बनें जीवन के विजेता

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बनें जीवन के विजेता

एक जौहरी का बेटा बचपन में भटक गया, माँ-बाप से दूर हो गया। माता-पिता ने उसे खोजने का खूब प्रयास किया  पर बेटे का कोई पता नहीं चला और उसे एक दीन, करुणाशील व्यक्ति ने पाला-पोसा। दीन व्यक्ति के साथ पालित होने के कारण जौहरी पुत्र भी अपने आप को दीन-हीन ही मानने लगा। एक रोज वह अपने दीन भिखारी पिता के साथ भीख मांगने के लिए निकला हुआ था और संयोग से उसी शहर में निकला, जिस शहर में उसका जन्म हुआ था। इस मध्य उसके माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी और वह भीख मांगता-मांगता अपने पिता के मित्र के दरवाजे पर  पहुंच गया। मित्र की जैसे ही उस बच्चे पर दृष्टि पड़ी, वह एकदम स्तब्ध सा रह गया। उसे लगा- हो ना हो यह मेरे मित्र का ही बेटा है। जैसे ही उसने भीख मांगने के लिए अपनी झोली आगे फैलाई, उसने कहा- तू और भिखारी! तू तो सम्राट है, तू क्यों भीख मांग रहा है? आज भी तू करोड़ों का स्वामी हैI उसने अपनी कातरता प्रकट करते हुए कहा- प्रभु! मुझसे ऐसा मजाक मत करो। मैं तो जब से अपने आपको देखा हूं, होश संभाला हूं, इसी रूप अनुभव किया हूं और मैं तो दीन दरिद्री हूं। इसके अलावा मैं अपने आप को कुछ जानता ही नहीं, आप मुझे अभी भी करोड़ों का स्वामी कह रहे हैं, यह मुझे समझ में नहीं आ रहा। उस व्यक्ति ने कहा- मैं तुमसे मजाक नहीं कर रहा हूं, तुम्हें सत्य का बोध करा रहा हूं, तुम्हारे मुद्रा और चेहरे को देखकर मुझे लग रहा है कि तुम भिखारी नहीं, जौहरी के बेटे हो, और उस जौहरी के बेटे हो जो कभी इस नगर का शहंशाह हुआ करता था, आज वो नहीं हैI उसने कहा- अब हो भी तो क्या होगा, मेरे माँ-बाप तो ये ही है, इन्ही ने मुझे पाला-पोसा है, मैं इनके ही साथ रहा हूं, पला हूँ, बढ़ा हूँ, अब क्या होगा? वह कोई हो पर मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। उस व्यक्ति ने उसके गले को देखा, गले में एक ताबीज़ टंगी थी। वो बोले, ये ताबीज़? बोले- पता नहीं, बचपन से मेरे साथ है। उसके साथ, उसको पा लेने वाला भिखारी भी था, उससे पूछा। उसने कहा- बचपन में ये मुझे मिला था और जब से मुझे मिला तब से इसके गले में ये ताबीज़ है। मित्र मुस्कुराया और उसने कहा- बस यही है रहस्य। इस ताबीज़ को उतारो। ताबीज़ खोला, तांबे की परत चढ़ी थी, उस परत को हटाया, अंदर चांदी की परत निकली, उस परत को हटाया सोने की परत निकली। पहले तांबे की परत, फिर चांदी की परत, फिर सोने की परत। उसकी आंखे चमक उठी यह क्या चमत्कार हुआ?  तांबा से चांदी, चांदी से सोना। उसने कहा- यही मत रुक, इसे भी हटा। जैसे ही सोने की परत को हटाया भीतर एक बेशकीमती नगीना था, उसने कहा देख- पता था ना, मैं तुझसे कह रहा था ना तू आज भी करोड़पति है। तेरे पिता ने तेरे गले में यह ताबीज़ जब तू छोटा था, तब बांधा था। तू करोड़पति है। यह भिक्षावृत्ति छोड़, अपने आपको पहचान, अपने आपको जान और इस रत्न का मूल्यांकन करके अपने जीवन का कल्याण कर जैसे उसने रत्न को देखा निहाल हो गया और उसे समझ में आ गया। अरे! मैं सम्राट होकर भी अपने आप को भिखारी क्यों माना? पूरी दशा बदल गई, वह ताबीज़ पहले भी थी, अब भी है। पूरा जीवन भीख मांगते-मांगते बिता दिया लेकिन ताबीज़ का लाभ नहीं उठा पाया और आज एक छोटी सी घटना ने उसे मालामाल कर दिया। सवाल केवल यह है की वो मालामाल कैसे हुआ, किसने उसे मालामाल किया?

