जीवन में खुशी कैसे अर्जित करें

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जीवन में खुशी कैसे अर्जित करें

कहते हैं कि सम्राट सिकंदर जब विश्व विजय अभियान में निकला तो उसकी मुलाकात किसी संत से हुई। बातचीत के क्रम में संत ने पूछा- तुम्हारा कार्यक्रम क्या है? सिकंदर ने अपनी पूरी विश्व विजय अभियान की गाथा सुनाते हुए कहा- मैं इतने मुल्कों को जीत कर आ गया हूं अब ईरान को जीतूंगा, तुर्किस्तान को जीत लूंगा, अफगानिस्तान को जीत लूंगा और उसके बाद यूनान जाकर लौटूंगा। संत बोले- उसके बाद क्या करोगे? बोला- आनंद से रहूंगा। इतने मुल्कों को जीत लूंगा उसके बाद यूनान जाकर आनंद से रहूंगा। संत मुस्कुराए और उन्होंने कहा कि सिकंदर यदि सब कुछ जीतकर तुम आनंद से रहना चाहते हो, यूनान में जाकर आनंद से रहना चाहते हो तो आनंद में रहने के लिए अभी क्या खलल है। जब तुझे आनंद से ही रहना है तो दूसरों का आनंद छीनने के लिए क्यों निकल पड़े हो। इतनी मशक्कत करने की क्या जरूरत कहते हैं। सिकंदर के पास इसका कोई जवाब नहीं था। पता नहीं यह घटना कैसी है लेकिन सच्चाई यही है।

आज किसी भी मनुष्य से पूछो तो वह यही कहेगा मेरा मूल लक्ष्य, मेरा मूल साध्य ‘आनंद’ है, शांति है, प्रसन्नता है, खुशी है, हैप्पीनेस है। यही है ना? सब खुशियां चाहते हो, सब आनंद से रहना चाहते हो। बोलो, चाहते हो कि नहीं चाहते? महाराज! जो कुछ करते हैं वह आनंद के लिए ही करते हैं, जो कुछ करते हैं वह प्रसन्नता और शांति के लिए ही करते हैं। हमारा मूल लक्ष्य, मकसद और साध्य आनंद है। आनंद कहां है? जिसके लिए तुमने अपने जीवन का इतना समय, शक्ति और संसाधन खपाया वह आनंद कहां है? कभी विचार किया? क्यों नहीं? आनंद तो सबको चाहिए, चाहिए कि नहीं? चाहिए तो कहां खो गया तुम्हारा आनंद? मिला? नहीं! आनंद नहीं है? क्या बात हो गई? आनंद है? महाराज और की बात नहीं जानता पर अभी आपको सुनने में तो आनंद आ रहा है। तो आनंद आता है फिर चला कहां जाता है? कभी आपने विचार किया? हमारे जीवन में खुशियां आती है, आनंद आता है पर कब? कभी सोचा है।

मनुष्य के जीवन की एक बहुत बड़ी दुर्बलता है कि वह अपनी खुशियों को, अपने आनंद को बाहर खोजता है। तुम्हें व्यक्ति से आनंद मिलता है, व्यक्ति से खुशियां मिलती है, तुम्हें चीजों से खुशियां मिलती है, चीजों से आनंद मिलता है और तुम सारा जीवन व्यक्ति और चीजों को मेंटेन करने में लगा देते हो, आनंद तो तुम्हारे हाथ से छिड़ककर निकल जाता है। कभी अनुभव किया? किससे आनंद है? व्यक्ति से या वस्तु से, चीजों से? उसी में रस लेते आ रहे हो ना? बोलो (महाराज जी- आप लोगों को मेरे साथ बोलना चाहिए, आप संकोच करते हैं संकोच त्यागिए)। आप पड़ताल करें- कब-कब आपको खुशी मिलती है, कब-कब आप आनंदित होते हैं? थोड़ा सा बताइए।

श्रोतागण- मन के इच्छा अनुसार कार्य हो जाए तब आनंद आता है और कभी-कभी अनचाहा मिल जाए तब भी आनंद आता है। अनएक्सपेक्टेड, सरप्राइजिंग! होता है, आनंद आता है। हम चले जाएंगे तो तुम्हारा आनंद भी चला जाएगा, यही तो मुश्किल है। आपका आनंद आता है और एक सिद्धांत है जो आता है सो जाता है। संत कहते हैं- ‘आनंद आना नहीं चाहिए, आनंदित रहना चाहिए’। आनंद आएगा तो जाएगा और जो आनंदित रहेगा वह ठहरेगा। मन की पड़ताल कीजिए, आपको आनंद आता है कि आप आनंदित रहते हैं। महाराज! कभी-कभी आनंद आता है, आनंदित रहने की कोशिश करते हैं। मैं सही तो बोल रहा हूं। आता है, और चला जाता है। यही है ना आज तक की कहानी? और तुम्हारे आनंद और खुशियों की कहानी क्या बताऊं- एक पल में चेंज, जिससे तुम अभी आनंदित है वही तुम्हारे आक्रोश का कारण बन जाता है। अनुभव तो हुआ होगा? जिससे तुम्हें खुशियां मिली उसी के कारण तुम खिन्न भी हो जाते हो होता है। कुछ उदाहरण आपके सामने रखता हूं, आपके जीवन के कुछ प्रसंग। फिर बात आगे बढ़ा लूंगा और आज ऐसे कुछ सूत्र दूंगा जो आपको हर पल आनंदित रखने का एक निमित्त बन सके, जिसके बल पर आपको आनंद आएगा नहीं आप आनंदित रहने में समर्थ हो जाओगे। देखिए।

