कला जीवन को श्रेष्ठ बनाने की

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कला जीवन को श्रेष्ठ बनाने की

आज मुझे कहा गया कि महाराज जी प्रवचन की कोई श्रंखला शुरू कर दीजिए। मैं यहाँ आकर बैठा हूँ, कहाँ से बात शुरू करूँ। अभी बैठे-बैठे मेरे मन में आया कि ABCD का पाठ तो उदयपुर में पढ़ाया था, रतलाम में क, ख, ग से शुरू करना चाहिए। अब हम अपनी बात ‘क’ से शुरू करते हैं।

अपने जीवन में आगे बढ़ना है, तो सबसे बड़ी बात है ‘कला’, ‘जीवन की कला’। जब हम जीवन में धर्म की बात करते हैं, तो धर्म और कुछ नहीं, जीवन जीने की कला है। जीवन हर कोई जीता है पर जीवन जीने का तरीका सबका अपना-अपना होता है। जो जीवन का तरीका जानते हैं, उनके जीने का अन्दाज कुछ और होता है, और जो जीने के तरीके से अनभिज्ञ होते हैं, उनका अन्दाज कुछ और होता है। हम जितने भी लोग हैं, कलाकार लोग हैं, हैं न? कलाकार तो हैं और सब अपनी कलाकारी दिखाते भी हैं। लेकिन आप से सिर्फ इतना पूछना चाहता हूँ कि भाइयों, तुम्हें जीवन जीने की कला आती है या नहीं? जीने की कला क्या है? ये बहुत महत्वपूर्ण बात है। कला एक बहुत बड़ा गुण है। हमारी संस्कृति में कला को बहुत स्पष्ट बताया है। कला अध्यात्म की ऊँचाई तक पहुँचाती है। जीवन निर्वाह की बहत्तर कलाएँ हैं। बहत्तर कलाओं का उपदेश भगवान ऋषभदेव ने हमें दिया था। वे सारी कलाएँ जीवन के निर्वाह की हैं, उन कलाओं में से किसी में भी निपुणता आ जाती है तो उसे अच्छे आदमी के रूप में मानते हैं। ये कला हमारे जीवन की एक विशिष्टता बन जाती है। एक व्यक्ति अपनी कला का प्रयोग स्व-पर के हित के लिये करता है,अपनी प्रतिभा के विकास के लिये करता है, लोगों के कल्याण के लिये करता है, तो उसकी कला प्रशंसनीय बन जाती है और लोग उसका अनुकरण करते हैं लेकिन वहीं दूसरी तरफ, कला का प्रयोग लोगों को नीचा दिखाने के लिये करता है, तो हम कहते हैं ये कलाकारी कर रहा है।

कला, कलाकृति, कलाकारी, कलाबाजी चारों शब्द जानते हैं आप।

कला एक गुण है जो हर मनुष्य में होना चाहिए और कलाकृति उस गुण की अभिव्यक्ति। किसी भी कलाकृति से उस व्यक्ति की कला का बोध होता है और उससे उस कलाकार की पहचान भी बनती है। कोई भी अच्छा व्यक्ति अपने जीवन में कलाकृति बनाता है, दिखाता है तो उसका एक अलग प्रभाव होता है। दुनिया में एक से एक कलाकार हैं जिनकी कलाकृतियाँ पूरे विश्व में मशहर हैं, जिन्हें उनकी कलाकृतियों के नाम से जाना जाता है, पहचाना जाता है। वो कला और कलाकृति ये दोनों बड़े सकारात्मक पक्ष की बातें हैं, लेकिन इनके साथ कलाकारी और कलाबाजी, आपको पता है किस सन्दर्भ में आते हैं? कलाकृति बनाना जीवन में वैशिष्ट्य उत्पन्न करना है और कलाकारी दिखाना अपने भीतर की कुटिलता की अभिव्यक्ति है। कभी कलाकारी मत दिखाना, और कलाबाजी कभी मत करना। इसमें छल है, प्रपंच है,धोखा है, कुटिलता है। सन्त कहते हैं जीवन जीने की कला है, कलाकारी ओर कलाबाजी से बचकर,सही तरीके से जीवन जीना। आज मैं आपसे कलाकारी ओर कलाबाजी से बचने की बात कर रहा हूँ और ऐसी कला को अपनाने की बात करना चाहता हूँ जिससे आप अपने जीवन में स्थिरता ला सकें, प्रसन्नता आ सके, शान्ति ला सकें, सन्तोष प्रकट कर सकें। आप कोई भी काम करते हैं, अभी आप सब लोग यहाँ आये, आने से पहले घर पर तैयार हुए, आपने अपनी कमीज़ भी पहनी, अब कमीज़ के एक-एक बटन को आपने तरीके से लगाया तो आपकी शोभा बढ़ी और हड़बड़ी में ऊपर का बटन नीचे लगा लो तो क्या होगा? फिर क्या होता है बोलो? बस इसी का नाम कला है। जीवन में एक लय उत्पन्न करना जिससे जीवन का आन्तरिक सौंदर्य प्रकट हो, उसका नाम कला है। जिस मनुष्य के जीवन में जीने की कला प्रकट हो जाती है, उसके जीवन का सौन्दर्य और रस कुछ अलग होता है। वो कला क्या है? जीवन जीने की कला, ART OF LIFE क्या है?

