नये देश की परिकल्पना

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नये देश की परिकल्पना

आज का दिन आप सबके लिए आजादी का दिन है। आज सुबह से ही सबके मन में एक अलग प्रकार का जोश और जुनून है। इस बात का जोश, इस बात का जुनून कि हम आजाद देश में जी रहे हैं, आज हमने आजादी पाई। अभी मुझसे कहा गया कि ‘क ख ग’ पर प्रवचन करने वाले पहले संत हैं। मुझे नहीं मालूम ओर किसी ने कभी कहा या नहीं कहा, पर मैंने तो पहली बार किया है, इसमें कोई संशय की बात नहीं। आज ‘द’ की बात है। तो मैं देश से बात की शुरुआत करता हूँ और आज आपसे चार बातें करूंगा-

  1. देश
  2. दशा
  3. दिशा
  4. दर्शन।

देश, दशा, दिशा और दर्शन। हम जिस देश में रहते हैं, ये भारत देश, जब हम आज के भारत को देखते हैं और अपने अतीत के भारत में झांककर देखते हैं, तो जमीन-आसमान का अंतर दिखाई पड़ता है। अभी मैंने कहा- आप सब लोग आजादी का जश्न मना रहे हैं, पर आप इस बात का अनुभव करते हैं कि क्या सही में आप आजाद हैं? कितने आजाद हैं? आजादी की बात करूं, तो आज के समय में आजादी का मतलब यही है- कोई व्यक्ति चाहे जो कर्म करने के लिए आजाद है, खुलेआम भ्रष्टाचार करने के लिए आजाद है, दुनियाभर के कुकर्म करने के लिए आजाद है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर चाहे जैसा जहर फैलाने के लिए आजाद है। क्या आजादी का यही अर्थ है और आजादी की यही वास्तविकता है? हमें सोचने की बात है। सच्चाई ये है कि आज की तारीख में अंग्रेजों ने हमें व्यवस्थागत आजादी दी, अंतर कुल इतना आया कि हमारे हाथ में शासन की बागडोर आ गई। सत्ता का हस्तांतरण हुआ, पर संत कहते हैं- केवल व्यवस्थागत आजादी आजादी नहीं है; असली आजादी व्यवस्था की नहीं, अवस्था की होनी चाहिए। व्यवस्थागत आज़ादी भले मिल गई, पर अवस्था तो आज भी गुलामों जैसी है। जब मैं अपने देश के अतीत की तरफ देखता हूँ, एक युग था जो भारत का स्वर्ण युग माना जाता था। जिस युग में भारत में एक भी दरिद्र नहीं था, एक भी दीन नहीं था, एक भी चोर नहीं था, एक भी भिखारी नहीं था और कोई अशिक्षित नहीं था। वो भारत था, जिस देश की मिट्टी सोना उगलती थी और जिस देश को, भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। वो एक देश है, जो सारे विश्व के गुरु होने का श्रेय पाता था, वो भारत देश था और इस देश का दुर्भाग्य रहा कि इस देश पर समय-समय पर अनेक विदेशी आक्रांताओं ने हमले किए और हमारी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सारी की सारी संपन्नता पर अपना आघात किया। हमारी संस्कृति ने इन सब चीजों को झेला, बखूबी झेला लेकिन फिर भी हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक विशेषता ये रही कि इतना सब कुछ होने के बाद भी हम अपने अस्तित्व और अस्मिता को बनाए रखे।                         

एक लंबे अंतराल के बाद सब के आक्रमणों के बाद मुगलों का उस तक हमें उतना नुकसान नहीं हुआ। देश को नुकसान हुआ अंग्रेजों से, ब्रिटिश हुकूमत से, जिन्होंने लंबे समय तक भारत को गुलाम बनाया और ना केवल भारत को गुलाम बनाकर राज किया, हर भारतीय की मानसिकता को गुलाम बना दिया। अंग्रेज चले गए, आज आजादी की 72वीं वर्षगांठ आप सब मना रहे हैं। उन्होंने हमारे हाथ में सत्ता सौंपी, 71 वर्ष पूरे हो गए। 72वें वर्ष में प्रवेश किया है ये देश लेकिन 71 वर्ष बीत जाने के बाद भी जिस भावना से आजादी को प्राप्त किया गया, क्या उसकी पूर्ति हुई? गांधी जी का एक ही मकसद था- स्वराज और सुराज। स्वराज तो मिल गया, क्या आज भी सुराज उपस्थित हो पाया? हमारा लक्ष्य स्वराज से सुराज की ओर था लेकिन मुझे लगता है कि स्वराज पाने के बाद भी आज लोगों में बड़ा भटकाव है। हमने स्वराज तो पाया, पर सुराज हमसे बहुत दूर हो गया है।

