भाव ही हमें चढ़ाते हैं, भाव ही गिराते हैं

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भाव ही हमें चढ़ाते हैं, भाव ही गिराते हैं

पुत्र पिता के पास प्रसन्नचित होकर आया और पिता से कहा- पिताजी आज हमने एक बड़ा सौदा किया है, भारी मात्रा में माल खरीदा है और इसमें हमें एक अच्छा प्रॉफिट होगा। पिता ने भी अपनी ओर से सहमति जाहिर करते हुए पुत्र को अपना आशीर्वाद दिया। दो दिन बाद वह बेटा एकदम उदास चेहरा लेकर आया। पिता ने पूछा- क्या बात है बेटा? आज तू इतना दुखी क्यों दिख रहा है? बोला, पिताजी क्या करूँ बड़ा नुकसान हो गया। क्या हो गया, कोई सौदा लिया क्या? बोला, कोई सौदा नहीं लिया, फिर भी नुकसान हो गया। नुकसान हो गया, बिना सौदा के कौन सा नुकसान? मैंने जो सौदा लिया था, उसका भाव गिर गया, इसलिए नुकसान हो गया। माल जहाँ का तहाँ है और भाव गिरा है तो खस्ताहाल है। कुछ दिन बाद वही बेटा पिता के पास आया और कहा पिताजी आज बड़ा फायदा हुआ है। हमने ऊँचे दाम पर माल बेच दिया। पिता ने कहा बहुत अच्छी बात हैं, ऊँचे दाम पर माल बेचा है, प्रसन्नता हैं, मुनाफा कमाया है। अगले दिन वो फिर आया, बोला, पिताजी बहुत बुरा हो गया। बोले, क्या बात हो गई? बड़ा नुकसान हो गया जिसको हमने बेचा उसका दाम बढ़ गया। बात समझ में आ रही है आपको। भाव गिरे तो भी तकलीफ और भाव बढ़े तो भी तकलीफ। हम करे तो क्या करें? आज बात ‘भ’ की है और मैं अपनी बात भाव से शुरु कर रहा हूँ।

जीवन में भाव का बड़ा महत्व है और हमें हमेशा अपने भावों को ध्यान में रखकर के चलना चाहिए। भाव ही हमें चढ़ाते हैं और भाव ही हमें गिराते हैं। चार बातें आप सब से कहूँगा-

  • भाव
  • प्रति-भाव
  • भक्ति भाव और
  • समभाव

इन चारों पर थोड़ा आप सबका ध्यान चाहूँगा। भाव हम सब के भीतर उमड़ते है और उत्पन्न होते विनष्ट होते रहते हैं। पल-पल में हमारे भाव बनते हैं और बदलते हैं। न जाने कितने प्रकार के भाव सुबह से सोने तक हमारे मन में आते हैं, चलते उतरते रहते हैं और कुछ भाव ऐसे होते जो स्वतः उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं और कुछ भाव ऐसे होते जो प्रतिभाओं स्वरूप प्रकट होते हैं और उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं। अभी अपने मन में देखो जब कभी आप शांत बैठे हो, एकांत में बैठे हो, आपके मन में न जाने कितने प्रकार के भाव उमड़ते-घुमड़ते हैं और कभी-कभी कुछ बातें याद करते हैं तो उसके निमित्त से आपके मन में भाव उमड़ते हैं। कुछ सुनते हैं तो उसके निमित्त से आपके मन में भाव उत्पन्न होते हैं। आपके सामने कुछ घटित होता हैं, उसके निमित्त से भाव उत्पन्न होते हैं। दोनों प्रकार के भाव हैं, एक भाव जो स्वाभाविक रूप से हमारे अंतरंग में प्रकट होता है और दूसरा भाव जो दूसरों के निमित्त से प्रतिभाओं स्वरूप प्रकट होता है।