(1) विषमता में समता स्थापित करना, जीवन जीने की पहली कला है हर मनुष्य के साथ कुछ न कुछ विसंगतिया जुड़ी रहती हैं। ऐसा कोई आदमी नही है जिसके जीवन में सदा एकरूपता हो। हमारा जीवन मैदान की तरह नहीं हैं। हमारा जीवन नदी की तरह है, जिसमें ढेर सारे घुमाव हैं, उतार हैं, चढ़ाव हैं। उसमें अपने जीवन में स्थिरता बनाकर रखना, ये हमारे जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है तो हम कैसे जियें? विषमता आना संयोग है, और विषमता से विचलित हो जाना हमारा अज्ञान। महान पुरुषों के जीवन में भी बड़ी-बड़ी विषमताएँ आती हैं, लेकिन वे उसमें विचलित नहीं होते हैं। वे कुशलता पूर्वक उसे पार कर लेते हैं। आप लोग गाड़ी चलाते हैं, सपाट रास्ते पर तो हर कोई गाड़ी दौड़ा लेता है। पर कोई उबड़-खाबड़ रास्ता हो, कुटिल सड़कें हों, संकरी हों, जिस पर चलना मुश्किल हो, अगर उस पर चलने की नौबत आ जाये, तो क्या करते हो? साधारण व्यक्ति तो पीछे की ओर मुड़ जाता है कि इस रास्ते पर चलना हमारे बस का नहीं, हम नहीं चल सकते और जो थोड़े निपुण होते हैं वो कहते हैं कि कोई बात नहीं जब हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है, तो इसी से निकलना है और सावधान होकर पार होना है। तो जो रास्ते पर चलने में निपुण होते हैं, वे पार हो जाते हैं। कितने भी कुटिल रास्ते हों, वो पार कर देते हैं, क्योंकि टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर सीधे चलने की कला उनके पास है। पथ की विषमताओं में विचलित ना होना, सब प्रकार की विषमताओं को पार कर देना ही जीवन जीने की कला है। सड़क पर चलते समय तो तुम्हारे पास बहुत सारे OPTION होतें हैं और हो सकते हैं। OPTION A नहीं तो B, B नहीं तो C, C नहीं तो D, कोई भी विकल्प चुन लो। पर जीवन के साथ कुछ ऐसा संयोग है कि हमारे पास विकल्प नहीं रहता। यही रास्ता है, इसी पर चलना है, न पीछे लौटने की गुंजाइश है, न आगे रास्ता सुगम दिखता है, तो क्या करोगे! संभल-संभल कर चलना सीखो और अपना रास्ता पार कर लो। आप लोग बहुत सारे नटों की कलाकृति को देखते हैं, वो एक रस्सी पर से इस पार से उस पार चले जाते हैं, वो क्यों? BALANCE है उनके पास, संतुलन करने की क्षमता है उनके पास। उसके परिणामस्वरूप इतने जोखिम भरे रास्ते को भी सहजता से पार कर लेते हैं। जैसे बाहर के रास्ते को अपनी कुशलता से पार किया जा सकता है, ऐसे ही भीतर के रास्ते को भी अपनी समझ से पार किया जा सकता है। वो समझ जाइए, जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ आयें, विषमता आयें, उसे PART OF LIFE समझो। क्या, जो भी मुसीबतें आयें, उसे  PART OF LIFE समझो और उसमें स्थिरता बनाकर जीना, ART OF LIFE समझो। उसे जीवन का अंग मानो आयु उसमें स्थिरता बनाये रखना जीवन जीने की कला समझो।

मेरे सम्पर्क में ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना बड़ी सहजता से किया है। एक सज्जन, जिन्हें फर्जी मुकदमे में फँसा दिया गया, और मुकदमा इस प्रकार का था कि यदि साबित हो जाता तो जेल के सिवाय कोई उपाय नहीं था। व्यक्ति निर्दोष था, उसकी गलती नहीं थी। आजकल तो इस प्रकार के कुचक्र चलते ही रहते हैं, वो कुचक्र का शिकार हुआ उस पर मुकदमा दायर कर दिया गया। उसके पिताजी घबराये, धर्मपत्नी घबराई, उसने मुझसे कहा महाराज ऐसा कैसे हो गया है, बहुत डर लग रहा है, वो साथ में था। उसने कहा महाराज इनको बोलिये कि डरने की क्या बात है, जो कर्म का उदय होगा, उसका सामना करना होगा। अगर हमारे कर्म में जेल जाने का निमित्त होगा तो होगा। महाराज आप कहते हैं भवन हो या वन उसमें समता रखनी चाहिए। अगर मेरे निमित्त से ऐसा है, तो मैं जेल जाने के लिये तैयार हूँ। मेरे हाथ में इतना ही है कि मैं अपराध न करूँ, पर मुझ पर कोई आपत्ति न आये, ये मेरे हाथ में कहाँ है। वो व्यक्ति अविचलित रहा और बोला मुझे भरोसा है, जो मेरे कर्म में है वो होगा। मुकदमा लड़ा जा रहा है, वकील हमारे साथ है। उसने हमें निश्चिन्त कर दिया है। आप विचलित न हों। व्यक्ति ने खुद कहा कि महाराज आप इन लोगों को समझाओ। मुझें अपनी चिन्ता नहीं है, बस डर केवल इतना सा है कि इस घटना के कारण ये लोग डिप्रेशन में न आ जायें। क्या कला है! जिसके उपर इतनी बड़ी विपत्ती, कम से कम 10 साल की सजा होनी है, जेल होने की उम्मीद है, ऐसा केस जिस पर दायर है, ऐसा व्यक्ति कह रहा है कि मुझे अपनी सजा का डर नहीं है, चिन्ता नहीं, चिन्ता थोड़ी सी बस इतनी है कि इससे ये डिप्रेशन के शिकार न हो जायें। उस व्यक्ति ने धैर्य रखा, सबको धैर्य बँधाया। कहते हैं भगवान के घर देर है, अँधेर नहीं। डेढ़ वर्ष में उसका पूरा मुकदमा समाप्त हो गया, अन्तिम रिपोर्ट लग गई और वो बाहर आ गया। क्योंकि वो मुकदमा ही फर्जी था। मैं आप सबसे कहना चाहता हूँ कि उस व्यक्ति में इतनी समझ थी, इसलिये सुरक्षित था। यदि समझ का अभाव होता, तो क्या होता? थोड़ी देर के लिये ऐसा सोचो यदि उसकी जगह तुम होते तो क्या करते, बोलो। आजकल तो एक ही रास्ता है, आत्महत्या, सुसाइड कर लो। आजकल मनुष्य का धैर्य बिल्कुल खत्म हो गया है। अपने जीवन को आगे बढ़ाइए। विपत्तियों में,विसंगति में समता बनाये रखने की कोशिश कीजिए।