आज मैं अभी आपसे बात करूंगा, स्वराज से सुराज की यात्रा की। हमें ये स्वराज मिला, किसके बदौलत मिला? स्वराज किसके बदौलत मिला? अपने आप! एक लंबा संघर्ष लड़ना पड़ा। 1857 से लेकर 1947 तक के 90 वर्ष के लंबे संघर्ष के बाद हमें स्वराज की प्राप्ति हुई। इसमें कितने लोगों का बलिदान हुआ, कितनों ने उत्सर्ग किया, कितने लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, कितनों की कुर्बानी हुई। आपने कभी उसके बारे में सोचा? एक लंबे समय तक लंबी संघर्ष की कहानी रही। उन्होंने किस भाव से अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ा, क्या हम उसकी पूर्ति कर रहे हैं? मुझे तो ऐसा लगता है कि जिन दिनों स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी जाती थी, वह कर्मयुग था, स्वतंत्रता मिल जाने के बाद अब भोगयुग हो गया। उस समय लोग कर्म करते थे, उत्सर्ग करते थे, देश के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करते थे और आज लोगों में इतना स्वार्थीपना आ गया कि अब लोग देश बेचने को तत्पर हो रहे हैं, देश का बंटाधार हो रहा है। देश के प्रति जो भावना होनी चाहिए, जब तक वह जागृत नहीं होगी, तब तक हम देश की दिशा और दशा को परिवर्तित नहीं कर सकते। उस समय और इस समय में अंतर क्या है? अंतर केवल मुझे ये ही समझ में आता है कि उस समय हमारा देश परतंत्र था, पर हमारी मानसिकता स्वतंत्र थी; आज देश स्वतंत्र हो गया, पर मानसिकता आज भी पर-तंत्र बनी हुई है। जब तक हमारी मानसिकता स्वतंत्र नहीं होगी, तब तक हम कोई स्थाई बदलाव घटित नहीं कर सकते, देश का निर्माण नहीं कर सकते। आप अपनी मानसिकता को टटोलिए। अंग्रेज भले चले गए, पर अंग्रेजीयत तो आज भी हर व्यक्ति की मानसिकता में भरी है। ये गुलामी जब तक तुम्हारी दूर नहीं होगी, तब तक तुम अपने देश का गौरव नहीं बढ़ा सकते। अपने मन से पूछो- क्या ये गुलामी नहीं है? हर बात पर उन पर निर्भर होना, यह हमारी गुलामी का द्योतक नहीं है? आज व्यक्ति की भाषा, व्यक्ति का आचार, व्यक्ति का विचार और व्यक्ति का व्यवहार सब कुछ अंग्रेजीमय होता जा रहा है। क्या यह गुलामी नहीं है? जिस मिट्टी में तुमने जन्म लिया, जिस मिट्टी का अन्न खाते हो, जिस मिट्टी का पानी पीते हो और जिस मिट्टी की आबोहवा से तुम स्वस्थ होकर जी रहे हो, उस माटी के प्रति तुम्हारे क्या उत्तरदायित्व है, कभी तुमने सोचा? देश में तुमने जन्म लिया, उस देश की भाषा बोलने में लोगों को संकोच हो, उस देश के अनुरूप आचार, विचार और व्यवहार अपनाने में यदि कोई व्यक्ति शर्मिंदगी महसूस करे और विदेशी भाषा, विदेशी पहनावा, विदेशी विचार और विदेशी व्यवहार से अपने आपको गौरवान्वित महसूस करे, तो उसे हम स्वतंत्र कहेंगे या गुलाम? तय आपको करना है। बोलिए, क्या महसूस करेंगे आप? आज हर व्यक्ति, पढ़े-लिखे व्यक्तियों की दशा देखिए। अच्छी हिंदी आने के बाद भी, सामने वाला हिंदी में समझता है उसके बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग क्यों करते हैं? अपनी भाषा आपको आती है, उसके बाद आप विदेशी भाषा का प्रयोग क्यों करते हैं? क्या ये आपको सोचने के लायक नहीं है? सोचना चाहिए। ये परिवर्तन हुआ और इसका बीज अंग्रेजों ने बहुत सुनियोजित तरीके से बहुत पहले वो दिया।


सबसे बड़ा प्रहार अंग्रेजों ने जो किया, वो हमारी शिक्षा की व्यवस्था पर किया। लार्ड मैकाले ने 1835 में ब्रिटिश संसद में अपना जो वक्तव्य दिया, 2 फरवरी 1835 को जो वक्तव्य दिया, आज वही सब साकार होता दिख रहा है। वो सारे विश्व में चर्चित वक्तव्य  है, जिसमें उसने कहा कि मैंने भारत की चतुर्थीक यात्रा की; मुझे वहाँ एक भी याचक, एक भी भिखारी, एक भी दरिद्र और एक भी चोर नहीं दिखा। ये भारत वो भारत है, जहाँ लोगों को अपने घरों में ताले लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। उसमें उन्होंने एक बात कही कि भारत के लोगों की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी सांस्कृतिक निष्ठा। जब तक उसे हम जो उनका मेरुदंड है, बैकबोन है, उसे हम नहीं तोड़ देते, तब तक भारत पर स्थाई राज करना संभव नहीं है। उसे हमें तोडना होगा और उसे तोड़ने के लिए हमें सबसे पहले उनकी शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन लाना है और हमें ये बात साबित करना है कि जो कुछ भी इंग्लिश है, वही सही है; ये उनको समझ में आ जाए। 1835 में उन्होंने ये प्रस्ताव पारित किया और बीस साल बाद 1855 में अंग्रेजी शासकों ने एक कानून पास किया, जिसमें भारतीय गुरुकुल प्रणाली को अवैध घोषित कर दिया गया। उस समय भारत में 7 लाख गुरुकुल थे। हर गांव-गांव में गुरुकुल था। एक भी व्यक्ति अशिक्षित नहीं था। साक्षरता का जो औसत है, दक्षिण भारत में शत प्रतिशत और उत्तर भारत में 97 प्रतिशत लोग साक्षर थे। सभी की शिक्षा गुरुकुलों में निशुल्क दी जाती थी और उसकी व्यवस्था वहाँ के श्रीमंतों और राजाओं के अनुदान से होती थी। राजा-महाराजा हो या बड़े-बड़े नगर सेठ, उनके बच्चे भी उसी गुरुकुल में पढ़ते थे, जिसमें एक साधारण दरिद्र सुदामा जैसे व्यक्ति पढ़ते थे। और वहाँ उन्हें सीख दी जाती थी, केवल रटाया नहीं जाता था, जो हमारी शिक्षा की मूल अवधारणा है। हमारे यहाँ कहा गया है: ‘सा विद्या या विमुक्तये’- वही विद्या है, जो हमें दोषों से मुक्त कराए, दुर्बलताओं से दूर करे, जिसे प्राप्त करने के बाद हमारे दुर्गुण समाप्त हो और जो हमारे दुखों को विनष्ट करे, वो विद्या है। लेकिन अंग्रेजों ने इस कानून को बनाकर एक ही दिन में हमारे सारे गुरुकुल को अवैध घोषित कर दिया। उस समय जो गुरुकुल था, उसमें लोगों को भाषा का, आचारशास्त्र का, व्यवहार का, नागरिकशास्त्र का, गणित का और अलग-अलग 72 कलाओं की सीख दी जाती थी; जिसमें कोई डिग्री नहीं थी लेकिन शिक्षा थी, सीख थी; जहाँ से पढ़कर निकलने वाला एक भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं होता था। उसका कौशल इतना विकसित हो जाता था, वो इतना कला गुण संपन्न हो जाता था कि उसे कभी किसी का मोहताज नहीं होना पड़ता था। अंग्रेजों ने उसे ही नष्ट किया और नतीजा क्या निकला? अंग्रेजों ने उसे नष्ट कर दिया, नतीजा क्या निकला? सारी गुरुकुल प्रणाली बंद हो गई और वर्तमान की जो शिक्षा, जो मैकाले की अवधारणा के अनुरूप है, डिग्री बांटने वाली शिक्षा चालू हो गई; जिस शिक्षा में केवल नौकर तैयार किए जाते हैं और आज सब कोई केवल नौकरी के लिए पढ़ाई करते हैं। इसका ही एक कुपरिणाम है कि आज पटवारी जैसे पद के लिए पीएचडी होल्डर आवेदन करते हैं। इससे बड़ी शिक्षा का उपहास और क्या होगा? बिहार में चपरासी की नियुक्ति के लिए पीएचडी धारक लोगों ने निवेदन किया। ये कितनी बड़ी विडंबना है; शिक्षित होने के बाद भी व्यक्ति सक्षम ना बने, तो उस शिक्षा की व्यवस्था पर ही प्रश्न चिह्न लगता है। अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाने के लिए तैयार किया। उन्हें बाबुओं की जरूरत थी, शिक्षा प्रणाली को बदल दिया और आज आप उसी में गौरवान्वित हो रहे हैं।                    