हमें दोनों प्रकार के भावों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत हैं। पहले तो आप अपने अंदर में झाँक कर देखिये कि आपके भीतर की भाव दशा कैसी है? हमारे अंदर जो भाव उमड़ते हैं, वह कैसे हैं अच्छे हैं या बुरे? आपको अच्छे और बुरे भाव की व्याख्या बताने की जरूरत मैं समझता हूँ, शायद नहीं है लेकिन अपने भीतर देखो, आप के भाव कैसे हैं? कई-कई बार ऐसा होता है कि आप अपना कोई बर्ताव कर देते हैं और सामने वाला आपके बर्ताव से प्रभावित होता है और उसे बुरा भी लग जाए तो आप कहते हैं, भाई, मेरा भाव ऐसा नहीं था। मतलब आप लोग बड़े होशियार हो, अपने बुरे भाव को भी अच्छे रूप में प्रकट करने के आदी और अभ्यासी हो। जो मेरे बुरे भाव हैं, उसे भी आप अच्छे रूप में प्रकट करते हो। संत कहते हैं- ऐसा करने से कुछ नहीं होगा, तुम्हारे भाव को जितने अच्छे से तुम समझते हो कोई दूसरा नहीं समझता। अपने मन में झाँक कर देखो, तुम्हारा भाव कैसा है? ऊपर से तुम बड़े धर्मी दिखते हो, ऊपर से तुम बड़े सदाचारी दिखते हो, ऊपर से तुम बड़े संयत दिखते हो, ऊपर से तुम्हारा जीवन बड़ा सदा हुआ दिखता है लेकिन जैसे तुम ऊपर दिखते हो क्या वैसे भाव तुम्हारे भीतर हैं? अपने मन को टटोल कर देखना चाहिए, स्वयं के प्रति और औरों के प्रति मेरे भाव कैसे हैं? शुभ भाव हैं या अशुभ भाव? कैसे भावों की बहुलता हैं? अगर तुम्हारे मन में शुभ भावों की बहुलता हैं तो तय मान करके चलना तुम अपने जीवन को नई ऊँचाई देने जा रहे हो। अशुभ भावों की बहुलता हैं तो समझना तुम्हारे भाव गिर रहे हैं। तुम्हारा पतन अवश्यं भावी है, शुभ भाव हैं या अशुभ भाव, यह तुम्हें देखना हैं। अपने आपको अशुभ भाव से बचाओ और शुभ भाव में रमाने की कोशिश करो। बड़ी मुश्किल हैं, हमें शुभ भाव बनाने पड़ते हैं और अशुभ भाव तो अपने आप आते हैं। अपने मन को पलटो, देखो, कि मेरे अंदर किस तरह के भाव का बाहुल्य हैं। आप पाएंगे कि ज्यादातर हमारा मन अशुभ में रमता है। संत कहते हैं- उससे अपने आप को बचाओ। कैसे बचाएं? तो अशुभ भाव से बचने और बचाने का एक ही उपाय है, शुभ भाव को पूर्ण करने वाले, पुष्ट करने वाले निमित्तों का आश्रय लो। जितनी भी धार्मिक क्रियाएं है चाहे पूजा आराधना हो, भक्ति-उपासना हो, व्रत-उपवास हो, त्याग-साधना हो, यह सब हमें हमारे अशुभ भाव से शुभ भावों की ओर प्रेरित करने के माध्यम हैं। इनके माध्यम से हम अशुभ से शुभ की ओर मुड़ते हैं। अपने आप को मोड़ना सीखिए, जब भी तुम्हें ऐसा लगे कि मेरे भाव अशुभ हो रहे हैं, तत्क्षण अपने आप को मोड़ो। ध्यान रखना, मन में उत्पन्न होने वाला अशुभ भाव संस्कार वश प्रकट होता हैं पर उसको शुभ में बदलना हमारा पुरुषार्थ हैं। संस्कारों को जीतने के लिए हमें पुरुषार्थ जगाना पड़ेगा। अपने अंदर पुरुषार्थ जगाए, जब हम अपने भीतर के पुरुषार्थों को जगाना प्रारंभ करते है, तब हमारे भीतर शुभ भावों की अभिवृद्धि होनी शुरू होती है और जब शुभ भाव बढ़ते हैं तो हमारे जीवन का कायापलट हो जाता है। कैसे भाव हैं, हमें यह देखना चाहिए? अगर अच्छे भाव होंगे तो अच्छे परिणाम आयेंगे। बुरे भाव के बुरे परिणामों से हम अपने आप को नहीं बचा सकते। देखिये, भाव का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। एक मंदिर था और मंदिर में पुजारी वहाँ पूजा करता था। मंदिर के ठीक सामने एक नर्तकी का घर था। नर्तकी नृत्य किया करती थी और उसके यहाँ रोज लोग आते थे उसका नृत्य-गान देखते थे लेकिन नर्तकी का मन उसके इस पेशे से हमेशा दुखी रहता था, वह हर पल अपने आप को कोसती थी और मंदिर के पुजारी की खूब सराहना करती और उसके प्रति खूब धन्यवाद प्रकट करती और सोचती, वह कितना भाग्यशाली है जो भगवान की सेवा कर रहा है और मैं कैसी पापिन और अभागी हूँ कि अपने इस देह से लोगों का मनोरंजन कर रही हूँ। मुझे इस काया को भगवान के प्रति समर्पित करना चाहिए था पर चंद माया के पीछे में लोगों को रिझाने में लगी हूँ। मेरा कैसा दुर्भाग्य है? नर्तकी का भाव अपने इस कृत्य के प्रति सदैव दुःखी रहा करता था। और उधर जो पुजारी था वह हर पल भगवान की पूजा करने के उपरांत भी नर्तकी में रमा रहता था। उसके मानस में हमेशा नर्तकी का वह हाव-भाव, विलास डोला करता था। उसके मन में हमेशा वह नर्तकी नाचते रहती थी, उसे हमेशा यही दिखता था कि अब दरबार सजा होगा, अब नर्तकी नृत्य कर रही होगी, लोगों का मजमा लगा होगा, वहाँ मुजरा चल रहा होगा, न जाने उसके मन-मस्तिष्क में क्या-क्या झूमता। संयोग, दोनों की एक ही तिथि में एक ही साथ मृत्यु हुई, नर्तकी स्वर्ग गई और पुजारी नरक गया। नर्तकी स्वर्ग गई और पुजारी नरक गया, किस के बदौलत? समझ में आया, तो भाई अपने भाव को संभालिये, भाव बनाइये, भाव बिगाड़िये मत। भाव बिगाड़ने में एक पल लगता है, भाव बनाने में हमें सारा जीवन खपाना पड़ता है। हर पल अपने भावों के प्रहरी बनिये, देखिये कहीं मेरे भाव बिगड़ रहे हैं तो मुझे अभी और अभी इसी क्षण संभालना है। महाराज कुछ सूत्र बता दीजिए, जिससे हम अपने बिगड़ते हुए भावों को संभाल सके। देखिए, जब तक हम अपने भावों के प्रति जागरुक नहीं होंगे, अपने भाव को हम नहीं बदल सकते। कुछ सूत्र आपको दे रहा हूँ।

