कैसा हो हमारे सपनों का घर?

261 261 admin

कैसा हो हमारे सपनों का घर?

एक पिता ने अपने दोनों पुत्रों के मध्य उत्तराधिकारी चुनने के ख्याल से दोनों को बुलाया और 10-10 हजार रुपये दिये और कहा कि मुझे अक्सर आना-जाना पड़ता है। तुम एक काम करो, दोनों ओर सौ-सौ मील की दूरी तक कुछ घर बनवा लो, जिससे वहाँ आते-जाते समय ठहरा जा सके। सौ मील की दूरी तक घर बनाना, जहाँ पिता ठहर सके और रुपये केवल 10 हजार, क्या होगा? एक ने दिमाग लगाया, Calculative था, क्या काम हो सकता है? उसने हर 10 मील पर एक छोटी-सी झोपड़ी बना दी,  हजार-हजार रुपये में झोपड़ी बन गयी और 10 झोपड़ी बनाकर बड़ा खुश हुआ कि मैंने अपने पिता की आज्ञा का पालन कर लिया। दूसरे बेटे ने कुछ नहीं किया। समय पूरा हुआ। पिता ने दोनों बेटों को बुलाया और पूछा – तुमने अपना काम कर लिया? बड़े ने कहा – हाँ, पिताजी! मैंने आपके लिये 10 घर बना लिये हैं। पिता ने कहा – दिखाओ। झोपड़ी देख कर पिता को बड़ा अटपटा लगा। बोले- बेटे, यह क्या बनाया है? बोला – यह घर है। पिता ने कहा – बेटा! तुझे समझ में नहीं आया, राजा की तरह जीवन जीने वाले व्यक्ति का तूने कैसा घर बनाया, यह तो एक कुटिया है जिसमें ढंग से सोया भी नहीं जा सकता, तूने क्या बनाया? बोला – पिताजी 10 हजार रुपये में इससे सस्ता और अच्छा क्या होगा। पिता को कोई खास प्रसन्नता नहीं हुई। पिता ने कहा – बेटा! मजा नहीं आया। दूसरे बेटे से पूछा – बेटा! तुमने घर बना लिया? बेटे ने जवाब दिया – पिताजी मैंने अपना काम कर लिया। पिता ने पूछा – क्या किया? आपने क्या कहा था? बस हमारे रहने के लिये स्थान बना लो तो बेटे ने कहा – पिताजी मैंने आपके लिये पर्याप्त स्थान बना लिया। वो बोले – कहाँ? कितने घर बनाये? उसने कहा – पिताजी! मैंने एक भी घर नहीं बनाया, पूरे सौ मील के लोगों को अपना मित्र बना लिया और आप जहाँ चाहो सब पलक-पाँवड़े बिछाये खड़े हैं, आप चाहे जिसके यहाँ रुक सकते हैं और आपने जो 10 हजार रुपये दिये थे उसमें 1 रुपया भी काम नहीं आया, मैंने मित्र बनाये। आज बात ‘घ’ की है, ‘’ यानि घर बनाना। आप सब घर बनाने वाले लोग हो, कुछ लोग तो लोगों को घर बना कर ही देते हैं। आज चार बातें आपसे मैं करूँगा-

घर बनाना

घर बसाना

घर फोड़ना

घर उजाड़ना

चारों तरह के लोग दुनिया में हैं। आप घर बनाते हो, आपकी दृष्टि में एक अच्छा घर कौन-सा है? जिसकी आकर्षक डिजाइन हो, सुन्दरता हो, अच्छा फर्नीचर हो, देखने में अच्छा लगे और अच्छी लोकेशन पर हो, वह आपकी दृष्टि में एक अच्छा घर है। जिसमें मजबूती हो, सुन्दरता हो, सुसज्जित हो, सज्जा हो और सुविधा हो, वह आपकी दृष्टि में अच्छा घर है और आप लोग हर कोई एक सपना सा लेकर के जीते हैं कि मेरा एक अच्छा सा घर बने। मुश्किल यह है कि आदमी घर बनाता है। बनाते समय वो मकान बहुत बड़ा दिखता है पर जब उसमें रहना शुरू करता है तब तक पड़ोस में किसी दूसरे का जो है, उससे बड़ा बन जाता है, तो अपना मकान छोटा लगने लगता है। नतीजा यह होता है कि आदमी फिर नया घर बनाता है, जिन्दगी भर यही चलता है। आदमी घर बनाते रहता है, घर बदलता जाता है, एक दिन जिन्दगी पूरी हो जाती है, घर वहीं रह जाता है। घर बनाने की बात मैं आप सब से कर रहा हूँ। आज मैं सबसे पहले तो घर की बात करता हूँ। घर किसको कहते हैं? घर किसे कहते हैं, बोलिये? आप लोग घर में रहते हो कि नहीं रहते, घर किसको कहा जाता है? घर किसे कहते हैं? ईंट-गारे की इमारत का नाम घर नहीं है, वो तो मकान है। घर वह है, जहाँ घरवाली है। ईंट-गारे की इमारत का नाम घर नहीं है, घर वही है जहाँ घरवाली है। बस मैं आपसे इतना कहता हूँ-  ‘मकान बनाया जाता है और घर बसाया जाता है।

