खूबियाँ खोजिये, खामियाँ नहीं
एक दार्शनिक सामने की ओर देखते चल रहा था। रास्ते में उसे कोई सन्त मिल गये। उन्होंने उससे पूछा- क्या बात है, कहाँ जा रहे हो? उसने कहा मैं सत्य को खोज रहा हूँ। सन्त मुस्कुराए और कहा- आज तक खोजने से सत्य मिला किसे। तुम जिस सत्य को खोजने में लगे हो वो खोया कहाँ है, ये तो देखो। आज हर मनुष्य की यही स्थिति है, बहुत कुछ खोज रहा है। आप खोजते हैं, खोजना यानी ढूँढना। हर कोई ढूँढने में लगा है। आपको किसकी खोज है, आपने कभी विचार किया। किसी की खोज है या नहीं। किसको खोजें? सच्चे अर्थों में देखा जाये तो कभी खोया नहीं उसे खोजा नहीं जाता और खोजना है तो अपने भीतर देखना होगा कि क्या खोंजें। आज चार बातें कहूँगा-
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- खोजना,
- खोना,
- खूबी और
- खामी
एक भीतर की खोज है और एक बाहर की। बाहर की खोज में यात्रा लम्बी होती है और भीतर की खोज में विराम मिलता है। बाहर की खोज में हमें दृष्टि दौड़ानी पड़ती है और अन्दर की खोज में अन्तर्दृष्टि जगाना पड़ती है। भीतरी खोज हमें आध्यात्मिक रूप से समर्थ बनाती है, समृद्ध बनाती है। बाहर की खोज हमें बाहर से मजबूत बनाती है। हमारे अन्दर अच्छाइयों का विकास करती है। आज मैं आपको दोनों प्रकार की खोज की बात करूँगा और खोने की बात करूँगा। भीतर की खोज सबसे पहले हमें अपने भीतर खोजना है, क्या खोजना है। अपने भीतर खामियों को खोजो। किसको खोजो, खामियों को। आप लोग दूसरों की खामियों को खोजते हो। यही आपकी खूबी बन गई है। हकीकत में मनुष्य को अपने अन्दर की खामियों को खोजना चाहिए। अपने अन्दर निहारो कि हममें कोई खामी है, देखिये हमारे अन्दर सबसे बड़ी खामी क्या है।
मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता है कि उसे अपनी खामी दिखाई नहीं पड़ती दूसरों की खूबियाँ नजर नहीं आती। हमें कोशिश करनी है कि अपनी खामियों को देखें और दूसरों की खूबियों को। अपने भीतर देखें, हमारे भीतर सबसे बड़ी खामी क्या है। जो खामी समझ में आये उसे सामने रखो,और आज मैं आपको खामी को खूबी में बदलने का तरीका बताऊँगा, पर थोड़ी देर में बताऊँगा। आप देखें खामी मिली या खामियाँ। मैं पूछता हूँ कि गन्दगी हो,कहीं गुलदस्ता हो, किसे पसन्द करते हो? गुलदस्ते को सजा कर रखा जाता है और गन्दगी को बुहार कर बाहर फेंक दिया जाता है। आपकी जो खामियाँ हैं,गन्दगी है या गुलदस्ता। गन्दगी है तो इसे बाहर निकालिए,और खूबियों के गुलदस्ते से अपने जीवन को सजाइये। बहारने की प्रक्रिया मैं बताऊँगा। पहले देखना कि खामी क्या ह? खामी को खोजना है। अगर हमें दूसरों की बुराई देखने की खामी है, तो उस बुराई को अच्छाई में बदलना है। अगर बात-बात में गुस्सा आने की बुराई है तो गुस्से की खामी को हमें अच्छाई में बदलना है। यदि आप अपशब्द बोलने के आदी हैं, तो हम उसे नियन्त्रित करने का रास्ता बतायेंगे। यदि आपके मन में वासना का विकास प्रबल होता है, तो कम करने में रास्ता हमें खोजना