कैसे करें पुण्य की कमाई?
कल पाप की बात की गई। सुदर्शन जी ने मुझसे कहा- महाराज! पुण्य की भी बात कर लो तो बात पूरी होगी नहीं तो बात अधूरी होगी। मैंने भी सोचा यह सारा संसार पाप और पुण्य का ही तो खेल है। हमारे जीवन में जो कुछ भी घटता है वह पाप और पुण्य के निमित्त से ही घटता है। अपने जीवन चक्र को देखें, हम हो या बड़े-बड़े महापुरुषों के जीवन में भी हम झांक कर देखते हैं तो हम पाते हैं कि सम्पूर्ण जीवन में पाप और पुण्य का बड़ा रोल होता है। कभी पुण्य का योग होता है हमारे जीवन शिखर पर पहुँच जाता है, पाप का प्रकोप आता है हम सतह में आ जाते हैं। यह बड़ा विचित्र खेल है। और जो मनुष्य पुण्य-पाप के इस रहस्य को जानता है उसके जीवन में सहजता और स्थिरता आ जाती है। और जो इस रहस्य को नहीं जान पाता वह प्रतिपल आकुलचित्त बना रहता हैं।
आज बात पुण्य की है। पुण्य की चर्चा सुनते ही लोगों के मुँह में पानी आ जाता है। पाप कोई नहीं चाहता हैं, पुण्य हर कोई चाहता है। पर मुश्किल यह हैं, पुण्य करना कोई नहीं चाहता और पाप छोड़ना कोई नहीं चाहता। यह जो विचित्रता है- जब तक हम पुण्य करने के लिए उत्साहित नहीं होंगे, पुण्य लाभ नहीं हो सकेगा। पुण्य-पाप के सन्दर्भ में बहुत सारी बातें कथनीय है आज चार बातों के माध्यम से मैं अपनी बात को प्रारंभ कर रहा हूँ।
- नंबर वन – सबसे पहली बात पुण्य कमाना। क्या? पुण्य कमाना। पुण्य कमाने का मतलब? कमाना- किसको बोलते हैं? आप लोग! कमाते हो कि नहीं कमाते हो? क्या कमाते हो पैसा, वह भी ‘प’ से हैं, पैसा कमाते हैं। आपको कब दिखता है कि मैंने पैसा कमाया? बोलो! जब इकट्ठा हो जाता है, आपको अपना फाइनेंशियल ग्राफ दिखने लगता है कि नहीं, यह हमने कमाया और हर वर्ष आपकी बैलेंस शीट आपको बताती है कि हमने इस साल इतना कमाया और उसके हिसाब से आप अपनी नेटवर्थ भी घोषित करते हो, यह हमारी स्थिति है। मैं तुमसे केवल इतना कहता हूँ, तुम्हारे द्वारा कमाया गया पैसा तुम्हें दिखाई पड़ता है, तुम्हारे द्वारा कमाया जाने वाला पुण्य कभी तुम्हें दिखा ।
- नंबर दो – तुम पैसा कमाने के लिए जितना उद्यम करते हो, उत्साह और उल्लास दिखाते हो, क्या पुण्य कमाने के लिए तुम्हारे मन में वैसी अभिरुचि दिखती है?
- नंबर तीन- पैसे को तुम अपने जीवन में जितना महत्व देते हो, क्या पुण्य को अपने जीवन में वह महत्व दे पाए?
- नंबर चार- पैसे की तुम्हे जितनी उपयोगिता नजर आती है, क्या पुण्य की वैसी उपयोगिता तुम्हें कभी दिखी?
गंभीर बात। तो पहले मैं आपसे, एक-एक सवाल से बात करता हूँ। यह तो पहला चरण है, मुझे बहुत सारी बातें आज आप सबसे करनी है। पुण्य कमाए, आपको आपके द्वारा कमाया गया पुण्य आज तक दिखा? पहले तो यह बोलो- इस जीवन में आपने कुछ पुण्य कमाया है कि नहीं कमाया? पहले यह बोल दो- यही से बात शुरू करता हूँ। कमाया है? बोलो- कमाया हैं? कितना? और जो कमाया हुआ पुण्य हैं वह कहाँ है, क्या हो गया? दिखाओ तो भैया! कमाया हुआ पैसा देखने में आता है कमाया हुआ पुण्य क्यों नजर नहीं आता? हकीकत में तुमने पुण्य कमाया है कि पुण्य के नाम पर केवल आत्म-मुग्धता में जी रहे हो? कभी इसकी छानबीन करने की कोशिश की? सब लोगों के मन में हाँ मैंने पुण्य कमा लिया। अरे महाराज! अभी तो पूरी दुकान खुली हैं। आपका चौमासा हो गया हैं, रोज पुण्य कमा रहे हैं, थोक में कमा रहे हैं बोलो- ईमानदारी से कमा रहे हो, इतने दबी-दबी जुबान में क्यों बोल रहे हो? यह तुम्हारे मन का संशय बताता है। कमा रहे हो कि नहीं? कमा रहे हो, कहाँ है? बंधुओ! वस्तुतः अब तक का जो पुण्य है वह केवल आपका विश्वास है। तुम जो भी पुण्य करते केवल एक विश्वास से प्रेरित होकर करते हो, तो तुम्हारा पुण्य केवल विश्वास है इसलिए दिखता नहीं।जिस दिन तुम्हारा पुण्य तुम्हारा विचार बन जाएगा साकार हो जाएगा। बात को थोड़ा समझो- बात गहरी कर रहा हूँ। पुण्य जब तक केवल विश्वास में है वह दिखेगा नहीं, जिस दिन पुण्य तुम्हारे विचार में होगा तो तुम्हारे व्यवहार में आकर वह पुण्य दिखना शुरू हो जाएगा।
देखना चाहते हो अपने द्वारा कमाए हुए पुण्य को? देखना चाहते हो, इन आंखों से नहीं दिखेगा। मेरी दृष्टि से देखोगे तो दिखेगा। कौन-कौन अपना पुण्य देखना चाहते हो? सब, दो-चार हाथ नहीं उठ रहे हैं, हाथ बाँधे बैठे हैं भाई-साहब! उठाओ अच्छे से, इससे एक्सरसाइज हो जाती हैं गर्दन की, कंधे की प्रॉब्लम नहीं रहती, दो-चार बार हाथ उठाना चाहिये। अपना पुण्य देखना चाहते हो तो पहले पुण्य को पहचानो, पुण्य क्या है? आपसे पूछू पुण्य क्या है तो क्या बोलोगे आप! आप को जवाब देना है बोलो-
श्रोतागण: धार्मिक क्रियाएं करना पुण्य है।
महाराज जी: और?