दूसरी बात, कला के बाद कला का ही दूसरा अंग है, कर्मयोगी बनिए। क्या बनिए? कर्मयोगी। कर्मयोगी बनने का मतलब क्या है? पुरुषार्थी बनिए। अपने ऊपर हताशा को हावी नहीं होने दीजिए और आलस को भी अपने ऊपर हावी नहीं होने दीजिए। हताशा और आलस से मुक्त होकर सतत प्रयत्नशील बनिए, कर्मठता अपने जीवन में प्रकट कीजिए। एक कर्मयोगी की तरह जीवन जियें। वस्तुतः जिसका जीवन कर्मयोगी की तरह होता है, चाहे वो गृहस्थ ही क्यों न हो, एक तपस्वी का रूप प्रकट होता है अपने भीतर वह स्वरूप प्रकट होना चाहिए। थोड़ी-थोड़ी बात में घबरा उठने वाला मनुष्य अपने जीवन में कुछ भी हासिल नहीं कर पाता। अपने जीवन में कुछ भी उपलब्धि अर्जित नहीं कर सकता। कर्मठता होनी चाहिए, सक्रियता होनी चाहिए। जीवन में आने वाली हर परिस्थिति को एक चुनौती की तरह स्वीकारना चाहिए और अपनी कुशलता से उसे एक उपलब्धि में परिवर्तित कर देना चाहिए। कर्मयोगी हमें बनना है, यह लक्ष्य बनाओ। बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिनकी कर्मठता एक मिसाल है। वे कर्मयोगी की संज्ञा को प्राप्त करने के अधिकारी हैं। अपने दम पर उन्होनें लोक और लोकोत्तर दोनों क्षेत्रों में ऊँचाइयों को पाया है। आप भी वैसा कर सकते हो, लेकिन हम देखते हैं कि आजकल ऐसे लोगों का दिनों-दिन अभाव होता जा रहा है। ऐसे लोगों की संख्या कम होती जा रही है। आज लोगों में वो चीजें नहीं हैं, उनमें वो कर्मठता या कर्मण्यता कम दिखती है, लोग दूसरे रास्ते पर चले जाते हैं।

मैंने कहा कलाकार, कर्मयोगी बनो, लेकिन आजकल कर्मकांडी ज्यादा हैं। कर्मयोगी बनना जीवन की कला है और कर्मकांडी बनना जीवन की विफलता। आजकल कुछ भी हो जाये, लोग अपने पुरुषार्थ से उससे निपटने की जगह, कोरे कर्मकांडों पर विश्वास रखने लगे हैं और उससे चमत्कारों पर अपना विश्वास जताने लगें हैं। इससे जीवन में सफलता कभी नहीं मिलेगी। दुनिया में वे ही लोग ऊँचाइयाँ छूते हैं जो अपने कर्म पर भरोसा रखकर खुद को आगे बढ़ाते हैं। अपना हौंसला मजबूत कीजिए और जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश कीजिए, जीवन धन्य होगा। कर्मकांडों में क्या पड़ा है? आजकल इन्ही कर्मकांडों के कारण लोग अन्धविश्वासी बनते हैं, और अन्धविश्ववास का शिकार होने के कारण अपना सब कुछ खो देते हैं। मैं आपको एक कर्मयोगी और एक कर्मकांडी दोनों से परिचित कराना चाहता हूँ। सब तरह के लोग मेरे पास आते हैं, और मैं तो जब आप लोग आते हैं, तो बातचीत कम करता हूँ, आपको पढ़ने की कोशिश ज्यादा करता हूँ। मैं तो आजकल किताबें कम पढ़ता हूँ, आप लोगों को ही ज्यादा पढ़ता हूँ। मुझे ऐसा लगता है जो बातें किताबों से नहीं सीखी जा सकतीं, वह आपसे सीखीं जा सकती हैं। अनुभव लेना चाहें तो मुनष्य हर क्षेत्र में अनुभव ले सकता है। मैं ऐसे एक कर्मयोगी की बात करता हूँ जो आपके हिसाब से कर्मयोगी नहीं कर्मयोगिनी होनी चाहिए। आदमी नहीं औरत। आचार्य समन्तभद्र को जब श्रावक नहीं मिले तो जानवरों का उदाहरण दिया। तो हम कर्मयोगी में औरतों का उदाहरण दें, तो क्या बुराई है, अच्छी बात है।