है। पहले खामियों को सामने रखिए। उन खामियों को खूबी में बदलने का रास्ता आज मैं आपको बताऊँगा। पर पहले भीतर को खामी खोजें। घर जाकर एक कागज, पैन लेकर अपनी खामियों को उस पर लिखिए,फिर सोचें ये खामी मेरी प्रवृत्ति है,आदत है,या दुर्बलता। ये आपको देखना है। ये खामी मेरी आदत है या प्रवृत्ति बन गई है,या यह मेरी दुर्बलता बन गई है,उस घड़ी में स्वयं को न सँभाल पाने की कारण होती है। तो खामी को बदलने के लिए हमें कुछ पुरुषार्थ करना होगा। हमें सूचीबद्ध करना है कि मेरे अन्दर कौन-कौन सी खामियाँ हैं। बनाओगे? हर मनुष्य में ढ़ेरों खामियाँ हैं,अगर अपनी खामियों को खोजोगे तो लगेगा इस संसार में मुझ से बुरा आदमी कोई नहीं है। कहते हैं न-
‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलियो कोय।
जो दिल खोजो आपनो, मुझसे बुरा न कोय’।
खोजो तो अपने दिल में, टटोलो बुराइयों को और अपने अन्दर इन बुराइयों को दूर करने का संकल्प जगाना है, बुराईयों को उखाड़ने का, शमन करने का। खुशियों को जमाने में वक्त लगता है और खामियाँ तो कब से अपनी जड़ जमाये है। बेशर्म का पेड़ लगाना हो तो कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती, लेकिन चन्दन का बाग लगाने के लिये पूरा जीवन खपाना पड़ता है। बुराइयाँ बेशर्म की तरह हैं जो हमारे भीतर अनादि से जड़ जमाए हुए है। हमें अगर अच्छाईयों का गुलाब खिलाना है, तो इन बुराईयों की जड़ उखाड़कर जमीन तैयार करनी है। हम सोचें एक प्रवचन सुनने मात्र से हमारे अन्दर की बुराई दूर हो जायेगी, तो ऐसा सम्भव नहीं है। बुराईयाँ तब दूर होंगी, जब आप उन्हें दूर करने के लिए तत्पर होंगे। ऐसी कोई दुर्बलता नहीं है जिसे दूर न किया जा सके, बशर्ते हमारे अन्दर की इच्छा शक्ति जागे। आज मैं आपसे अपनी खामियों को खोजनें की बात कर रहा हूँ। उनको सूचीबद्ध करें। लक्ष्य बनायें। मुझे इन्हें दूर करना है। उपाय भी बता देता हूँ। जो भी कमी आपको दिखती है, कोई भी एक बुराई चुनें। जैसे आप में दूसरों की खामी देखने की आदत जमी हुई है। इसे अच्छाई में बदलना है, तो एक दृष्टि बनाइये कि मुझे गुणानुरागी बनना है, गुणग्राही दृष्टि रखना है, मुझे अच्छाई देखना है। ये संस्कार अपने अचेतन मन में फीड कर दीजिए। मुझे बुरे में अच्छा देखना है, बार-बार ये दोहराना शरू कीजिये। धीरे-धीरे आपके अवचेतन मन में खूबियाँ देखना है,अच्छा देखना है ये संस्कार फीड होंगे और जब ये संस्कार जम जायेंगे तो जैसे ही आपको बुराई पर दृष्टि होगी आपके मन में आयेगा कि मुझे अच्छाई देखना है। नतीजा,आप अभी तक आदतन बुराई देखते थे,और अब अच्छाइयों को खोजने में अनुरक्त हो जाओगे। तुम्हारी ये खामियाँ अब खूबी में परिवर्तित हो जायेंगी। तकनीक पसन्द आई कि नहीं।