श्रोतागण: शुभ भाव में रहना पुण्य हैं ।
महाराज जी: और?
श्रोतागण: परमार्थ का काम करना पुण्य हैं।
बस! यही हमारी भूल है हमने क्रिया को पुण्य माना है। लेकिन पुण्य क्रिया नहीं, पुण्य भाव है। पुण्य क्रिया नहीं पुण्य भाव है। जब तक तुम क्रिया में पुण्य देखोगे तो अपने आप को क्रिया तक सीमित रखोगे। जिसदिन भावों के पुण्य को समझोगे उस दिन तुम्हारा जीवन कुछ का कुछ हो जाएगा। मैंने आपसे कहा- कि पुण्य क्रिया नहीं, पुण्य भाव है इसका तात्पर्य क्या है? पुण्य का मतलब होता है पवित्रता। क्या है? पवित्रता, किसकी पवित्रता, भावों की, विचारों की पवित्रता। ह्रदय में अहो-भाव की अभिवृद्धि ही पुण्य का उपार्जन है। अब दिख रहा हैं वह पुण्य? खोजो -तुम्हारे भावों और विचारों में जितनी पवित्रता है समझ लो उतना पुण्य से साक्षात्कार हो रहा है। तुम अपने भीतर जितनी पवित्रता घटित कर रहे हों समझ लेना उतना पुण्य कमा रहे हों। बोलो- अब दिखेगा कि नहीं दिखेगा पुण्य? एक पल को आँख बंद करो और आँखें बंद करके सोचो- कि मैंने अपने जीवन को पवित्र बनाने का कर्म कितना किया या पवित्रता का कार्य अपने जीवन में कितना किया? जो-जो किया वह सब तुम्हारा पुण्य के खाते में जाएगा जहाँ पवित्रता है वहाँ पुण्य हैं और जहाँ पुण्य हैं वहाँ पवित्रता है और अपवित्रता का नाम ही पाप है। बोलिए-पवित्रता है यह आपको देखना हैं। बाहर मैंने क्या किया वह उतना अर्थपूर्ण नहीं है भीतर मैंने क्या पाया यही अर्थपूर्ण है। तो मैंने आपसे कहा- कि जैसे कमाया हुआ पैसा दिखता है वैसे ही कमाया हुआ पुण्य भी देखने की कोशिश करो। तुम्हारा फाइनेंसियल ग्राफ गिरता है नींद उड़ जाती है, तुम्हारी विशुद्वि मंद होती है तुम्हारे मन में कोई चिंता होती है, हृदय की विशुद्वि बिगड़ती है तुम्हारे मन में कोई चिंता होती है? बोलो- हमारे यहां शास्त्रो में, कर्म शास्त्र में पुण्य की परिभाषा करते हुए यह नहीं कहा- कि पूजा करो, पाठ करो, जाप करो, तप करो, व्रत करो, उपवास करो, यह पुण्य हैं। इसे पुण्य नहीं कहा, क्या कहा- आचार्य भगवान वीरसेन महाराज से किसी ने पूछा- पुण्य क्या है? तो उन्होंने कहा- साताआदिक प्रशस्त कर्मों के बंध योग्य परिणाम का नाम पुण्य या विशुद्धि है, विशुद्धि का नाम पुण्य है। कौन सी विशुद्धि? भाव विशुद्धि। अपने मन से पूछो- पैसा कमाते हो थोड़ा नुकसान होता है तो पैसे के नुकसान को देखकर तुम्हारी नींद उड़ती है, परिणामों की क्षति देखकर तुम्हारे साथ क्या होता है? पुण्य का नुकसान तुम्हें अखरता है? बोलो- इसलिए मैंने कहा- अभी तुम्हारे पुण्य के प्रति तुम्हारी अवधारणा अधूरी है। तुम्हारा पुण्य तुम्हारे विश्वास तक सीमित है। जबकि उसे विचारों में प्रतिष्ठित होना चाहिए, जो तुम्हारी भाव शुद्धि का आधार बने। तो पुण्य कमाना है उसका पैरामीटर हमारा भाव है, अपने भाव को संभालिए। जितनी अधिक अहोभाव की वृद्धि होगी तय मान करके चलना उतनी ही पुण्य की कमाई होगी।
इसी से जुड़ा हुआ दूसरा सवाल- पैसा कमाने के लिए तुम्हारे अंदर जितना उत्साह है, पुण्य कमाने के लिए उतना उत्साह है? मन से पूछो- ईमानदारी से बोलना- घर से मंदिर आ रहे भगवान का अभिषेक करने का पुण्य भाव लेकर, हृदय में भी विशुद्वि हैं, उमंग है, अहोभाव है, आज भगवान के चरणों में जाकर के मैं एक पवित्र कार्य करूँगा और अपने जीवन में पवित्रता के संस्कार भरूँगा, यह सोचकर के तुम घर से मंदिर के लिए निकले हो और रास्ते में एक ऐसा आदमी दिख गया जिसने छ: महीने से पेमेंट रोका हुआ है, क्या करोगे मंदिर आओगे कि उसके पीछे भागोगे? ईमानदारी से बोलना- महाराज! भगवान तो जहाँ के तहाँ, कही जाने वाले नहीं यह कहाँ मिलेगा दोबारा इसको पकड़ो, क्या हो गया?महत्त्व किसे, प्राथमिकता किसे? बात लोग पुण्य की करते हैं लेकिन महत्व पुण्य को नहीं देते और इससे क्या विसंगति होती है थोड़ी देर बाद बताऊँगा आपको, जिसे देना चाहिए अगर तुम सच्चे धर्मी होंगे और जीवन के विज्ञान को ठीक तरीके से समझोगे तो तुम पैसे से ज्यादा महत्व पुण्य को दोगे। मैं आपसे एक सवाल करता हूँ पेड़ के पत्तों को सींचे और पेड़ की जड़ को सींचे, लाभ किसमें ज्यादा है पत्तों को सींचने में या जड़ को सींचने में?