आपका घर कब बसता है? आप लोगों ने घर बसाया, हमने नहीं। समझ में आया। आपने घर बसाया, हमने नहीं। यह बात अलग है कि जिस ने घर बसाया नहीं उसको आपको घर-गृहस्थी की बात बताना पड़ रहा है, यह भी विचित्रता है। बात क्या है, समझने की है, घर बनाया जाता है, बसाया जाता है। घर बनाने में आप हमेशा ध्यान रखते हैं, जब भी घर बनाने की बात आती है, बारीकियों का ध्यान रखते हैं, रखिये। जहाँ सुविधाओं, सज्जाओं, सौन्दर्य हो और जो सुखकर हो उस घर में आप रहो। वास्तु के लिये भी लोग इस बात का ध्यान रखते हैं। आप घर बनाइये, मैं घर के बारे में कुछ नहीं कहता लेकिन दूसरी बात है घर बसाने की। मकान में अच्छा फर्नीचर लगाना बहुत सरल है लेकिन अच्छे फर्नीचर और सज्जा युक्त घर में अच्छे से रहना एक अलग बात है। अच्छा घर बनाना बहुत साधारण बात है पर अच्छे से घर में रहना यह साधारण बात नहीं है। हमें यह कला सीखनी चाहिए कि हम अपने घर में अच्छे से कैसे रहें। सबसे पहले तो एक अच्छे घर की पहचान क्या है? किसको आप अच्छा घर कहेंगे? हम आपसे कहें, आप सोचो कि मैंने अपना घर बसाया तो जिसे तुमने अपना घर मान करके बसाया, वह घर अच्छा घर है या नहीं, इसकी पहचान क्या इसकी पहचान का आधार क्या? किसे मानोगे आप अच्छा घर? आप लोगों से पूछूँ, बोलो, अभी मैंने एक उत्तर दिया है, एक बात कही है, उस बात को पकड़ लो तो शायद आपके पास उत्तर आ जायेगा। मैंने क्या कहा था अभी, घर किसे कहते हैं? घरवाली, तो अच्छा घर कौन, क्या हो गया, किसे कहोगे? अच्छी घरवाली! हाँ, घरवाली तो बहुत छाँट के लाते हैं आप लोग। जिसमें अच्छी घरवाली हो अच्छा घर? नहीं, जहाँ अच्छे घर वाले हों, वो अच्छा घर। घर वाले अच्छे हों, तो घर अपने आप अच्छा हो जायेगा। घर में रहने वाले लोग अच्छे ना हों, तो कितना भी सुसज्जित भवन क्यों ना हो, वह सब व्यर्थ होगा।

भाइयों! घरवाले सब अच्छे से रहें, अच्छा घर बसे, उसका सूत्र क्या है? घर में जितने भी सदस्य हैं, आप किसको कहेंगे कि यह बड़े अच्छे घर वाले हैं, बोलिये। अगर मैं पूछूँ, इनका घर बड़ा अच्छा है, मैं अगर चर्चा करुँ कि ये बड़े अच्छे हैं, इस घर वाले सब बड़े अच्छे हैं, तो आपके सामने कैसे व्यक्ति की छवि उभरेगी? अच्छे घर के हैं। आजकल तो जब हम बोलते हैं- यह बड़े अच्छे घर के हैं तो अच्छे घर से मतलब लोगों की नजर में आता है, जिनके बड़े बाग हों, बड़े ठाठ हों या बड़े खानदान का हो, बड़ा रुतबा हो, बड़ा प्रभाव हो, उसे आप अच्छा घर मानते हो। यह बड़े अच्छे घर का है, यह बोलते हो कि नहीं, बोलते हो, बोलो, थोड़ा जोर से, आप इसे अच्छा घर मानोगे। सन्त कहते है- ‘नहीं, अच्छे घर होने का यह आधार नहीं, यह तो बाहरी आधार है।’ सच्चे अर्थों में अच्छा घर वह है, जिसमें रहने वाले लोग अच्छे से रहें और अच्छे से रहने का मतलब क्या है? परस्पर में प्रेम हो, अपनत्व हो, परस्परता हो, बन्धुत्व हो, ऐसी भावना जिस घर में हो वो घर एक अच्छा घर है। घर में खूब लोग रहें और एक-दूसरे के मध्य प्रेम ना हो तो उस घर में कोई अच्छाई पनपेगी। नीतिकार तो कहते हैं-

जा घर प्रेम न संचरे, ता घर जान मसान।

जैसे खाल लोहार की, श्वास लेत बिन प्राण॥

पुराने जमाने में आपने देखा होगा कि लोहार के यहाँ धोंकनी चलाई जाती थी और धोंकनी से वह अपनी भट्टी को सुलगाता है। आज कल तो सब ऑटोमेटिक हो गया, तो मशीन से, पंखे से, चलती है। पुराने जमाने में धोंकनी ऐसे खींची जाती थी, धोंकनी मैं जो मसक होती है, वह चमड़े की होती है, उसको ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे करने में ऐसा लगता जैसे हमारी heartbeating होती है, धड़कन हो रही है, तो श्वास ले रही है। तो जिसके घर में प्रेम नहीं है, उसका घर शमशान की तरह है। जैसे लोहार उस मसक को बार-बार ऊपर-नीचे करता है, श्वास तो दिख रही है, वायु का संचार तो दिख रहा है लेकिन उसमें कोई जान नहीं है।

बन्धुओं! सच्चाई यही है, घर परिवार में अनेक लोग रहें और आपस में प्रेम ना हो तो उनका जीवन व्यर्थ है, जड़वत है। जीवन होने के बाद भी वहाँ मुर्दानगी छाई है। जहाँ एक-दूसरे के साथ संवाद नहीं, संवादहीनता के कारण वहाँ शमशानी, सूनापन ही तो है और क्या है?  वस्तुतः हमारे घर-परिवार का मूल प्राण है- प्रेम। प्रेम के बिना हमारा जीवन अधूरा। तो सबसे पहली- बात घर-परिवार में ऐसा वातावरण बनाइये कि सब लोग एक-दूसरे को प्रेम करें। आज बड़ी विडम्बना दिखती है, घर के सदस्यों का आपस में प्रेम नहीं होता, लोगों का लगाव बाहर वालों से होता है। साथ रहते हैं लेकिन साथ निभाने की भावना लोगों के ह्रदय में नहीं होती। एक साथ रहते हैं, लोगों के सम्पर्क तो एक समान दिखते हैं, लेकिन सम्बन्धों में जैसा माधुर्य दिखना चाहिए वह नहीं दिखता, इसकी वजह क्या है? जिनके साथ हमारा प्रेम होना चाहिए, उनकी तरफ प्रेम गौण हो रहा है और औरों के प्रति लोगों का खिंचाव और आकर्षण दिनों-दिन बढ़ रहा है। जब तक ऐसा खिंचाव और आकर्षण बढ़ेगा, आप अपने जीवन को ठीक नहीं बना सकते। अपने जीवन को सुन्दर बनाना चाहते हो, अपने जीवन में भव्यता लाना चाहते हैं, तो घर-परिवार के प्रत्येक सदस्यों के मध्य प्रेम होना चाहिए। प्रेम हमारे घर का एक आन्तरिक आधार है। वो प्रेम हो, पर प्रेम कब होगा? जब आप एक-दूसरे की कद्र करेंगे, एक-दूसरे के गुणों को समझेंगे, एक-दूसरे की प्रशंसा करेंगे, प्रेम की भावना अपने आप बनेगी और आप जब एक-दूसरे की उपेक्षा करेंगे, एक-दूसरे की अवमानना करेंगे, एक-दूसरे की निन्दा करेंगे, एक-दूसरे की आलोचना करेंगे तो क्या प्रेम होगा?