ये विदेशी शिक्षा पद्धति है, जहाँ केवल लर्निंग और अर्निंग की बात होती है और हम भारत के वासी हैं, जहाँ लर्निंग है; अर्निंग के लिए नहीं, लिविंग के लिए। अगर लिविंग सुधर जाए, तो लर्निंग हमारा अपने आप सार्थक हो जाएगा। आज की शिक्षा व्यवस्था का ही दुष्परिणाम है कि ज्यादातर पढ़े-लिखे लोग ही डिप्रेशन के शिकार होते हैं। ये डिप्रेशन जैसी प्रॉब्लम कोई रिक्शा चालक, कोई मजदूर को नहीं मिलेगी। ये सब कथाकथित हाई प्रोफाइल लोगों की बीमारी है। हैं ना? उच्च स्तरीय जीवन जीने वाला। मुझे पता नहीं, ऐसे लोगों की हाई प्रोफाइल है या हाय प्रोफाइल है? कौन सी प्रोफाइल? काश! लोगों के हृदय में हया जगती, तो वो अपने जीवन का तरीका परिवर्तित कर देते, ये दुर्भाग्य है। इसके साथ भाषा का माध्यम भी अंग्रेजी हो गया, तो हमारे सोचने का तरीका बदल गया। भाषा संस्कृति की संवाहिका होती है। शिक्षा के साथ भाषा में हमें ध्यान देना चाहिए। हमारे गुरुदेव इस बात पर बार-बार जोर दे रहे हैं कि भारत को भारत बनाना है, तो भाषा और संस्कृति पर ध्यान दो, शिक्षा पर ध्यान दो। भाषा संस्कृति की संवाहिका है। हमें स्वभाषा का अनुकरण करना चाहिए। दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं और विकसित शक्तियां हैं, वो अपनी भाषा के बल पर ही आगे बढ़ी हैं; चाहे चीन हो, चाहे जर्मनी हो, चाहे फ्रांस हो, चाहे जापान हो। वहाँ उन्होंने अपनी भाषा, बल्कि कोरिया जैसे देश में भी कोरियन चलता है; छोटा-सा मुल्क है लेकिन कितनी बड़ी शक्ति के रूप में उभर गया, जिससे अमेरिका भी घबराता हो। ये शक्ति उसने पाई, क्यों? क्योंकि उन्होंने अपनी भाषा को सुरक्षित किया। जापान हमसे बहुत छोटा-सा देश और हमसे बहुत ज्यादा पहले आजाद नहीं हुआ, लेकिन नागासाकी और हिरोशिमा के हमले को झेलने के बाद भी आज जापान कितना आगे बढ़ गया, विश्व की शक्ति बना। हमें इन्हें सुधारने की जरूरत है। भाषा के प्रति जागरूकता हो, शिक्षा के प्रति जागरूकता हो, तो हम अपने देश को सुराज की तरफ ले जा सकेंगे। स्वराज से सुराज की ओर बढ़ने के लिए भाषा चाहिए, शिक्षा हमारी मूल अवधारणा के अनुरूप हो।