महाराज जी: आप लोग क्या करते हैं जड़ को सींचते हो या पत्ते? बोलो-
श्रोतागण: पत्ते।
बहुत होशियार किसान हो तुम! कह रहे हैं पत्ते और कितने सीना तान के बोल रहे हैं कि पत्ते ही सींचते हैं। क्या-क्या हमारी विडम्बना है। पत्ते सींचने वाले को कभी समझदार नहीं कहा जा सकता। काश! तुम अपनी समझदारी को प्रकट कर पाते, जीवन की सच्चाई का बोध कर पाते, तो तुम्हारी दशा और दिशा सब परिवर्तित हो जाती। तो जितना महत्व जितना उत्साह पैसा कमाने के लिए है पुण्य कमाने के लिए उतना उत्साह लोगों में नहीं दिखता। तुम्हें पैसे का महत्व दिखता है, तुम पैसे को महत्व देते हो, पुण्य को महत्व नहीं देते। पैसा तुम्हारे लिए बहुत कुछ है। एक बार एक युवक ने कहा- महाराज! पुण्य भी बिना पैसे के नहीं होता है इसलिए पैसे को महत्व देते हैं। शायद आप लोग भी बोल सकते हो पैसा हो तो पुण्य हो क्योंकि अवसर तो लोगों को पैसे वालों को ही मिलता है। सामान्य आदमी को तो बिचारे को नीचे बैठना पड़ता है, तो पैसा हो तो पुण्य हो। एक बार ऐसा किसी ने मुझसे कहा- मैंने कहा ध्यान रखना- पैसे से पुण्य नहीं होता यह भ्रम निकाल दो। पैसे से पुण्य नहीं होता पैसे के त्याग से पुण्य होता है।
गणेशप्रसादजी वर्णी अपने एक भक्त के साथ जा रहे थे, रास्ते में नदी पड़ती थी और नाव से पार करना था वह भक्त एक श्रीमंत थे और वर्णीजी के मुँह लगे हुए थे वह हमेशा कहते थे बिना पैसा की जिंदगी नहीं चल सकती और वर्णीजी ही उन्हें मूल धर्म का मर्म समझाते थे और कहते थे- कि भैया! पैसा तो परिग्रह हैं, जी का जंजाल इसमें ज्यादा मत उलझो तो इस बात को लेकर के जब भी मौका था दोनों की वार्ता चलती रहती थी। अब जब नाव से नदी पार करना हुआ, नदी पार करने के बाद उन्होंने अपने जेब से पैसे निकालें और नाविक को दिया और उसके बाद वर्णीजी को मजाक करने के मूड में उन्होंने कहा – वर्णीजी महाराज! वर्णीजी महाराज! देखो आपने- हमारी खींसा में पैसा नहीं होते तो आज हम इस पार नहीं आ पाते, हमारे खींसा में पैसा नहीं होते तो हम इस पार नहीं आ पाते। वर्णीजी महाराज ने कहा- पैसा तुम्हारी खींसा में डले रहते तो भी इस पार नहीं आ पाते, इस पार कैसे आए। खींसा में पैसा रहने से या कि खींसा में से पैसा निकालने से, कैसे? निकालने से। मानता हूँ धन की तुम्हारे जीवन में उपयोगिता है लेकिन वह सब तुम्हारे जीवन के निर्वाह का साधन मात्र है। केवल धन से जीवन धन्य नहीं बनता, धन के सदव्यय से जीवन धन्य बनता है। और धन का सदव्यय वही कर पाता है जो पुण्य को महत्त्व देता है, पुण्य को महत्त्व देता है ।ध्यान रखना- धन जोड़ने से अपवित्रता आती है और धन के परित्याग में पवित्रता होती है और सच्चे अर्थो में अच्छे कार्य में धन का विनियोजन वही करते हैं जो उदार-चित्त होते हैं और उदारता हमारे हृदय की पवित्रता की अभिव्यक्ति है तो किसको महत्व देते हो, पैसे को या पुण्य को- किसको? महाराज! अभी तक तो पैसे को ही देते रहे हैं और आज आपने बोला है तो थोड़ा विचार करेंगे, थोड़ा महत्व देना शुरू करेंगे।
नंबर चार जो आपके लिए विचारणीय है पुण्य कमाने कि संदर्भ में कि तुम्हे उपयोगिता किसकी दिखती है पैसों की या पुण्य की? ईमानदारी से बोलना- मुझे खुश करके मत बोलना। आज तक तुम्हें अपने जीवन में पुण्य की उपयोगिता दिखी? पैसे की उपयोगिता तो तुम्हें कदम- कदम पर दिखती है। मेरे जीवन में पुण्य की कोई उपयोगिता है, इसका कभी, कहीं कोई, एहसास हुआ? बोलो- किसी पल, काश मेरे साथ मेरा पुण्य होता तो आज मैं कहीं और होता, पैसे तो मेरे पास पर्याप्त है पर पुण्य के अभाव में मैं पिछड़ गया, कभी ऐसा एहसास हुआ हैं? बोलो- ईमानदारी से एकआद आदमी हो हाथ उठा कर बोलो- कि महाराज! मुझे एहसास हुआ कि यह पैसा व्यर्थ हो गया काश पुण्य होता। देखिये! उठ रहा है एक हाथ, मैं तो सोच रहा सबका हाथ उठना चाहिए था। क्योंकि पैसे की एक सीमा है, लाचारी है। कोई आदमी बीमार पड़ जाए तो अमेरिका से डॉक्टर बुला सकते हैं पैसा के बल पर, सब कुछ कर सकते हो, आरोग्य दिला सकते हो? चिकित्सा तुम पैसे से करा सकते हो लेकिन आरोग्य? बोलो- हकीकत में अगर देखो तो तुम्हारे जीवन का एक-एक कदम बिना पुण्य के आगे नहीं बढ़ सकता। देखिए- पुण्य की उपयोगिता में आपको बताता हूँ। आपके पास पैसा है आपने अच्छा भोजन अपने सामने रख लिया। पैसे से आपने भोजन जुटा लिया पर उसे पचाने की ताकत तो पुण्य ही देता है। बोलो- और आजकल यह ताकत सेठों को नहीं हैं। पैसा है पचाने का पुण्य नहीं। एक सेठ की थाली परोसी रसोइए ने, रोटी में घी ज्यादा था, रसोइए ने रोटी परोसी घी ज्यादा थी। सेठ ने कहा ऐ रोटी में इतनी घी क्यों? रसोईया आया सेठ साहिब! माफ करना गलती से मेरी थाली आ गई। उसको इतना पुण्य कहाँ जो उसे खा सके। पैसा तो हैं पुण्य नहीं हैं । बड़े-बड़े सेठों के निकट जाकर देखो, क्या खाते हैं? ब्लड प्रेशर है, डायबिटीज है, किडनी में प्रॉब्लम है, पच्चीस बीमारियाँ हैं मूंग की दाल का पानी और रूखी रोटी यही खाने को नसीब होता हैं, उबली लौकी। नौकर-चाकर गुल-छर्रे उड़ा रहे हैं, कुत्ते कार में घूम रहे और सेठ जी बिस्तर पर पड़े हैं। बोलो- सत्य वचन बजाओ ताली!