क्या करते हो आप? घर में आप प्रेम का बाग खिलाना चाहते हैं तो एक-दूसरे की कद्र करना सीखिये। सबसे पहली बात- कद्र करना सीखिये। जिसमें जो योग्यता है, जिसमें जो प्रतिभा है, जिसमें जो क्षमता है, आप उसकी कद्र कीजिये। अगर व्यक्ति की कद्र होती है तो लगता है कि नहीं, मेरा यहाँ स्थान है। और किसी व्यक्ति की योग्यता सम्पन्न होने के बाद भी कद्र की जगह उपेक्षा होती है, तो वो व्यक्ति अपने आप को तिरस्कृत, अपमानित महसूस करता है और उसे अपने ही घर में घुटन की अनुभूति होने लगती है। घर में रहने पर प्रसन्नता का वातावरण होना चाहिए लेकिन आजकल के लोगों के साथ ऐसा दिखता है कि घर में जाने से घबराहट होती है, क्यों?

मैं एक स्थान पर था, युवक लोग आते थे, रात में और मेरे पास 10 बजे के बाद भी 1-2 घण्टा गपशप करते रहते थे और 11-11:30 के बाद जाते। मैंने एक दिन उन युवकों से पूछा- भैया! तुम लोग अपने घर इतने लेट क्यों जाते हो? तो कहा – महाराज! घबराहट होती है। हम बोले- क्यों? घर जायेंगे तो सौ झमेले आ जायेंगे। इसलिये महाराज! हम जान-बूझकर लेट जाते हैं, सब सो जायें तब जायें। आप बताओ, जिस व्यक्ति को अपने घर में जाने में घबराहट हो, घुटन हो, उसका घर उसके लिये वरदान है या अभिशाप, बोलिये? और ऐसी स्थिति क्यों पनप रही है। कहीं ना कहीं सम्बन्धों में कुछ न कुछ कमी है। घर बना लिया लेकिन घर में रहना नहीं सीखा, घर बसाना नहीं सीखा। ऐसे लोगों के साथ ऐसी स्थितियाँ होती है। मैं आपसे पूछता हूँ- आप की क्या स्थिति है? अपने मन को टटोल कर के देखो। घर से बाहर जाने के बाद तुरन्त घर लौटने की इच्छा होती है या यह लगता है कि चलो जितनी देर बाहर रहें उतना ही अच्छा, कैसा होता है? पहला वाला या बाद वाला और चलो कदाचित घर चले भी जायें, मोहवश व्यक्ति घर की और खिंचता है। घर जाने के बाद आप रिलैक्स महसूस करते हैं या तनाव में आ जाते हैं, क्या करते हैं? यदि आपके घर के हर सदस्य के हृदय में प्रेम होगा, एक-दूसरे के प्रति प्रेम होगा तो आप चाहे कितने भी बोझिल मन से घर पहुँचें, घर के सदस्य अपने प्रेम पूर्ण व्यवहार से आपके मन को हल्का कर देंगे, दिमाग का बोझ उतार देंगे, हृदय में प्रसन्नता की लहर उत्पन्न कर देंगे और यदि प्रेम नहीं हो तो रिलैक्स होकर के गये और घर जाते ही ढेर सारा वजन। क्या होता है? आप बताइये, अपनी अनुभूति बताइयेगा, क्या होता है? घर जाने के बाद आप अपनी थकान उतारते हो या टेंशन बढ़ता है? उतर जाती है, बड़े भाग्यशाली हो। भगवान करे, ऐसे ही बने रहें।

प्रेम चाहिए, अगर आपके मन में किसी के प्रति प्रेम होगा, अपने आप सब कुछ हल्का होगा। मैं आपसे कह रहा था- प्रेम पूर्ण सम्बन्ध को बढ़ाना है तो एक-दूसरे की कद्र करना सीखिये- सबसे पहली बात। उपेक्षा, तिरस्कार मत कीजिये। ऐसा वातावरण मत बनाइये कि आपके ही घर का सदस्य अपने ही घर में असहज महसूस करने लगे, उसे लगे नहीं मेरा घर है। अगर मेरे साथ कोई समस्या आये, मेरे साथ सब लोग हैं, सब मिल करके उसको सुलझा देंगे, मुझे कुछ सोचने की जरूरत नहीं होगी। क्योंकि यह घर मेरा घर है और घर में रहने वाले हर कोई मेरे हैं। अनुभव होता है?

मैं एक महानगर में था, वहाँ एक सज्जन मेरे पास आये, बड़े उद्योगपति थे, अरबपति व्यक्ति थे। उन्होंने एक दिन भरी आँखों से मुझ से जो बात कही वो बड़ी दर्द भरी थी। उन्होंने रोते हुये मुझसे कहा, महाराज! आज मेरे पास सब कुछ है पर मेरा कोई नहीं है। आप सोचो कितनी वेदना होगी। अनेक सन्तान का पिता, अपार सम्पत्ति का मालिक, सब कुछ होने के बाद भी अपने आपको अकेला महसूस कर रहा है, यह किस बात का प्रतीक है? प्रेम का अभाव का। तुम घर में जाते हो, तुम्हें अपनापन तो मिलता है, आत्मीयता मिलती है। ऐसा लगता है कि सब मेरे हैं, सब मेरे हैं, सब मेरे हैं। जब तक मेरेपन की अनुभूति नहीं, तब तक प्रेम का विस्तार नहीं और जब तक प्रेम का विस्तार नहीं तो जीवन का आनन्द नहीं। ऐसा वातावरण होना चाहिए घर में कि हर कोई एक-दूसरे की कद्र करें, एक-दूसरे पर जान न्योछावर करने के लिये तैयार हो जाये। बहुत विरले लोग होते हैं जो ऐसा करते हैं लेकिन ऐसा करोगे तो निश्चित होगा। आप प्रेम को बढ़ाना चाहते हैं, कद्र करना सीखें। मैं एक ऐसे परिवार को जानता हूँ, जहाँ बड़े-छोटे सब की कद्र होती है और बड़े भी छोटे को बड़े आदर पूर्ण शब्दों से सम्बोधित करते हैं, नौकर-चाकर के साथ भी बड़े आदर पूर्ण शब्दों का इस्तेमाल करते हैं और नतीजा लोगों का एक-दूसरे के प्रति प्रेम और बहुमान हमेशा दिखता है। आप क्या करते हैं? कद्र करते हैं कि उपेक्षा? पहली बात जाँचना है, तुम्हारी कद्र होगी और उपेक्षा करोगे तो कल तुम भी उपेक्षा के शिकार बन जाओगे। बड़ा हो या छोटा यदि उसमे कोई गुण है, उसकी कद्र करो कदाचित आप उसकी कद्र ना भी कर पाओ तो उपेक्षा और तिरस्कार तो कभी मत करना क्योंकि उपेक्षा से उपेक्षा ही बढ़ती है। अपमान, अपमान को बढ़ाता है। प्रेम से ही प्रेम का विस्तार हो सकता है। इसलिये इस बात को ध्यान में रखिये एक-दूसरे की कद्र करना सीखें, एक-दूसरे की प्रशंसा करना सीखिये।