दीपावली का समय था। व्यक्ति घर की सफाई कर रहा था। सफाई करते-करते एक पुस्तक उसके हाथ लगी। पुस्तक पुरानी थी। पुस्तक को पलटा उसमें एक पत्र मिला। वह पत्र 30 वर्ष पहले पत्नी के प्रेमी ने पत्नी को लिखा था। प्रेम पत्र था। क्या हुआ? 30 वर्ष पहले (विवाह को 25 साल हुए, विवाह से 5 साल पहले) प्रेमी ने पत्नी को कोई पत्र लिखा था और वह पत्र अचानक हाथ लग गया। पत्र पढ़ रहे हैं, त्योरियां चढ़ रही है- अच्छा यह बात है, यह तो एकदम कुल्टा निकली, मैं तो इसे और समझता था, अभी देखता हूं। कुछ पल पहले तक जो तुम्हारी प्राणप्रिय थी अब उसमें कुल्टा की शक्ल क्यों दिखने लगी, क्या हो गया, क्या बदलाव हो गया, पत्नी बदल गई, पत्नी का व्यवहार बदल गया, कोई परिस्थिति बदली, क्या बदला? बोलो, समझ में आ गया। एक पल में खेल बदल गया। अब उस पत्नी के प्रति वह दृष्टिकोण रहेगा? क्यों, बस यही तुम्हारे आनंद का मूल है?

एक छोटे से निमित्त ने जिसमें कोई जान भी नहीं तुम्हारा पूरा खेल बिगाड़ दिया। बिगाड़ा है। ऐसा होता है। बड़े अरमानों से भरकर बेटी का विवाह किया, बेटे का विवाह विवाह किया, घर बसाया, बड़ा आनंद। मेरे घर में बहू आ गई, मेरे सपने साकार हो गए, आनंद आया। अब 6 महीने बाद किसी बात को लेकर बाप-बेटे में विवाद हुआ, बेटे ने अपना अलग घर बसा लिया। अब क्या हो गया? अब बेटे को देखकर आनंद आएगा? अभी तक तो कहते थे मेरा बेटा श्रवण कुमार है अब उसमें कंस की शक्ल दिखेगी कि नहीं। बता दो। क्या हो गया? एक पल में सब कुछ बदलता है।

हमारा जो आनंद है, हमारी जो खुशियां हैं वह हमारे अधीन नहीं है, चीजों के अधीन है, निमित्त के अधीन हैं, प्रसंगों के अधीन हैं। या यूं कहें हमारी मानसिकता के अधीन हैं और यह जिनके अधीन हैं वह स्थिर नहीं है। तो मेरी खुशियां स्थिर कहां रहेंगी। पल-पल में बदल जाएंगी। कहते हैं-

पले: रुष्टम पले: तुष्टम।

पल में उभार, पल में उतार। यह जीवन में चलता रहता है क्योंकि मनुष्य अपने जीवन और जीवन की व्यवस्था को ठीक तरह से समझता नहीं है। आनंद, मैं कहता हूं सच्चे अर्थों में आनंद तो आपके पास आता ही नहीं है। आनंद आता है! आनंद आता है! जिसको आप आनंद कहते हैं वह आनंद है ही नहीं। आपको थोड़ी खुशी मिलती है, थोड़ा सुख मिलता है, थोड़ा सुकून मिलता है, आनंद नहीं। आनंद बहुत बाद की चीज है, आनंद बहुत हाइट की चीज है। देखो दुख, सुख और आनंद इन शब्दों को देखो। सुख, दुख अलग है, आनंद अलग है। सुख शब्द बना है सु और ख से।  ख अर्थात ‘इंद्रिय’ और सु यानी ‘अच्छा’ मतलब जो हमारी इंद्रिय चेतना को अच्छा लगे वह सुख, इसके विरुद्ध जो हमारी इंद्रिय चेतना को बुरा लगे वह दुख। जब-जब हमारी इंद्रिय चेतना को अच्छा लगता है, अच्छा महसूस होता है हमें सुख का अनुभव होता है। उस घड़ी आप लोग अपने शब्दों में कहते हैं- मजा आता है, आनंद आता है और जो भी आपके इंद्रिय चेतना को बुरा लगता है वह आपके लिए दुखकर होता है, आपको कष्ट होता है, आपको पीड़ा होती है, दुख होता है। इंद्रिय चेतना को क्या अच्छा लगे क्या बुरा लगे वह किस पर निर्भर है? वह हमारे मन पर निर्भर है और हमारा मन परम चंचल है। जैसे आसमान में ध्वजा हवा के वेग से लहराती रहती है वैसे ही हमारा मन डोलता रहता है। उसे कोई भी बात एक सी नहीं लगती, पल-पल बदलती रहती है और हमारी मानसिकता जब चीजों से प्रभावित होती रहती है तो सुख से दुख, दुख से सुख, सुख-दुख दुख-सुख के हिंडोले में मनुष्य सारी जिंदगी डोलता रहता है। इससे ऊपर का शब्द है- ‘आनंद’। आनंद शब्द बड़े ऊंचे दर्जे का है।

आनंद शब्द संस्कृत के नंद धातु में अ: प्रत्यय लगने से बना है। इसका मतलब है जो हर हाल में, हर स्थिति में संतुष्ट रहें, प्रसन्न रहें उसका नाम आनंद है। अच्छे में भी, बुरे में भी। जो अच्छे में खुश होगा वह बुरे में दुखी होगा लेकिन जो आनंद में भरेगा उसको अच्छे में भी मजा और बुरे में भी मजा। सब स्थिति में सम बने रहना ही जीवन का वास्तविक आनंद है। जिस कार्य के माध्यम से मैंने इस श्रृंखला की शुरुआत की थी आज उसे उद्धृत करके चौथे चरण की चर्चा आपके बीच कर रहा हूं-