पैसे की उपयोगिता है कि पुण्य की उपयोगिता? वहाँ एहसास होता है कि काश मेरे पल्ले में पुण्य होता तो यह दुःसयोंग मेरे साथ नहीं जुड़ता। कभी सोचा? पर महाराज! क्या बताऊँ? पूरा जीवन बिता दिया मैंने पुण्य का कोई महत्व ही नहीं सोचा, मुझे तो अपने पैसो पर अहंकार रहा, पैसों पर भरोसा रहा, खाओ पैसे! बोलो- बिना पुण्य के रोटी नहीं खा सकते। मुझसे एक सज्जन एक बार कहा वह महानगर में रहते थे बोले- महाराज! हमसे ज्यादा पुण्य तो हमारे नौकर-चाकरों का हैं, बोले – क्यों? महाराज! प्रतिदिन एक डब्बा मिठाई आता है प्रतिदिन एक डब्बा मिठाई आता हैं किसी ने किसी के यहाँ से पर, मुझे ब्लड प्रेशर है मे,री पत्नी डायबिटिक है हम लोग खा नहीं पाते और हमारे बेटे-बहू अपना फिगर बनाने के चक्कर में नहीं खाते हैं सा,रा माल नौकर-चाकर खाते है। हैं यह चक्कर, क्या हुआ? पैसा मनुष्य अपने पुरषार्थ से कमा सकता है, पर उसका उपभोग करने के लिए पुण्य चाहिए। तो पैसा बडा या पुण्य? तुम्हारे पास खूब पैसा हैं पर शरीर में सत्व नहीं हैं तो कोई काम? भोजन की सामग्री तो मिल जाए पर भूख ही चले जाए तो, बोलो? एयर कंडीशन का कमरा ले लो नींद उड़ जाए तो? ए-क्लास फाइव-स्टार होटल बढ़िया आपने सूट ले लिया, क्या कहते है आप लोग- बिजनेस क्लास का सूट, फर्स्ट क्लास सूट में चले गए पैसे ने तुम्हें बढ़िया सूट दिला दिया लेकिन वह सूट तुम्हें सूट करें इसकी गारंटी है? बोलो- क्या हुआ? नींद नहीं आ रही, करवटें बदल-बदल कर रात काट रहे हैं। तुम्हारे पास इतना पुण्य ही नहीं कि तुम ढंग से सो सको। सच्चे अर्थों में तो यही कहूँगा कि पैसों के दीवानों के पास इतना पुण्य नहीं कि वे ढंग से जी सकें।
जीवन के लिए पुण्य चाहिए। कदाचित बिना पैसों की जिंदगी चल सकती है बिना पुण्य के नहीं। बिना पैसों की जिंदगी चलती है कि नहीं चलती बोलो- चलती है उदाहरण है तुम्हारे पास, कौनसा उदाहरण है? बहुत समझदार हैं और एक बात बताओ कि तुम पैसे वालों की जिंदगी अच्छे से चल रही हैं कि हम बिना पैसे वाले की? तो तुम अपनी जिंदगी अच्छे से चलाना चाहते हो आ जाओ, खुला आमंत्रण हैं, कोई चिंता करने कि बात नहीं। देखिए! बहुत गंभीर बात है पुण्य कमाने के लिए आपको पुण्य के प्रति उल्हास चाहिए, आपको अपनी उपार्जित पुण्य की तरफ दृष्टि होनी चाहिए। अगर आप पुण्य कमाना चाहते हैं तो पुण्य को महत्व देना चाहिए और पुण्य की उपयोगिता को समझना चाहिए। तब कहीं जाकर तुम पुण्य कमा पाओगे फिर तुम्हें कहने की आवश्यकता नहीं होगी। अभी तो लोगों को जबरदस्ती धक्का मार-मार करके आगे बढ़ाना पड़ता है, उमंग नहीं जगती क्यूंकि तुम्हे उसकी उपयोगिता का बोध नहीं, तुम्हें उसके महत्व का बोध नहीं। मेरे संपर्क में एक व्यक्ति है जो कभी मध्यप्रदेश शासन के एक बड़े विभाग के सी-एम-डी के पोस्ट में थे। उनका इकलौता बेटा, बड़ा इंटेलिजेंट लड़का था, 12th में मेरिट में आने वाला लड़का, इंजीनियरिंग कर रहा था, बाइस साल की उम्र में पागल हो गया, पागल हो गया और ऐसा पागल कि जीना मुहाल, इतना चिल्लाये कि पूरे मोहल्ले की नींद खराब हो जाए। वह सज्जन कहते हैं – कि महाराज! मैंने जीवन में पैसे को महत्व दिया, बच्चे को समय नहीं दिया, संस्कार नहीं दिए अपने पुण्य की अभिवृद्धि नहीं की। आज मुझे लगता है, सब व्यर्थ, एक बेटा था, कोई इलाज नहीं, बीस साल हो गए इस घटना को, कोई इलाज नहीं, जिंदगी गई बर्बाद, खुद की भी गई और सामने वाले की भी गई। आप कल्पना कर सकते हैं यह किस वजह से हुआ? काश! पुण्य कमाने की बात होती तो यह नौबत क्यों आई होती?