प्रेम बढ़ाने के लिये प्रशंसा जरूरी है। कोई भी अच्छा काम करें आप उसकी प्रशंसा करें। आप देखिये, आप अपने घर के सदस्यों के साथ क्या करते हो? अगर कोई अच्छा काम करता है, तो आप उसकी प्रशंसा करते हो या नहीं? और थोड़ा देखें किसी व्यक्ति ने कोई अच्छा काम किया, जिस घड़ी उसे अपनों से प्रशंसा की अपेक्षा हो और सामने वाला प्रशंसा ना करें तो मन में क्या फीलिंग होती है, बोलिये? आपने सोचा कि यह मैंने काम किया मुझे दाद दी जायेगी, मेरी प्रशंसा की जायेगी लेकिन प्रशंसा के एक शब्द ना किये जायें और कहे जायें और उसकी जगह कोई आलोचना कर दी जाये, तो उस घड़ी में क्या अनुभूति होती है? बोलिये, अच्छा लगता है क्या? नहीं लगता ना। प्रशंसा करना सीखना चाहिए। देखिये कैसी सोच होती है, प्रशंसा करने की आदत हो तो व्यक्ति सामने वाला अगर गलत भी हो तो सुधर जाता है, सँभल जाता है। पत्नी ने चाय बनाई और चाय में शक्कर नहीं डाली। आपसे पूछता हूँ- आपको आपकी घरवाली फीकी चाय पिलाये तो क्या करोगे? पी लोगे? वाह! बड़े अच्छे लोग हैं। हँसी-खुशी पी लेंगे फिर कहने की क्या बात है। लेकिन अगर हो जाये तो जीवन में बहार है। खुशी-खुशी पी लो लेकिन मैं आपको बताऊँ, पत्नी ने चाय बनाई बिना शक्कर की और पति ने चाय पीते हुये कहा- तुम कितनी प्यारी हो, मेरा कितना ख्याल रखती हो, मुझे डायबिटीज ना हो इसलिये बिना शक्कर की चाय पिलाती हो। क्या दृष्टिकोण है, अपनी बात भी कह दो और सामने वाले की इज्जत भी सुरक्षित रखो, जीवन ऐसा होना चाहिए। तुम क्या करते हो? सामने वाला सब कुछ वार दे और एक कमी हो जाये तो तुम उसे हिला करके रख देते हो। प्रेम होगा तो ऐसा नहीं होगा। प्रेम की सबसे बड़ी शक्ति है- सहने की शक्ति। जिसके प्रति हमारे मन में प्रेम होता है वह हमें उसके दोष भी सहने की सामर्थ्य दे देता हैं। आप अनुभव कीजिये जिसके प्रति प्रेम हो उसके दोष और दुर्बलता भी अच्छी दिखती है और जिस के प्रति द्वेष हो उसकी अच्छाई में भी बुराई दिखती है।

प्रेम का विस्तार कीजिये और प्रेम के विस्तार के लिये कद्र कीजिये, प्रशंसा करना सीखिये। जहाँ मौका आये एक-दूसरे की प्रशंसा में कोई कृपणता मत दिखाइये, लेकिन लोगों को प्रशंसा करने की आदत नहीं है। वह एक-दूसरे की प्रशंसा करना नहीं चाहते, बड़ी तकलीफ होती है। ईमानदारी से बोलना, देवरानी की प्रशंसा अगर जेठानी के सामने होती है तो वो क्या फील करती है? खुद प्रशंसा करने की बात नहीं कर रहा हूँ, देवरानी की प्रशंसा सुनकर के जेठानी के मन में क्या प्रतिक्रिया होती है? बोलो, आग लग जाती है ना, तुम लोग बोल रहे हो। आग उधर लगती है, आँच तुम लोगों पर आती है। क्या हो गया है? यह कमी है या नहीं? इसे ही जीतना है। बन्धुओ! मैं आप सबसे कहता हूँ, हमारा धर्म वीतरागता का है पर मैं आपसे कहता हूँ, वीतरागी ना बन सको कोई परवाह नहीं, वीतदेशी बनने का अभ्यास करो। हमारे अन्दर द्वेष ना हो, द्वेष की गाँठ ना हो, प्रेम पनपना चाहिए। अगर हृदय में प्रेम होगा ना तो अगर देवरानी की प्रशंसा जेठानी के आगे हो रही है तो जेठानी फूला नहीं समायेगी। यह मेरी देवरानी की बात है। आपको घटना बताता हूँ, यह बहन जी बैठी हैं, यह सबसे छोटी हैं। इनकी 3-3 जेठानियाँ है और यह जितना धर्म के कार्य में आगे हैं। इनका जो समाज में स्थान है वो उन सबका कहीं नहीं लगता। सम्पन्न परिवार सब कुछ, लेकिन जब मैं शिखरजी था। शिखरजी में इनकी जेठानी आई। एक शंका समाधान में जब वह बोली तो मुझे बहुत अच्छा लगा और मैंने देखा कि यह कहलाता है प्रेम। जेठानी भरे मंच में देवरानी की सदवृत्तियों की प्रशंसा कर रही है और न केवल प्रशंसा कर रही है उसके यश से खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही है। यह प्रेम है और जब ऐसा होता है तो लोग एक-दूसरे की इज्जत करते हैं। उन्होंने मुझसे कहा- महाराज! मेरी बहू मुझे जितना सम्मान नहीं देती,  उससे ज्यादा सम्मान मुझे इससे मिलता है। यह उपलब्धि है, यह सीखना चाहिए तो प्रेम अपने भीतर विकसित कीजिये, एक-दूसरे की कद्र करना सीखिये, एक-दूसरे की प्रशंसा करना सीखिये।