संत कहते है- ‘मालामाल तो वो पहले से था पर उसको पता नहीं था जैसे ही पता चला वो निहाल हो गया।’, आज संत कहते है- ‘तुम भी करोड़ों के स्वामी हो, तुम भी अक्षय निधि के अधिपति हो, तुम भी मालामाल हो और कंगाल बने हो क्योंकि तुम्हें उसका पता नहीं है, जिस दिन पता चलेगा तुम निहाल हो जाओगे’। इसलिए अपने आपको निहाल करना चाहते हो तो सबसे पहले अपने आपको जानो। क्या करो? आज कौन सा अक्षर है- ‘ज’। आज चार बातें आप से करूंगा-

जानो

जागो

जीतो

जियो

जानो, अपने आप को जानो, कि तुम हो कौन? बोलिए, आप अपने आप को जानते हो? बोलो, तो भाई, ठीक है बिल्कुल नहीं जानते? तो आपको अज्ञानी बोल दूं? क्या मामला है, यही हमे समझना है। क्या जानते हो, क्या मानते हो अपने आपको? अपने बारे में क्या जानना है तुम्हारा, थोड़ा उसका विश्लेषण करो, तब तुम्हारी स्थिति बदलेगी। तुमने अपने आपको क्या मान रखा है, अपने विषय में क्या जानते हो? मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूँ, मैं बड़ा हूं, मैं छोटा हूं, मैं अमीर हूं, मैं गरीब हूं, मैं राजा हूं, मैं रंक हूं, यह मानते हो अपने आप को? मैं अधिकारी हूं, मैं सेवक हूं, मैं श्रीमंत हूं, मैं दरिद्र हूं, क्या मानते हो? मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं, मैं बड़ा हूं, मैं छोटा हूं, क्या मानते हो अपने आप को? बोलो, इसके अतिरिक्त अपने विषय में मैं आपसे पूछूं- भाई साहब! आप का परिचय? तो क्या जवाब होगा? आपका परिचय क्या है, कैसी विडंबना है? आप लोग जानते नहीं हो, ऐसी बात नहीं, सब जानते हो। नहीं जानते होते ना तो वही परिचय देते जो मैंने अभी दिया। आप सब जानते हो कि मैं कौन हूं, मेरा क्या है, मैं क्या कर रहा हूं, मुझे क्या करना चाहिए। सब तुम्हें पता है, जानते हो कि नहीं बोलो? सबको पता है कौन हो? आत्मा हूँ। एक परमाणु भी मेरा नहीं है, पता है कि नहीं? मैं क्या कर रहा हूं? पाप- पंथ में लगा हुआ हूं। मुझे क्या करना चाहिए? अपने जीवन का उद्धार करना चाहिए। सब पता है कि नहीं, जानते हो कि नहीं, बोलो, ये चारो बाते, पता है ना? अब मैं क्या प्रवचन सुनाऊ तुम लोगो को जब तुमको सब पता है।

तुम्हारी दशा दुर्योधनी बनी हुई है, दुर्योधनी प्रवृत्ति क्या?