तीसरी बात- हर व्यक्ति के हृदय में राष्ट्रीय चरित्र बनना चाहिए। हर मनुष्य का एक राष्ट्रीय चरित्र होना चाहिए। तुम देश के लिए कुछ करना चाहते हो, तुम्हारे मन में देशप्रेम है, देशभक्ति है; तो वो शब्दों में नहीं, तुम्हारे चरित्र में दिखना चाहिए। राष्ट्रीय चरित्र का मतलब क्या है? ऐसा आचरण जिससे देश को किसी प्रकार का आघात ना पहुंचे, जिससे देश को कोई क्षति ना हो, जिससे देश की छवि ना बिगड़े या जिससे देश को किसी प्रकार का संकट का सामना ना करना पड़े। ये जिम्मेदारी प्रत्येक व्यक्ति-व्यक्ति की है। जिस दिन देशभर के लोग इस बात के लिए संकल्प ले लेंगे कि हमें देश का मान बढ़ाना है, देश की शान बढ़ानी है, हमें ऐसा कोई कर्म नहीं करना है जिससे हमारा देश पिछड़ता हो, देश आगे बढ़ जाएगा। भले ही अच्छे दिन आएंगे का नारा देने वाले आपको सपने दिखाते रहे, पर अच्छे दिन तभी आएंगे जब यहाँ के रहवासी अच्छे बन जाएंगे। अच्छा बनना शुरू करो, अच्छे दिन आ ही जाएंगे। अच्छा बनना शुरू करो, अच्छे दिन अवश्य आएंगे। संकल्प होना चाहिए कि हमें अच्छा बनना है, अच्छे तरीके से जीवन जीना है। अच्छे दिन आए बिना नहीं रहेंगे। हमारा चरित्रबल मजबूत होना चाहिए। आज जो भी देश आगे बढ़ा है, वो तभी बढ़ा है, जब देश के वासियों ने उसे आगे बढ़ाने में अपना सर्वस्व झोंका है।

कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर एक बड़े विचारक हुए। वो एक बार जापान गए। देखिए, राष्ट्रीय चरित्र का एक उदाहरण आपको बता रहा हूँ। जापान में उन्हें कहीं जाना था, उसके लिए टैक्सी बुलाई। टैक्सी का इंतजार करते रहे। टैक्सी आने में कुछ विलंब हुआ, तो रास्ते से गुजर रही टैक्सी से लिफ्ट मांगी और वो टैक्सी रुक गई। टैक्सी पर वो सवार हो गए। टैक्सी पर सवार हुए। इस बीच जिस टैक्सी को उन्होंने कॉल किया था, वो आ गई। जैसे ही वो टैक्सी आई, प्रभाकर साहब का ध्यान उस पर गया। उन्होंने उससे कहा- आपको आने में विलंब हो गया, इसलिए हमने इस टैक्सी को रोक लिया। तत्क्षण जिस टैक्सी को रोका गया था, उस टैक्सी के ड्राइवर ने कहा- नहीं, कृपया आप उसी टैक्सी पर बैठें क्योंकि वो अपना नंबर छोड़कर आप तक आया है, चलाकर आया है; मैं तो इधर से गुजर ही रहा था, उसमें बैठे। लेकिन आगंतुक टैक्सी ड्राइवर ने जो बात कही, वो बहुत ध्यान देने लायक थी। उन्होंने कहा- नहीं, महाशय! ऐसा नहीं होगा। आप हमारे देश के अतिथि हैं। आपके परिवार के कुछ सदस्य उस टैक्सी पर बैठ गए हैं। अतिथि का अपमान करना हमारे देश की सांस्कृतिक परंपरा के विरुद्ध है। आप बैठिए, उसी में जाइए, हम वापस चले जाएंगे; कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि हम अपने देश के अतिथि के सत्कार के लिए कोई कष्ट उठा लें, तो इसमें क्या हानि है? ये है चरित्र, और भारत होता तो? क्या होता?


शरद जोशी ने बहुत पहले एक व्यंग्य लिखा था। शरद जोशी भारत के एक बड़े व्यंग्यकार थे। नवभारत टाइम्स में उनका प्रतिदिन एक स्तंभ आता था। उनका एक व्यंग्य मुझे याद आ गया, जिससे भारत के लोगों की विकृत मानसिकता का पता चलता है। व्यंग्य था वो, जो काफी कुछ यथार्थ तक पहुंचता है। उन्होंने लिखा- एक विदेशी पर्यटक भारत आया। दिल्ली से जयपुर आने के रास्ते में उसकी जेब कट गई। जेब साफ हो गया। चलो, अब वो जयपुर से आगरा गया। आगरा जाने के क्रम में उसका ब्रीफकेस भी चला गया। उसके बाद उसने लिखा कि वो बनारस गया। बनारस में एक होटल में रुका, जो थोड़े बहुत उसके ornaments थे, वो बेचकर वो बनारस पहुंचा। और बनारस से जब होटल खाली करके लौटने को था, तो देखा- वो अकेले बनियान में था, ऊपर की पतलून गोल थी। केवल बनियान पर था, पतलून गोल थी। होटल के मैनेजर ने कहा- सर! आपका पतलून कहाँ है? तो उसने कहा- उसे बेचकर मैं कंट्री (country) रिटर्न का टिकट ले लिया हूँ। उसे बेचकर कंट्री रिटर्न का टिकट ले लिया हूँ। होटल मैनेजर कहता है- visit again. कितना करारा प्रहार है, विचार करने की बात है। लोग सलीके से रहना नहीं जानते, सलीके से जीना नहीं जानते। देश को आगे बढ़ाने की बात करते हैं- मेरा भारत महान- मेरा भारत महान- मेरा भारत महान।  मेरा भारत महान कहने से भारत महान नहीं होगा; भारत महान तभी होगा, जब हर भारतीय महानता को अपने जीवन का आदर्श बनाएगा, भारत महान बन जाएगा। व्यक्ति-व्यक्ति में परिवर्तन होगा, तो देश अपने आप बदल जाएगा। व्यवस्थागत परिवर्तन स्थाई नहीं होता और अवस्थागत परिवर्तन कभी अप्रभावी नहीं होता। व्यवस्थाएं बनती हैं, बदलती हैं। उसकी कोई स्थाई छाप नहीं होती, लेकिन हमने अवस्था में परिवर्तन कर दिया, तो उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। अवस्था को बदलना है, तो देश की बात करें।