तीसरी बात- एक-दूसरे की भावनाओं का ख्याल कीजिये। भावनाओं के सम्मान के बिना प्रेम नहीं पनप सकता। आप लोग एक-दूसरे की भावनाओं का कितना ख्याल रखते हैं, यह आपको विचार करने की जरूरत है। भावनाओं का ख्याल रख पाते हैं आप? चाहे बच्चा हो या बड़ा, स्त्री हो या पुरुष, कोई भी सम्बन्ध हो, तुम्हारे सम्बन्ध तभी टिकेंगे जब तुम एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना सीखोगे। आप औरों की बात जाने दीजिए, मेरे प्रति आपको प्रेम है कि नहीं? बहुत ज्यादा प्रेम है? आपके प्रेम की थोड़ी पड़ताल करूँ? आपके प्रेम की पोल खोलता हूँ। मैं अपने कमरे में हूँ और किसी को बोला कि जाओ ओम जी को बुला लाओ, ओम जी आ गये, तुरन्त आ जायेंगे। आपने आकर पूछा- महाराज! आपने याद किया कोई काम था? नहीं, कोई काम नहीं था वापस जाओ। अब क्या होगा? चलो, महाराज ने याद तो किया। 15 मिनट बाद मैंने फिर ओम जी को बुला लिया, अभी तो गया था? पता नहीं, महाराज फिर बुला रहे हैं। महाराज! आपने याद किया, नहीं ठीक है कोई काम नहीं जाओ, अब क्या बोलोगे ओम जी?  क्या बात है? आज दो बार महाराज ने बुलाकर टरका दिया समझ में नहीं आया, फिर आप चले गये और कुछ जरूरी काम में लगे हुये और उलझे हुये। अरे! ओम जी को बुला। आप आ गये। महाराज! आपने याद किया। हाँ, याद तो किया था। महाराज! कोई आदेश? नहीं कोई काम नहीं जाओ। क्या हो गया आज, महाराज तो बार-बार फालतू में बुला रहे हैं? बोलो, कह रहे मेरा नहीं घटेगा, कभी प्रयोग करके देखूँगा। चौथी बार मैंने फिर भेजा, क्या हो गया महाराज को? और बुला लिया बैठे हो और तुम बैठे हो। ओम जी का तो कोई विरोधी मुझे नहीं दिखता, लेकिन मान लो, मैंने जिसे बुलाया उसका विरोधी मेरे पास बैठा है, अब मैं तुमसे बात ना करके विरोधी से बात करूँ तो अब बताओ- तुम्हारे प्रेम का क्या हाल होगा? बोलो, क्या होगा? मतलब, जिसके प्रति तुम्हारा रोम-रोम समर्पित है, जिसके प्रति तुम्हारी श्रद्धा है, भक्ति है, उसके प्रति भी यदि उसकी भावनाओं का ठीक ढंग से सम्मान ना हो तो मन आहत हो जाता है। होता है? तो घर-परिवार में रहने वालों के प्रति तुम्हारा क्या होता है? अगर उसके भावनाओं का सम्मान नहीं होगा और भावनाओं से खिलवाड़ होगा तो सारा प्रेम तार-तार हो जायेगा। इसलिये भावनाओं का सम्मान करना सीखिये। अगर एक घर में रहने वाले सदस्य एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हैं, उस घर के सदस्य एक-दूसरे के लिये अपनी जान छिड़कते हैं। कुछ भी हो जाये, किसी के साथ भी कुछ हो जाये ख्याल करते हैं। आजकल यह दिनोंदिन कम हो रहा है, लोगों के जीवन में कृत्रिमता आ रही है, भावनाएँ नहीं सब केवल एक फॉर्मेलिटीज बन रही है। रिश्तो के साथ फॉर्मेलिटीज बन रही है, उसके बड़े भयानक दुष्परिणाम आ रहे हैं।

मैंने एक शिशु रोग विशेषज्ञ चिकित्सक से अपनी बात कही, बोला- महाराज! बहुत बड़ा अन्तर आ गया है पुराने समय में और आज के समय में। मैं बोला- क्या हुआ? आज के लोग बिल्कुल केलकुलेटिव हो गये हैं, सिस्टम पूरा बिगड़ गया है, भावनाओं का कोई स्थान नहीं बचा। मैंने पूछा- क्या? उनने अपना अनुभव शेयर किया- महाराज जी! पहले कोई बच्चा आता था तो उसके साथ उसकी माँ और उसकी दादी आती थी। बहु के साथ उसकी सास आती थी, बच्चे को दिखाने और बच्चे की तबियत बिगड़ती देखकर के माँ के हृदय में जब कभी वेदना होती तो सासू माँ कहती- बेटी! चिन्ता मत कर मैं हूँ ना सब ठीक हो जायेगा। लेकिन महाराज पिछले 20 वर्षों के बाद एक बड़ा अन्तर आ गया, अन्तर यह है कि अब कोई माँ आती है अपने बेटे के साथ, अपने बच्चे को लेकर तो उसके साथ उसका पति आता है और जब बच्चे की स्थिति को देखक माँ व्याकुल होती है तो पति कहता है- चिन्ता क्यों करती है, टॉप का डॉक्टर है, हम इलाज करा रहे हैं, सब ठीक हो जायेगा। डॉक्टर ने जो अर्थपूर्ण बात कही वह मैं बोल रहा हूँ, वह आप सब को ध्यान रखने योग्य है। उन्होंने कहा- महाराज! अन्तर केवल इतना है कि पहले जो बच्चा 5 दिन में ठीक होता था, अब उस बच्चे को ठीक होने में 15 दिन लगते हैं। 5 दिन में ठीक होने वाला बच्चा 15 दिन लगा लेता है, क्यों? क्योंकि यहाँ भी भावनाएँ स्थान नहीं पा रही है।