एक महिला, जिनके पति अल्पउम्र में दुर्घटनाग्रस्त हो गए। उनके मायके के भाई बन्धु ज्यादा प्रतिभावान नहीं और ज्यादा कर्मशील नहीं थे। उसने वैधव्य अवस्था में एक बेटी को गोद लिया, खुद नौकरी करी, अपने को सँभाला, बेटी को पाल-पोस कर बड़ा किया और अपने माता-पिता, भाई-बन्धुओं को भी मजबूत किया एवं व्रती बनके जीवन व्यतीत किया। ये कर्मयोगी का उदाहरण है। सफलता का जीवन ये एक कर्मयोगी की पहचान है। इतनी बड़ी विपत्ति आई, उसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया और आज अपने जीवन को ऊँचाईयों तक पहुँचा दिया। भाइयों को सेटल किया, बेटी का विवाह किया, माँ-बाप की सेवा करी और खुद अपने जीवन को आगे बढ़ाया, एक उपलब्धि बनकर। बोलो, ये कोई साधारण काम है? ऐसे व्यक्ति को आप कर्मयोगी कहने का मन बनायेंगे कि नहीं, बोलो? तो भाई मेरे! ऐसा कर्मयोगी तुम्हारे भीतर भी बैठा है, उसे जगाते क्यों नहीं हों। उसे जगाने की कोशिश करो, एक जज़्बा प्रकट करो, जीवन बदल जायेगा। आज चातुर्मास कलश स्थापना के बाद पहला प्रवचन हुआ, ऐसा संकल्प लो कि मैं जीवन जीने की कला अपनाऊँगा, कर्मयोगी बनूँगा, कर्मकांडी नहीं।

एक कर्मकांडी की बात बता दूँ। व्यापार में थोड़ा सा नुकसान हुआ, आपके बाजू के शहर का व्यक्ति था, बगल में इन्दौर है। व्यापार में नुकसान हुआ, एक व्यक्ति के चक्कर में पड़ गया। वो तान्त्रिक था, उस तान्त्रिक की सलाह पर वह जो बोलता गया, वो वैसा करता गया। कुछ सफलता हुई फिर बाद में वही स्थिति। अब वो जो बोलता गया करता गया, पूरा परिवार उस तान्त्रिक के इशारे पर नाचता रहा। लगभग 4 साल तक वे लोग उसके शिकंजे में कसे रहे। शिकंजा बोल रहा हूँ, ऐसे लोग बहुत शातिर होते हैं। वो लोग क्या करते हैं, लोगों का मनोबल तोड़कर उन्हें अपनी ग्रिप में ले लेते हैं। उन्हें कोई रास्ता नहीं दिखता, वो लोग भ्रमित हो जाते हैं। चार साल में ऐसी स्थिति हुई कि उसके यह कहते-कहते कि ये कर लो, वो कर लो, ये सट्टा कर लो, नुकसान पर नुकसान, और उस व्यक्ति पर साढ़े तीन करोड़ की देनदारी हो गई। 1999 की बात बता रहा हूँ। रातों रात उन्हें भागना पड़ा। सब छोड़कर भागना पड़ा। उसमें से एक भाई मेरे पास आया। उस समय भोजपुर में मेरा चातुर्मास था। उसने अपनी सारी आपबीती बताई। हम बोले भी ऐसी बेवकूफी भरा काम क्यों किया? अब जो कुछ है इसका तो कोई उपाय नहीं। इसे फेस करें, भागने से काम नहीं होगा। सबको बुलाओ, उनके हाथ-पैर जोड़ो, कहो आपकी पाई-पाई हम चुकायेंगे, जब हमारे पास होगा। हम लेकर किसी का नहीं भागेंगे,  देने के लिये कुछ नहीं है लेकिन हमने जो आपके साथ किया है, गलत किया है, हम उसका प्रायश्चित करेंगे, समय आयेगा तब देंगे, नहीं तो हमारे और हमारे परिवार की जान है। आप किसी तरह से भागिए मत। उन व्यक्तियों ने वैसा ही किया और अलग-अलग अपना कारोबार शुरू किया। मैंने उन्हें धर्म ध्यान से जुड़ने के लिये कहा, भगवान की भक्ति करने की बात करी, णमोकार जपने की बात करी और पूरे के पूरे क्रम को धैर्य से बिताने की बात करी। उन लोगों ने एक नये तरीके से अपना जीवन शुरू किया और आज फिर से स्थापित हो गए हैं। उसमें से एक भाई दो रोज पहले ही यहाँ मेरे पास आकर गया है, कहा महाराज आपके मार्गदर्शन के बाद हम फिर से सँभल गए। तुम लोग देखो क्या करते हो, कितने प्रकार के कर्मकांड करते हो, होता क्या है। अरे! कर्म सिद्धान्त पर विश्वास करने वाला कभी कर्मकांडी नहीं बनता। कर्मकांडों को अपनाओगे तो अन्धविश्वास के शिकार बनोगे, और असन्तोष के पात्र होओगे, आकुलता होगी, और कर्म सिद्धान्त पर भरोसा करोगे तो तुम्हारा आत्मविश्वास बढ़ेगा, तुम्हारे मन में धीरज और समता विकसित होगी, जो जीवन का एक आवश्यक अंग है तो आप बताइये की किस पर विश्वास है, कर्म सिद्धान्त पर या कर्मकांड पर? जिस दिन तुम्हें कर्म सिद्धान्त पर विश्वास हो जायेगा, उसी दिन तुम्हारा पराक्रम अनन्त गुणा बढ़ जायेगा।