एक कमजोरी है और उस कमजोरी को दूर करने के लिए एक प्रक्रिया को अपनाना है। तुरन्त कोई मन्त्र थोड़े ही है, इधर का उधर कर दिया, दृष्टि बदलनी होगी, संस्कार बदलने होंगे, बुराई को अच्छाई में बदलने के लिये एक प्रकिया को अपनाना पड़ेगा। तो पहली बात अपने भीतर अच्छाईयों के संस्कारों का आरोपण कीजिये। संस्कार बहुत भयानक होते हैं बहुत जल्दी नष्ट नहीं होते। पानी कहीं से बहता है, सूखने के बाद दोबारा पानी डालोगे तो वहीं से बहेगा। इसी प्रकार जब संस्कार एक बार जम जाते हैं, तो जब तक जड़ से उनका निर्मूलन न हो, तब तक समय-समय पर उभरने लगते हैं। तो उनके निर्मूलन के लिए हमें कटिबद्ध होना होगा, उसके लिये पुरुषार्थ करना पड़ेगा,आप राजी हो। एक दिन एक बुराई। जब तक एक बुराई पर काबू न हो जाये, दूसरी बुराई को टच मत करो।
ये तय करो अगर आज भले बुराई खोजने की आदत है, गन्दगी फैलाने की आदत है, तो ये प्रवृत्ति हमें रोकनी है। अच्छाइयाँ देखने का अभ्यास कीजिये, मुझे हर किसी में खूबियाँ देखनी हैं। अब देखिये इसका क्या प्रभाव होता है। आप के घर परिवार की बात करता हूँ। आपका बेटा है,आपकी बहू है,आपकी पत्नी है, पति है, माँ है, पिता है, जिससे भी आपका सम्पर्क होगा। दुनिया में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसमें केवल अच्छाइयाँ हो, बुराईयाँ न हो। एक ही हैं,वो हैं भगवान। केवल भगवान ही पूर्ण हैं, बाकी सब अधूरे हैं, दुर्गुण हैं, खामियाँ हैं, सबमें कुछ न कुछ है ही, लेकिन हमारा काम क्या है,उसमें से खूबियों को देख लें और खामियों को नज़रअन्दाज करना सीखें। आप अगर किसी बगीचे में जाते हैं तो वहाँ डालियों पर फूल भी दिखते हैं। आप जब बगीचे में जाते हैं तो आपकी दृष्टि फूलों पर होती है या नीचे पड़े सड़े-गलें पत्तों पर,गन्दगी पर। मैं आपसे कहना चाहूँगा, जीवन की बगिया में जिस पर भी आपकी दृष्टि पड़े, फूल चुनो,गन्दगी नहीं। खूबियाँ खोजिये, खामियाँ नहीं। खुद की खामियों को खोजिये और दूसरों की खूबियों को खोजिये। दूसरों की बुराई खोजने की, देखने की, करने की, कमी फैलाने की, मुझे उसे खत्म करना है। उसका रास्ता है, दूसरों की खूबियाँ देखनी हैं,अच्छाई देखनी है, यह भावना भाइये।
तुम णमोकार जपोगे तो तुम्हारी बुराई जाये या न जाये, पर मुझे अच्छाइयाँ देखनी हैं। इसकी पूरी माला फेर लो तो तुम्हारी आँखों में अच्छाइयाँ समाने लगेंगी। ये मनोविज्ञान की भाषा में ऑटो सजेशन कहलाता है। जिसमें हम स्वयं को समझाते हैं और इससे जीवन में रूपान्तरण होता है। जैन साधना में इसी बात को दूसरी तरह से कहा गया है, तुम अपने में जिसको घटित करना चाहते हो उसकी भावना भाओ। व्रत को अंगीकार किया, व्रत लेने मात्र से स्थिरता नहीं होती, व्रतों में स्थिरता तब आती है जब व्रतों के अनुकूल भावना भाते हो। मैंने इसे गहराई से समझा और विश्लेषण किया और पाया,यह जैन मनोविज्ञान का एक बहुत बड़ा मन्त्र है, जिसे आज का मनोविज्ञान भी मानता है। तुम जो पाना चाहते हो, जैसा बनना चाहते हो, उसकी बार-बार भावना भाओ, जीवन बदल जायेगा। पहले ये बताओ आप अपने आपको बदलना चाहते हो कि नहीं। दिल से चाहते हो, तो आज से एक प्रक्रिया शुरू करो, मुझे बुराई नहीं देखना,अच्छाई को देखना है, खूबियाँ देखनी हैं, औरों में अच्छाइयाँ देखनी हैं। अभी मैंने कहा कि सब में कोई न कोई बुराई तो मिलेगी।