शांतम् तुष्टम् पवित्रं च सानंदमित् तत्वतः

जीवनम् जीवनम् प्राहों भारतीय सुसंस्कृतम्।

भारतीय संस्कृति में ऐसे जीवन को जीवन कहा गया जिसमें शांति हो, तुष्टि हो, पवित्रता हो, आनंद हो। आने वाला आनंद था आने वाला आनंद कब जाने वाला हो जाए पता नहीं।

एक आदमी ने सवेरे अखबार खोला और देखा उसकी एक करोड़ की लॉटरी निकल गई। बड़ा आनंदित हुआ, (तुम्हारी एक करोड़ की लॉटरी निकली जाए तो तुम क्या करोगे, आनंदित होओगे) मित्रों को बताया और शाम को 50 हज़ार की पार्टी दे दी। सब मिल बांट कर खाया पिया, मौज किया कि आज एक करोड़ की लॉटरी लगी कोई ऐसी वैसी ऑपर्चुनिटी थोड़ी है। बहुत आनंद। अगले दिन सुबह फिर अखबार आया। उस अखबार में एक विज्ञप्ति छपी थी- भूल सुधार। लिखा था- जितने भी 10 डिजिट के नंबर थे सही था लेकिन जो शुरुआत 1 से था उसे 2 कर लेना। अखबार से अपना मुंह ढक के रह गया, आनंद हवा हो गया। क्यों? कल जो अखबार सुख का पैगाम लेकर आया वही अखबार आज उसके शोक का कारण बन गया। कभी आप सोचते हैं? सोचने की बात क्या पल-पल में यह जीवन का खेल है तुम किस पर हंसोगे किस रोओगे कोई पता नहीं। लॉटरी गई सो गई 50 हज़ार गांठ का और चला गया। तुम्हारी सारी खुशियां रेत के महल की तरह है जो एक साथ फर-फराकर गिर जाती है एक पल में बिखर जाती है तो आप आनंदित रहना चाहते हैं? बोलो। हर पल आनंद से अपना जीवन जीना चाहते हो, सदा आनंदित रहना चाहते हो? पहले बता दो।

सदाबहार आनंदित रहने के लिए चार सूत्र कहता हूं।

सबसे पहला सूत्र- सुख और दुख में समभाव रखना। सुख दुख में समभाव रखने का अभ्यास बनाओ। आप मेरी भावना में पंक्तियां रोज दोहराते हो-

होकर सुख में मग्न ना फूले, दुख में कभी ना घबराऊं,

ईष्ट वियोग अनिष्ट योग में सहनशीलता दिखलाऊं।

बोलते हैं। सुख में मग्न होकर फूलूं नहीं और दुख में घबराऊं नहीं। अभी क्या होता है- जब सुख होता है तो फूल जाते हैं और दुख होता है तो कूलने लगते हैं। यह अज्ञान है। संत कहते हैं- यह सुख भी तुम्हारा नहीं, दुख भी तुम्हारा नहीं, अच्छा भी तुम्हारा नहीं, बुरा भी तुम्हारा नहीं। दोनों को समान मानो क्योंकि तुम्हारे जीवन में जो भी सुख और दुख के संयोग आ रहे हैं वह तुम्हारे नहीं कर्म के संतान हैं, सगे भाई हैं। तुम्हें जो सुख मिलता है वह भी कर्म से, तुम्हें जो दुख मिलता है वह भी कर्म से। तुम्हारा सुख भी कर्म का बेटा और तुम्हे मिलने वाला दुख भी कर्म का बेटा तो दोनों भाइयों के प्रति एक की दृष्टि रखो। यदि तुम्हारे हृदय में कर्म सिद्धांत का ज्ञान हो, विश्वास हो तो कैसा भी सुख-दुख को तुम्हारा चित्त डावांडोल नहीं होगा। जीवन में आने वाले बड़े-बड़े आघातों को तुम सहजता से सहने में समर्थ हो जाओगे। कर्म का उदय है ठीक है आया है चला जाएगा। आसमान में रोज बड़े-बड़े बादल आते हैं, घने-घने बादल आते हैं लेकिन आसमान कभी रोता नहीं क्योंकि उसे पता है बादल आए हैं, टेंप्रेरी हैं, चले जाएंगे। हवा का एक वेग आएगा और चला जाएगा, अभी काले-काले बादल छटेंगे, मेरे जीवन में दुख के बादल आए वह भी छटेंगे और सुख की बयार बह रही है वह भी छटेंगी। यह तो जीवन का क्रम है यह आना-जाना लगा हुआ है। किस पर हंसूं और किस पर रोएं। सुख-दुख में समान रहे। कर्म है, कर्म के आधीन है, मेरे हाथ में नहीं है तो मैं इससे प्रभावित क्यों होऊं।