अंजना को याद करो, उस पर कितनी बड़ी विपदा आई, पर क्या किया, पति के घर से निकालने के बाद पिता का दरवाजा भी उसके लिये बन्द हो गया। गर्भवती स्त्री, सब तरफ से रास्ते बन्द, क्या करे, कहीं गुहार लगाई, रोयी-धोई, आरजू-मिन्नत की, किसी पर आरोप लगाया, किसी को कोसा, किसी को दोष दिया, क्या किया, बोलो? किया कुछ नही, सोचा, ठीक है कोई बात नहीं, कर्म का उदय है, सामना तो करना ही पड़ेगा। उसे जीने की कला का पता था। हम व्यवस्थाओं को अपने अधीन नहीं कर सकते, लेकिन व्यवस्थाओं के अनुरूप ढल सकते हैं। परिस्थितियों को अपने अनुकूल भले ही नहीं बना सकें, पर अपने को परिस्थितियों के अनुकूल बना सकते हैं। उसने इसी विश्वास के बल पर कहा चलो, अब कर्म जहाँ ले जायेगा, चलेंगे। क्या बिगड़ेगा, ज्यादा से ज्यादा मौत होगी, वो तो एक दिन होना है, पर मौत तो तन की है आत्मा की नहीं। मेरे पेट में जो जीव है, उसका जैसा भाग्य होगा, वैसा परिणाम उसका होगा। निकल गई, जंगल में प्रसूति की, और देखो कर्म का खेल, पेट में तद्भव मोक्षगमी कामदेव हनुमान हैं, महान पुरुष हैं, लेकिन पेट में आते ही माँ की विपत्ति का कारण बन गये। अंजना का गर्भ ही अंजना की विपत्ति का कारण बना। अब सोच लो ऐसे महान पुरुषों के जीवन में घोर विपत्तियाँ आ सकती हैं, तो हम तुम किस खेत की मूली हैं। अंजना चली और हनुमान का जन्म हुआ गुफा में, जहाँ पत्तों की सेज थी। किसी झोपड़ी में जन्म लेने वाले के लिये कुछ नहीं तो कांसे की थाल तो बज जाती है, वहाँ तो वो भी नहीं थी। किसके भरोसे,कर्म सिद्धान्त के भरोसे। तो मैं कहता हूँ कर्म सिद्धान्त पर भरोसा करोगे तो तुम्हारा आत्मविश्वास जागेगा और ये आत्मविश्वास तुम्हें धीरज देगा, समता देगा, स्थिरता देगा और जीवन जीने का साहस बढ़ेगा। इसके विपरीत यदि कर्मकांडों पर भरोसा करोगे तो तुम्हारे मन में अन्धविश्वास बढ़ेगा, अस्थिरता बढ़ेगी, अधीरता बढ़ेगी, असन्तोष बढ़ेगा। ये जीवन को बर्बाद करने वाले हैं। इसलिये अपनी मानसिकता को परिवर्तित कीजिए। कर्मकांडी नहीं, कर्म सिद्धान्त पर विश्वास करना है। तो कला की बात है, कर्मयोगी बनना जीवन की कला है, कर्म सिद्धांत पर भरोसा करना जीवन की कला है। कर्मकांडी बनना जीवन की विफलता हैहमें तय करना है कि हमें कर्मकांडी नहीं बनना है।

नंबर चार कर्त्तव्यनिष्ठ बनो अपने कर्त्तव्य का पालन करो, कभी अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं होओ। जो भी हमारा कर्त्तव्य है, हमें उसे पालना है। कर्त्तव्य दो अर्थ में, एक दायित्व के अर्थ में जिसे हम औरों के लिये निभाते हैं। दायित्व के रूप में, हमारा दूसरों के प्रति जो कर्त्तव्य है, वो हम करते हैं, वो हमारा दायित्व के रूप में होता है। दायित्व के रूप में अपने सारे कर्त्तव्यों को निभाते हैं, आखिरी साँस तक निभाते रहना चाहिए, कभी भी अपने कर्त्तव्य निर्वाह से विमुख नहीं होना चाहिए। लोग ये देखते हैं कि सामने वाला अपना कर्त्तव्य निभा रहा है कि नहीं। ये देखने की कोशिश नहीं करते कि मैं सामने वाले के प्रति अपना कर्त्तव्य निभा रहा हूँ या नहीं। कर्त्तव्य क्या? DUTY. DUTY IS DUTY. DUTY को निभाओ। जो भी मेरा कर्म है वो मुझे करना है, ऐसा व्यक्ति पुरुषार्थी बनता है, आलसी नहीं। वे कुशलता पूर्वक उसे पार कर लेते हैं। चाहे घर परिवार की बात हो, चाहे अन्य सामाजिक दायित्व की बात हो, चाहे राष्ट्रीय और सांसारिक जिम्मेदारी की बात हो, या हमारे किसी धार्मिक कर्त्तव्य की बात हो, हमें अपने दायित्वों पर खरा उतरना चाहिए। ये पर के प्रति कर्त्तव्य हैं और दूसरा कर्त्तव्य स्वयं के प्रति है, जो हमें स्वयं के उत्तरदायित्व के प्रति जागरुक करता है कि हम अपने जीवन में कैसे स्थिरता लाकर चलें।

