते है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके अंदर बड़ी दृढ रुचि होती है, पक्की रुचि होती है। ऐसे लोग सब काम को गौण करके धर्म कार्य में अपना समय निकालते हैं, उनको उसी में अच्छा लगता है। चाहे सामने वाला कुछ भी स्थिति में हो, बात रोचक हो या अरोचक मुझे प्रवचन सुनना है तो सुनना है,  मुझे पूजन करना है तो करना है, मुझे स्वाध्याय करना है तो करना है, मुझे सामायिक करनी है तो करनी है, मुझे मेरी अन्य धार्मिक क्रियाएं संपन्न करनी है तो करनी है, वह मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है। कुछ लोगों का ऐसा होता है। कुछ भी स्थिति हो जाए इस कार्य को उस क्रिया को वो कभी छोड़ते नहीं और कुछ लोग ऐसे होते है अभी प्रवचन सुनने के लिए आ रहे है, बहुत अच्छे रुचि से सुन रहे है कि क्या बढ़िया! महाराज ने तो क ख ग घ से क्या बात सुनाई, बहुत अच्छा सुना रहे हैं, मजा आ रहा है, लेकिन प्रवचन में सुनते-सुनने, आते-आते अगर रास्ते में कोई और दूसरा कार्यक्रम आपको दिख गया तो आप उधर डाइवर्ट हो गए। अगर कोई और नई बात आ जाए तो व्यक्ति का झुकाव उधर हो जाता है। धर्म में रूचि होना और धर्म में प्रगाढ़ रूचि होना इन दोनों में बड़ा अंतर है। आपकी धर्म में रुचि नहीं है ऐसा तो मैं नहीं मानता लेकिन धर्म में दृढ रूचि है ऐसा मुझे नहीं दिखता। जितनी धर्म में रूचि है, उससे ज्यादा रुचि और बातों में है। तुम बताओ तुम्हारे प्रवचन का समय है तो प्रवचन के लिए आ रहे हो, डेली  रुचिपूर्वक आ रहे हो। इधर घर से प्रवचन सुनने के लिए निकले थे कि रास्ते में एक ऐसा आदमी दिख गया जिसने महीनों से पेमेंट रोका हुआ है, बताओ किधर आओगे? प्रवचन में आओगे कि उसके पीछे भागोगे? अब ये क्या हो गया? तुम्हारी रुचि की पोल खुली कि नहीं, रोज प्रवचन में आ रहे हो और रक्षाबंधन में तुम्हारी बेटी आ गई, आज उसको विदा होना है, 8:30 बजे गाड़ी पर बिठाना है। अपनी बेटी के लिए समय दोगे कि महाराज के प्रवचन के लिए आओगे। बोलो! कोई मेहमान आ गया तो उसके लिए आओगे कि यहाँ आओगे? चलो इन्हे छोड़ो, यह तो ठीक भी है, इसमें तो थोड़ा कर्तव्य भाव भी दिखता है। प्रवचन सुनने के लिए आ रहे थे रास्ते में गेट पर एक मोबाइल की घंटी बजी और किसी व्यक्ति का कोई फोन आ गया, वह व्यक्ति आपका बहुत प्रगाढ़ मित्र भी नहीं है लेकिन उसने कुछ बातें शुरू कर दी। अब आप बताओ, उसकी बातों को प्रमुखता दोगे, उसके कॉल को रिसीव करके उससे आप 15 मिनट, 20 मिनट, आधा घंटा बात करोगे या उससे कहोगे छोड़ो भैया! तुमसे बाद में बात करूंगा, अभी मैं प्रवचन में जा रहा हूँ। क्या करोगे? अरे महाराज! आप गेट की बात करते हो, गेट की बात तो जाने दो हम लोगों को तो यहाँ  प्रवचन में भी किसी का कॉल आ जाता है तो सीधे, उठकर बाहर चले जाते है। यह तुम्हारी रुचि है। धर्म तो कर रहे हैं, पर धर्म में रूचि कितनी?