तो पहली बात- पुण्य कमाना सीखो। अपने भाव में पवित्रता ला करके पुण्य के जितने अच्छे कार्य हो सके करो। जितने भी धार्मिक कार्य है वह पुण्य नहीं, पुण्य के कर्म है उनके निमित्त से पुण्य आता हैं अगर विशुद्धि के साथ उन कर्मों को करोगे तो तुम्हारा मन रिचार्ज होगा और पुण्य भाव का संचय होने से तुम्हारी आत्मा भीतर से मजबूत होगी। समझ गए तो पुण्य कमाइए- नंबर वन। कैसे-कैसे पुण्य होता है ग्रहस्थों को दान से, पूजा से, शील से, उपवास से विशेष पुण्य का उपार्जन होता है। दान करो अपनी शक्ति के अनुसार, भगवान की- गुरुओं की पूजा करो, सेवा करो, शील का पालन करो, उपवास करो, अन्य परमार्थ के कार्य करो जिससे कुछ पुण्य का उपार्जन हो सके और अपने जीवन में पवित्रता का संचार करके स्वयं को भीतर से मजबूत बना सको। पहली बात- पुण्य कमाना- चालू करोगे? महाराज! चालू तो था अब थोड़ा विशेष फोकस करेंगे।
पहला काम पुण्य कमाना।
दूसरी बात पुण्य भोगना, पुण्य भोग रहे हो कि नहीं यह बोलो! खूब भोग रहे हैं सब पुण्य भोग रहे हैं। ध्यान रखो- आप लोग तो व्यापारी हो, रूपया कमाई तो कितना खर्चा करते हो? जितना कमाते हैं सब फूंक देते हो या जितना कमाते हैं उससे ज्यादा खर्चा करते हो? क्या करते हो? जितना कमाते हो उसका पचास प्रतिशत खर्च करते हो और पचास प्रतिशत बचाकर रखते हो। मैं तुमसे कह रहा हूँ अपने जीवन का अंतर विश्लेषण करो, पड़ताल करके बताओ कि मैंने अपने जीवन में पुण्य कमाया ज्यादा या भोगा ज्यादा? कमा ज्यादा रहे हो कि भोग ज्यादा रहे हो? तो जो व्यापारी एक रुपैया कमाए और सौ रूपया खर्चा करे उसका क्या हाल होगा?
महाराज जी: बोलो- तो जोर से मुझे नहीं मालूम।
श्रोतागण: दिवाला
अपने भीतर झाँक कर देखो- तुम्हारा दीवाला तो नहीं पीट रहा है? संभलो-संभालो। बहुत गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। मनुष्य को चाहिए कि वह जितना संचित कर्म लेकर आए इस दुनिया से जाए तो उसमें कुछ अभिवृद्धि करके जाए। लेकिन पुण्य को भोगोगे तो उल्टा होगा। और एक बात आपको बताऊँ – पुण्य को भोगने में क्या होता है? पाप होता है तो क्या हो रहा है एक तो खर्चा चल रहा है बढ़ रहा हैं और कर्जा आ रहा है। पुण्य को तुम जितना भोगोगे उतना पाप का बंध होगा। दिमाग में बिठा लो- क्यों पुण्य को भोगने का मतलब क्या? भोग विलास करना, मौज मस्ती करना, आमोद-प्रमोद करना, यही है ना राग-रंग में उलझना, पुण्य का फल भोगने के लिए यही सब तो चीजें चाहिए और क्या चाहिए? जितना पुण्य का भोग कर रहे हो उतना पाप का भार बढ़ रहा है इस बात को कतई भूलना मत। यह पूरे जीवन की व्यवस्था को बिगाड़ने वाला है। पुण्य को भोगते समय तो मजा आता है पर जब उससे उपार्जित पाप सिर पर हावी होगा तब तुम्हें समझ में आएगा। अरे! मैं कुछ कर ही नहीं पाया, कुछ कर ही नहीं पाया। ध्यान रखना- पुण्य का भोग करना भावी दारिद्र को आमंत्रित करना हैं। पुण्य का भोग करना भावी दारिद्र को आमंत्रित करना है सब दरिद्र बनोगे, भिखारी बनोगे, क्यों? अपनी पूँजी उड़ा रहे हो, कोई पूँजी उड़ाता है तो आप उसको क्या बोलते हो, कहते हैं- हाँ ठीक है करते रह। उसको आप समझाइश देते हो। कहते हैं बेटा! ऐसा मत कर- ऐसा करेगा तो तुझे बहुत तकलीफों का सामना करना पड़ेगा, मुसीबत में फँस जाएगा, सावधान होकर के चल। लोक में पैसों के मामले में तुम यह सब कर लेते हो; परमार्थ में पुण्य के संदर्भ में ऐसा क्यों नहीं सोचते? पुण्य को भोगो मत, पुण्य का उपयोग करो। अच्छा एक बात बताओ- आपको जितने भी अनुकूल संयोग मिले, अच्छी बुद्धि मिली, किसके वजह से मिले? अच्छा शरीर मिला, अच्छा परिवार मिला, धन पैसा मिला, किसने दिया है सब पुण्य ने दिया ना, पुण्य ने दिया।
अब आपको पुण्य ने दिया। मैं आपसे एक सवाल करता हूँ कि रामलाल से आपने पैसा लिया, रामलाल से आपने पैसा लिया और श्यामलाल को दे दिया। तो रामलाल नाराज होगा कि नहीं? बोलो- पक्का, कभी ऐसा करते हो रामलाल का पैसा श्यामलाल को देने का कष्ट करते हो क्या? उस रामलाल का पैसा जिससे रोज काम होता है, नहीं न। रामलाल का पैसा अगर हमें लौटाना है तो रामलाल को ही देंगे श्यामलाल को तो भूल कर भी नहीं देंगे और एक बार रामलाल को पता लग गया कि हमसे पैसा लेकर हमारे शत्रु श्यामलाल को देता है रामलाल दोबारा एंट्री बंद कर देगा, करेगा कि नहीं करेगा बोलो- समझ में आ रहा हैं लॉजिक, करेगा ना। मैं यह कहता हूं- पुण्य रामलाल है उसने जो तुम्हें दिया उसे तुम श्यामलाल को दोगे तो पुण्य तुम्हारा नाराज होगा कि नहीं यह बताओ। समझ में आ रही बात? यह हेरा-फेरी बंद करो, यह तुम्हारी दुर्गति का कारण बनेगा ,इससे जीवन बर्बाद होने वाला है। कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। तो पुण्य का भोग करने में पाप होता है पुण्य का भोग मत करिए।
नंबर तीन- पुण्य का त्याग करो। पुण्य त्यागना, पुण्य का फल त्यागो। जीवन को ऊँचा उठाना है तो पुण्य का फल त्यागो।
तुममें और हममें क्या अंतर है?