कर्त्तव्य पालन: जिस मनुष्य को जीवन जीने की कला आती है वो हर स्थिति में अपने कर्त्तव्यों का पालन करता है। वो जीवन भी कर्ता बुद्धि से नहीं जीता, कर्त्तव्य भावना से जीता है। ठीक है, मैं कर रहा हूँ, यह बात तो भ्रम पूर्ण है, मैं करने में निमित्त बन रहा हूँ, यथार्थ यही है। जो है सहज भाव से जीना, यही मेरे जीवन का वास्तविक कर्म है, कर्त्तव्य है, धर्म है, मर्म है। यही कर्त्तव्य निष्ठा अन्दर जगे, सब चीज़ कर्त्तव्य बुद्धि से करो। आप लोग कर्त्तव्य बुद्धि से कम करते हैं, और कर्तृत्व बुद्धि से ज्यादा। थोड़ी सी भी कोई बात होती है, तो मैंने ये किया, वो किया का रटना रटते रहते हो। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि हम कुछ करते हैं और दूसरा उसका क्रेडिट नहीं देता है तो बड़ी बैचैनी होती है कि हमने यह किया, हमें बोला तक नहीं। हमारा नाम तक नहीं लिया, कोई क्रेडिट नहीं। कैसी स्थिति बन जाती है, कितनी विचित्र दशा है हमारे मन की, थोड़ी-थोड़ी बातों में हमारा मन विचलित हो जाता है। ध्यान रखना, कर्त्तव्य बुद्धि से अहंकार जन्मता है, जो अशान्तिका कारण होता है। कर्त्तव्य की भावना विनम्रता का पाठ पढ़ाती है, जिससे हमारे जीवन का उत्कर्ष होता है। कर्त्तव्य भाव से काम करोगे तो आसक्ति मिटेगी, कर्तृत्व से करोगे तो अहंकार बढ़ेगा। हमेशा ध्यान रखो, हमें कर्तृत्व बुद्धि नहीं, कर्त्तव्य की भावना भाना है। अपने कर्त्तव्य में खरा उतरना है, तो पर का कर्त्तव्य और आत्मा का कर्त्तव्य दोनों का ध्यान रखो। पर का कर्त्तव्य व्यवहार में, जिसके प्रति जो जिम्मेदारी है, उसे दृढ़ता से निभाओ, कोई कमी नहीं करो। तुम्हारा तुम्हारे माँ-पिता के प्रति जो कर्त्तव्य है उसका अनुपालन करो, तुम्हें लेकर तुम्हारे माँ-पिता को कुछ सोचना न पड़े।

कर्त्तव्य निष्ठ सन्तान कैसी होती है, दो भाई थे, एक भाई बाहर रहता था, एक भाई गाँव में रहता था। बड़े भाई का कारोबार बहुत अच्छा था। छोटे भाई का भी ठीक था। बड़ा भाई दूर रहता था, छोटा भाई पास में रहता था। एक दिन बड़े भाई ने छोटे भाई से कहा कि तुम हर महीने माँ को पैसे देते हो कि नहीं, छोटे ने कहा- माँ माँगेगी तो दे देंगे। बड़े भाई ने जो बात कही वो ध्यान देने लायक है, कमाऊ बेटे के होने के बाद भी माँ-पिता को माँगना पड़े, इससे बेटे का मर जाना अच्छा है। माँगने पर क्या देगा! तेरा ये कर्त्तव्य है। बिना माँगे दे और तेरी माँ तुझसे कभी पैसे माँगेगी भी नहीं। वो आज तक पिताजी से नहीं माँगी, तेरे से क्या माँगेगी। उनके पास कितना भी हो, सब कुछ देना चाहिए। उसने तो इतना तक कहा कि तेरे दिन भर की जितनी भी कमाई हो उसे अपने पास न रखकर माँ को देना चाहिये। ये जो कुछ भी कमाई है, उनकी है, हमारी नहीं। वो दे रहा है, आज भी दे रहा है, जो कमाया दिया। मैं आपसे पूछता हूँ, अगर आपका बेटा ऐसा करे तो आपके आनन्द की क्या सीमा होगी? आप कल्पना कर सकते हैं। मैं देख रहा हूँ जब सुनकर आपका मन भावुक हो रहा है, तो जिसके साथ ऐसा घटता है, उसकी स्थिति क्या होगी। अपने माँ-पिता के प्रति तुम्हें अपना कर्त्तव्य पालना है। रामचन्द्र जी ने अपने पिता के प्रति कर्त्तव्य निभाया, कर्त्तव्य भावना की पूर्ति के लिये ही वनवास निभाया। उनको कहा गया कि वन क्यों जा रहें हो, आपके साथ अन्याय हो रहा है। रामचन्द्रजी ने कहा अरे वनवास की बात तो दूर है, मेरे पिता कुछ कहें तो मैं समुद्र में छलांग लगा सकता हूँ, कालकूट विष पीने को तैयार हूँ, आग में कूदने में भी कोई संकोच नहीं, क्योंकि पिता की आज्ञा का पालन करना मेरा कर्त्तव्य है। पिता के वचन को सुरक्षित रखना मेरा कर्त्तव्य है। मैं तुमसे कहना चाहता हूँ, अपने माता-पिता के प्रति अपने कर्त्तव्यों का अच्छे से पालन करो, कोई कमी मत होने दो। माँ-पिता को हमेशा ये लगना चाहिये कि तुम कितने भी समर्थ हो जाओ, माँ-पिता के प्रति समर्पित भाव रखो और कहो जो कुछ भी हुआ है आपकी कृपा से हुआ है। कोई भी उपलब्धि है, क्योंकि मैं आपका हूँ, ये तुम्हारा कर्त्तव्य है। ऐसा करने से माँ-पिता का जो आशीर्वाद मिलेगा वो जीवन में समृद्धि का बहुत बड़ा कारण बनेगा। बढ़ते ही जाओगे। माता-पिता के प्रति कर्त्तव्य, उनका बहुमान करना, उनका गौरव बढ़ाना, उनकी आत्म उन्नति में सहायक बनना, अपना आचरण ऐसा करना जिससे उनका यश बड़े, ये माँ-पिता के प्रति सन्तान का कर्त्तव्य है।