तुम्हारी जो धर्म रूचि है वह क्यों हैं, किसलिए आप धर्म कर रहे हो, कभी इसके बारे में सोचा। मेरी धर्म रूचि कितनी और धर्म में मेरी रुचि क्यों? एक व्यक्ति है जो अपने जीवन को पवित्र बनाने के लिए धर्म में रुचि रखता है और कई लोग है जो परंपरागत संस्कार से धर्म में रुचि रखते है। कई लोग यह सोचते है कि धर्म करेंगे तो थोड़ा पुण्य हो जाएगा। कुछ लोग मानसिकता से धर्म करते है कि धर्म करेंगे गुरुओं का आशीर्वाद मिलेगा, हमारा दुकान धंधा चल जाएगा। कुछ लोग यह सोच करके भी धर्म में रुचि रखते है कि धर्म करेंगे तो हमारी सामाजिक पहचान बनेगी, प्रतिष्ठा होगी। लोग हमें जानने लगेंगे यह भी धर्म की रुचि का एक अपना दृष्टिकोण है। कोई लोग लालच वश धर्म करते है कोई पद प्रतिष्ठा की चाह वश धर्म करते है। कोई अपने परंपरागत संस्कार वश धर्म करते है या कोई पुण्य की चाह में धर्म करते है। यह सब धर्म रूचि है लेकिन यह यथार्थ धर्म रूचि नहीं है। रूचि प्रगाढ़ होनी चाहिए, रुचि यथार्थ होनी चाहिए। यथार्थ में रूचि हो, यथार्थ रूचि हो, प्रगाढ़ रूचि हो, यह भाव अपने हृदय में जगाइए तो जीवन में आमूलचूल परिवर्तन होगा। कई बार लोग बोलते है महाराज! इतना सुनते है फिर भी परिवर्तन नहीं आता। सुनने वाले में परिवर्तन नहीं आता, ध्यान से सुनो! सुनने वाले में परिवर्तन नहीं आता, रुचिपूर्वक सुनने से परिवर्तन आता है। तुम्हारे अंदर सुनने की थोड़ी रुचि तो जाग  गई पर रुचिपूर्वक सुनने की प्रवृत्ति अभी नहीं जगी। रुचि से सुनो यानी श्रद्धा से भर करके सुनो, प्रीति से सुनो, उसमें अपना हित देखते हुए सुनो कि अगर मैं इसका मार्ग अपनाता हूँ तभी मेरा कल्याण होगा, यह मेरे हित के लिए दिया गया उपदेश है, मेरे जीवन का कल्याणकारी मार्ग है, इस भाव से सुनो। आप कैसे सुनते है? अपने धर्म रूचि की पड़ताल कीजिए कि मेरी रुचि धर्म में कैसी है? पाप रूचि के लिए बोलने की जरूरत नहीं उसमें आप पारंगत है, भोग रूचि में आप पूरे निष्णात है।

चौथी- आत्म रूचि। आत्मा के प्रति लगन, आत्मा के प्रति श्रद्धा, आत्मा के प्रति झुकाव, आत्मा के प्रति उत्सुकता, और उत्कंठा, दिलचस्पी तुम्हारे अंदर कितनी है,  बोलो! कितनी है? मोक्ष मार्ग में आगे भी वही बढ़ सकता है जिस आत्मा के प्रति प्रगाढ़ उत्कंठा होती है, प्रगाढ़ आत्म रूचि होनी चाहिए। अपनी आत्मा के प्रति रुचि, केवल आत्मा की बात करने का मतलब आत्म रुचि नहीं है। आत्म रूचि- अगर आत्मा के प्रति जाग  गई तो बाकी सब बातें नीरस लगनी चाहिए। जानने की कोशिश करो मैं कौन हूँ, मेरा क्या है, मैं क्या कर रहा हूँ, मुझे क्या करना चाहिए, मेरा कर्तव्य क्या है, मेरा दायित्व क्या है? यह सब आत्म रूचि की पहचान है।

 गुरु के पास एक राजपुत्र, एक श्रेष्ठी पुत्र और एक साधारण गृहस्थ पुत्र वैराग्य से प्रेरित होकर के पहूँचे। इस भाव से कि गुरु मुझे शरण में ले। गुरु ने पूछा- तुम कौन? पहले ने जवाब दिया- मैं इस नगरी का राजपुत्र हूँ, सारा राजपाट, वैभव, सत्ता, हुकुमत सब छोड़कर आपके चरणों में आया हूँ, मुझे अपना शिष्य बना लो। गुरु ने जोर से ठहाका लिया, ठीक है। उसके बाद श्रेष्ठी पुत्र आया, गुरु ने उससे भी वही सवाल किया, तुम कौन हो? उसने कहा- मैं यहाँ  के नगर सेठ, श्रेष्ठी का पुत्र हूँ, मैंने अपना सारा धन-वैभव, परिवार, परिजन, सोना-चांदी, रत्न-आभूषण सब छोड़ दिया है। मैं आपकी शरण में आना चाहता हूँ, मुझे अपना शिष्य बना लो। गुरु मुस्कुरा कर रह गए। तीसरा जिज्ञासु आया। गुरु ने पूछा- तुम कौन हो? उसने कहा- बस मैं इसी खोज में तो आया हूँ कि मैं कौन हूँ? बस वही जानने के लिए आपके चरणों में आया हूँ, आपके पास रहना चाहता हूँ, मुझे अपना शिष्य बना लो। गुरु ने उसे छाती से लगा लिया और कहा- बस तुम ही मेरे शिष्य बनने लायक हो क्योंकि तुम्हारे अंदर अपनी आत्मा की रूचि पूरी तरह जाग गई है। अभी इन्होंने जो छोड़ा उनकी रुचि उसकी तरफ है। जिसके लिए छोड़ा उसकी समझ ही नहीं है, उसकी  पहचान ही नहीं है। आत्म रुचि मेरी है या नहीं अभी इसकी पड़ताल आपको करनी है। चार रुचि है- पाप रुचि, भोग रुचि, धर्म रूचि और आत्म रूचि। इसमें पाप रूचि और भोग रुचि में तो आप पूरी तरह लिप्त हो। इस रुचि से आपको हटकर धर्म रूचि और आत्म रुचि जगाने की बात है।