अगर आप हमेशा अशुभ भाव से बचना चाहते हैं और शुभ भाव में रमना चाहते हैं तो सबसे पहली बात भावों के प्रहरी बनिये, भावों के प्रति सजग बनिये। सजगता आपके अंदर आनी चाहिए, आपको जैसे लगे कि भाव अशुभ हुआ, अशुभ भाव का अविर्भाव हुआ, सावधान हो जाइये, जागरूक हो जाइये। भावों के बहाव में बहने से अपने आप को बचा लीजिये। अक्सर होता क्या है, जब भी अशुभ भाव आता है. आप उस भाव के बहाव में बह जाते हैं, आपको होश ही नहीं आता और जब तक आपको ख्याल आता है तब तक तो आप पूरी तरह बह चुके होते हैं, आपके हाथ में कुछ भी नहीं रहता। संत कहते हैं- ‘हमेशा जागरुक रहो, जब भी तुम्हारे मन में अशुभ भाव आये, उसे वहीं रोको और दूसरे क्रम में तुरंत अपनी निंदा-गर्हा करो।’ सजगता के बाद उसके प्रति सक्रिय बनो और अपनी निंदा और गर्हा के बल पर कि मैंने ये भाव किया, यह भाव ठीक नहीं। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए, मेरा यह भाव दुर्भाव है, मैं इसे त्यागता हूँ, मैं ऐसा भाव नहीं रखता।हे भगवन! दोबारा मेरे मन में ऐसा भाव प्रकट ना हो, मैं ऐसे भावों को त्यागता हूँ। मन में ऐसी सक्रियता होनी चाहिए, बाहर कुछ नहीं दिख रहा है, भाव मेरे भीतर छिपा हुआ है और उसी भाव के अनुरूप मैं अपना सब कुछ कर रहा हूँ लेकिन नुकसान तो मेरा हो रहा है। हो सकता है मेरे हाथ में माला है पर मेरा मन कहाँ जा रहा है, भाव की क्या विचित्रता है, विचार करो? कई-कई बार आप अपने मन से पूछो, शुभ क्रिया-अनुष्ठान करते समय भी आप के भावों की क्या दशा होती है। एक बार एक सज्जन ने बड़ी पीड़ा और ग्लानि के साथ मुझसे कहा, महाराज क्या बताऊं 80 वर्ष की उम्र हो गई। उसके बाद भी मेरी कैसी दुर्दशा है कि भगवान के दर्शन करते हुए भी कोई युवती दिख जाए तो मेरा मन डोल जाता है। महाराज! कोई उपाय बताइए। यह तो उस व्यक्ति ने साहस पूर्वक ईमानदारी से अपनी बात रख दी। लेकिन अपने मन में झाँक कर के देखो, तुम्हारे भावों की क्या स्थिति है? तुम अपने भावों को देख कर के संतोष प्रकट कर सकते हो की नहीं, मेरे जो भाव है वह ठीक है, मेरी मर्यादा के बाहर नहीं है, मेरे मन में उस तरह का अशुभ भाव नहीं जिसके उद्वेग में मैं बह जाऊँ। आपको विचार करना हैं, बह जाते हैं लोग, कभी काम में, कभी क्रोध में, कभी लोभ में, कभी मोह में। अपने आप संस्कार वश ऐसे भाव उमड़ते हैं जो हमारे जीवन का सत्यानाश करते हैं। संत कहते हैं- ‘धर्म क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हो तो सबसे पहले भाव शुद्धि का ख्याल रखो।’ वस्तुतः भाव शुद्धि ही हमारे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, हम जो कुछ भी धर्म आचरण करते हैं अपने भाव-विशुद्धि के निमित्त ही करते है तो आप अपने भावों को शुद्ध रखने की कोशिश करो, उसे रंचमात्र बिगड़ने मत दो। अगर भावों के प्रति जागरुक रहोगे तो जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है। किसी भी प्रकार की दुविधा फिर मन में हावी नहीं हो सकती तो पहली बात मैंने आपसे की, आप अपने भावों के प्रति सजग रहें, दूसरी बात आप अपने भाव को अगर बिगड़ रहा है तो उसको रोकने के लिए सक्रिय हो, अपनी निंदा-गर्हा पूर्वक।