एक व्यक्ति अपने बचपन के मित्र से मिलने गया। बीस वर्ष बाद मिलना हुआ। घर में देखता है, बिल्कुल अकेला है। 50 वर्ष की उम्र हो गई, घर में अकेला। मित्र बोला ठहरो तुम्हारे लिये चाय की व्यवस्था करता हूँ। बोला क्या बात है, घर में अकेले हो, घर का सारा काम तुम ही करते हो। बोला हाँ। माता-पिता स्वर्ग सिधार गये। बोला तुमने शादी नहीं की, बोला नहीं। करना नहीं चाहते थे क्या? बोला करना चाहता था, फिर, हो नहीं पाई, क्यों, बोला में ऐसी लड़की की तलाश में था जो सर्वगुण सम्पन्न हो। तो क्या ऐसी कोई लड़की नहीं मिली। बोला एक मिली थी। फिर क्या हुआ। उसने इनकार कर दिया। क्यों? वो भी किसी सर्वगुण सम्पन्न लड़के की तलाश में थी। तो भैया,सर्वगुण सम्पन्न कौन है। ध्यान रखना,संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें कोई खामी न हो। हमें तो उसकी अच्छाई को खोजना है। जिसकी गुणग्राही दृष्टि होती है, वह बुराई में भी अच्छाई को खोज लेता है। जिनमें छिद्रानुवृत्ति होती है, वो अच्छाई में भी बुराई को खोज लेते हैं। अपने भीतर झाँकिये। अपने मन से पूछिए। मैं क्या खोजता हूँ। किसे खोजता हूँ। अभी मैंने कहा घर परिवार में किसी व्यक्ति में कोई दोष हो, कमजोरी हो, बार-बार उससे भिड़ोगे, बुराई करोगे, तो उस व्यक्ति के प्रति क्या धारणा होगी। कटुता आयेगी,निश्चित आयेगी। और किसी में कोई कमी हो और उसकी उस कमी को नज़रअन्दाज करके उसकी अच्छाई को उजागर करेंगे तो क्या होगा। खामियाँ ढूँढ़ना यानी आलोचना करना।
मैं सबको एक मन्त्र देता हूँ। आज से किसी की आलोचना नहीं करना, बल्कि प्रोत्साहन करना। ये आलोचना और प्रोत्साहन का क्या फण्डा है। आलोचना यानि किसी की खामी को खुलेआम प्रकट करना, उसकी बुराई करना। पर मैं आपसे कहता हूँ ऐसा मत करिए। प्रोत्साहन दीजिये, मतलब सामने वाले को गुदगुदा के, उसकी प्रसंशा करते हुए उसकी खामी का एहसास करा देना। जैसे आपकी बहू अच्छा खाना नहीं बनाती और आपने सीधे-सीधे बोल दिया कुछ जानती नहीं है, खाना भी बनाना नहीं आता, तो उसे चुभेगा कि नहीं? तो क्या करना चाहिए? अगर बहू को खाना बनाना नहीं आता है, तो आप उसे कहिये बेटी, बहुत अच्छा, तुम्हारा काम करने का तरीका बहुत अच्छा है, तुम्हारी और चीजें बहुत अच्छी लगती हैं, तुम्हारा उठना, बैठना, पहनना, ओढ़ना, बातचीत करने का तरीका, परोसने का तरीका, सब बहुत अच्छा है, तुम्हारा मसाला डालने का जो तरीका है न उसे इस तरीके से कर लो, तो उसमें चार चाँद लग जायेंगे। यहाँ जो सासु माँ बैठी हैं, वो बहुओं को झिड़कती हैं या समझाती हैं। आलोचना करती हो या प्रोत्साहन देती हो. बात वही है, अन्दाज अलग है। केवल अन्दाज बदलना है। महाराज, उस समय तो होश ही ठिकाने नहीं रहता। हमें वहाँ सजग और सावधान होकर चलना चाहिए। आपके अपने बेटे को कारोबार सौंपा, निश्चित, कमियाँ हो सकती हैं। आपने 25-50 वर्ष व्यवसाय किया। आपकी कुशलता, दक्षता,एक