तो अभी मैंने आपसे कहा- हमें शिक्षा की पद्धति पर, भाषा पर, राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण पर और स्वदेशी स्वरोजगार को बढ़ावा देकर हम अपने देश का उन्नयन कर सकते हैं। स्वदेशी और स्वरोजगार को बढ़ावा दो। हमारे गुरुदेव ने पूरी समाज में एक जागरूकता उत्पन्न की, हतकरघा के माध्यम से। ये एक सांकेतिक प्रयास है उनका, जिसमें अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे युवकों को, जिन्होंने अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर के इसमें अपना जीवन लगाया; बहनों को दीक्षा न देकर इस काम में लगाया, केवल इस भावना से कि इससे प्रेरित होकर आम जन इन कार्यों में जुटेंगे और देश की अहिंसा मूलक संस्कृति को आगे बढ़ाने में अपना उत्कृष्टतम योगदान देंगे। भारत आगे बढ़ेगा। जब हम भारत के अतीत के बारे में विचार करते हैं; तो वो भारत था, जब यहाँ की शिक्षा व्यवस्था बड़ी समुन्नत थी। नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे ऐसे उत्तम-उत्तम विश्वविद्यालय थे, जहाँ दुनिया के कोने-कोने से लोग आकर के विद्याध्ययन किया करते थे। भारतीय शिक्षा पद्धति की पूरे विश्व में एक अनूठी छाप थी। उस समय भारत में घर-घर में उद्योग था। भारत में कोई बेरोजगार नहीं रहता था। कहते हैं- भारत में आज से लगभग 1400 वर्ष पहले जंग रहित लोहा बनाया जाता था। ये भारत में इतनी प्रसंस्कृत तकनीक थी। आज तक तो उसका स्थान स्टेनलेस स्टील ने ले लिया, जिसकी कोई उम्र ही नहीं। जंग रहित लोहा भारत में बनता था। कपड़े के विषय में भारत में ऐसा कहा जाता है कि यहाँ इतना उन्नत किस्म का कपड़ा बनता था कि पूरी साड़ी को माचिस की डिब्बी में समेट लिया जाए, ऐसी बारीक कलाकृति भारत में थी। कहते हैं- कपड़ा उद्योग, टेक्सटाइल इंडस्ट्री भारत की रीढ़ थी। अंग्रेजों ने उस पर हमला किया और लाखों बुनकरों के हाथ काटे भारत को परतंत्र बनाने के लिए। ये इतिहास उसका गवाह है। गुरुदेव ने भारत के इतिहास को बहुत अच्छे से समझा है और इसीलिए उन्होंने भारत को भारत बनाने का एक संदेश देश को दिया। मुझे मैथिली शरणगुप्त की ये पंक्तियां याद आ रही हैं-

हम कौन थे? क्या हो गए? और क्या होंगे अभी?

आओ सुझाएं बैठ हम, ये समस्याएं सभी।

इसका जवाब भी उन्होंने दिया-

शानदार भूत था, भविष्य भी महान है;

यदि सुधारें उसे, जो वर्तमान है।

वर्तमान को सुधारने की जरूरत है। आज लोग वर्तमान को सुधारने के लिए भी कदम तो उठा रहे हैं; पर जैसा उठाना चाहिए, वैसा नहीं उठा रहे हैं। वर्तमान के प्रधानमंत्री ने भारत को अच्छे दिन लौटाने का वादा देकर जनता का विश्वास पाया। उन्होंने बहुत सारे कार्य किए, कर भी रहे हैं, मैं उसकी कोई समालोचना नहीं करता। लेकिन भारत को विकसित करने के नाम पर उन्होंने ‘मेक इन इंडिया’ का जो कंसेप्ट लिया, मैं समझता हूँ ये ठीक नहीं। काश! ‘मेक इन इंडिया’ के अवधारणा की जगह ‘भारत निर्माण का संकल्प’ लिए होते, तो अच्छे दिन जरूर आ जाते। हमें भारत निर्माण की बात करनी है और भारत का निर्माण अमेरिका, रूस, जापान का अनुकरण करने से नहीं होगा; भारत का निर्माण तभी होगा, जब हम भारत को भारत का रोल मॉडल बनाएंगे, भारत को भारत का आदर्श बनाकर के चलेंगे। हमारा जो प्राचीन भारत है, अपने आप में समृद्ध भारत है, सशक्त भारत है; जिसका अतीत स्वर्णिम रहा है, शानदार रहा है; उसे आदर्श बनाओ। भारत के उस पुराने गौरव को फिर से जागृत करो। हर व्यक्ति के हृदय में वो भावना जागृत हो जाए और हम भारत के पुराने दिन लौटा लें, तो अच्छे दिन अपने आप आ जाएंगे। भारत को भारत का आदर्श बनाइए। 70 सालों में भारत भारत नहीं बन पाया, लोगों ने भारत को इंडिया बना दिया। भारत के लोग भारतीय नहीं रह पाए, इंडियन बन गए। ये इंडिया और इंडियन का मतलब क्या है?

ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में इंडियन शब्द का अर्थ, जिस पर सर्वप्रथम गुरुदेव का ध्यान गया और तब उन्होंने एक समाज में, देश में जागृति का संदेश दिया। इंडियन का मतलब है- अनपढ़, गवार और अपराधी किस्म के लोग। अनपढ़, गवार, अपराधी और गुलाम किस्म के लोग, ये ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में इंडियन शब्द का अर्थ है। हालांकि, अब नए संस्करणों में इसे बदल दिया गया है, पर ये आज से 10 साल पहले तक तो यही था। अंग्रेजों ने भारत के लोगों को गवार समझा, अंग्रेजों ने भारत के लोगों को अनपढ़ समझा, उन्हें गुलाम समझा और उन पर अपना हुकुम चलाया और हमें भारतीय कहने की जगह इंडियन कहना शुरू कर दिया। और वाह रे भारत के लोगों; बिना जांचें समझे, बिना विचार किए, उनकी बातों को आंख मूंदकर स्वीकार लिए। अब इंडियन कहलाने में गर्व का अनुभव करता है, ‘we are Indian’. वाह! वो सब इडियट लोग हैं। ‘मैं भारत का वासी हूँ’, बहुत अच्छा लग रहा है आज सबकी टी-शर्ट में, थोड़ा दिखा दे भैया। सीना तान के कहो- मैं भारत का वासी हूँ। भारत जिसमें प्रकाश है, ज्योति है, विकास है, साहस है, संकल्प है, शक्ति है, वो भारत है; हम उसके वासी हैं। मानसिकता जिसकी गुलाम है, वो भारतीय नहीं और मानसिकता जिसकी आजाद है, वो कभी इंडियन हो नहीं सकता। मैं तुमसे पूछता हूँ- तुम्हारी मानसिकता गुलाम है या आजाद? क्या है? बोलो। आजाद है? तो अब कभी गुलामी के शब्दों का इस्तेमाल मत करना। संकल्प लो- मैं कभी भारत को इंडिया नहीं कहूँगा। जब भी भारत को कहने की बात आएगी, भारत की ही बात करूंगा, भारतीयता की ही बात करूंगा, और कोई बात नहीं करूंगा; ये संकल्प लेना चाहिए। तो मैं आप सबसे कह रहा था- ये भारत को भारत का आदर्श बनाया जाए, तो आज भी भारत अपने पुराने गौरव को प्राप्त कर सकता है।

ये भारत है, जिस भारत ने पूरे विश्व को एक परिवार की तरह देखने की दृष्टि दी। ये वो भारत है, जिस भारत ने पूरे विश्व को एक परिवार की तरह देखने की बात की। आज परिवर्तन हो गया, वैश्वीकरण का युग आ गया, ग्लोबलाइजेशन हो गया और ग्लोबलाइजेशन के कारण आज अवधारणाएं बदल गईं। जिस भारत ने पूरे विश्व को एक परिवार की तरह देखने की बात की, वैश्विक अवधारणा विकसित होने के बाद अब पूरे विश्व को एक बाजार के रूप में देखा जाने लगा है; और परिवार जब भी बाजार बनता है, तो जो दशा होती है, वही पूरी दुनिया की हो रही है। हमें एक परिवार की तरह देखने की जरूरत है, वो अवधारणा हो। तो ये देश है, हम अपने देश के अतीत के गौरव को समझें, वर्तमान दशा को देखें। इस दुरावस्था का जिम्मेदार कौन है? कहीं ना कहीं आप भी हैं। आप भ्रष्टाचार का समर्थन करते हैं, तो आप देशभक्त नहीं। आप देश में बाहरी या भीतरी गंदगी फैलाते हैं, तो आप देशभक्त नहीं। आपके अंदर स्वच्छता हो, सुशासन के प्रति अनुराग हो, न्याय निष्ठा हो, इमानदारी हो, तभी देश को आप ठीक कर सकते हैं। तो ये जो दशा है, जो पूरी व्यवस्था को भ्रष्ट बना दिया है। कहीं भी अब ईमानदार आदमी नहीं दिखता, खासकर देश के नेताओं में तो और बड़ा। एक आदमी ने तो एक जिंद सिद्ध कर लिया। जिंद सिद्ध कर लिया, अब जिंद परेशान करे कि हमें कोई काम बताओ। जो दो चार काम थे बता दिया और पल में कर दिया और बोले- बताओ, कोई काम बताओ। सामने खड़े हुए, बिना काम के नहीं रह सकता, मुझे कोई काम बताओ, काम बताओ, परेशान। जो काम बताए, फट से कर दे। जो काम बताए फट से कर दे, वो परेशान हो गया; जब जिंद बार-बार काम मांगे, क्या बताऊं? क्या बताऊं? कुछ समझ में नहीं आया, तो वो एक बार अपने एक मित्र से मिलने के लिए गया और कहा- भैया! ये जिंद को सिद्ध करके मैं बहुत परेशान हूँ। वो 24 घंटे कहता है- कोई काम बताओ, कोई काम बताओ। मैं जो बताता हूँ, वो ही तुरंत कर डालता है। क्या करूं? कोई ऐसा काम बताओ, जिसमें उलझ जाए और मैं शांत रहूं। बोले- बड़ा सरल काम। बोले- क्या? बोले- जाओ! उससे कहो- एक ईमानदार नेता को खोज लाए। कहते हैं- जिंद उस नेता को खोजने के लिए गया, अभी तक लौट के नहीं आया। ये क्या कहानी है? हालांकि! एक व्यंग्य है ये, ये वास्तविकता नहीं है। लेकिन ये भी एक बड़ी वास्तविकता है कि ज्यादातर लोग उसी दिशा में जा रहे हैं। पहले लोग देश की सेवा करने के लिए अपना घर लुटाते थे, आज लोग घर भरने के लिए देश लूटने लगे हैं। इतना बड़ा परिवर्तन आ गया है। पहले अपने देश की सेवा के लिए, देश को बचाने के लिए अपना घर लुटा देते थे, अब अपना घर भरने के लिए देश को लूटने लगे हैं। किसी न किसी प्रकार से लूट रहे हो, ये प्रवृत्ति कहाँ तक अच्छी है? इस दशा के तुम भी जिम्मेदार हो। हमें इस दशा से अपने आपको बचाना होगा। इस तरफ से अपनी दृष्टि बदलनी होगी, तब कहीं जाकर हम अपने जीवन में कोई कारगर उपलब्धि कर सकेंगे। तो दशा को हमें सुधारना है। कब? जब हम खुद सुधारेंगे।