मैं धर्म को जानता हूँ, उसमे प्रवृत नहीं होता और अधर्म को जानता हूँ उससे निवृत नहीं होता। यह तुम्हारी प्रवृत्ति है, जानने के बाद भी उसे अपनाने का प्रयास नहीं करते, जान कर के भी अनजान बने हुए हो आप सब। अज्ञानी का उद्धार बड़े सरलता से हो सकता है पर जानबूझकर के जो अज्ञानी बना रहे, उसका उद्धार बहुत दुर्लभ है, बहुत मुश्किल है, बहुत कठिन है। तुम देखो, तुम किस श्रेणी के हो, बिल्कुल न जानने वाले या सब कुछ जानने के बाद भी कुछ ना मानने वाले। क्या हुआ, जानना तो है आपको पर जानने के साथ-साथ मानना नहीं है।  क्यों नहीं है? जानते हुए भी सब कुछ क्यों नहीं कर सकते? कई बार सवाल आता है, हम इतना सब कुछ जानते हैं पर फिर कर क्यों नहीं पाते। इसलिए नहीं कर पाते की हम अभी सोए हुए हैं, जागना मात्र पर्याप्त नहीं है। जानने के साथ जागना होगा, आत्मा को जगाओ, अपनी चेतना को जगाओ, होश जगना चाहिए। अभी तुम लोग गहन सुषुप्ति में सो रहे हो, घोर बेहोशी के शिकार हो, जागृति कहां है? सब सो रहे हो, नींद में सो रहे हो, सत्यानाश हो रहा है जीवन का। किसी के घर में कोई चोर आया, चोर चोरी कर रहा है, सारा माल समेट रहा है और उसके बाद भी सामने वाला अपने बिस्तर पर पड़ा रहे तो उसको हम क्या कहेंगे? बोलो, चोर चोरी कर रहा है पूरा माल समेट कर ले जा रहा है, बेशकीमती चीजें उठाकर ले जा रहा है और सामने वाला देख भी रहा है, उसके बाद भी बिस्तर से उठ नहीं रहा है, उसको क्या कहेंगे? आलसी कहोगे की मुर्ख? वह मूर्ख कहां बैठा है, थोड़ा खोजो तो उसको। कहाँ है वह मुर्ख? देखो, कहीं तुम्हारे भीतर तो वह मूर्ख नहीं बैठा है? हर पल तुम्हारे गुणों की क्षति हो रही है, तुम्हारी सुख-शांति के वैभव को हरा जा रहा है, तुम्हारे विकार तुम पर हावी हो रहे हैं और तुम बेमान सब कुछ जानते हुए भी तटस्थ बने हुए हो, उसे ढूंढने का प्रयत्न नहीं कर रहे हो, तो यह तुम्हारे मूर्खता का उदाहरण है या नहीं।

एक के घर चोर आया, पत्नी जाग गई आहट होते ही, अपने पति को जगाया, बोली, देखो चोर आ गए घर में। हाँ, उठता हूं। बोली, उठ जाओ, देखो,अपने नजदीक आ गए, अपने घर में प्रवेश कर गए। बोला, हो जाने दो उठता हूं। देखो, वह अपनी अलमारी खोल रहे हैं, उठ जाओ। बोला, उठता हूँ। पूरा माल समेट कर के पोटली में बांध रहे हैं, अभी भी कुछ नहीं हुआ, उठ जाओ, थोड़ा चिल्ला दो, अड़ोस-पड़ौस के लोग आ जाएंगे, बच जाएंगे। बोला, उठता हूँ और फिर कहा देखो वह पोटली लेकर जा रहे हैं, अभी भी चिल्ला दो तो काम हो जाएगा, उठता हूँ तब तक वह निकल कर के चले गए। जब चले गए तो उठा, पूछा, क्या बोल रही थी? बोली, अब आप सो जाओ, अब बचा क्या? तुम सबको पता है कि मेरा कल्याण किस में है, पता है कि नहीं, बोलो? तुम्हें पता है, पाप मेरे पतन का कारण है? तुम्हें पता है कि मेरे अंदर के दोष और दुर्बलता है क्या है, पता है कि नहीं? मेरे दोष, मेरी दुर्बलता, मेरे दुर्गुण ही मेरे दुख के कारण है, तुम्हें पता है कि नहीं? सब जानते हो मेरा जीवन क्षण-क्षण क्षीण हो रहा है, कभी भी नष्ट हो जाएगा, पता है, कि नहीं?

आप अपने बारे में कितना जानते है? जितनी बातें मैंने बोली, एक-एक को फिर से रिपीट करता हूं। तुम्हे पता है कि पाप से पतन होता है, कि नहीं? तुम्हें पता है, मेरे दुख का कारण मेरे दोस्त, दुश्मन और दुर्बलता है, पता है कि नहीं? तुम्हें पता है, मेरा जीवन क्षण-क्षण क्षीण हो रहा है, कभी भी मौत आ सकती है, पता है कि नहीं? तुम्हें पता है, जब तक मैं कल्याण के रास्ते पर नहीं लगूंगा, मेरा उद्धार नहीं होगा, पता है कि नहीं? सब पता है, लेकिन क्या है, पता है पर अभी वक्त है, फिर देखेंगे। क्या हाल है, फिर देखेंगे? एक युवक मेरे पास आया, अक्सर आता था, विवाह हो गया थोड़ा आना-जाना कम हो गया, ऐसा होता ही है। एक दिन वो आया, थोड़ा जल्दी में था, आया, नमोस्तु किया और चर्चा में कहा- महाराज! आशीर्वाद दीजिए, विवाह हो गया, जिम्मेदारी बढ़ गई, नव जीवन की शुरुआत कर रहे हैं, आप आशीर्वाद दीजिए। मैंने आशीर्वाद दिया। बातचीत के दौरान मैंने ऐसे ही कहा- भैया, अब तुम्हारा विवाह हो गया, गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर गए, अपने जीवन की कुछ सीमाएं सुनिश्चित कर दो और कुछ धार्मिक क्रियाएं करना शुरू कर दो, पूजा-पाठ करना शुरू कर दो, बोला, उसके लिए तो बहुत समय है बुढ़ापे में देखूंगा। मैंने कहा- क्या पता तू बुढ़ापा देख भी पाएगा कि नहीं? गारंटी है क्या? बुढ़ापे में देखूंगा जो बोलते हो, बुढ़ापा देख पाओगे या नहीं यह सुनिश्चित है?