बोलो -तुम पुण्य का भोग कर रहे हो हमने पुण्य का त्याग किया। भोग करने वाले दरिद्र हैं और पुण्य का फल त्यागने वाले के पीछे पुण्य लगा हुआ हैं ।
महाराज जी: इमानदारी से बोलो- तुम्हारा पुण्य बड़ा कि मेरा पुण्य बड़ा?
श्रोतागण: आपका।
महाराज जी: जिसने पुण्य को भोगा वह बड़ा जिसने पुण्य को त्यागा वह बड़ा?
श्रोतागण: जिसने पुण्य को त्यागा।
समझ रहे हो इस फिलॉस्फी को। भोग नहीं त्याग को आदर्श बनाइये।
हर पल इस बात का ख्याल रखिए कि मेरे धन का, मेरे संसाधन का, मेरे समय का, मेरी शक्ति का जो मुझे पुण्य से प्राप्त हुआ है, सही दिशा में विनियोजन होना चाहिए, सदुपयोग होना चाहिए, दुरुपयोग कतई नहीं होना चाहिए। यह दृष्टि अगर तुम्हारे अंतर्मन में जग गई, तो फिर तुम्हारी नैया कहीं नहीं डगमगाएगी। और यह दृष्टि नहीं जागी तो गए। मेरे संपर्क में ऐसे अनेक लोग हैं जो बड़े संपन्न है, पर जितने संपन्न है उतने ही धर्मी और उदार भी है। वह स्वयं पर भाई पाँच पैसे भी व्यर्थ खर्च नहीं करते और धर्म के काम में दोनों हाथ से देते हैं। एक सज्जन अमेरिका में रहते हैं भारत भी आते हैं। भारत आये तो एक साधारण सी पाँच लाख की कार में घूमते हैं। वह चाहे तो मर्सिडीज भी लगा सकते हैं। मैंने ऐसे ही एक दिन चर्चा में कहा कि आए- छोटी सी गाड़ी थी।
महाराज जी: आप इसी गाडी से आये।
सज्जन: हाँ महाराज! इसी गाडी से आये, मैं इसी गाडी को रखता हूँ, काम तो हमारा चलता है छोटी गाड़ी हो या बड़ी गाड़ी, चलने से जरूरत है।
महाराज जी: अच्छी बात है यह तो बहुत अच्छी बात हैं, आपको कोई इससे आपको अपने स्टेटस का बोध नहीं होता।
सज्जन: बोले- महाराज! गाड़ी से मेरा स्टेटस नहीं है मुझसे गाड़ी का स्टेटस हैं।
पहला जवाब तो दिया, गाड़ी से मेरा स्टेटस नहीं है मुझसे गाड़ी का स्टेटस है।
महाराज! सब लोग जानते हैं कि मेरी माली हालत क्या है और लोगों को यह दिखता है कि इस जैसा व्यक्ति भी साधारण सी गाड़ी में बैठता है तो यह गाड़ी अच्छी है।
फिर उन्होंने एक बात कही बोले- महाराज! जब मेरा काम छोटी गाड़ी में चल रहा है तो बड़ी गाड़ी लेकर मुझे किसको दिखाना है। पुण्य के योग से मुझे सभी अनुकूल सहयोग मिले हैं और हम धन उपार्जित कर रहे हैं तो इसका हम सदुपयोग क्यों नहीं करें दुरूपयोग क्यों करें? जो आदमी करोडों – करोडों रुपये का दान करने में समर्थ हैं वह आदमी साधारण सी गाड़ी में घूमता है आप कल्पना करें। यह बात देखना है तो बुंदेलखंड पर जाकर देखो- पांँच लाख की गाड़ी में घूमने वाला, पंद्रह लाख के मकान में रहने वाला, एक- दो करोड़ का दान कर देगा, खुश होगा क्या मैंने किया यह है पुण्य का त्याग।
दूसरी तरफ मैंने ऐसे लोगों को भी देखा है, सुरा-सुंदरी के चक्कर में लाखों बहाने वाले लोग, होटलो और रेस्टोरेंट में पैसा फूँकने वाले लोग और पब और बारों में पैसा बर्बाद करने वाले लोग तो मिल जाते हैं लेकिन पुण्य के कार्य में उन्हें पाँच रुपये देने में भी पसीना आता हैं। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसने अपनी पच्चीसवी एनिवर्सरी में पाँच करोड़ रुपया खर्च किया, पच्चीसवी एनिवर्सरी में पाँच करोड़ रुपया खर्च किया। बहुतों को ले गया, पूरे साल कार्यक्रम किया, बाहर ले गया और उसी आदमी से किसी धार्मिक कार्य के लिए किसी ने कुछ सहयोग चाहा तो ग्यारह हज़ार रुपये मुश्किल से दिया। बोलो- ऐसे लोगों के लिए आप क्या कहोगे? वह उनका भ्रम हैं। इसलिए वे जीवन को उसी तरीके से देखते हैं उन्हें पुण्य की उपयोगिता का अंदाज नहीं हैं, उन्हें पुण्य की उपयोगिता का एहसास नहीं हैं। जिस दिन उसकी आँखें खुलेगी तब समझ में आएगा कि क्या होता है पुण्य? अन्यथा पता लगा जिंदगी की आखिरी दौर में पैरालाइज हो गए हैं, कोमा में पड़ गए हैं, अब बिस्तर पर पड़े-पड़े सड रहे हैं, सब जोड़ी हुई संपत्ति सामने मुँह ताकते खड़ी है, परिवार परिजन के लोग टुकुर-टुकुर हेरते रह रहे हैं, काम कुछ नहीं हो रहा हैं, क्या है? तो पुण्य कमाना शुरू करो, पुण्य भोगना कम करो। खत्म तो नहीं कर सकते पुण्य तो भोगना ही पड़ेगा लेकिन अनासक्त होकर के भोगो। पुण्य का आसक्ति से और अहंकार से भोग करने वाला पापी होता है। आसक्ति से अगर भोग करोगे, तुम उसमें रज-पच जाओगे, अहंकार करोगे तो तुम्हारी बुद्धि उद्धत हो जाएगी। अभिमान पतन का कारण होता है और आसक्ति दुर्गति में धकेल देती है।