ध्यान रखो! चार बातें जो आज का मूल प्रतिपाद्य है-

  • रूचि जगाए
  • रूचि बढ़ाए
  • रुचि घटाएं
  • रुचि बदले

 

नीचे से चालू करता हूँ- सबसे पहले बात करता हूँ “रुचि बदले”, रुचि घटाएं, रुचि जगाए, और अंत में रुचि बनाएं।

अपनी रूचि बदले। रूचि बदली जा सकती है, मनोविज्ञान की भाषा में रुचि के संदर्भ में कहा जाता है कि रुचि वह प्रेरक शक्ति है जिससे किसी व्यक्ति वस्तु या क्रिया के लिए ध्यान करने की प्रेरणा मिलती है। एक ऐसी प्रेरक शक्ति जो हमने प्राप्त कर लिया तो हम किसी भी व्यक्ति, किसी भी वस्तु या किसी भी क्रिया के प्रति ध्यान केंद्रित करने की प्रेरणा प्राप्त कर सकते है अगर हमारे अंदर वैसी रूचि जाग  जाए। रुचि एक प्रकार का ध्यान है जिससे रूचि में आपका पूर्ण ध्यान होता है। एक विचारक ने लिखा- रुचि निष्क्रिय ध्यान है और ध्यान सक्रिय रूचि है। अगर हमारे अंदर किसी बात के लिए रुचि जाग गई तो हमारा ध्यान 24 घंटा उसकी तरफ जाएगा। हमें उसे जगाना है तो क्या करें? पाप की रूचि को बदलें। हम ध्यान देना शुरू करेंगे, अपनी रुचि को बदलने की इच्छा प्रकट करेंगे तो हमारी रूचि बदलेगी। मैंने कहा- रुचि बदले, रुचि घटाएं, रुचि जगाए और रुचि बढ़ाएं। धर्म के प्रति रुचि जगाए।  ज्यो-ज्यो धर्म के प्रति आपकी रुचि जगेगी तो पाप की रूचि घटेगी। यह स्वाभाविक है दोनों चीजें एक साथ नहीं चलती। अपनी धर्म की ओर रुचि एक बार जाग जाए तो पाप रूचि घटेगी और धर्म रुचि बढ़ जाए तो पाप रुचि बदल जाएगी। धर्म के प्रति रुचि जगाने की कोशिश कीजिए। अभी बहुत सारे लोग मेरे पास आते है। बोलते हैं- महाराज! आपका प्रवचन बड़ा इंट्रेस्टिंग होता है। आपके प्रवचन से मेरी रुचि बदल गई। पहले जिन बातों को मैं बहुत ज्यादा महत्व देता था वह चीजें मुझे निरस लगने लगी, मेरी लाइफ स्टाइल बदल गई, मेरी सोच बदल गई, मेरी विचारधारा बदल गई, मेरी प्रवृत्ति बदल गई। किस कारण से बदली? इधर की रूचि जगी तो उधर की रूचि घटी और इधर की रुचि घटी तो उधर की रूचि बढ़ी। अपने अंदर झांक कर देखो कि तुम्हारी धर्म में रुचि जगी है या नहीं। इसकी कसौटी है कि पाप रूचि घटी है। धर्म रूचि जगेगी तो पाप रुचि घटेगी और यदि धर्म रूचि होने के बाद भी पाप रुचि जहाँ की तहाँ है तो अभी सब ऊपर-ऊपर की बातें है भीतर से कुछ लेना-देना नहीं है। कई लोग धर्म के क्षेत्र में बहुत आगे रहते है लेकिन यथार्थ में उनको धर्म से कोई लेना देना नहीं होता है।

 एक सज्जन अक्सर प्रवचन में आते थे। एक रोज रविवार का दिन था वह कुछ विलंब से आए। मैंने पूछा- भाई आज आप इतने विलंब से क्यों आए? वह बोले- महाराज! नई जनरेशन का चक्कर है, ज्यादा नहीं। हमने बोला- क्या हो गया भाई,  नई जनरेशन का क्या चक्कर आ गया। वह बोले- महाराज! आज मेरे बेटे के कारण मुझे विलंब हो गया। हमने बोला- क्या बात हो गई, बेटे के कारण कैसे विलंब हो गया, बेटा यहाँ आना नहीं चाह रहा था क्या? वो बोला- नहीं महाराज! वह आना तो चाह रहा था। हमने कहा यह तो बहुत अच्छी बात है, फिर इतना विलंब क्यों? अरे! महाराज! मैं उसको समझाता रहा कि तू मत जा। तुझे मालूम है वो टॉप के महाराज है, पता नहीं, तुझे क्या बोल दिया और तू निकल गया तो फिर मेरा क्या होगा?