दिशा, पूरे देश की एक सम्यक दिशा होनी चाहिए, एक-सी दिशा, एक दिशा, विकास की दिशा, आदर्श की दिशा, कल्याण की दिशा, सुराज की दिशा। अगर उस दिशा में पूरा देश चलने लगे, तो फिर देश की कभी कोई खस्ताहाली नहीं हो सकती। हमें एक दिशा में चलने का लक्ष्य रखना होगा, जो हमारा आदर्श है और दर्शन, जो हमारे देश का दर्शन है, हमें उसे आत्मसात करना होगा। हम अपने देश के दर्शन को आत्मसात करेंगे, तब हम देश को सच्चे अर्थों में विश्व का आदर्श बना सकेंगे। बातें जो भी हम करें, जब तक हमारे हृदय में सांस्कृतिक निष्ठा ना हो और हम अपने मूलभूत दर्शन को आत्मसात करके न चलें, तब तक हम कुछ भी आदर्श उपस्थित करने में समर्थ नहीं होंगे। हमें वो दर्शन विकसित करने की जरूरत है, तभी हम कुछ अच्छा करने में समर्थ हो सकेंगे। इन सब के लिए क्या करना है?
             

विनोबा भावे के पास किसी विश्वविद्यालय के कुछ छात्र राष्ट्र निर्माण का सूत्र पाने की भावना से पहुंचे। विनोबा जी ने उन युवकों को सूत्र देने से पूर्व कहा कि देखो! मेरे पास कुछ पासे हैं; लकड़ी के पासे थे, इनसे भारत का नक्शा बनता है। तुम भारत का नक्शा बनाकर बता दो, तब मैं तुम्हें भारत बनाने का रास्ता बताऊंगा, राष्ट्र बनाने का रास्ता बताऊंगा, सूत्र बताऊंगा। अब भारत का नक्शा तो हम लोग जानते ही हैं, कितना टेढ़ा है, स्केच करने में भी बड़ी मुश्किल होती है। अब लकड़ी के पासों से उसे नक्शा बनाना बड़ा कठिन काम था। सारे युवक लग गए, कुछ समझ में नहीं आए। एक युवक इसी उधेड़बुन में एक पासे को पलटा, तो देखा उसमें मानव शरीर की आकृतियां थी, अवयव थे। किसी में हाथ था, किसी में उंगली थी, किसी में पांव थे, किसी में सिर दिख रहा था। उसने सबको पलटा, हर में कुछ ना कुछ छाप थी और उसने क्या किया? कुछ नहीं किया; पैर के स्थान में पैर, सिर के स्थान में सिर, हाथ के स्थान में हाथ, उंगलियों के स्थान पर उंगलियां और कमर के स्थान में कमर, पीठ के स्थान में पीठ और छाती के स्थान पर छाती; शरीर का जो अवयव जहाँ चाहिए था, वैसा लगाया, देखा पूरा एक इंसान का निर्माण हो गया। पूरे के पूरे एक इंसान का निर्माण हो गया और जैसे ही इंसान का निर्माण हुआ, उसने उस पासे को पलटा, तो देखता है- वहां भारत का निर्माण हो गया। इंसान का निर्माण हुआ, पलटा तो देखता है भारत का निर्माण हो गया। विनोबा जी ने कहा- बस, मैं तुम्हें यही सूत्र देता हूँ; भारत का निर्माण करना चाहते हो, इंसान का निर्माण करो। व्यक्ति के निर्माण से ही समाज का निर्माण होता है और समाज से ही राष्ट्र का निर्माण होगा, राष्ट्र से ही विश्व का निर्माण हो सकेगा। वो निर्माण करो, खुद के अंदर उसकी शुरुआत करो। स्वयं से बदलाव की शुरुआत करो। एक-एक व्यक्ति नई दिशा अंगीकार करे और मूलभूत भारतीय दर्शन के अनुरूप चलना शुरू करे, तय मान करके चलना- आज भी भारत पूरे विश्व का आदर्श बनने की क्षमता रखता है। हम उस पुराने युग को फिर से लौटाने का संकल्प लें, उसे आगे बढ़ाएं, तो बहुत कुछ परिवर्तन आएगा।


आज संक्षेप में चार बातें मैं आपसे कह रहा हूँ, जो आपको संकल्प लेना है। पहला संकल्प- ‘हमें स्वभाषा को बढ़ावा देना है’। पहला संकल्प, जो हमारे गुरुदेव कह रहे हैं, आज से संकल्प लीजिए कि मैं अंग्रेजी भाषा का प्रयोग वहीं करूंगा, जहाँ हमारी स्वभाषा का उपयोग ना हो, जहाँ जरूरी हो। मुझे भाषा से कोई परहेज नहीं है। मैं तो कहता हूँ- अवसर और अनुकूलता रहने तक मनुष्य को अधिक से अधिक भाषा सीखनी चाहिए। वो कोई बुराई नहीं है। लेकिन मैं अपनी मातृभाषा, अपनी भाषा, स्वदेशी भाषा, चाहे वो हिंदी हो या गैर हिंदी भाषी के क्षेत्र के लोग हों, चाहे बंगला हो, चाहे मराठी हो, चाहे गुजराती हो, चाहे कन्नड़ हो, चाहे तेलुगु हो, चाहे मलयालम, तमिल हो, कोई भी भाषा हो, हम अपनी स्वदेशी भाषा का ही प्रयोग करेंगे- पहला प्रयास कीजिए और भारत सरकार से इस बात के लिए गुहार लगाइए, कहिए कि हम अपना जितना भी कार्यालयीन कार्य है, वो स्वभाषा में हो। ऐसे कुछ दफ्तरों में तो ऐसा होना शुरू हो गया। केंद्र सरकार ने शायद ऐसा कुछ राजपत्र घोषित किया है। किया है या नहीं किया? अच्छा! बहन जी बोल रही हैं, बहन जी भारतीय भाषा के लिए बहुत अच्छा काम भी कर रही हैं और इन्होंने जानकारी दी है। ये कह रही हैं कि केंद्र सरकार ने ऐसी बात कही है कि जो स्वभाषा में काम करेंगे, उन कर्मचारियों को हम कुछ विशेष प्रोत्साहन देंगे। दुर्भाग्य है, हमारी तो अदालतें भी हिंदी नहीं सुनती, स्वभाषा नहीं सुनती। अब उन्हें सुनने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय में तो हिंदी को जगह ही नहीं है, भारत कैसे आगे बढ़ेगा? पहला संकल्प- स्वभाषा और इसके लिए अगर आपका समर्पण है, तो पहला प्रयास करो, आज से संकल्प लो- हम अपना सिग्नेचर बंद करेंगे, हस्ताक्षर शुरू करेंगे। आप तैयार हो? बोलो, कितने लोग तैयार हैं? कुछ नहीं करना होगा, हाथ खड़े करो। पूरा हाथ, पूरे देश के लोग आज संकल्प लो, करोड़ों लोग इस बात का संकल्प लो कि आज से हम हस्ताक्षर करेंगे, सिग्नेचर नहीं। महाराज! बैंक वगैरह में क्या होगा? आधार में, पेन में? एक आपको शपथ पत्र देना होगा, एक आवेदन शपथ पत्र के रूप में, आपका काम हो जाएगा और आप खुद आगे बढ़िये, ओरों को प्रेरणा दीजिए- हम हस्ताक्षर करेंगे। ये आपके देश के प्रति गौरव की शुरुआत है।