मेरे संपर्क में एक सज्जन है। सन 2005 की बात है। मैं सम्मेद शिखरजी में था। एक दिन मैंने इसी विषय में प्रवचन दिया। प्रवचन के बाद एक सज्जन मेरे पास आए और बोले- महाराज! आज आपने जो प्रवचन दिया है वही मेरे ऊपर घट गया। मैंने बोला- क्या हुआ? उनका चीनी का बड़ा व्यापार था। बोले- महाराज जी! आज ही मेरे पास समाचार आया कि मेरा मुनीम वसूली करके लौट रहा था और रास्ते में लोगों ने उसे लूट लिया और एक बड़ी रकम चली गई। महाराज! यह समाचार मिला और 10 मिनट बाद मेरे बेटे का लखनऊ से फोन आया- पापा! एक जमीन की डील बहुत दिनों से रुकी हुई थी आज वह फाइनल हो गई है और अपने को मोटी रकम का प्रॉफिट है। उन्होंने कहा- महाराज! मैं किस पर हंसूं और किस पर रोऊं। एक समाचार है पैसा लुटने का और एक समाचार है पैसा कमाने का, मुनाफा कमाने का। किस तरह से किस पर रोएं। रोज तुम्हारे जीवन में ऐसा होता है। अगर तुमने कर्म की सत्ता को स्वीकार कर लिया हो, जीवन की वास्तविकता को समझना शुरू कर दिया हो तो कोई दिक्कत नहीं। वह व्यक्ति यही सोच रहा था कि जो बात आप प्रवचन में कहे रहे हैं वह मेरे साथ हो रहा है, मैं कहां खुशी मनाऊं, मैं कहां गम करूं। तुम्हारे साथ भी जीवन में कई ऐसे को इंसिडेंट होते हैं, संयोग बनते हैं। किसी के साथ-साथ बनते हैं, किसी के आगे पीछे बनते हैं। दोनों में समभाव रखने की कोशिश करो। यह कर्म के आधीन है, मेरे हाथ में नहीं है पर मेरा जोर नहीं है यह सहज प्रक्रिया है जैसा होना होगा सो होगा। इतनी श्रद्धा और विश्वास तुम्हारे हृदय में जग जाए तो तुम्हारे आनंद में कहीं खलल नहीं होगा। तुम लोग क्या करते हो- थोड़ा सा अच्छा हो छाती फूल जाती है और थोड़ा गड़बड़ हो तो छाती कूटना शुरू कर देते हो। यह प्रवृत्ति गलत है। सही बताओ जो अच्छा हुआ उसे सारी जिंदगी मेंटेन करने की ताकत तुम्हारे पास है और जो बुरा है उसे खदेड़ कर बाहर निकालने की क्षमता तुम्हारे पास है? है क्या? कुछ नहीं है। अच्छे को भी तुम्हें भूलना है और बुरे को भी तुम्हें भोगना है। भोगना तो पड़ेगा ना। तुम्हारे अपने किए का है। अगर तुम स्थिरता पूर्वक भोगते हो तो तुम आनंद में रहोगे और आकुलता पूर्वक भोगोगे तो द्वंद में जिओगे। अब तय तुम्हें करना है कि आनंद में जिऊं या द्वंद में जिऊं। सुख-दुख में समभाव रखने का अभ्यास बढ़ाइए। कर्म की संतान हैं, दोनों कर्मों का उदय है, हम इसे एक्सेप्ट करें, बराबरी से एक्सेप्ट करें। हमारा जीवन कभी दुखी नहीं हो सकेगा। यह जीवन का मूल है, आध्यात्मिक को पहचानो, सुख और दुख मेरे लिए दोनों बराबर हैं।

हमारे यहां कहते हैं-

पुण्य पाप फल माही, हरक बिरखो मत भाई।

यह पुद्गल परछाई, उपज बिनसे दिल नाहि।।

कि पुण्य हो या पाप उनके फल में हर्ष विषाद मत कीजिए यह सब जड़ है कर्म की संतान हैं उत्पन्न होगी नष्ट होगी इस में स्थिरता नहीं है लेकिन जब तुम्हारा पुण्य उदय होता है तब तुम्हारे चेहरे की चमक कुछ और होती है और जब पाप का प्रकोप आता है तो तुम्हारी दशा कुछ और हो जाती है जो जीवन के सत्य को जानता है वह भवन में रहे या वन में अनुकूल हो या प्रतिकूल उसकी स्थिरता हमेशा बनी रहती है=मानता है राजा भोज केबल दरबार में एक विचित्र प्रकार का अधिकारी पहुंचा बड़ा भी नहीं था और खबर किया कि राजा से कहो आपका भाई मिलने आया है उस फटेहाल व्यक्ति को देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह राजा का भाई कैसे हो गया लेकिन फिर भी बार बार जब आग्रह किया तो राजा तक संदेश पहुंचाया राजा को भी उत्सुकता हुई थी चलो ठीक है उसे दरबार में प्रवेश कराओ देखता हूं कौन भाई है जब दरबार में वह आया राजा बड़ा चकराया इससे पहले कि राजा कुछ कहे उसने कहा पहचाना राजा राजा भाववाचक का उसने कहा पहचाना राजा बहुत चक्का बोला मुझे मालूम था तुम मुझे नहीं पहचानोगे पर मैं पहचानता हूं राजा को आश्चर्य हुआ तुम मेरे भाई कैसे हो गए तुम कौन हो उसने कहा भाई तुम्हें नहीं मालूम मैं तुम्हें बहुत अच्छे से जानता हूं चलो आज मैं अपना पूरा परिचय तुम्हें बता देता हूं राजा बोला बताओ बोला बात ऐसी है-

आपदा मम मातासी, संपदा तथैवतव।

आपदा संपत्यौ भागिन्यौ, तस्माद् अवाम सहोदरो।।

राजन! मेरी मां का नाम आपदा है, और तुम्हारी मां का नाम संपदा है। आपदा और संपदा दोनों सगी बहनें हैं तो हम दोनों मौसेरे भाई हुए कि नहीं। राजा की आंख खुल गई, हम दोनों भाई हो गए, अपने आप भाई हो गए। बस जीवन की सच्चाई को जो जान लेते हैं उसके जीवन की दिशा और दशा सब परिवर्तित हो जाते हैं इसलिए हम सहोदर हैं। आप भी समान मानने का अभ्यास बनाइए। सुख दुख में समता, सदाबहार आनंदित रहने का एक मंत्र है- ‘अपनाने की कोशिश कीजिए’।