अब तीसरी बात प्रतिदिन अपने भावों की समालोचना करें, समीक्षा करें। एकांत में बैठे और सुबह से शाम तक अपने भावों का पुनरावलोकन करें कि आज मेरी भाव-धारा क्या हुई, कब-कब मैंने कैसे भाव अपने भीतर प्रकट किए, कभी मैं अपने भाव को व्यक्त भी कर दिया, कभी मैंने अपने भावों को अंदर ही अंदर दबा लिया। कौन-कौन सा क्षण था जब मेरे भावों में अतिरेक आया, कौन-कौनसे पल थे जब मैं भावुकता के आवेग में बहा और वह सब कुछ कर बैठा जो मुझे नहीं करना चाहिए था और वह कौन सी घड़ी थी जब परिस्थितिवश मैंने अपने भावों को तो दबा लिया लेकिन मेरे अंदर वह विकार पनपता ही रहा। उन सबको याद करते हुए अपने मन ही मन अपनी निंदा करिए, अपनी गर्हा कीजिए और उसके लिए कुछ पश्चाताप कीजिए। अब मैं कभी ऐसे भाव नहीं करूँगा, आपको यह नित्य प्रति करने की आवश्यकता है। एक बात मैं आप सब से कह देना चाहता हूँ, आप यदि सोचो कि केवल प्रवचन सुनने से जीवन बदल जाए तो न भूतो न भविष्यति, क्योंकि प्रवचन सुनने से पूरा जीवन बदलता तो अभी तक तो बदल चुका होता। आपका जीवन बदलेगा तभी, जब आप अपने भीतर वैसा प्रयास प्रारंभ करेंगे, अपनी साधना की शुरुआत करेंगे उस प्रक्रिया को अपनाएंगे तो यह हमारी एक बड़ी साधना है जो हमारी भावधारा के बदलाव में एक बहुत प्रबल निमित्त बनती है।