अनासक्त भाव से, विन्रम भाव से पुण्य का भोग करना। बिना भोगे भी नहीं चलोगे जीवन के निर्वाह के लिए चाहिए सब चीजें लेकिन अंदर अनासक्ति होनी चाहिए। उससे जुड़ाव ऐसा न हो, उससे चिपकना नहीं, हेय बुद्धि से उनका आलम्बन लेना। मुझे लेना पड़ रहा है जीवन के लिए आवश्यक है। चाहे घर-परिवार चलाने की बात हो, चाहे जीवन के निर्वाह की बात हो सबको पुण्य का भोग करना पड़ता है। पुण्य के भोग में तुम ही नहीं हम लोग भी शामिल हैं। हम लोग भी पुण्य के भोग में शामिल है पर थोड़ा सा अंतर हैं। तुम पुण्य को भोगते हो उपादेय बुद्धि से और हम भोगते हैं हेय बुद्धि से। भोजन तुम भी करते हो, भोजन हम भी करते हैं। भोजन हमें या तुम्हें सबको पुण्य के उदय से मिलता है। जब तक पुण्य हैं तब तक मिलेगा, पुण्य नहीं है तो भोजन भी नहीं मिलने वाला। लेकिन अंतर क्या है? तुम भोजन करने के लिए भोजन करते हो और हम शरीर चलाने लिए भोजन करते हैं इतना अंतर। हमारे द्वारा ग्रहण किया गया भोजन केवल गाडी में ईंधन डालने की तरह होता है। और तुम भोजन अपनी जिव्हा की लोलुपता वश, शरीर की पुष्टि के लिए करते हो। इसलिए साधु पुण्य को भोगते हुए भी कर्म की निर्जरा करता है और तुम लोग बंध करते हो, क्योंकि उसमें व्याकुलता है। आसक्ति के कारण, अभिमान के कारण यह दोनों पतन का कारण है इसलिए कभी पुण्य का भोग करो, आसक्त मत होना, अभिमान मत करना क्योंकि कब पुण्य का पासा पलट जाए कहा नहीं जा सकता।
बड़ा विचित्र खेल है। हवा के वेग में कागज का टुकड़ा ऊपर उड़ा, आसमान की ओर उड़ा। हवा के वेग में कागज का टुकड़ा ऊपर आसमान में उड़ा और पर्वत के शिखर पर जा पहुँचा। पर्वत ने आगत कागज का स्वागत करते हुए पूछा- बंधुवर! यहाँ तक कैसे? हवा के वेग में उड़ा कागज का टुकड़ा पर्वत के शिखर पर जा पहुँचा, पर्वत ने आगत कागज का स्वागत करते हुए पूछा- बंधुवर! यहाँ कैसे? कागज ने ऐंठते हुए जवाब दिया, अपने दम पर और कैसे। अपने दम पर और कैसे। कागज का उत्तर पूरा भी नहीं हो पाया कि तभी हवा का एक दूसरा झोंका आया। कागज का उत्तर पूरा भी नहीं हो पाया कि तभी हवा का दूसरा झोंका आया उसने कागज को उड़ाया और अगले पल वह गटर में जा समाया। बात समझ में आई, नहीं आई आपको बात समझ में। जो शिखर पर है उसे गटर में जाते देर नहीं लगती। कब तुम्हारा पुण्य छीन हो जाए कोई पता नहीं इसलिए पुण्य का भोग करो तो अहंकार मत करना। कब पाप का प्रकोप आ जाए एक झोका तुम्हे उठाकर कहाँ फेक देगा समझ भी नहीं पाओगे। तो पुण्य कमाना, पुण्य को भोगना पर अनासक्त भाव से, विन्रम भाव से। अपने हृदय में आसक्ति और अभिमान को कभी प्रकट मत होने देना। यह तुम्हे कहीं का नहीं छोड़ेंगे मनुष्य के बहुत बड़े शत्रु है और सच्चे अर्थों में जीवन का उत्कर्ष करना चाहते हो तो पुण्य को त्यागना सीखो। पुण्य तो त्यागना सीखो, भलाई उसमें हैं। जो मैंने पाया है वह औरों के भी काम में आए।
नंबर चार पुण्य बाँटना सीखो पुण्य बाँटो। अभी तो तुम लोग पुण्य लूटते हो, लूटो लेकिन बाँटना भी सीखो। बाँटने का मतलब- जो तुमने पाया हैं औरो को भी दो, जो अच्छाइयाँ हैं उसको फैलाओ। वह भी अपनी चीज़ बाँट रहा हैं बाँटना सीखो। पुण्य को जी भर करके बाँटो। हमारे गुरुदेव खुले हृदय से पुण्य बाँटते हैं और हम लोगों को संस्कार दिए जो आए बाँटते जाओ, बाँटते जाओ, बाँटते जाओ। दुनिया में और चीजें बाँटोगे तो कम होगी पुण्य को बाँटोगे तो पुण्य की वृद्धि होगी घटेगी नहीं। बात समझ में आ रही है कोई अच्छा मौका आये तो अकेले लेने का भाव मत रखो। कोशिश करो कि इसमें और लोग अधिक से अधिक लोग सहभागी बने। पर तुम लोग बड़े स्वार्थी हो। प्रवचन सुनने के लिए आ रहे हो खाली गाड़ी आ रही है लेकिन यह नहीं कहोगे कि चलो तुम भी चलो हमारे साथ प्रवचन सुनो बैठ जाओ। कभी आता है मन में भाव? हम चार आदमी को लेकर के चले यह मनोभाव आता हैं? जो मैंने सुना वह औरों को भी सुनने को मिले यह मनोभाव आता है? सब लोगों का जीवन बदले यह मनोभाव आता है? धर्म का सर्वत्र प्रसार हो यह तुम्हारे मन में आता है? सर्वत्र धर्म की प्रभावना हर व्यक्ति का जीवन विशुद्ध बने यह तुम्हारे मन में भाव आता है? जो लाभ मैं ले रहा हूँ उसे अधिक से अधिक लोग लाभ ले यह मनोभाव तुम्हे मन में आता है? बहुत कम।