एक उदाहरण में अक्सर देता हूं। आपके घर में अनेक प्रकार के मेहमान आते हैं। आप सबका सत्कार करते हो कि नहीं। कभी आपके घर में चाचा-ताऊ आए और कभी आपके घर में जमाई आए। क्या करना होता है। महाराज! घर में चाचा आते हैं तो कोई चिंता नहीं होती, घर में जो सामान्य व्यवस्था है वह उसी के हिस्सा बन जाते हैं और काम हो जाता है। महाराज! चाचा जब जाते हैं तो कुछ देकर जाते हैं। लेकिन जब जमाई आते हैं, अरे महाराज! पूछो मत, जिस दिन जमाई आता है उस दिन बड़ा इंतजाम करना पड़ता है, चार प्रकार की मिठाइयां मंगवानी पड़ती है, सारा इंतजाम खाने-पीने का अलग से करना पड़ता है, उनकी पूरी खातिरदारी करनी पड़ती है और जब जाने लगे तो उनका तिलक भी करना पड़ता है और उन्हें देना भी पड़ता है। जमाई आता है तो इतनी मशक्कत करनी पड़ती है तब भी तुम उनका सत्कार करते हो क्योंकि वह तुम्हारा जमाई है और चाचा का भी तुम सत्कार करते हो। मैं आपसे केवल इतना ही कहना चाहता हूं सुख आए तो समझना चाचा आए और दुख आए तो समझना जमाई आए। सम्मान दोनों का करो। जीवन में स्थिरता रहेगी। दोनों का सम्मान करो, दोनों का सत्कार करो जीवन में बदलाव होगा। तो पहला- सदाबहार आनंदित बने रहने के लिए सुख-दुख में समभाव रखो, समता रखो।

दूसरी बात- जीवन में सहजता लाओ। सहजता लाने का मतलब प्रतिक्रियाओं से अप्रभावित रहो। आप जल्दी प्रतिक्रियाएं करते हैं और प्रतिक्रियाओं से प्रभावित होते हैं। आप यहां बैठे, एक पल में आपका मूड खराब हो जाता है। एक वर्ड, एक शब्द, किसी ने एक टिप्पणी तुम पर की कि तुम्हारा मूड खराब। तुम्हारे मूड पर तुम्हारा नियंत्रण कहां है। बड़े आनंद से जी रहे थे, खाना खाने बैठे, बहुत अच्छे से खा रहे थे, सामने वाला तुम्हें मनूहार पुर्वक खिला रहा है, हमारी रूचि और पसंद का ख्याल रखते हुए खिलाया जा रहा है, रस लेकर खा रहे हैं और सामने वाले के खाने की तारीफ भी कर रहे हैं, बहुत बढ़िया खाना खिलाया है, कितना बढ़िया खाना है, क्या बताएं ऐसा खाना तो हमने जीवन में आज तक नहीं खाया। सामने वाला- तू क्या तेरा बाप भी नहीं खाया होगा। अब क्या? अब क्या हुआ? आग लग गई। एक शब्द। कितना कमजोर है तुम्हारा मन। एक शब्द पूरे मूड को चेंज कर देता है और फिर माथा फोड़ी दिन भर करते हो। कई लोग बोलते हैं- महाराज! क्या करें, आज सुबह से ही मूड आॅफ है। आॅफ किसने किया? आॅफ किया तो आॅन कर लो। स्विच तो तुम्हारे हाथ में होनी चाहिए पर तुमने अपनी स्विच दूसरों को दे रखी है। कभी ऑन करें कभी ऑफ करें। सामने वाला जब चाहे तब ऑन कर दे और जब चाहे ऑफ कर दें। इसी ऑन ऑफ के खेल में हम अपनी शांति की बलि चढ़ा देते हैं।

नहीं! सहजता से जीने का अभ्यास बनाएं, छोटी-छोटी बातों में असहज ना हो और असहजता से बचने का सीधा सा उपाय है- इग्नोर करो। चीजों को इग्नोर कर दो, नजरअंदाज कर दो सब ठीक होता है। कोई फर्क पड़ेगा क्या? आप नहीं कर सकते? इसमें कोई रुपया लगता है, कोई पैसा लगता है, कोई तपस्या करनी पड़ती है, कोई त्याग करना पड़ता है। महाराज! रुपए-पैसे की बात कर लो, त्याग-तपस्या की बात कर लो वह सरल है लेकिन इसकी बात मत करो। मनुष्य बाकी प्रकार से धर्म साधना करने के लिए तैयार है लेकिन अपनी सहनशक्ति को और सहजता को मेंटेन करने के लिए वह तैयार नहीं है। वहां हमें अपने आप पर कंट्रोल रखने का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। सहज बने रहें, अपनी सहजता को कतई खंडित ना करें। ठीक है कह दिया कह दिया इग्नोर करेंगे, नजरअंदाज करेंगे अथवा सामने वाले की बात को सकारात्मक दृष्टि से लेंगे, असहज नहीं होंगे, पॉजिटिव एंगल से लेंगे। कभी आप असहज नहीं होंगे लेकिन आज के लोगों की दशा छोटी-छोटी बातों में। बड़ों की बात तो जाने दो छोटे-छोटे बच्चे भी बड़े ईगो वाले होते हैं।