आजकल की सन्तान की कहानी कुछ और है, कलयुगी सन्तान, कितनी कर्त्तव्य विमुखता है। माँ -पिता को ही घर से बाहर निकलना पड़ रहा है। कितने उदाहरण ऐसे आ रहे हैं कि माँ-पिता को बच्चों के पास रहने के लिये पैसे देने पड़ रहे हैं। एक महानगर की बात है। दो भाई थे, बड़ा भाई मल्टीनेशनल कम्पनी में जॉब करता था। उसका विवाह हो चुका था। छोटा भाई पढ़ रहा था। माँ-पिता बड़े भाई के पास थे। जैसे तैसे निर्वाह होता था। छोटे भाई की पढ़ाई पूरी हुई, जॉब लगी, कुछ दिन बाद उसका विवाह हुआ। विवाह होते ही उसने भी एक अलग फ्लैट ले लिया, वहाँ वो रहा। एक बार छोटे से बड़े भाई ने कहा कि देख, अब तक माँ-बाप का बोझ हमने उठाया। जिसने जन्म दिया, लायक बनाया, उसके लिये माँ-पिता बोझ हो गये। तेरी भाभी ने भी बहुत सेवा की अब कुछ दिन के लिये ये जिम्मेदारी तुम्हें निभानी है। माँ-पिता तेरे फ्लैट में रहेंगे। उसने कहा भैया अभी-अभी मेरी शादी हुई है, मेरी सैलरी भी ज्यादा नहीं है, मैं कैसे निभाऊँगा, कैसे करूँगा। बड़े भाई ने कहा, सुन कुछ कहने की बात नहीं है। थोड़ा व्यवहारिक बन, कुछ प्रैक्टिकल बन। मैं सब रास्ता निकाल दूँगा। मैं अभी मम्मी-पापा से बोलता हूँ और बात करूँगा, वो तुम्हारे फ्लैट में रहेंगे और आराम से रहेंगे। हर महीने तुम्हारे लिये बीस हजार रुपये देंगे। वैसे भी उनके पास कमी क्या है, आखिरी में तो हमको ही देकर जाना है और यह तय किया। बोला- बोलेगा कौन? बड़े ने कहा- मैं सँभालता हूँ। वो अपने माँ-पिता के कमरे में गया और उनसे कहा अब तक तो हमने आपका सारा प्रबन्ध किया, व्यवस्था की, भार उठाया। लेकिन अब मेरी धर्मपत्नी के साथ काम बढ़ गया है, बच्चे हैं और भी बहुत काम है। हमने एक फॉर्मूला तय किया है, अब आप छोटे के पास रहेंगे। छोटे की स्थिति अभी बहुत अच्छी नहीं है। आपको उसको सहयोग देना होगा। आप छोटे के पास रहेंगे और उसके एवज में आपको छोटे को बीस हजार रुपये महीना देना होगा। पिता ने सुना, माँ दूसरे कमरे में थी। उल्टे पाँव लौट आया, आँखों में आँसू थे। माँ ने पूछा- क्या बात हो गई, बोले क्या बताऊँ, कैसे दुर्दिन देखने में आ रहे हैं? आज अपने बेटे के मकान में रहने और खाने के हमें बीस हजार देने पड़ेंगे। मैं सोच रहा हूँ उनको बीस हजार देने की जगह, बीस रुपये की जहर की पुड़िया मँगाकर क्यों न खालूँ, ताकि इस तरह के दिन देखने से तो बचा जा सके। बोलिये ऐसे कलयुगी कपूतों के लिये क्या कहा जाये। ये आम दिनों की बात है और पढ़े-लिखों के घर हो रहा है। अनपढ़ों के यहाँ नहीं। सब पढ़े-लिखे लोग। क्या अर्थ है तुम्हारे पढ़े-लिखे होने का।