ठीक बोल रहे हो महाराज आप, लेकिन अभी तो बहुत सारी रिस्पॉन्सिबिलिटी है। अभी उम्र क्या है? बातचीत हुई और थोड़ा जल्दी में था, बोला-अब जाते हैं, थोड़ा काम है। मैंने पुछा, कहाँ जा रहे हो? बोला, L।C ऑफिस जा रहा हूँ। मैं बोला-क्यों? बोला, महाराज! अब रेस्पॉन्सिबिलिटीज़ बढ़ गई हैं, पत्नी आ गई तो कुछ घटना-वटना ना घट जाए  तो सोच रहा हूं कोई अच्छी सी पॉलिसी ले लूँ, ताकि हम सिक्योर्ड हो जाए। मैंने कहा- भैया!, हद हो गई, अभी थोड़ी देर पहले तो जब मैंने तेरे को धर्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए कहा तो तूने कह दिया कि महाराज अभी तो बहुत लंबी जिंदगी है, फिर देख लेंगे बुढ़ापे में और तुरंत तेरा स्टेटमेंट चेंज हो गया। तू कहता हैं, अब रिस्पॉन्सिबिलिटी बढ़ गई। पता नहीं, जीवन में कब क्या हो जाए इसलिए कोई पॉलिसी ले ले, कितना बड़ा अंतर है। अंतर है कि नहीं? पर मैं आप सब से कहता हूं, तुम लोगों में भी यहां जितने बैठे सब ने अपनी-अपनी कोई ना कोई इंश्योरेंस की कोई ना कोई पॉलिसी ले रखी होगी, पर बताओ कोई का जीवन ।nsured है। दुनिया की कोई भी एजेंसी, दुनिया की कोई भी कंपनी तुम्हारी लाइफ को ।nsured नहीं कर सकती। है, ऐसी व्यवस्था? बोलो, जीवन को ।nsured करने की, मौत से बचाने की, है कहीं व्यवस्था? तो ये सब इंश्योरेंस कंपनी वाले लोग है ना, उम्मीद बेचने वाले लोग है। ठीक है, वह जीवन निर्वाह के लिए एक साधन के रूप में तुम्हे देते है, तुम उसको इंश्योरेंस मानते हो। मानो, मुझे उससे आपत्ति नहीं, वह थोड़ी बहुत सुविधा तुम्हें दे सकती है लेकिन तुम्हारे जीवन की सुरक्षा नहीं कर सकते।

मैं आप सब से कहता हूं, अगर इंश्योरेंस ही कराना है तो जीवन का सच्चा इंश्योरेंस कराओ। वो इंश्योरेंस बाहर नहीं, बीमा कराना है तो आत्मा का बीमा कराओ और जिनालय आत्मा का बीमा भवन है और सद्गुरु है उसके एजेंट। अच्छा इंश्योरेंस करा लो, हम लोग ढेर सारी पॉलिसी ले कर के बैठे हैं, एक से एक पॉलिसीज है, किसी ना किसी पॉलिसी में अपना इंश्योरेंस करा लेना और एक बात बताऊं हम लोग अपना कमीशन भी तुम्हारे नाम। हमें कमीशन से भी मतलब नहीं, लेकिन अपना इंश्योरेंस करवाओ, अपने जीवन के प्रति जागरुक हो। जब तक तुम्हारे अंदर आत्म-जागृति की भावना नहीं आएगी तब तक तुम अपने जीवन में रूपांतरण घटित नहीं कर सकते।