एक बच्चा अचानक रोने लगा। क्यों रो रहा है? बोला- गिर गया था। कब, कहां गिर गए? बोला- 9 बजे गिरा था। तो अभी क्यों रो रहे हो? उस समय कोई देखने वाला नहीं था। 9 बजे गिरा, 12 बजे रो रहा है। यह जो प्रवृत्ति है इस प्रवृत्ति को बदलिए अगर हम अपने आप पर अपना नियंत्रण नहीं रखते तो जीवन में कभी सुखी नहीं होंगे। एक बात सदैव ध्यान रखना- नसीब हमें अमीर-गरीब बना सकता है, तकदीर हमें सुखी-दुखी नहीं बनाती। हम सुखी या दुखी होते हैं या सुखी और दुखी हमें बनाता है- हमारा अपना ज्ञान। अपनी मानसिकता को ठीक करना सीखिए, धर्म यही पाठ पढ़ाता है। कितना अच्छा सा सूत्र है- सहज रहो, कोई बात है उसे इग्नोर करो, पाॅजिटिवली लो, कर्म का उदय है, कह दिया सो कह दिया, इतना कर लो दुखी होंगे? अरे! क्या करें उसने मुझे धोखा दे दिया, उसने मेरा अपमान कर दिया, उसने मुझे अपशब्द कह दिया, उसने मुझे नुकसान पहुंचा दिया, उसने मेरी बुराई कर दी, उसने मेरी छवि खराब कर दी और उसने क्या किया? वो तो करके चला गया, प्रभावित तो तुम हो रहे हो। तुमने अपनी छवि इतनी कच्ची क्यों बनाई कि चाहे जो खराब कर दे। अपनी छवि इतनी पक्की बना दो कि उस पर कोई कितना भी कीचड़ फैंके चिपके ही नहीं। अपने स्वभाव को ऐसा स्थिर बनाने का प्रयास करो कि कोई कितना भी बुरा बर्ताव क्यों ना करें तुम पर कोई प्रभाव ना पड़े। यह क्षमता अपने भीतर जो विकसित कर लेते हैं, सच्चे अर्थों में जीवन का रस वे ही ले पाते हैं। अभ्यास बनाइए मुझे अप्रभावित रहने का अभ्यास करना है। एक दिन मैंने पूरा प्रवचन आपको प्रतिक्रियाओं से कैसे बचें इस पर दिया। यहीं चार-पांच दिन पहले ही हुआ है। प्रतिक्रियाओं से आप अपने आप को बचाइए। लोगों के मुंह पर ताला लगाने की क्षमता आपके पास नहीं है पर बातों को इग्नोर करने की ताकत प्रकृति ने दी इसीलिए दो कान दिए हैं, इधर से सुनो इधर से निकालो। वरना एक कान से भी काम चल सकता था। प्रकृति ने दो कान क्यों दिए। एक कान से सुनो मतलब की बात को एंट्री दो और बेमतलब की बात को बाईपास करो, इग्नोर करो। कौन रोक रहा है? बोलो। किस-किस के मुंह पर ताले लगाओगे, किस-किस का मुंह बंद करोगे। असंभव है। लोग तो साधु संतों को भी नहीं छोड़ते हैं फिर तुम कहां हो। अप्रभावित रहने की कला विकसित करो। सहज, छोटी-छोटी बातों में, थोड़ा सा किसी ने किसने दिया यह हमारे अंदर का जो ईगो होता है वह गड़बड़ करता है।

एक छोटा सा बच्चा जिसने होश नहीं संभाला, दूध पीता बच्चा है उसको आप बोल दो उसको कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर हल्का सा कोई फर्क पड़े भी तो थोड़ी देर बाद जो मां चांटा मारेगी उसी मां के आंचल में जाएगा। जाता है कि नहीं? क्यों? उसके अंदर सरलता है, वह सहजता से जी रहा है लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है उसका ईगो पुष्ट होने लगता है, उसके जीवन में कृत्रिमता आना शुरू होती है और जहां कृत्रिमता होती है वहां कुटिलता होती है, जहां कुटिलता होती है वहां द्वंद होता है और जहां द्वंद होता है वहां दुख होता है। यह एक चक्र चलता है ईगोइस्ट मत बनिए जिससे आपकी सहजता खंडित होती हो, प्रसन्नता बाधित होती हो और शांति छिन्न-भिन्न होती हो, ऐसी बातों से अपने आप को बाहर निकालिए। क्या मतलब है उसमे उलझने का?

सब तरफ ऐसा नहीं कर सकते तो शुरुआत अपने घर-परिवार से कीजिए। एक संकल्प लीजिए और एक प्रयोग शुरू कीजिए कि घर परिवार में यदि कोई ऊंच-नीच बोल देगा तो माइंड नहीं करेंगे। महाराज! बाहर का नियम दे दो, घर का नहीं चलेगा। दूसरा कोई बोल दे तो आप उसे इग्नोर करने को तैयार हो लेकिन अपना कोई बोले तो बर्दाश्त नहीं होता। यह मन है ना उसी को बदलना है केवल इसी मन को बदलना है। मन के बदलते ही सारा खेल बदल जाता है। एक्सेप्टेंस होना चाहिए अंदर। कोई कुछ थोड़ा ऊंचा-नीचा कर दिया, इग्नोर करेंगे। किसी ने मेरा कहा नहीं सुना कोई बात नहीं नहीं सुना दिया, इग्नोर करेंगे। किसी ने मुझे कुछ सुना दिया चलो उसके मन में कुछ गुस्सा आ गया होगा, इग्नोर करेंगे। उसका मन हल्का हो गया चलो मुझे ही सुनाया है किसी और को नहीं सुनाया, झेल लेंगे। सुनाया ही तो है हमको चांटा थोड़े ही मारा है। मेरा क्या बिगड़ा? थोड़ी सी सोच को बदलने का अभ्यास कीजिए। देखिए जीवन का कितना मजा है। तो सदाबहार आनंदित बने रहने के लिए पहला- सुख-दुख में समतख रखिए। दूसरी बात- जीवन में सहजता बनाए रखिए यानी प्रतिक्रिया कम कीजिए और प्रतिक्रियाओं से प्रभावित मत होइए, कदाचित् नकारात्मक प्रतिक्रियाएं तो भूल कर भी मत कीजिए। आप लोग बहुत जल्दी एक्साइटेड हो जाते हैं और अहम और उत्तेजना के आवेग में मनुष्य अपना विवेक खो देता है। हम अपने संबंधों को अहम और उत्तेजना मुलक ना बनाकर प्रेम और आत्मीयता मूलक बनाने की कोशिश करें। यदि जीवन में सहजता होगी तो हमारे संबंध इसी रूप में विस्तारित होंगे और वह सहजता खंडित हो जाएगी तो हम कहीं के भी नहीं रहेंगे।

तीसरी बात- संतुष्ट होकर जिंए। संतुष्ट रहें, जो जैसा है जितना है उसमें संतोष करने का अभ्यास करें। अधिक की चाह आपाधापी में उलझाएगी, भागम भाग में दौड़ाएगी, हाय-हाय मचाएगी। आज हर लोगों की स्थिति कैसी है कोई भी संतोष से जीने वाला व्यक्ति नहीं है। हर व्यक्ति के अंदर किसी न किसी प्रकार की शिकायत बैठी रहती है। उसे अपने जीवन और जीवन की व्यवस्थाओं को लेकर कोई ना कोई शिकायत रहती ही है। मेरे साथ यह नहीं है, मेरे साथ वह नहीं है, मेरी यह कमी है, मेरी वह कमी है, मेरे पास ऐसा हो जाता तो अच्छा रहता, वैसा हो जाता तो अच्छा रहता, इतना और हो जाता तो अच्छा रहता, उसके पास इतना है मेरे पास नहीं है। एक बात मैं आपको बोलता हूं जिन चीजों के अभाव के कारण आप अपने आपको दुखी महसूस करते हो और आपको लगता है उसके अभाव के कारण मुझे दुख हो रहा है तो एक बार उस व्यक्ति के पास चले जाओ जिसके पास उसका सद्भाव है और जांच कर आओ कि क्या वह सुखी है। तुम अगर पर्याप्त धन के अभाव में अपने आप को दुखी महसूस करते हो तो जाओ जिसके बाद अपार धन है वह क्या सुखी है। तुम्हें अपना रूप-सौंदर्य अच्छा नहीं दिखता और तुम दुखी महसूस करते हो तो जो बहुत खूबसूरत है क्या वह सुखी है। तुम्हारे पास संतान नहीं है इसलिए तुम अपने आप को दुखी महसूस करते हो तो थोड़ा उनको निकट से झांक कर देख कर आओ जिनके पास संतान हैं क्या वह सुखी है। तुम्हारी शादी नहीं हो रही इसलिए तुम दुखी हो तो जाओ उनको देखकर आओ जिन्होंने शादी थी क्या वह सुखी हैं। क्या अनुभव होगा?

कर्म सिद्धांत पर जिसका विश्वास होता है वह हर स्थिति में संतुष्ट रहता है। संतुष्ट रहने का मतलब यह नहीं कि आप कोई प्रयास ना करें, संतुष्ट रहने का मतलब केवल यह है कि आप परेशान ना हो। प्रयास करो, परेशान मत हो। क्यों? मेरे हाथ में प्रयत्न है, परिणाम नहीं।

कर्मण्यैऽधिकारस्ते मां फलेसूकदाचिनः

मेरे हाथ में जो है वह मैं कर रहा हूं, वह मैं करूंगा लेकिन जो मेरे हाथ में है ही नहीं उसके लिए मैं क्या करूं। यह प्रवृत्ति अपने अंदर होनी चाहिए। अगर इतनी सी बात को अपना लो तो जीवन में कभी दुखी नहीं होओगे। इन सब बातों को अपनाने का एक ही उपाय है। एक ही बात पर श्रद्धा करो वह है- कर्म के सिद्धांत पर। संसार के सारे संयोग कर्माधीन हैं। मेरे हाथ में कुछ भी नहीं हैं जो चीज मेरी नहीं, जो मेरे हाथ में नहीं, जिसका भरोसा नहीं उससे मैं प्रभावित हो करके अपना सुख क्यों खोऊं, अपनी खुशियां क्यों खोऊं। मुझे सजगता से जीवन जीना है। तो यह भावना अपने अंतरंग में आप जितनी प्रगाढ़ता से विकसित करोगे आपके जीवन में उतना आनंद आएगा। आप अपने जीवन में स्थिरता बना सकोगे। अभ्यास कीजिए, आज से इस सूत्र को रोज गुनगुनाए, अपने जीवन का अंग बना लीजिए। मैं संतुष्ट होकर जीऊंगा, जो कुछ भी करूंगा प्रयास करूंगा परिणाम को लेकर फिक्र नहीं करूंगा, रोना नहीं रोऊंगा। अरे! इतने प्रयास करने के बाद भी परिणाम नहीं, रिजल्ट नहीं आ रहा, रिजल्ट नहीं आ रहा। अरे! आएगा। मैं जो कर सकता हूं वह करूं, जो मेरे हाथ में नहीं उसके लिए माथा पकाना उचित नहीं है। तो संतुष्ट होकर के जीने का प्रयास कीजिए। दो दिन पहले संतोष पर मैंने आप लोगों से काफी चर्चा की, प्रकाश डाला।