क्या कहानी है तुम्हारी यह? धर्म रुचि बढ़ेगी तो पाप रुचि घटेगी, उधर बढ़ाइए और इधर घटाइए। उसका उपाय है कि ध्यान इधर केंद्रित कीजिए, अपनी प्राथमिकताएं बदलना शुरू कर दीजिए। आप अपने जीवन को पलट कर के देखिए- आपके जीवन में न जाने कितने प्रकार की रुचियाँ जगी होगी और बदली होगी। कई ऐसे भी कारक होंगे जिनके बिना आप कभी रहते नहीं होंगे। कोई घटना कोई परिस्थिति ऐसी बनी कि आपके मन में एक ऐसा टर्निंग पॉइंट आया आपने उसकी तरफ देखना बंद कर दिया चाहे वह व्यक्ति हो या वस्तु हो या क्रिया हो। आपके जीवन का अनुभव है या हर किसी के अनुभव हो सकता है। अपने मन की बात है एक बार अगर मनुष्य सोच ले अपने ध्यान को केंद्रित कर ले तो उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। मेरे संपर्क में से बहुत सारे लोग है जो व्यसनी थे  लेकिन उनके अंदर जो बदलाव आया, ऐसा बदलाव आया कि मुड़कर नहीं देखा।

धर्म रूचि जाग गई तो पाप रूचि भाग गई। रूचि घट गई अब उधर देखने की भी इच्छा नहीं होती। जिस व्यक्ति की सुबह की शुरुआत शराब से होती थी उस व्यक्ति की भी रुचि बदलने से जीवन में आमूलचूल परिवर्तन होता है।  आज वह व्रती बन गए, ऐसे लोग भी जो सात-सात प्रतिमा का पालन कर रहे है। किसके कारण? रुचि को डाइवर्ट कीजिए और डाइवर्ट करने का एक ही उपाय है जो आप पाना चाहते है, जो आप बनना चाहते है, जिधर आप जाना चाहते है, जहाँ आप पहुँचना चाहते है उधर अपना ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दीजिए। अभी मैंने आप सबसे कहा था की रूचि दो प्रकार की होती है एक जन्मजात और दूसरी अर्जित। जन्मजात रूचि में निखार लाया जा सकता है  और अर्जित रुचि को पूरी तरह बदला जा सकता है। हमारे साथ जो जन्मजात रूचि है वह अपनी जगह है। उन्हें हम निखार लाएं, उनका हम उदात्तीकरण करें लेकिन जो अर्जित रूचि है जिसे हमने लोगों से देख करके सीखा है, वातावरण से सीखा है, उसमें बदलाव लाए, उनमें उदासीनता लाए, उसे घटाएं। कई लोगों की कई तरह की रूचि है। आजकल ज्यादातर लोगों की तो मोबाइल में रुचि हो गई है, कल महिला मंडल आया था। मुझसे कहा- महाराज! सत्तर-सत्तर साल की महिलाएं भी आजकल मोबाइल पर गेम खेलती है? क्या हो गया, गेम खेलने की रूचि हो गई? यह क्या है? यह अर्जित रूचि है, एक बार जिसके प्रति तुम्हारी रुचि हो गई तो तुम्हारा पूरा ध्यान केवल इस पर। अपनी रूचि की समीक्षा कीजिए कि यह मेरे लिए हितकर है या अहितकर, मेरे लिए उपयोगी है या अनुपयोगी। जो हितकर है उसे स्वीकार करें, जो उपयोगी है  उसे स्वीकार करें, जो अहितकर है, अनुपयोगी है, उससे दूर से हाथ जोड़ना सीखे। यह मेरे लिए हानिकारक है, ऐसी रुचि मेरे लिए ठीक नहीं है। मुझे अपनी रुचि को बदलना है और यदि रुचि पूरी तरह ना बदल पाए तो कम से कम रूचि घटाएं।

 जैन शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि मनुष्य को पाप से बचना चाहिए, पाप को त्यागना चाहिए और यदि कोई गृहस्थ अपनी भूमिका अनुरूप पूरी तरह पाप से मुक्त ना भी हो सके तो पाप में रूचि घटाओ। रुचिपूर्वक किए गए कामों में पाप का बंधन प्रगाढ़ होता है। अरुचि भाव से या मंद रुचि से किए गए पाप का परिणाम भी हल्का होता है।  मतलब क्या करो? एक आदमी पाप मग्न होकर के पाप करता है और एक व्यक्ति अनासक्त भाव से पाप करता है। क्रिया दोनों की एक है किन्तु परिणाम अलग-अलग है। जो पाप मग्न है उसका पतन अवश्यम्भावी है और जो उदासीन होकर के पाप कर रहा है वह कभी भी पाप से मुक्त हो सकता है, उसका बंधन ढीला है। आप लोगों ने तत्वार्थ सूत्र का यह सूत्र पढ़ा होगा-