आत्मा को जगाइए फिर तुम कभी दीन नहीं होओगे, फिर तुम्हारे मन में कभी हताशा नहीं होगी, फिर तुम्हारा चित्त कभी दुखी और द्रवीभूत नहीं होगा, तुम हर पल रिफ्रेश रहोगे, आनंद से भरे रहोगे, प्रसन्नता की लहर तुम्हारे जीवन में होगी, सहजता, सरलता तुम्हारे जीवन की स्वाभाविक वृति बन जाएगी। अपनाओ, जानो, अपने आप को जानो और जागो, अपनी क्षमताओं को पहचानो और उसे उद्घाटित करने का संकल्प लो। यदि यह तुम्हारे भीतर घट गया तो जीवन की दशा और दिशा सब परिवर्तित हो जाएगी, दिशा-दशा सब बदल जाएगी। उसके लिए हमें ठोस उपक्रम करने की आवश्यकता और अपेक्षा है।

तो मैं आपसे कहता हूं, जानो और जागो। जानते तो हो, जागते नहीं हो, तंद्रा तोड़ो। रात में आप सोते हो, चौकीदार आप को जगाता है, जागते रहो, जागते रहो, जागते रहो और आप लोग क्या करते हो, उसकी आवाज सुनते हो, उसके बाद भी सो जाते हो। क्या सोचकर सोते हो, चौकीदार का काम है कहना, जागते रहो, जागते रहो, सो सो जाते हो, तो जैसे उस चौकीदार की आवाज को सुनकर नजरअंदाज करते हो। इस चौकीदार की भी आवाज सुनते हो और कहते हो उनका काम है कहना जागते रहो, जागते रहो, जागते रहो और तुम सोते रहो। इसमें भी ताली बजाते हो, क्या सोच है तुम्हारी? है ना सोचनीय, बोलो, कब निद्रा टूटेगी? ध्यान रखना, चौकीदार के संकेत की उपेक्षा करके तो फिर भी तुम बच सकते हो, सिक्योर्ड रह सकते हो और कदाचित चोर चोरी करके जो ले जाएगा, उसे तुम अपनी कुशलता से दोबारा प्राप्त भी कर सकते हो या कमा भी सकते हो। वो धन-वैभव है खो जाये तो बड़ा नुकसान नहीं पर गुण-वैभव खो जाये तो उसे पाना आसान नहीं है, इसे कभी मत भूलना। अपने गुण-वैभव की सुरक्षा करो। बोझिल बने हुए जीवन को आनंद से जीना चाहते हो, आनंद से बिताना चाहते हो तो अपनी आत्मा को जगाओ। वस्तुतः तुम्हारे जीवन में जो भी दुख है, वह तुम्हारी सुषुप्ति के कारण है। जाग जाओगे, जीवन की वास्तविकता को जान लोगे। उस दिन फिर तुम्हारे अंदर का सारा अहंकार, तुम्हारे अंदर की आसक्ति, तुम्हारे अंदर का उद्वेग और तुम्हारे भीतर की आकुलता अपने आप नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी, छिन्न- भिन्न हो जाएगी, फिर तुम्हें कहीं कोई तकलीफ नहीं होगी उसके लिए तुम्हें अपने आपको भीतर से तैयार करना होगा। तो मैंने आपसे कहा- जानो और फिर जागो। जाग रहे हो कि सो रहे हो?

एक जगह एक पंडित जी प्रवचन कर रहे थे और समाज के श्रीमंत अग्रिम पंक्ति में बैठे हुए प्रवचन सुन रहे थे, तो अक्सर ऐसा होता है कि प्रवचन सुनते-सुनते लोग सो जाते हैं। अब श्रीमंत आगे की पंक्ति में बैठे हैं, और सो रहे हैं, अब पंडित जी क्या करें, लिहाज तो रखना ही था। पंडित जी ने कहा, क्यों सेठ जी, सुन रहे हो? एकदम से चौकन्ने हुए और उनने कहा- हाँ। फिर थोड़ी देर बाद वही काम चालू, फिर झपकी आने लगी तो फिर पंडितजी ने पूछा, क्यों सेठ जी, सुन रहे हो? फिर अपने आप को संभाला कहा, हाँ। 3-4 मिनट बैठे तो फिर वही कार्यक्रम तो पंडित जी ने पूछा। क्यों, सेठ जी सो रहे हो? अपने आप को संभाला और कहा- हाँ। दो बार सुन रहा हूं, सुन रहे हो तो भी हाँ और सो रहे हो तो भी हाँ। अब बताओ, ऐसा व्यक्ति जाग रहा है या सो रहा है। तुमसे पूछता हूँ, पता है, जानते हो, बोलते हो- हाँ। पूछता हूँ, नहीं जानते, बोलते हो- हाँ। इसमें क्या होगा, कुछ भी नहीं होगा, जीवन में बदलाव गठित करना चाहते हो तो तुम्हे स्वयं के प्रति सजग होना पड़ेगा, अपनी चेतना को जगाना पड़ेगा और एक बार जाग गए तो तुम्हारे अंदर की ममता अपने आप दूर हो जाएगी, तुम्हारे भीतर का मोह अपने आप शमित हो जाएगा और जीवन का एक अलग ही रस प्रकट होगा।