दिन में बेटे में नही आयेगी। आप अपने उन दिनों को याद करो जब आपने इस क्षेत्र में पदार्पण किया था, तो क्या आपसे कोई गलती नहीं हुई होगी। अगर बेटे से गलती हो रही है, तो उसे सीधे-सीधे झिड़कने की जगह कहो, पहले उसकी अच्छाइयों को उभारो। बेटा तू जीतने अच्छे से काम सँभालने लगा, तेरी उम्र में तो मुझे समझ भी नहीं थी, कितना अच्छा काम सँभालता है, तेरा व्यवहार भी बहुत अच्छा है, लेकिन व्यापार में हमें कुछ चीजें अपने तरीके से ध्यान में रखना चाहिए और यदि ये कार्य इस तरीके से करें तो और बेहतर होगा। सामने वाले को आसानी से समझ आयेगा। तो मैंने आप सबसे कहा,बुराई नहीं, अच्छाई देखना है, आलोचना नहीं प्रोत्साहन करना है। आज से ही ये प्रक्रिया अपनायें।
हर क्षेत्र में आलोचना और प्रोत्साहन दो शब्दों को ध्यान में रखों। महाराज कभी-कभी टोकना पड़ता है। टोकिये, मैं मना नहीं करता, लेकिन केवल इतना पूछता हूँ कि एक ग्लास को मीठा करने के लिये कितनी शक्कर डालते हो। एक चम्मच या दो चम्मच। शक्कर डालने से दूध मीठा होता है और दूध में मिठास लाने के लिए शक्कर डालना जरूरी है। मैं सहमत हूँ कि शक्कर से दूध मीठा होता है, तो दो चम्मच की जगह 20 चम्मच डाल दीजिए। क्या होगा? बोलो? चाशनी हो जायेगी। वो दूध पीना पसन्द करोगे। मैं आपसे केवल इतना कहना चाहता हूँ जब भी अपने घर-परिवार या सम्पर्क में रहने वाले लोगों की कमियों को दूर करने के लिहाज से उन्हें कुछ कहें तो इतना ध्यान रखें कि ग्लास में एक चम्मच ही चीनी हो, 20 चम्मच न हो। मुश्किल यह है कि दूध में चीनी मिलाते समय तो आप ध्यान रखते हैं पर जब किसी को अपने निर्देशों का दूध पिलाना होता है, तो क्यों भूल जाते हैं। सोच बदलनी होगी, तब जीवन में हम कुछ कारगर उपलब्धि घटित कर पायेंगे, अन्यथा कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। समझ गये। क्या कहा मैंने। अपनी खामियाँ खोजना है और दूसरों की खूबियाँ खोजनी है। खोजना शुरू कीजिये। बड़ी मुश्किल होती है।
एक बार तीन विद्वान आपस में मिले। और तीनों के मध्य बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। तीनों आपस में एक-दूसरे की कमियाँ बता रहे थे कि हममें सबसे बड़ी खामी क्या है? एक न कहा- बताऊँ, प्रवचन तो मैं जबरदस्त करता हूँ और मेरे प्रवचन का प्रभाव ऐसा होता है कि सब मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं, पर क्या बताऊँ जब तक मुँह में गुटका न दबा लूँ, मूड ही नहीं बनता। दूसरे ने कहा मुझे ऐसी आदत तो नहीं है, पर एक कमजोरी है, मैं प्रवचन करते समय जितने शेखी हैं, उनको चढ़ाता हूँ, उनके गुण गाता हूँ, उनसे सम्पर्क बनाता हूँ और उनसे पैसे ऐंठता हूँ। पैसे के प्रति मेरा लगाव बहुत है। दोनों की बात सुनी तो तीसरा पेट पकड़कर जाने लगा, तो कहा- भैया! आप कहाँ जाते हो, बोला- अभी आता हूँ। जा कहाँ रहे हो? बोला मेरी एक बहुत बड़ी कमजोरी है कि दूसरों की बुराई सुन लूँ, तो जब तक 10-20 को बताकर न आ जाऊँ, तब तक पेट में