 हमारे साथ जो बंधन जुड़ते है वह बंधने वाले बंधन भावों की तीव्रता और मंदता के अनुरूप होते है।  हम जितने ज्ञात और अज्ञात भाव से करते है उसके ऊपर निर्भर करते है। उसके प्रति जितनी प्रगाढ़ और मंद रुचि होती है, उत्साह होता है उसके ऊपर होता है। तो क्या करना है? पहले तो अपनी रुचि को बदलना है और जब तक रुचि न  बदले रुचि को घटाओ, पाप को मंद करना चाहते हो तो पाप से रुचि कम करो, उसके प्रति अरुचि रखो। आप लोग पाप की क्रियाएं तो पूरे प्राणों से करते है और धर्म की क्रिया मन मारकर करते है। जबकि होना चाहिए उल्टा, पाप को मन मानकर और धर्म प्राण लगाकर करो। रूचि हो जिसकी रुचि होती है वह ऐसा ही करता है। पाप रुचि को घटाना है और पाप रूचि को बदलना है। पाप रूचि घटाना चाहते हो कि नहीं, बदलना चाहते हो कि नहीं, तो क्या करो? अपनी प्राथमिकता बदलो, अपना ध्यान धर्म के कार्यों में लगाना शुरु कर दो। अगर हमारी रूचि एक बार बदल गइ तो पूरा जीवन का चक्र बदल जाता है। जो कुछ भी हमारे जीवन में घटित होता है वह सब कुछ हमारे इंटरेस्ट पर डिपेंड करता है। अपना हमें जहाँ इन्ट्रेस्ट जगाना है वहाँ उसे जगाए, बढ़ाए और वह गुरु के सानिध्य से मिलता है। आपको एक मोटिवेशन मिलता है और उस मोटिवेशन से क्या होता है। गुरु के सान्निध्य से हमारी रूचि प्रभावित होती है और कभी-कभी रुचि बदल जाती है। किसी किसी की रूचि बदल जाती है तो किसी किसी की रूचि जाग  जाती है।

दो महीना हो गए है रतलाम में, देखो तुम्हारी रुचि में कितना परिवर्तन आया? रुचि बदली और जैसी रुचि जगनी चाहिए थी वह जगी या नहीं। अगर रूचि बदल गई या जाग  गई तो इससे अच्छी बात कोई नहीं और यदि नहीं तो हमें बहुत कुछ सोचने की जरूरत है। हम पाप रुचि को बदलें, पाप रुचि को घटाए। पाप की रूचि को धर्म की रूचि में परिवर्तित करें। पाप की रूचि को धीरे-धीरे कम करने की कोशिश करें, मंद करें। इसमें वातावरण बहुत बड़ा निमित्त बनता है। सत्संग और स्वाध्याय हमारी रूचि को बदलने में बड़ा कारण है।  जैन शास्त्रों में कहा-गया है- अपने मोह को शांत करना चाहते हो तो शास्त्र का अभ्यास करो।

 शास्त्र का अच्छे से अध्ययन करो। जब हम स्वाध्याय करते है तो हमारे अंदर आत्मा की समझ आती है। आत्म रूचि जाग जाती है और जिसकी आत्म रुचि जगती है उसके जीवन में आमूलचूल परिवर्तन घटित हो जाता है। सत्संग से, स्वाध्याय से, स्वात्म चिंतन से हमारे अंदर जबरदस्त बदलाव आता है, यह अभ्यास हमारा होना चाहिए। अगर आप अपनी रूचि को बदलना चाहते है तो सबसे पहले सत्संग से जुड़िए। आप लोग बोलते है  महाराज! क्या करें? हम चाहते है हमारे बच्चे जुड़े पर उनकी कोई रुचि नहीं, उनका कोई इंटरेस्ट ही नहीं रहा है। आज के यूथ के लिए लोगों की यह शिकायत होती है कि उनका इंटरेस्ट नहीं है। मैं आपसे एक सवाल करता हूँ कि आपने कभी इस बात का विचार क्यों नहीं किया कि आज के युवाओं की धर्म के प्रति रुचि क्यों नहीं? उस घर के युवा की धर्म में रुचि क्यों नहीं जिस घर के लोग कथित रूप से पूरी तरह धर्मात्मा हैं। जिस घर में लोग व्रती है, प्रतिमा धारी है, पूजा-पाठ, साधुओं का, सत्संग, समागम, सेवा, वैय्यावृत्ति पूजा सब कुछ होती है। कभी आपने सोचा, क्यों नहीं है?  मेरे अनुसार इसमें दोष उन बच्चों का कम आपका अधिक है। क्यों आपने धर्म की क्रिया की है। इसलिए उसका प्रयोजन आपके हाथ से छिटक कर आपसे दूर हो गया। अगर आपने आत्म रूचि के साथ धर्म रूचि रखी होती तो आप के भाव और बर्ताव में अमूलचूल परिवर्तन होता। आपकी चर्या और क्रिया देखकर आपका बच्चा आपसे प्रेरणा लेता, आपको कहने की जरूरत नहीं पड़ती।