बंधुओ! जानो, जागो और जागने के बाद क्या करना है, जीतो, किस को जीतना है? अपनी दुर्बलताओं, अपने दोषो को और अपने दुर्गुणों को जीतना है। ऐसी कोई बुराई नहीं, जिसे तुम दूर नहीं कर सकते, जरूरत है, संकल्पित होने की। मैं आपसे कह रहा था, आप चाहते हो कि मुझे अपना कल्याण करना है तो बंधुओ केवल चाहने से काम नहीं होगा। जो आप चाहते हो, उसके लिए संकल्पित होइए कि अब मुझे अपना कल्याण करना ही है, कल्याण करना है और करना ही है। हमें अपना कल्याण करना ही है तो कब शुरुआत करोगे? आप लोग जितने हैं ना, सब जानते हो और यह भी कहते हो कि हम जो कर रहे हैं, गलत कर रहे हैं। हमें अपने जीवन को सुधारना है, जीवन को बदलना है, कल्याण के रास्ते पर चलना है। ठीक है, थोड़े दिन बाद कर लेंगे और तुम्हारी जो दुर्बलताएं है, तुम पर हावी होने लगती है और तुम बातों को नजरअंदाज करना शुरू कर देते हो। नतीजा जहां के तहां आ कर रुक जाते हो, अब तक का अनुभव यही है ना, अगर आपने यह तय किया है कि मुझे अपने जीवन का कल्याण करना ही है तो आज से ही शुरुआत करो, अभी से शुरुआत करो, एक-एक कदम चलना शुरू करो, एक- एक कदम चलते चलते हम हजारों मील की यात्रा कर सकते हैं और हजारों मील की चर्चा करने वाले एक कदम भी नहीं चल पाते। आज से आप तय कीजिए मैं अब अपने भीतर जाग गया हूँ और एक-एक कदम चलना मुझे शुरू करना है। आप अपने जीवन की सबसे बड़ी दुर्बलता को सामने रखो और तय करो कि आज से मुझे उसे दूर करना है, उस दुर्बलता को जीतना है, अपने आत्म-ज्ञान के बल पर, अपने तत्व-ज्ञान के बल पर, अपने विवेक-बुद्धि के बल पर। देखिए, आपको बताता हूं, विवेक यानी ज्ञान, जानना, हमारे लिए एक बहुत बड़ा संबल है और उसी से हम अपनी दुर्बलताओं को जीत पाते है। जैसे, आपको एक उदाहरण देता हूं,