देखो- उदाहरण देता हूँ आप लोग कितने कंजूस हो। चौंके में महाराज का आहार होता है आप लोग क्या कोशिश करते हो पूरा आहार मैं ही दूँ। एक प्रतिक्रिया यह, बाहर के आदमी को आया देखकर झुरियाँ चढती है अरे! सब आ गए, वही-वही देंगे तो हम क्या देंगे? एक प्रतिक्रिया यह और एक प्रतिक्रिया यह चलो- अहोभाग्य! आओ, सब आओ, सब दो, कोई बात नहीं, मेरे घर में आओ किसी को भी मत रोको, एक-एक करके दो अब बोलो – कौनसी प्रतिक्रिया वाले हो पहली वाली या बाद वाली? इसी का नाम पुण्य बाँटना है। अकेले करोगे तो उसका लाभ केवल एक को मिलेगा तो एक का श्रेय होगा। लेकिन एक के निमित्त से यदि हजार को लाभ मिलता है तो हजार ने जो पुण्य लाभ लिया उसका भी छठवाँ भाग तुम्हारे हिस्से आएगा, क्या आएगा? छठवाँ हिस्सा! तो पुण्य करने की जब भी बात आये तो पुण्य बाँटना सीखो। पर भैया बाँटोगे जब अंटी में कुछ होगा, कंगाल आदमी क्या बाँटेगा? तो कमाओ और बाँटो। इसलिए मैं ने कमाने से शुरुआत की और बाँटने में अंत किया। जी भर करके कमाओ और आँख मूंदकर के बाँटो, दिल खोलकर के बाँटो। जी भर करके कमाओ और दिल खोलकर के बाँटो। कमाने में कोई कसर मत छोड़ो तो बाँटने में कोई ढील मत दो, यह तुम्हारी दृष्टि होनी चाहिए। चक्रवर्ती जैसे महा प्रतापी लोग पुण्य बाँटने में कोई कमी नहीं करते, किमीच्छक दान देते हैं । ध्यान रखना- पुण्य का भोग करने में पाप होता है और पुण्य का त्याग करने में पुण्य होता है समझ गए।
महाराज जी: आपके पास पाप ज्यादा है या पुण्य?
श्रोतागण: पाप ज्यादा है।
मेरे पास एक टेकनिक है पाप को पुण्य में बदलने की। आप चाहते हैं पाप को पुण्य में बदलने की टेकनिक है। आजकल तो बहुत सारे ऐप्स होते हैं, एप्लीकेशंस होते हैं। कल मुझे एक बता रहे थे महाराज जी वॉइस को टेक्स्ट में बदलने का ऐप आ गया, आप जो बोलियेगा वो सब टेक्स्ट में बदलता जाएगा तो बहुत सारे एप्लीकेशंस है। तो मैं आपको बोलता हूँ मेरे पास एक टेकनिक है पाप को पुण्य में बदलने की। चाहिए? चाहिए? किसको-किसको चाहिए हाथ उठाओ। जो मैं बोलूँगा तो करोगे अभी तुम लोगों के कमिटमेंट को देखता हूँ। जो मैं बोलूँगा देखो मैं बताता हूँ तुम्हारे जेब में जो रुपया है इसको क्या बोलते हैं, यह क्या है परिग्रह है न। परिग्रह पाप हैं कि नहीं ,जेब का रुपया परिग्रह पाप है, परिग्रह पाप हैं या नहीं । एक बार और बोलो परिग्रह पाप है कि नहीं, जोर से बोलो- परिग्रह पाप है कि नहीं और उस रुपए को निकाल करके तुमने मंदिर के गुल्लक में डाला वह क्या हुआ? दान हुआ कि नहीं? दान पुण्य हैं कि नहीं तो समझ में आ गया पाप को पुण्य में बदलने की टेकनिक। बदलना शुरू करो बोलो- गलत बोला? पसंद आया कि नहीं एक बार जोर से ताली बजाओ। सीखिए, समझिये सब कुछ यही है, लेकिन जब तक तुम्हें अपनी आत्मा की समझ नहीं होगी जीवन का बोध नहीं होगा तब तक यह बातें केवल प्रवचन में अच्छी लगेगी। बाद में तुम लोग कहते हो महाराज! बात तो बड़े लॉजिकल करते हैं, एकदम फंसा लेते हैं। पर क्या बताऊँ तुम लोग मेरे जाल में फँसते ही नहीं हो, फँस जाओ तो दूसरे दिन फिर आने कि जरूरत ही ना पड़े कुछ।
ध्यान रखो- अभी तो तुम मोह के भँवर में फँसे हुए हो, बाहर निकलो। जीवन के मर्म को जानने की कोशिश करो। अपना जो वास्तविक करम हैं उसी रूप कार्य करने का प्रयास करो तब जीवन धन्य होगा। हमेशा ध्यान रखना जीवन में पुण्य हैं, यह पुण्य भी एक संयोग है यह पराया संयोग है हमारे अधीन नहीं हैं। पर जीवन में इसकी एक सीमा तक उपयोगिता है। तो यह उपयोग हमे करना चाहिए जीवन को ऊँचा उठाना चाहिए। तो पुण्य कमाए, पुण्य बाँटकर के जाइये, पुण्य को भोगिए मत, पुण्य के फल को त्यागने का उद्दम कीजिए। इसी से जीवन का उत्कर्ष होगा। और सभी अपने जीवन को नई ऊँचाई देंगे इसी बात के साथ आज यहीं पर विराम दे रहा हूँ। बोलिए- परम पूज्य आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय।