जैन धर्म में नारी का स्थान
क्या जैन धर्म में नारी अधिकार का विरोध है ?
नारी के अधिकार का निषेध! ये प्रश्न में ही आपत्ति है। जैन धर्म में जितना नारी को सम्मान दिया गया है, उतना किसी अन्य धर्म में नहीं दिया होगा। “ नारी गुणवती धत्ते सृष्टि अग्रिमम् पदम्” अर्थात् गुणवान नारी सृष्टि में अग्रिम् पद को धारण करती है। तीर्थंकरों ने समवशरण में नारियों को दीक्षित कर आर्यिका बना के उच्च स्थान दिया है। भगवान ऋषभदेव ने राज्य अवस्था में अक्षर और अंक विद्या पहले ब्राह्मी और सुन्दरी को प्रदान की, बाद में भरत और बाहुबली को। आज अक्षर और अंक विद्या जो हमें प्राप्त हुई है वो ब्राह्मी और सुन्दरी के प्रताप से ही हुई है, तो नारी का इससे बड़ा स्थान क्या होगा।
नारी है विषबेल?
नारी को विषबेल कहा गया है, यह सोच ही गलत है। नारी एक प्रतीक है, मनुष्य की वासना विषबेल है। नारी यदि विषबेल है तो उसमें उगने वाला फल अर्थात् पुरूष विषफल होगा। नारी नारायण की जननी है, इसलिए सदा ही जैन धर्म में नारी का स्थान उच्च रहा है। मगर नारी की मुक्ति निषेध है, वो इसलिए क्योंकि नारी निर्ग्रन्थ दिगम्बर नहीं हो पाती और मुक्ति केवल निर्ग्रन्थ दिगम्बर को ही मिलती है, किसी पुरूष या नारी को नहीं। नारी पुरूष की प्रेरणा है, आदर्श है। नर और नारी सृष्टि की श्रेष्ठ रचना है। दोनो से ही सृष्टि का संचालन चल रहा है। नर, न तो नारी का काम कर सकता है और न नारी, नर का काम; इसलिए दोनो में होड़ होनी ही नहीं चाहिए। लेकिन आज नारी नर बनने में लगी है, उसका फल ये हो रहा है कि नर वो बन नहीं पा रही और नारी वो रह नहीं पा रही। नारी ममतामयी, करूणामयी, क्षमामयी, सहिष्णुतापूर्ण है। अगर नर बनने के चक्कर में अपने गुणों को खो देगी फिर उसके बाद जो समाज बनेगा वो बहुत ही बर्बर और क्रूर समाज होगा। ये सब तब बचेगा जब नारी की नहीं बल्कि नारीत्व की सुरक्षा होगी।
नारी के रूप
पुरूष प्रधान समाज होने के कारण नारियों के अंदर कुंठा हो गयी है कि नारी होने की वजह से नारी पीछे हैं लेकिन ये गलत है। नारी का सबसे अच्छा और उत्कृष्ट रूप “माँ” का है। अपने घर की आंतरिक संचालन की व्यवस्था केवल एक नारी ही कर सकती है। नारियों को चाहिए कि उचित कार्यों में आगे बढें। नारी के पांच रूप हैं – कन्या, पत्नी, माँ, भार्या, कुटुम्बनी। नारी की सफलता तब है जब पांचों रूपों में खरी उतरे। जैन धर्म में कन्या को सचित्त मंगल कहा गया है।
Edited by Ruchi Jain, Shikohabad
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