आप दुकान पर बैठे हैं, ग्राहक आपके पास है, बहुत सारे आइटम दिखाने के बाद भी उसको एक भी आइटम पसंद नहीं आ रहा है और पसंद ना आने के साथ- साथ उल्टी टिप्पणी भी कर रहा है कि तुम्हारे दुकान में कुछ है ही नहीं। पूरा एक घंटा खराब किया, दिमाग चाटा, इमानदारी से बोलो ग्राहक पर गुस्सा करते हो क्या? क्यों नहीं करते? उस घड़ी गुस्सा क्यों नहीं आया? समता मूर्ति हो, बोलो, अगर अंदर से गुस्से का उबार भी आता है तो चेहरे पर प्रसन्नता दिखती है और दांत निपोरते हुए कहते हो, कोई बात नहीं, बहन जी, 2 दिन बाद फिर माल आएगा। बहन जी मैं इसलिए बोल रहा हूं क्योंकि यह काम ज्यादा बहन जी करती है। बोलो, आप ऐसा करते हो कि नहीं? कहाँ से ट्रेनिंग ली है? महाराज! आपने प्रवचन में कहा था कि कोई कितना भी प्रतिकूल व्यवहार करें, गुस्सा नहीं करना, तो मैं उसको प्रेक्टिकल कर रहा हूं, ऐसी बात है क्या? मैं आपसे कहता हूँ, यदि ऐसा प्रेक्टिकल तुम करते हो और महाराज के प्रवचनों से प्रेरित होकर के करते हो तो जितना तुम दुकान में किसी और की घरवाली की बात झेलते हो, घर आकर अपनी घरवाली की बात भी झेलना शुरु कर दो, जीवन धन्य हो जायेगा। वहां तुम अपने आप पर नियंत्रण रखते हो, ये शक्ति किसने दी? तुम्हारे विवेक ने। तुम यह जानते हो, यह दुकान है, यह दुकानदारी है, वह हमारा ग्राहक है, हमें कस्टमर से कैसे डील करना चाहिए। यदि उसके सामने हम politely पेश नहीं होंगे, तो हमारा पूरा व्यापार चौपट हो जाएगा। हमें तो इसी तरीके से रहना है, यह विवेक, यह जागरूकता तुम्हें उस घड़ी संयत बनाता है, कि नहीं? तुम्हारा यह विवेक, तुम्हें उस घड़ी संयत बनाया, जागरूकता से संयम आता है। आ गया अनुभव? आप सड़क पर चल रहे है, किसी के रूप-राशि को देख कर मन चल रहा है, लेकिन मन चल गया, आप क्या ऐसा व्यवहार करने के लिए सोचते हो, नहीं। मुझे ऐसा व्यव्हार नहीं करना, क्योंकि ऐसा व्यवहार यदि करूंगा तो उसका दुष्परिणाम आएगा, यह परिणाम ठीक नहीं है। मुझे सावधान रहना चाहिए और उसे किसी भी अर्थ में सुधारना चाहिए, संभालना चाहिए और आप सावधान हो जाते हो। मन में विकार आया, आपने शांत कर दिया क्योंकि आपको विवेक है।

जहां विवेक है, वहां जागरूकता है  और विवेक के साथ जब जागरूकता होती है तो मनुष्य का जीवन अपने आप संभल जाता है, वह अपने जीवन में स्थिरता ले आता है और जहां जागरूकता का अभाव होता है, उसके जीवन में चंचलता आ जाती है। तो बंधुओ! मैं आप से कहता हूं, जैसे-जैसे जागरूकता तुम्हारे भीतर होगी, तुम अपनी दुर्बलताओं को जीतने में समर्थ बनते जाओगे। अपनी दुर्बलताओं को जीतना है, जागरूकता बढ़ाओ। सतत जागरूक बनते रहो और जागने के बाद जीतना शुरू करो। एक संकल्प लो कि,  मेरे अंदर यह दुर्बलता है, मुझे उसे जीतना है। यदि मेरे मन में बात-बात पर गुस्सा आता है, मुझे उसे नियंत्रित करना है। मेरे अंदर ईर्ष्या और विद्वेष की भावना प्रबल होती है, मुझे उसे नियंत्रित करना है। मेरे मन में आलस ज्यादा आता है, मुझे उसे दूर करना है। मेरे अंदर विलासिता की प्रवृत्ति बढ़ रही है, मुझे उसे नियंत्रित करना है। मेरा झुकाव व्यसनों की ओर हो रहा है, मुझे उसे रोकना है। मेरे मन में पाखंड पलता है, मुझे उसे नियंत्रित करना है। एक-एक करके जीतना शुरू कीजिए और जब आप एक-एक करके जीतना शुरु करोगे तो जितना आप अपनी दुर्बलताओं को जीतोगे, उतने समर्थ होते जाओगे। जितनी दुर्बलताओं से मुक्त होओगे, आपके जीवन में उतना ही अधिक रस प्रकट होगा तो जीवन का रस प्रकट करना चाहते हो, जीवन का रस लेना चाहते हो, अपने आप को जानो, अपनी चेतना को जगाओ और एक-एक बुराइयों को जीतने का अभ्यास बनाओ। ऐसी कोई बुराई नहीं जिसे आप नहीं छोड़ सकते।