हमें आप सबसे कहना है कि एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र करना सीखें, भावनाओं का सम्मान करें। भावनाओं की कद्र करें, उन्हें कुचलें नहीं। अगर आप कुचल देंगे तो प्रेम भी कुचल जायेगा। मनुष्य की भावनाएँ बड़ी कोमल होती है, उसे सँभालना हर व्यक्ति का दायित्व होता है, तो भावनाओं का सम्मान करें। एक-दूसरे की भावनाओं का ख्याल करें, देखें, क्या स्थितियाँ है? ठीक है, भावनाओं की पूर्ति करना, न कर पाना यह बाद की बात है, पर भावनाओं को कुचल देना बहुत गन्दी बात है। हो सकता है, सब भावनाएँ पूरी करने योग्य ना हो लेकिन उसके लिये आपको चाहिए कि उसकी भावना का सम्मान करते हुये उन्हें कन्विंस करें, उन्हें दूसरा रास्ता दें, लेकिन सीधे-सीधे भावनाओं को दबा देना, भावनाओं को कुचल देना या भावनाओं का तिरस्कार कर देना अपने प्रेम के बीज को विनष्ट कर देना है, ऐसा कभी नहीं होना चाहिए। तो प्रेम करने के लिये कद्र करें, प्रशंसा करे, एक-दूसरे की भावनाओं का ख्याल करें और कहीं हो तो एक-दूसरे के साथ धन्यवाद देने की बात सीखें। हम थैंक्स दें, कोई भी अच्छा करे तो उसे प्रोत्साहित भी करें और धन्यवाद भी दें। तुमने बहुत अच्छा किया, तुमने बहुत अच्छा किया, सामने वाले की पीठ थपथपाएँ। आजकल लोग पीठ थपथपाते कम, ठोकते ज्यादा हैं। हमें थपकी देना चाहिए, थपथपाना चाहिए, जिससे व्यक्ति अपने जीवन में आगे बढ़े। हम ठोकने की प्रवृति अपना लेंगे तो हमारा जीवन बर्बाद हो जायेगा। हमें इन सब चीजों को ध्यान में रखकर कर के चलना चाहिए, यदि यह सब बातें आपके यहाँ आ गयीं तो आपका घर अच्छा घर हो गया, फिर आपने अपना घर बसा लिया। आगे आप से कहता हूँ- घर के संदर्भ में मुझे चारों बातें करनी है।

 

घर बनाना आपको आता है, घर आपने बसाया भी है, अपने घर में अच्छे से बसे और औरों के घर को बसाने में निमित्त बने। जितना बन सके किसी के घर बसाने में आप सहायक बनते हैं तो यह आपका उसके प्रति एक बड़ा उपकार है पर कदाचित घर ना बसा पाए तो घर फोड़ने की प्रवृत्ति कभी ना अपनाएँ। आजकल लोग घर फोड़ने में ज्यादा रुचि रखते है, कैसे फूटता है घर? बम के धमाके से फोड़ा हुआ घर तो बड़ी आसानी से फिर से बन सकता है लेकिन अहम के धमाके से जो घर फूटता है उसे बसाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। बम के धमाके से फूटा घर बन जायेगा लेकिन अहम के धमाके से फूटने वाला घर कभी नहीं बस पाता। तो घर फोड़ने का सबसे बड़ा कारण है- अहम्। अपने ईगो की पूर्ति के लिये लोग दूसरों का घर फोड़ देते है, एक-दूसरे में फूट डालते हैं। इस अहम् के कारण लोगों के मन में बैर, विरोध, ईर्ष्या और वैमनस्य की दुर्वृत्तियाँ जगती है और लोग एक-दूसरे के विरुद्ध एक-दूसरे को उकसाते हैं, हवा देना शुरु करते हैं, सुलगाते है और उस आँच में अपनी रोटी सेकने की कोशिश करते हैं। यह घोर अनैतिक कर्म है, अमानवीय कार्य है, जीवन में कभी ऐसा मत करना कि किसी के घर को तुम फोड़ दो। आजकल बहुत हो रहा है, खासकर आज के जितने भी नवदम्पत्ति हैं, नौकरी पेशा में रहते हैं, दोनों काम करते हैं, महानगरों में रहते हैं, दो के साथ तीसरा परिवार का कोई सदस्य होता नहीं और आपस में उनके ईगो क्लैश होते हैं, ईगो के कारण दोनों के मध्य दूरियाँ बनना शुरू होती है और जब दोनों के मध्य दूरियाँ बनना शुरू होती हैं तो दोनों के मध्य कोई तीसरा जुड़कर त्रिकोण बनाना शुरु कर देता है, वह ऊपर से प्रेम और आत्मीयता प्रदर्शित करता है और दोनों को एक-दूसरे के विरुद्ध भड़काना चालू कर देता है। जब दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध भड़काये जाते हैं, तो भड़काने में फिर दोनों दो हो जाते हैं, एक नहीं हो पाते। होना यह चाहिए कि यदि किसी व्यक्ति के साथ ऐसा हो तो आप उसे समझायें और सुलह करायें लेकिन आजकल लोग सुलह कराना कम जानते हैं, सुलगाना ज्यादा। क्या करते हैं? सुलह कराते हैं कि सुलगाते हैं? यह आदत अच्छी नहीं है।