कर्त्तव्य निष्ठ बनो। माँ-पिता को अपनी सेवा से प्रसन्न रखो, उनका बहुमान करो, अपनी उपलब्धियों का श्रेय उन्हें प्रदान करो और उनकी आत्म उन्नति में सहायक बनो। ये माँ-पिता के प्रति कर्त्तव्य है। पत्नी का पति के प्रति, पति का पत्नी के प्रति, एक दूसरे की भावनाओं को ख्याल करना, एक दूसरे के पूरक और प्रेरक बनकर जीना। एक दूसरे के सुख-दुख में सहयोगी बनना, ये तुम्हारा एक दूसरे के प्रति कर्त्तव्य है, उसका पालन होना चाहिए। सन्तान के प्रति तुम्हारे कर्त्तव्य हैं कि उन्हें शिक्षा दो, संस्कार दो और योग्यता प्रदान करके पाँव पर खड़ा करो, ये तुम्हारे कर्त्तव्य हैं। शिक्षा दो, संस्कार दो, संपत्ति देना तुम्हारा कर्त्तव्य नहीं, योग्यता प्रदान करना और पाँव पर खड़ा करना, यानी समर्थ बनाओ, ये तुम्हारे कर्त्तव्य हैं। अच्छे से लालन-पालन करके उन्हें इस लायक बना दिया कि अपने पाँव पर खड़े हो गये तो तुम्हारा कर्त्तव्य पूरा हो गया। समाज के प्रति तुम्हारा कर्त्तव्य है, जिस समाज में तुम रह रहे हो, तुम्हारे जीवन के निर्माण में उस समाज का बहुत बड़ा योगदान है। वो तुम उस समाज में सामाजिक परम्पराओं को सुरक्षित रखने में अपना योगदान दो। यह तुम्हारा सामाजिक कर्त्तव्य है, जिससे सामाजिक संहिता सुरक्षित रहे और समाज में कोई व्यक्ति कमजोर न बने। धर्म के प्रति तुम्हरा कर्त्तव्य है कि जिस धर्म के संस्कार से आज मैंने अपने जीवन को निर्मल बनाया है, ये धर्म की परम्परा आगे बढ़ती रहे, औरों को भी ऐसा धर्म लाभ मिलता रहे। मैं धर्म धारूँ और जन-जन धर्म धारे, ऐसा वातावरण बनाने में, मैं सहायक बनूँ, ये धर्म के प्रति कर्त्तव्य है। जिस राष्ट्र का मैं अनाज खाता हूँ, जिस राष्ट्र का मैं पानी पीता हूँ, उस राष्ट्र के उन्नयन में सहायक बनूँ, कदाचित सहायक न बन सकूँ, तो किसी भी राष्ट्र सम्पत्ति को क्षति नहीं पहुँचाऊँ। ये मेरा राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य है। कर्त्तव्य का पालन करो। ये बाहर का कर्त्तव्य है, जीवन भर कर्त्तव्य निभाना, कभी कर्त्तव्य विमुख न होना और अन्दर का कर्त्तव्य, अपनी आत्मा की उन्नति, आत्मा का हित, जीवन का उद्धार, जीवन का असली कर्त्तव्य है। तुमने कितना धन कमाया, पैसा कमाया, नाम कमाया, परिवार बढ़ाया, रुतबा बढ़ाया, सब एक तरफ और अपनी आत्मा को कितना पवित्र बनाया ये एक तरफ। दृष्टि तुम्हारी उस पर होनी चहिये। वो कर्त्तव्य हमें कभी भूलना नहीं है। मैं देखता हूँ लोग उम्र पक जाने के बाद भी अपने बारे में कुछ नहीं सोचना चाहते। सारा जीवन बीत जाता है, कोल्हू के बैल बनकर जीते हैं, लेकिन आत्म उद्धार की बात उन्हें समझ नहीं आती। केवल गोरख धन्धे में ही उलझ जाते हैं। जीवन में कुछ भी हासिल नहीं होता। बन्धुओं! भूलिये मत, समझिये, अनादि से यहाँ भूल करते आये हो, इसलिये तुम्हारी दुर्गति होती रही है। सांसारिक कर्त्तव्यों को जिन्होंने पूर्ण कर लिया, उन्हें चाहिए कि आत्म जागृति के लिये जागरुक हों। आत्मा के कल्याण के लिये बढ़ो। संयम, सदाचार, सात्विकता का जीवन जीना शुरू करो। वो भी तो तुम्हारा कर्त्तव्य है। अरे, असली कर्त्तव्य का रास्ता खोजो। अब मुझे आत्म पुरुषार्थ करना है और जीवन को सही मार्ग पर लगाना है क्योंकि बाकी सब चीजें तो यहीं छूट जायेंगी। मैं जो धर्म का कर्म करूँगा वही मेरे साथ जायेगा। ये विश्वास और भरोसा तुम्हारा होना चाहिये। तुम स्वयं के कर्त्तव्यों के प्रति कितना जागरुक हो, ये बताओ। सोचो तुम्हारी कर्त्तव्य निष्ठा कैसी है, बताओ, सोचो, तभी जीवन का उद्धार कर पाओगे, अन्यथा कुछ नहीं होगा। इसलिये बन्धुओं आज ‘क’ से बात शुरू की। अनायास योग बना। मैं यहाँ आकर बैठा सोचा शुरू तो करना है, क्या करूँ। वाकई में ‘क’ से ही शुरू करें तो बहुत कुछ हो सकता है। हर शब्द हमें बहुत बड़ा सन्देश देता है, बशर्ते हम उसे लेना सीखें। ये कला है। कला क्या है? कर्मयोगी बनो, कर्मसिद्धान्त पर विश्वास रखो, कर्मकांडी मत बनो और कर्त्तव्य निष्ठ बनो, इसी से हमारे जीवन की कुशलता है। कला और कौशल यही हमारे जीवन की पूर्णता का आधार है।

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