मेरे संपर्क में एक युवक है, उसकी माँ नहीं है। उसके पिताजी बड़े धर्मात्मा है, व्रती हैं। लेकिन वह व्रती केवल क्रिया वाले नहीं, भावों से व्रती है। उन्होने साठ वर्ष की उम्र होते ही एक बार अपने बच्चों को बुलाया और बच्चों को बुला करके सारा स्वामित्व बच्चों को सौंप दिया। अपने पास बस थोड़े से वस्त्र और कुछ व्यवस्था अपने पास रख ली और बच्चों से कहा- मैंने अपना दायित्व पूर्ण कर लिया। अब यह सबके मालिक तुम हो, अब मैं इस घर का मालिक नहीं मेहमान हूँ।  मुझे अभी घर में रहना है, मैं अपना धर्म ध्यान करूंगा और तुम लोगों से मेरी और कोई अपेक्षा नहीं बस इतनी सी अपेक्षा है कि मेरे धर्म ध्यान में सहायक ना बनो तो कोई बात नहीं बाधक मत बनना। वह व्यक्ति इतना शान्त, खुशमिजाज अपनी चर्या और क्रिया के प्रति दृढ, उनके बेटे धार्मिक, वो भी उसी लाइन में चलने वाले। मैंने एक दिन उससे पूछा- यह बताओ तुम अपने जीवन में अपना आदर्श किसको मानते हो? उसने जो जवाब दिया वह ध्यान देने लायक है। उसने कहा- महाराज मेरे आदर्श मेरे पिता जी है और मैं अपने पिताजी को मेरे आदर्श के रूप में नहीं देखता मेरे लिए तो मेरे गुरु है। मैंने उनको देखकर ही धर्म सीखा है। हे कोई ऐसा पिता ऐसा ओहदा पाने वाला, अगर आपका आचरण, आपका व्यवहार, आपकी चर्या, आपकी क्रिया होगी तो घर में ही सत्संग मिलेगा। फिर बच्चों को इस बात को कहने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी कि थोड़ी रूचि बढ़ाओ। खरबूजा तो खरबूजे को देखकर रंग बदलता है  लेकिन भैया! सड़े खरबूजे से रंग नहीं बदलता बल्कि खरबूजा बिगड़ जाता है। अपना जीवन वैसा कीजिए, अपनी आत्म रूचि जगाइए, निज आत्मा को पहचानिए।

आत्मा की रूचि ही सम्यक्त्व है। आत्मा के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए, आत्मा की पहचान होनी चाहिए, मैं आत्मा हूँ  इसका भावबोध होना चाहिए। मुझे उस आत्मतत्व को प्रकट करना है यह ध्येय मन में होना चाहिए। उसके लिए जो भी बाधक कारण है उनसे मुझे बचना है यह सजगता होनी चाहिए। मेरे अंदर के विषय-विकार, मेरे भीतर के दोष और दुर्बलताएं मुझे मेरी आत्मा से बाहर खींचते हैं, मेरी आत्मा में विकृतियाँ भरते है, उससे मेरे आत्मा दुर्बल होती है। मुझे उसकी तरफ झुकाव नहीं रखना है। मुझे मेरी आत्मा और आत्मा के प्रति अपना रुझान रखना है। यह दृष्टि अगर एक बार जाग  गइ तो फिर कुछ कहने की जरूरत पड़ेगी, क्या, बोलो, कहाँ है आत्मा की रूचि? धर्म में रुचि रखने वाले लोग तो कदाचित मिल ही जाते है लेकिन आत्मा की रूचि बहुत कम लोगों के अंदर दिखती है। आप लोगों के अंदर आत्मा की रूचि कब दिखती है? जब तक महाराज के प्रवचन में रहते तब तक, पंडाल से बाहर गए, खेल खत्म, दृष्टिकोण ही बदल जाता है। वस्तुत: रूचि हमारे दृष्टिकोण का नाम है, रूचि हमारे अभिप्राय का नाम है। अपने अभिप्राय को निर्मल रखिए, दृष्टिकोण को सही बनाने की कोशिश कीजिए ताकि हम अपने रूचि का लाभ लेकर जीवन को ऊंचा उठा सकें। जीवन को ऊंचा उठा सके उसकी तरफ दृष्टि हो, आत्मा की रूचि जगनी चाहिए।