सुलगाइये मत, सुलह कराइये। आजकल लोगों का अहम इतना प्रबल हो गया है कि छोटी-छोटी बातों में भी लोग एक-दूसरे के साथ तनातनी कर देते हैं, उसे खत्म करने का अभ्यास होना चाहिए। कभी हम किसी का घर फोड़ें, ऐसा काम ना करें। जितना बन सके एक-दूसरे के साथ रहें और मैं आप सब से कहता हूँ घर फोड़ने का सबसे खतरनाक खेल ज्यादातर महिलाएँ करती हैं, बुरा मत मानना। पुरुष दूध के धुले नहीं है, इनकी तो खबर अभी थोड़ी देर बाद लूँगा मैं। लेकिन मैं आप सब से कह रहा हूँ, घर फोड़ने का काम जब एक-दूसरे की चुगली, एक-दूसरे की निन्दा और एक-दूसरे के बीच भिड़ाने की प्रवृत्ति आप करते हैं। करते हैं कि नहीं करते? बोलिये, यह आदतन होता है, किसके घर में क्या हो रहा है, इसकी बात उधर, उसकी बात इधर करने में बड़ी महारत हासिल है। यह इधर-उधर की प्रवृत्ति से बाज़ आइये। आप अपनी प्रतिभा का प्रयोग लोगों के उजड़ते घर को बसाने में कीजिये। ऐसा काम कभी मत कीजिये कि लोगों का घर फूट जाये या बसा हुआ चमन उजड़ जाये, यह प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन बस एक-दूसरे के विरुद्ध एक-दूसरे को कहा और बस आपने उसे मान लिया। थोड़ी कान की कच्ची भी होती हैं, उन्होंने कहा- आपने सुना और मान लिया, बस शुरुआत हो गयी। ध्यान रखना, घर कब फूटता है? जब एक-दूसरे के प्रति मन में शंका या सन्देह आ जाता है, विश्वास घर-परिवार या सम्बन्धों को बाँधता है और शंका हमारे सम्बन्धों को खण्डित करती है, तार-तार करती है। मन में शंका आते ही हमारे सम्बन्ध खण्डित हो जाते हैं और शंका उत्पन्न करने के लिये क्या है? किसी ने एक बात बोल दी, दिमाग में वो बात बैठ गयी, हम उसके लिये सोचते तो ऐसे थे, वह मेरे लिये ऐसा करते हैं। शंका गलतफहमी से उत्पन्न होती है, और प्रायः गलत शंका ही होती है। देखिये, मैं आपको दो प्रसंग बताता हूँ कि यह शंका, कुशंका में परिवर्तित होकर के जीवन को कैसे बर्बाद कर देती है।

एक बहन जी के लिये, किसी ने आकर के कह दिया कि तुम्हारी जेठानी तुम्हारी बड़ी बुराई करती है और वह बहुत सारी बातें छिपा कर के इधर-उधर ले जाती है। अब यह बात उसके मन में बैठ गयी, यद्यपि देवरानी-जेठानी का परस्पर में बड़ा प्रेम था, लेकिन दिमाग में कीड़ा घुस गया और उसने अपनी करामात दिखाना शुरू कर दिया मन में शंका आ गयी कि वाकई में यह मुझे नीचा दिखाने की कोशिश करती है। वह अपनी सम्पन्नता का कुछ ज्यादा घमण्ड करती है, बात-बात में मुझे वह नीचा दिखाती है, यह दिमाग में बैठ गया। जब मनुष्य के मन में किसी के प्रति कोई पूर्वाग्रह बैठ जाता है तो उसकी अच्छाई में भी बुराई दिखने लगती है। दिमाग में शंका का कीड़ा बैठा, अब धीरे-धीरे-धीरे-धीरे जेठानी की अच्छी बातें भी बुरी लगने लगी। हर बात को शंकास्पद दृष्टि से देखने लगी और उसका नतीजा यह निकला कि उसका व्यवहार अपनी जेठानी के प्रति बदल गया। अभी तक वह जिसे जवाब नहीं देती थी, अब जवाब देने लगी और जवाब क्या उल्टे-सीधे आरोप भी लगाने लगी। नतीजा यह निकला- कल तक जिनका आपस में प्रेम था, अब दोनों एक-दूसरे को फूटी आँख न सुहाए, ऐसी स्थिति हो गयी। क्या हुआ? एक व्यक्ति ने एक बात कही और एक बात का यह भयानक परिणाम। अपने मन से पूछो- तुमसे कोई किसी ने बात कही तो उसको कभी विचार करते हो? पानी तो छानकर के पीते हो, वाणी को भी छानकर के सुनने की कला बना लो। छन्नी लगाओ, फिल्टर करो, गुणा-भाग लगाओ, सामने वाला क्या बोल रहा है? इसमें कितना सही हो सकता है, कितना गलत होता है। आप सही बात के लिये तो छानबीन फिर भी कर लेते हो पर बुरी बात को आप आँख मूँदकर के स्वीकार करते हो। यही गलती होती है, इसी से सम्बन्ध बिगड़ते हैं। तो मैं आपको कहता हूँ, पानी जैसे छानते हो, वाणी भी छान कर के सुनो और छान करके बोलो तो अन्तर आयेगा।

एक दूसरा प्रसंग मैं आपको कहता हूँ  चार बहुएँ अलग-अलग रहती थीं लेकिन चारों एक-दूसरे पर जान छिड़कती थीं। एक दिन एक देवरानी से, किसी ने जेठानी के बारे में आकर के कहा कि देखो, तुम्हारी जेठानी तुम्हारे बारे में ऐसा-ऐसा कह रही थी। उसने बड़े धैर्य और संयम के साथ सामने वाले की पूरी बात सुनी और पूरी बात सुनने के बाद उससे कहा कि ऐसा आपसे कहा है दीदी ने? बोला- हाँ, हमसे कहा हैं। बिल्कुल पक्की, सही बात बोल रहे हैं? हाँ, सही बात बोल रहे है। उसका हाथ पकड़ा और अपने जेठानी के पास ले गयी। बोली, बताओ दीदी ने क्या-क्या बोला था? यह कोई किस्सा नहीं बता रहा है, यह घटना बता रहा हूँ उन लोगों ने आकर के चारों बहुओं ने मुझे एक साथ बताया कि महाराज यह घटना हुई, और लोगों को घर फोड़ने में कितना रस आता है। यह तो उसकी जेठानी ने कहा कि इसकी समझदारी से आज मामला ठीक हो गया, वह लेकर के गयी- बोलो, दीदी ने क्या-क्या बोला था? अब वो क्या बोले? हक्का-बक्का, एकदम ऐसे कि जमीन में गड़ जाये। उसने तत्क्षण दोनों हाथ जोड़े और कहा- मुझे माफ करना! मैंने जानबूझकर ऐसी बात बोली थी, जो मुझे नहीं बोलना चाहिए थी, मुझे क्षमा करना। दोनों ने उसी समय उसे संकल्प दिलाया और कहा, आज के बाद कभी किसी की बुराई मत करना और किसी की बात कभी मत सुनना। उनने आकर बोला ऐसी लोगों का सोच हैं, इनमे आपस में थोड़ी फूट हो जाये तो हम अपना उल्लू सीधा करें।