आखिरी बात- संयमी प्रवृत्ति अपनाइये, संयमी बने। संयम अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण की कला सिखाता है। संयम का मतलब केवल खाने पीने पर ही नहीं, संयम का मतलब अपनी प्रत्येक प्रवृत्तियों पर अंकुश, अपने इमोशंस और एक्टिविटीज पर जो कंट्रोल करने की क्षमता रख लेता है वह मनुष्य कभी दुखी नहीं होता।

संयम का तात्पर्य सेल्फ कंट्रोल से है। यह पावर अपने भीतर इंप्रूव करें। मैं देखता हूं भगवान महावीर ने जहां संयम को धर्म कहा-

धम्मो मंगल मुखीटम अहिंसा संयमीतवो।

देवावितस्य जस्य नमनसन्ति तस्य धम्मो सयानमो।।

कहते हैं- धर्म तो अहिंसा, संयम और तप रूप है और इस अहिंसा संयम तप रूप धर्म को देवता भी नमस्कार करते हैं। हे भगवान! मेरा उस धर्म में मन लगा रहे। संयम हमारा मूल धर्म है लेकिन मैं देखता हूं अच्छे-अच्छे धर्मियों के जीवन में संयम नहीं होता।

संयमी बनिए। अपने आप पर अपना नियंत्रण रखिए, सेल्फ कंट्रोल बढ़ाइए। असंयम में दुख है, संयम में सुख है। अपनी एक्टिविटीज पर अंकुश होना चाहिए, कोई भी बेड एक्टिविटीज ना हो। कोई भी दुष्प्रवृत्ति तुम्हारे द्वारा ना हो। हमारे आचार-विचार, व्यवहार, खानपान सबमें संयम होना चाहिए। देखो, मेरे इस कृत्य से किसी का अहित तो नहीं हो रहा है। भोजन पर भी ध्यान रखना चाहिए, हर कुछ भी भोजन के रूप में मत लेना। अगर अपने शरीर का स्वास्थ्य ठीक रखना चाहते हो और मन को प्रसन्न बनाए रखना चाहते हो तो भोजन को औषधि समझकर खाना तो जिंदगी में कभी औषधि खाने की नौबत नहीं आएगी। आजकल आप लोग तो अटरम सटरम सब कुछ डालते रहते हो। कोई हिसाब नहीं।

वहां संयम और दूसरा संयम- अपने इमोशंस पर कंट्रोल करना। जो मन में आया बक दिए, जो समझ में आया कर दिए। अंजाम चाहे जो हो, बाद में पछताओ, अरे! क्या कर दिया, उस समय दिमाग स्थिर नहीं था, सोचा नहीं, गड़बड़ हो गया, अब क्या करूं, अब क्या करूं? अरे! बाद में पछताने से क्या फायदा। अभ्यास बढ़ाइए। देखिए, कुछ जगह आप बड़े संयमी हो जाते हैं।

जब आप सार्वजनिक जीवन में रहते हैं वहां आप अपने चाहे जैसी प्रवृत्ति करते हो क्या? किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र में? कहीं रहते हैं तो वहां के रूल्स का अनुपालन करते हैं कि नहीं करते हैं? मन में आता है तो क्या करते हैं मन को कंट्रोल करते हैं कि नहीं? दुकान में रोज का आप का अभ्यास है दुकान में कितने प्रकार के अनुभव आते हैं, कितने प्रकार के ग्राहक आते हैं आप उनसे माथापच्ची करते हो क्या, नही करते, कंट्रोल करते हो। क्यों? उससे नुकसान होगा। आप अपने सार्वजनिक जीवन में हर जगह संयम रखते हो तभी आप अपनी जिंदगी को सलामत तरीके से चला सकते हैं। वहां आप करते हैं इसका तात्पर्य यह है कि आपके पास अपने आप पर कंट्रोल करने की ताकत तो है प्रकृति ने दी है। प्रकृति ने सबको दी है- सेल्फ कंट्रोल की पावर लेकिन आप उसका utilise नहीं करते, जहां आपको उसका यूज़ करना होता है वहां करते हैं और जहां नहीं करना होता वहां नहीं करते। आप के साथ यही होता है कि आप अपने सार्वजनिक जीवन में कुछ और होते हैं और स्वयं के पर्सनल लाइफ में या आपके घर-परिवार में आपका जो जीवन व्यवहार होता है वहां कुछ और होते हैं। जो व्यक्ति बाहर संयमित होता है घर आकर उतना ही गुबार निकालना शुरू कर देता है, उतना ही असहनशील, चिड़चिड़ा, क्रोधी और कभी-कभी उन्मत्त जैसा हो जाता है। क्यों?

यहां अपने आप पर नियंत्रण लाइए, अपने आप पर कंट्रोल कीजिए तो जीवन सुखी होगा। अगर आपने अपना संयम खो दिया तो सारी जिंदगी दुखी रहोगे, आप अपने काम पर, क्रोध पर, लोभ पर, मोह पर अंकुश रखिए। यही विकार है जो हमारे आनंद में खलल डालते हैं इनको हमने जीतने का अभ्यास बना लिया, इन पर अंकुश, जीतना तो बहुत ऊंची बात है पर थोड़े नियंत्रण का भी अभ्यास हमने बना लिया तो तय मानकर चलना कि हमारे जीवन को एक नई ऊंचाई मिलेगी। इससे हम हमारे जीवन का उत्कर्ष करने में समर्थ हो सकेंगे तो सब के जीवन में ऐसी स्थितियां बनें और सभी अपना जीवन उत्कर्ष कर सकें। यह भाव आप सबके हृदय में होना चाहिए।

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