दर्द हो जाता है। तो ये पेट दर्द की बीमारी दूर करो। समझ गये। तो खूबियों को खोजिये, खामियों को नहीं। लोगों में एक प्रवृत्ति है अपने मुँह मिया मिठ्ठू बनने की। आत्म प्रशंसा को बहुत बड़ी दुर्बलता है। अपने मुँह से प्रशंसा करते हैं। ध्यान रखना तुम्हारे गुणों की प्रशंसा कोई और करे तो खूबी है पर अपनी प्रशंसा स्वयं करो तो ये खामी है। कर्म ऐसा करो कि जमाना गीत गाये। ऐसा न करो कि लोग मुँह चढ़ायें। जो अपने मुँह से अपनी बढ़ाई ज्यादा करता है, आप उससे बात करना पसन्द करते हैं, उस व्यक्ति की क्या छवि बनती है, बोलो, लाइकिंग होती है, नहीं न। अनुभव तो सबका बराबर है, तुम उस व्यक्ति को पसन्द नहीं करते, जो अपने मुँह से बहुत ज्यादा अपनी प्रशंसा करता है, तो जब तुम अपनी प्रशंसा करोगे, अपनी खूबियों के गीत गाओगे तो तुम्हारे प्रति लोगों की लाइकिंग होगी क्या। नहीं होगी न। यही सूत्र अपनाना है।
अपनी खूबियों को छिपाइये और खामियों को उजागर कीजिये और दूसरों की खामियों को छिपाइये और खूबियों को खोजना शुरू कीजिये। बस ‘ख’ हमें यही सीख देता है। तो खोजना शुरू कीजिये। ध्यान रखें, कुटिया हो या महल,उसमें प्रवेश का कोई न कोई द्वार जरूर होगा, उसे देखिये। जैसे तुम्हारी दृष्टि होगी वैसे सृष्टि हो जाती है। तुम्हारी आँखों में जो समायेगा,वही दिखेगा। तो उसे देखने की कोशिश कीजिये। मुझे खूबियाँ देखनी हैं। जिस व्यक्ति के मन में दोष भरा होता है,उसे सब दूषित दिखता है, जो व्यक्ति अच्छाइयों से भरा रहता है उसे सब अच्छा दिखता है, जो व्यक्ति अच्छाईयों से भरा रहता है उसे सब अच्छा दिखता है। महाभारत का एक प्रसंग याद आ गया। द्रोणाचार्य, कौरवों और पाण्डवों को शिक्षा दे रहे थे। सूर्य ढलने को था, रात्रि विश्राम की बात आई, तो द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहा, देख कर आओ पास के लोग कैसे हैं, अपने रात्री विश्राम के लिए कैसा रहेगा। दुर्योधन गाँव में घूमकर आये और लौटकर आने पर कहा कि गुरुदेव बड़ा बेकार गाँव है, सब मक्कार और धूर्त हैं। अपने लायक गाँव नहीं है। द्रोणाचार्य ने चुपचाप सुन लिया। फिर युधिष्टिर को उसी गाँव में भेजा। वे लौटकर आये और कहा, गुरुदेव बड़ा अच्छा गाँव है यहाँ के लोग बड़े सभ्य और सरल हैं, अथिति सत्कार को अपना परम धर्म मानते हैं। मुझे एक भी बुरा आदमी नहीं दिखा, सब भले हैं। रात्रि विश्राम के लिए बड़ा उपयुक्त होगा। गाँव एक, परिणाम अलग-अलग, दुर्योधन को सब धूर्त और मक्कार दिखे क्योंकि उसके अन्दर मक्कारी, धूर्तता भरी हुई थी। युधिष्टिर को सब धर्मी दिखे, क्योंकि वे धर्म पुरुष थे, सरलता की प्रतिमूर्ति थे। तुम्हारे अन्दर जैसा होगा, तुम्हें वैसा ही दिखेगा। व्यक्तित्व गहरा होगा, तो तुम हमेशा लोगों की अच्छाइयाँ देखोगे और जिनका व्यक्तित्व उथला होता है वो केवल बुराई देखते हैं। अपनी अप्रोच को सकारात्मक बनाइये। सही देखने की, सुन्दर देखने की कोशिश कीजिये।
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