ध्यान रखना, स्वार्थी लोग हमेशा आग लगाते हैं और धर्मी लोग बाग खिलाते हैं। अपना जीवन धर्मी के रूप में बनाओ, स्वार्थी के रूप में नहीं। बाग खिलाओ, आग मत लगाओ। जीवन तब धन्य होगा और तब अपने जीवन को तुम ऊँचाई पर पहुँचा सकोगे। इसलिये आप कभी कोई घर फोड़ने का काम मत करो और कोई घर फोड़ने के लिये तुम्हारे कान भरते हैं, तो कान बन्द कर लो और ऐसे व्यक्ति को हतोत्साहित करो।  ऐसा हतोत्साहित करो, उसके मनोबल को तोड़ दो कि दोबारा वह ऐसा साहस किसी के साथ ना कर सके। जल्दी से उस पर विश्वास मत करो, आप लोग बहुत जल्दी विश्वास कर लेते हो, भरोसा कर लेते हो, मामला गड़बड़ हो जाता है।

एक दूसरा किस्सा पत्नी को अपने पति पर शंका हो गयी, पत्नी को पति पर शंका। शंका यह पति बड़ा धार्मिक, धर्मात्मा, सदाचारी, व्रत-उपवास करने वाला, ढेर सारे नियम लेने वाला, एक दम शुद्ध श्रावक ऐसा मिलना मुश्किल। पर पत्नी को शंका कि इनके किसी से सम्बन्ध है। अब शंका का किला इतना बढ़ गया, इतना बढ़ गया कि उनकी दो बेटियाँ थीं, बेटियाँ भी अपनी माँ के व्यवहार से रुष्ट थीं। वह पिता की तरफ ज्यादा झुकाव रखती थीं तो उसको शंका ऐसी हो गयी कि बेटियों के साथ भी मेरे पति का कुछ गड़बड़ है। यह बीमारी है शंका की। ऐसी स्थिति में घर तो फूटता ही है और शंका का बीज पनपा कैसे? उसकी एक सहेली ने उसके कान भर दिये कि तुम्हारे पति उससे बहुत हँस कर के बात कर रहे थे। कितनी छोटी सोच, किसी से हँस कर के बात कर लेना भी आज गुनाह हो गया। लोग तुरन्त शंका भरी नजर से देखते हैं और सामने वाले को सुलगा देते हैं। यह काम बन्द कीजिये, जीवन में कभी ऐसा मत कीजिये। अब पति बोले क्या करूँ, मैंने तो अपने जीवन में कभी सोचा नहीं, मैंने तो अपना मार्ग तय कर रखा, बेटियों का विवाह हो और मैं वैराग्य के रास्ते पर चलूँ लेकिन इसके कारण तो मेरा जीना मुहाल हो गया है। सामने वाले ने आधारहीन बातों के आधार पर कुछ भी बोल दिया और उससे घर फूटने की स्थिति आती है, कितना बड़ा अपराध है, कितना बड़ा पाप है। कोई बहन बता रही थी, महाराज! यह जो पारिवारिक झगड़े की बातें आती है, छोटी-छोटी बातें आती है, उसमें अपना ईगो होता है और दूसरे उसको हवा देते है इसलिये मामला बिगड़ जाता है। कभी जीवन में ऐसा मत करना, कोई का भी इस तरह का हाल हो तो हमारी कोशिश होनी चाहिए वह सँभाले, जीवन सँभाले।  फूट डालने की प्रवृत्ति कभी मत अपनाना यह सब नरक का कारण है लेकिन क्या बोलूँ, आजकल लोगों में ऐसी प्रवृत्ति हो गयी है कि घर-परिवार में तो छोड़ो, साधुओं में भी फूट डालने में लोग नहीं चूकते। उनको भिड़ाने में ही आनन्द आता है, ऐसे लोग बहुत नीचे क्यों होते हैं, हमें इनसे अपने आपको बचा करके चलना चाहिए। तो मैं आपसे कह रहा था घर बनाना, उसमे आप पास होओ। घर बसाने में पास होना है, घर कभी किसी का फोड़ना नहीं है और घर कभी किसी का उजाड़ना नहीं है। फोड़ोगे तो घर उजड़ेगा, उजड़ते चमन को बसाओ, खिले चमन को उजाड़ने का पाप कभी मत करो। हमें तो ऐसा करना चाहिए कि अगर कोई उजड़ रहा है तो उसे बसा दो। एक सज्जन मेरे सम्पर्क में हैं, उन्होंने कहा- महाराज! मैंने अपने जीवन में 22 लोगों को तलाक से बचाया है। मैं टाइम देता हूँ, पहले मेरी धर्मपत्नी मुझसे नाराज होती थी कि आप इस तरह के काम क्यों करते हो लेकिन महाराज मुझे हमेशा यह लगता था कि मैं किसी को बसा दूँ तो बहुत अच्छा है पर जब मैंने 2-4 उदाहरण अपनी धर्म पत्नी को बताया कि देखो- इनका इस तरह का केस था, ऐसा प्रकरण था और मैंने इनको इस तरह से सैटल किया, समझा-बुझा करके, अपनी काउंसलिंग कर-कर के तो आज कितना अच्छा हुआ। पत्नी ने कहा- बिल्कुल मेरी तरफ से आप एक घण्टा ज्यादा दिया करो, लोगों का घर बसे, इससे अच्छी बात क्या है। तुम लोग क्या करते हो, हमको क्या मतलब, हमको क्या मतलब? यह प्रवृत्ति बिल्कुल ठीक नहीं है, हमें ऐसी दुष्प्रवृत्ति से बचना चाहिए। तो आज ‘घ’ की बात है, मैंने घर की बात की है, यह बातें आपको घर कर जानी चाहिए। ‘घर की’ कि नहीं की? बातें घर कर जाने का मतलब समझते हो ना, क्या घर की, कि नहीं की? आज घर कर गयी बातें, हृदय को छू गयीं, ज़हन में उतर गयीं। अगर यह बातें उतर जायेंगी तो हमारा जीवन धन्य होगा।

 

Share