गुरु का स्वरूप

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विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥

अर्थात जो व्यक्ति विषय और उसकी आसक्ति से रहित है; आरम्भ और परिग्रह से रहित है; ज्ञान,ध्यान और तप में लीन है, वही गुरु है।

कौन होते हैं गुरु?

‘गुरु’ शब्द चार वर्णों (ग + उ + र + उ ) से मिलकर बना है | गुरु वह है जो:
ग-“गंभीर” हो
उ-“उदार” हो
र-“रहस्य” का
उ-“उद्घाटक” हो
उपर्युक्त चार गुणों का अनुपालना करने वाला ही गुरु है। गुरु की व्याख्या करते हुए संतों ने तो कहा है कि जिसने आद्यात्मिकता को आत्मसात कर लिया और जो तुम्हें ऊपर उठाने में समर्थ हो वो ही गुरु है।

गुरु के व्यक्तित्व की विशेषताएं:

स्वभाव से उदार ही गुरु का व्यक्तित्व होता है। वह अपने शिष्य के प्रति कभी कपट व्यवहार नहीं करता वरन उसे बढ़ते हुए ही देखना चाहता है। जिस तरह एक कुम्हार गीली मिट्टी को आकार देकर उसे निखार देता है, ठीक उसी प्रकार एक सच्चा गुरु अपने शिष्य को ज्ञान-दान देकर, उनके दुर्गुणों को हटाकर सुदृढ़ बनाता है और अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाकर उसके जीवन का उत्थान करता है। गुरु एक शिष्य के लिए दर्पण का काम करता है एवं जीवन जीने का सही मार्ग दर्शाता है।

गुरु का जीवन में महत्व:

उपर्युक्त विशेषताओं से अलंकृत व्यक्तित्व को गुरु बनाने पर हम अपने जीवन को सन्मार्ग पर लगा कर अपने आप को पहचान सकते हैं एवं सुदृढ़ लौकिक व पारमार्थिक जीवन की नींव रख सकते हैं। यह नींव फिर आगे चलकर हमारे जीवन के कल्याण में सहायक बनती है।

Edited by Akhil Jain, Banglore

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