एक व्यक्ति, चेन स्मोकर, उसके घर-परिवार के सारे लोग उससे भी दुखी थे कि यह ठीक प्रवृत्ति नहीं है, इसे दूर करना चाहिए। एक-दो बार मैंने भी समझाया, उस आदमी ने उसे स्वीकार नहीं किया। मेरे से नहीं हो सकता, मैं स्मोकिंग नहीं छोड़ सकता लेकिन तीन-चार महीने बाद वह व्यक्ति आया। परिवार के लोग साथ में थे, सबके चेहरे पर अपार प्रसन्नता थी और कहा, महाराज! इन्होने स्मोकिंग छोड़ दी। एक बार को मुझे विश्वास नहीं हुआ। बोले, हाँ महाराज! छोड़ दी। मैंने उससे पूछा, क्यों भाई, कैसे छूट गई? बोला, महाराज क्या करूं, एक घटना ने मुझे जगा दिया, मेरे अंदर घोर आत्मग्लानि हुई, मैंने स्मोकिंग छोड़ दी। बोला, महाराज! मैंने सिगरेट पी कर उसकी आधी फेंकी। मेरे छोटे भाई की ढाई साल की बेटी थी, मैंने जैसे आधी फेंकी, वो उस आधी को उठाई और अपने मुँह में लगा ली। मेरे मन में उस दृश्य को देखकर घोर ग्लानि हुई और मैंने सोचा, मैं क्या कर रहा हूं? खुद के जीवन को तो बर्बाद कर रहा हूं, इस नन्ही सी बच्ची के जीवन को भी बर्बाद कर रहा हूं। महाराज! मैंने उसी क्षण संकल्प ले लिया,  अब मैं सिगरेट का नाम लेना भी पसंद नहीं करता, छूट गया। यह क्या है? यह जागृति का फल है, जिस दिन तुम्हारी अंतरात्मा जाग उठेगी, तुम्हारे लिए जो असंभव है वह भी संभव बन जाएगा और जो कीड़े-मकोड़े जैसी जिंदगी जी रहे हो ना वह ठाठ की जिंदगी बन जाएगी। सच्चाई यह है कि जिसे तुम ठाठ-बाठ की जिंदगी कहते हो वह ऊपर से ठाट-बाट और भीतर से फुटपाथ है। एकदम ऊपर का ठाठ है, भीतर तो क्या है पता ही नहीं। अपने आप को जगाइए, अपने गुण-वैभव को समृद्ध कीजिए, अपने दोषों और दुर्बलताओं को जीतने का उपक्रम कीजिए।

जब आप ऐसा करेंगे तभी अपने जीवन में कोई सार्थक परिणाम गठित कर पाएंगे, अन्यथा सब कुछ व्यर्थ और विनष्ट हो जाएगा। तो पहले यह जानिए, जागिये, जीतिए और फिर जिए। जो जीत लेता है अपने आप को उसके जीने का रस कुछ और होता है। जीतने वाला विजेता होता है, वह सम्राट होता है और जो हारा हुआ होता है, वह गुलाम होता है। गुलामी का जीवन जीना पड़ता है, दासता का जीवन जीना पड़ता है। दासता और गुलामी में बंधन है, स्वतंत्रता तो सम्राटपने में है, तुम क्यों गुलाम बने हो विषयों के? तुम क्यों गुलाम बने हो अपनी आदतों के? तुम क्यों दास बने हो अपनी दुर्बलताओं के? उन्हें दूर करने का संकल्प लो, तुम्हारे पास ये क्षमता है। अपनी चेतना को जगाओ, जो दुर्वृत्तियाँ तुम पर आज तक हावी है, उन पर तुम खुद हावी होना शुरू कर लो, एक-एक करके सारी दुर्बलताएं दूर होगी और तुम अपने जीवन का सच्चा रस लेने में समर्थ हो जाओगे। उस के लिए आपको अपनी चेतना जगानी होगी, तब जीवन में बहुत परिवर्तन होगा। ऐसा परिवर्तन सबके हृदय में घटित हो और सब अपने जीवन को परिवर्तित कर सके, इसलिए मैंने कहा- जानो, जागो, जीतो फिर जियो। वास्तविक जीना वो ही है, जिसमें हर पल जिंदादिली हो, हर पल रस हो और आनंद हो, वो एक अलग अनुभूति है। अभी तक हमने गुलामी का जीवन जीया, दासता का जीवन जीया, परतंत्रता का जीवन जीया। अब स्वतंत्रता का जीवन जीना है, आनंद का जीवन जीना है, जीवन का सच्चा रस लेना है, यह प्रयत्न आपको करना है, तभी आप उसका लाभ ले पाएंगे।

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