 जिसकी आत्मा के प्रति रूचि जाग जाती है तो उसके जीवन में कैसा बदलाव आता है? मैं आपको एक घटना बता रहा हूँ। हर व्यक्ति के लिए कोई निमित्त मिलता है। आप लोगों के एक शब्द चलता है- टर्निंग पॉइंट। घटनाएँ घटती है कई बार ऐसा होता है कि कोई घटी हुई घटना व्यक्ति के जीवन को आमूलचूल बदल डालती है। कई बार ऐसा होता है कि ऐसी घटनाओं से व्यक्ति टूट भी जाता है। दोनों स्थितियाँ होती है जिनका भवितव्य अच्छा होता है, होनहार अच्छी होती है, वह जीवन में घटित घटनाओं से अपने आपको बदल डालते है। एक व्यक्ति के साथ एक ऐसी घटना घटी जिससे उसके जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हो गया। उसके छोटे भाई और छोटे भाई की धर्मपत्नी कार से कहीं जा रहे थे, साथ में वह भी था। अचानक नींद का झोंका आने के कारण छोटा भाई और उसकी पत्नी आगे बैठे थे। कार एक सीमेंट से लदे ट्रेलर से टकरा गई। उसके भाई और उसकी धर्मपत्नी की ऑन स्पॉट ही मृत्यु हो गई। इस तरह की घटनाएं तो अक्सर घटती रहती है। भगवान ना करे किसी के साथ ऐसा हो जाए। उसके लिए मैं आप सब से कहता हूँ कि ओवरनाइट यात्रा करना बंद कीजिए। दुर्घटना के तीन आधार नींद, नशा और तेज रफ्तार है। इसे भूलिए मत, आप लोग नाईट सेव करने के चक्कर में अपनी जिंदगी को ही होम कर देते है। हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि चार पहिया वाहन पर पूरी रात कभी सफर मत करना क्योंकि नींद से कोई बच नहीं सकता, अपने आप को संभाल करके चलना चाहिए और ऐसी दुर्घटनाएं घटती है। वे लोग रात भर चले थे, छोटा भाई खुद ड्राइव कर रहा था, नींद का झोंका आया और ऑन स्पॉट चला गया। सहयोग से पीछे जो व्यक्ति बैठा उसे कुछ नहीं हुआ, एक खरोच तक नहीं आई। इस घटना से उसका हृदय परिवर्तित हो गया। उसे लगा कि यह क्या है? मैं किस माया के पीछे लगा हुआ? जीवन का कोई भरोसा नहीं, एक पल में कब क्या घटना घट जाए, कोई पता नहीं। यह शरीर तो यही छूट गया, मैं किसके पीछे लगा हूँ? आखिर में अपनी आत्मा का कल्याण कब करूंगा? यह धन-संपत्ति, शरीर,  परिवार, स्वजन, परिजन, यह सब मैं नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ। उस घटना ने उस व्यक्ति के भीतर वैराग्य जगा दिया और उस व्यक्ति की रूचि आत्मा में रुचि जाग गई। आज वह व्यक्ति व्रती बन करके जी रहा है और बड़े संयत भाव से लग रहा है। सब चीजों से उसके अंदर उदासीनता आ गई, जीवन ही बदल गया। व्यापार-धंधा बिजनेस नहीं छोड़ पाया क्योंकि अब उसके भाई के बच्चों की जिम्मेदारी भी उसके कंधों पर आ गई। कहता है- महाराज! कर्तव्य भाव से मैं अपना कर्म कर रहा हूँ पर मेरे अंदर अब कोई आसक्ति शेष नहीं बची। मुझे लगता है कि यह सब तो पर है मेरा तो केवल मैं हूँ और कुछ भी नहीं, यह समझ होनी चाहिए। आत्मा की रूचि जगने के बाद जब तुम धर्म करोगे तो तुम्हारे धर्म के प्रति दृष्टिकोण भी बदल जाएगा। तब तुम्हारे द्वारा किया जाने वाला धर्माचरण कोरी एक प्रक्रिया नहीं होगी अपितु तुम्हारे जीवन को बदल डालने की क्रिया होगी, रूपांतरण का आधार होगी। तुम्हारी सोच में, तुम्हारी प्रवृत्ति में, तुम्हारी चर्या में, तुम्हारे चिंतन में बदलाव आना चाहिए। वर्षों से धर्म व्रत करते रहने के बाद भी यदि हमने अपने आपको नहीं बदला तो फिर उसका क्या फायदा? इसका कोई लाभ नहीं, प्रयोजन को सामने रखिए और आत्मा को केंद्र बिंदु बना करके धर्म का आचरण कीजिए। सदैव एक बात को स्मरण में रखिए मेरे धर्माचरण का मूल उद्देश्य और लक्ष्य आत्मा का निर्मलीकरण है, चेतना का उदात्तीकरण है। अगर हम ध्यान में रख करके चलेंगे तो हम अपने जीवन को नई ऊंचाई दे सकेंगे, एक अच्छा भाव गठित कर सकेंगे। आज रुचि की बात मैंने आपसे की, पाप रूचि और भोग रुचि से विरत होएँ और धर्म रूचि और आत्म रुचि को जगाइए।