दूसरी बात- स्वदेशी को बढ़ावा देंगे। विदेशी चीजों का प्रयोग तभी करेंगे, जब उसके स्वदेशी विकल्प उपलब्ध न हो। देश को आगे बढ़ाने के लिए एक बहुत बड़ा आपका योगदान होगा। देश समुन्नत होगा। आज लोग बातें भले करते हैं, लेकिन सब चीजें बाहर की आयाती ही उपयोग में लेना चाहते हैं। नहीं, अपने देश को आगे बढ़ाएं। राजीव दीक्षित एक बहुत बड़े विचारक हुए क्रांतिकारी, जिन्होंने लंदन में जाकर 70 हज़ार दस्तावेजों का अध्ययन किया। उन्होंने एक बार एक बहुत अच्छी बात कही कि जापान जब आर्थिक संकट के दौर से गुजरा, तो जापान में एक नारा दिया गया- Be Japanese, buy Japanese. हम जापानी हैं, जापानी खरीदेंगे। जिस दिन भारतीय ये संकल्प ले लें- ‘हम भारतीय हैं, भारतीय खरीदेंगे’; भारत की अर्थव्यवस्था अपने आप सुदृढ़ हो जाएगी। हो सकता है सब चीजों की आपूर्ति ना हो; लेकिन जिनके विकल्प उपलब्ध हैं, वो लो ना, थोड़े मंहगे भी हो तो क्या हुआ? देश का पैसा देश में जाएगा और आजकल सब चीजें और अच्छे से उपलब्ध हैं, सस्ते उपलब्ध है, अच्छे विकल्प उपलब्ध हैं। हमे इसको देखना चाहिए। दुनिया की सारी कंपनियों ने भारत को एक बड़ा बाजार बना लिया है और आपको लूट रहे हैं। आपको उसकी तरफ ध्यान रखना है। एक बहुत बड़े आर्थिक गुलामी की ओर देश बढ़ रहा है। इस पर हमारा ध्यान जाना चाहिए। तो स्वभाषा, स्वदेशी, स्वरोजगार को बढ़ाना चाहिए जैसा गुरुदेव बता रहे हैं।

हथकरघा आज उनका एक स्वप्न है, यदि आप लोग इसका अनुकरण करते हैं, तो इससे स्वरोजगार को बढ़ावा मिलेगा, देश मजबूत होगा, देश का अर्थ तंत्र मजबूत होगा। आप लोग वस्त्र पहनते हैं; संकल्प लीजिए- हमें वस्त्र मिलेंगे, तो हम पहली प्राथमिकता हथकरघा से निर्मित वस्त्रों को देंगे, बाद में दूसरे। आजकल तुम लोग सब चीजों में केवल ब्रांडेड- ब्रांडेड- ब्रांडेड देखते हो। भैया! कफन भी ब्रांडेड आता है क्या? विचार करो, क्या ब्रांडेड? और ब्रांड ही बनाना है तो भारतीय वस्तुओं को ब्रांड बनाओ। मानसिकता बदलिए; यदि ये बदलाव होगा, तो बहुत बड़ी बात होगी। तो स्वभाषा, स्वरोजगार, स्वदेशी इसको आप सब ध्यान दें और एक संकल्प लें कि हम अपने देश के लिए किसी भी प्रकार का भ्रष्टाचार नहीं करेंगे, तो बहुत बड़ा अंतर होगा। आज आप सब को एक संकल्प लेना है। यहाँ जितने लोग उपस्थित हैं, पहला संकल्प- हम भारत को भारत बोलेंगे, कभी इंडिया नहीं बोलेंगे। हाथ उठाइए, कितने लोग ले रहे हैं? सारे देश के लोग। हम लोगों को भी प्रेरित करेंगे कि हम भारत बोलेंगे, भारतीयता की बात करेंगे; इंडिया और इंडियन की बात कहीं नहीं करेंगे और दूसरी बात- आज आपका एक संकल्प, जो आप लोगों ने अभी व्यक्त किया। हाथ उठा लीजिए एक बार दोनों तरफ से। कि हम अब अपने हस्ताक्षर करेंगे, सिग्नेचर बंद करेंगे, तो बहुत बड़ी बात होगी। देश के विषय में मैं यही कहना चाहूंगा, बहुत सारी बातें हैं कहने को, लेकिन समय हो गया है, इसलिए अधिक विस्तार न देकर, यहीं पर विराम दे रहा हूँ।

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