 जम्बू स्वामी के चरित्र को पलट कर देखिए। जम्बू  स्वामी के हृदय में जिस पल आत्म रूचि जगी उसी पल उन्होंने घोषित कर दिया कि मुझे अब घर में नहीं रहना, मुझे अपनी आत्मा का कल्याण करना है। माँ ने कहा बेटा तू चला जाएगा, इकलौता बेटा है तो कौन हमारा खयाल रखेगा? एक काम कर तू किसी भी तरह से विवाह कर ले फिर तेरी जैसी इच्छा हो करना। जम्बू  स्वामी ने कहा- ठीक है, माँ की बात को स्वीकार कर लिया। लेकिन साफ कह दिया कि मेरी रुचि इधर नहीं, मेरी रुचि उधर है आत्म तत्व की ओर। माँ ने कहा ठीक है तू विवाह तो कर। माँ ने सोचा एक बार विवाह में बंध जाएगा तो अपने आप आटे दाल का भाव समझ में आएगा। कहते है आठ कन्याओं से विवाह हुआ और कन्याओं को विवाह से पहले भी बता दिया, घोषित कर दिया गया कि जम्बू  कुमार विवाह के बाद केवल एक रात्रि रहेगा, सुबह होते ही घर से बाहर निकल जाएगा। इसे कोई रोकना चाहे तो नहीं रुकेगा। कन्याओं ने कहा- ठीक है, या तो इस पार या उस पार, देखते है किसकी जीत होती है? विवाह हुआ, करोड़ो का दहेज मिला, अपार धन-दौलत। एक तरफ जम्बू कुमार और एक तरफ जम्बू कुमार की आठ पत्नियाँ, इधर हाव-भाव विलास है और उधर विराग है। विलास का वैराग्य पर कोई असर नहीं पड पाया। उनकी उधर कोई रुचि नहीं, कोई कुछ भी बोले वो सब अनसुना कर रहे थे। उनकी पत्नीयाँ यह चाह रही थी कि किसी भी तरह से जम्बू  कुमार हमारे हो जाए पर जम्बू कुमार की तो केवल एक ही दृष्टि थी, कब सुबह हो और मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो। इसी बीच वहाँ विद्युत चोर नाम का एक चोर, बड़ा शातिर चोर आया। उसे मालूम पड़ा यहाँ बहुत माल है। चोरी करने के लिए अपने गिरोह के साथ गया। जब चोरी करने के लिए गया अचानक जम्बू कुमार की माँ की नजर उस पर पड़ गई। उसे पता चल गया चोर है तो माँ ने कहा- देख! तुझे जो ले जाना है सब ले जा। चोरी करने की जरूरत नहीं, मैं तुझे अपना पूरा धन दे सकती हूँ। किसी तरह जम्बू कुमार को तू मना ले। वह झरोखे की ओट में बैठ करके जम्बू  कुमार और उनकी पत्नियों की वार्ता सुनता रहा। उसे सुनते-सुनते उसका हृदय परिवर्तित हो गया, उसकी रुचि बदल गई। वह बोला धन्य है, कहाँ यह जम्बू कुमार और कहाँ मैं, यह सब कुछ होते हुए भी वैभव-सम्पदा को नश्वर मान करके छोड़ रहा है। मेरे पास कुछ भी नहीं फिर भी मैं जोड़ रहा हूँ। आखिर में यह सम्पदा तो नश्वर है, यह पाप तो मेरे पतन का कारण है। यह सब करके मैं क्या पाऊंगा? मुझे नहीं चाहिए, इन्हें मुझे नहीं लेना है और अपने जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश करना है। उसने कहा- जम्बू कुमार तो सुबह जाएगा। सुबह की प्रतीक्षा करना भी ठीक नहीं, रात में ही चलो। विद्युत चोर रात में ही निकल गए और अपने 500 साथियों के साथ रात्रि में ही दीक्षित होकर के आत्म ध्यान में निमग्न हो गए। आत्म ध्यान का प्रतिफल यह निकला कि उन सबको मुक्ति की प्राप्ति हो गई। यह रूचि- आत्मा की रूचि जगे तो बाकी सब बातों में आमूलचूल परिवर्तन अपने आप होगा। आप साधु बनो यह बात मैं आपसे नहीं कहता, पर कम से कम आत्म रुचि संपन्न सम्यकदृष्टि बनो। अपनी रुचि को सम्यक बनाओ, उसका सही रूप दो, उसका सही सत्कार करो। तो हमारा यह जीवन निश्चित ही उचाईयों को प्राप्त करेगा और हम अपने जीवन को आगे बढ़ा पाएंगे।

 

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