हम अपने एकांत में बैठ कर सुबह से शाम तक के अपने भावों की समीक्षा तो कर सकते हैं। हम कब गिरे और कब चढ़े? कितना गिरे, इसका एहसास जितना हमें होता है उतना किसी और को नहीं हो सकता तो हमें खुद को संभालना होगा। हम औरों को संभालने की कोशिश करते हैं, औरों के भाव को बनाने का प्रयास करते हैं, संत कहते हैं- अपने भावों की समीक्षा तो करके देखो, नित्य प्रति अपने भावों और कृत्यों की समीक्षा करने वाले मनुष्य के जीवन का अपने आप परिष्कार हो जाता है, उसकी वृति और प्रवृति में परिवर्तन आ जाता है, उसके चिंतन और चर्या में बदलाव आ जाता है, उसके भाव और बर्ताव में एकरूपता आ जाती है, जीवन में व्यापक बदलाव घटित हो जाता है। उसे घटित करना चाहते हो तो नित्य प्रति यह समीक्षा कीजिए और तीसरी बात नकारात्मक भाव उत्पन्न करने वाले निमित्तों से बचिये। जिनसे अशुभ भावों की वृद्धि होती है उन सारे निमित्त से अपने आप को यथासंभव बचा करके रखिए। जो साधना की उच्च भूमिका में पहुँच जाते है, उनके आगे निमित्त कोई काम नहीं करते लेकिन जो अभी नीचे अवस्था में है, कच्ची अवस्था में है, वह छोटे-छोटे निमित्तो से प्रभावित होते है और आज अशुभ भाव की अभिवृद्धि करने वाले निमित्त 24 घंटे आपके साथ हैं और उन निमित्तों के कारण आप के भाव का जो पतन हो रहा है, उसे केवल आप और केवल आप जानते हैं। अपने आप को बचाइए, मोड़ने की कोशिश कीजिए। उन सारे अशुभ निमित्तों से जब आप अपने आप को बचाएंगे, तभी आप अशुभ भाव से अपने आप को रोक सकते है। बंधुओं, आज के निमित्त कदम-कदम पर निमित्त हैं और आज जो यह मीडिया है यह भी आपकी अशुभ भाव और नकारात्मकता को बढ़ाने का एक बहुत बड़ा माध्यम बन गया है। अपने आपको इससे बचा कर के रखिए, जितना कम हो सके करिए। चाहे बाहर का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो, प्रिंट मीडिया हो या यह सोशल नेटवर्क इसने आपके भीतर के नेटवर्क को एकदम खत्म कर दिया है। अपने भाव को चढ़ाइये, गिराइये मत। आप विचार कीजिए गंभीरता से अगर एक बार भाव गिर गया तो मामला गड़बड़ है। यहाँ बैठे आप लोगों में से बहुत लोग शेयर बाजार वाले होंगे, उसमें क्या होता अपर सर्किट होता और कभी-कभी लोअर सर्किट हो जाता है। जब अपर सर्किट होता है, तब सब ठीक रहता है और लोअर सर्किट में मामला गड़बड़ हो जाता है। ऐसा ही होता है ना। तो बस मैं आपसे कहना चाहता हूँ, 24 घंटे तुम अपने कारोबारी क्षेत्र में भाव वृद्धि के प्रति सावधान रहते हो, थोड़ा भी भाव गिरना शुरू होता है तो तुम्हारा चैन खोने लगता है। तो भैया भीतर की सर्किट का भी तो ख्याल रखो, वह कहाँ जा रहा है? उसकी अभिवृद्धि के तरफ अगर तुम्हारा ध्यान होगा तो जीवन में कभी तुम्हारा पतन नहीं होगा। और जो जाग जाते हैं यदि कदाचित उनके भावों में गिरावट आ जाए तो संभल भी जाते हैं। देखिये, भाव कैसे चलते हैं और भाव कैसे गिरते हैं। हमारे यहाँ एक बड़ा पौराणिक व्याख्यान है, सम्राट श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शन के लिए विपुलाचल पर्वत की ओर जा रहा था, रास्ते में देखता क्या है, एक मुनिराज एक पेड़ के नीचे बैठे हैं, पर एकदम तमतमाए हुये हैं, उनकी मुद्रा कोपाविष्ट हैं, आंखें आरक्त हैं, भुजायें तनी हुई हैं और दूर से ही देख कर लग रहा है कि महाराज आपे से बाहर हैं। उनका वंदन करते हुए श्रेणिक सीधे भगवान के समवसरण में गया लेकिन एक सवाल उसके दिमाग में खड़ा हो गया, उसने भगवान के चरणों में जाकर भगवान से पूछा। भगवन! अभी रास्ते में मैं एक मुनिराज के दर्शन करता हुआ आया हूँ, वे इतने कोपाविष्ट क्यों थे, उनके गुस्से का कारण क्या है और वह किस गति में जाएंगे? भगवान ने श्रेणिक से कहा कि श्रेणिक जिस समय तुम उधर से गुजर रहे थे, वे तीव्र रौद्र-ध्यान में मग्न थे, अगर अंतर्मुहूर्त तक ऐसे टिके रहे तो सप्तम नरक की आयु के बंध योग हो जाएंगे। दरअसल बात यह थी कि वे एक राजा थे और अपने बच्चे की अबोध अवस्था मे राजतिलक करके वह दीक्षित हो गए थे। उनके दीक्षित होने के बाद उनके मंत्रियों ने चल पूर्वक पूरा राज्य हथिया लिया और उनके बेटे और रानी को निर्वासित कर दिया। महाराज को इसका कोई अता-पता नहीं था, वे ध्यान में मग्न थे, कुछ मनचले उधर से निकले और टिप्पणी की। देखो, इसका क्या हाथ पर हाथ धरकर के बैठा है, हाथ पर हाथ धरकर के बैठा है। आज इनके बेटे और रानी दर-दर के भिखारी बने हुए हैं, इसका सारा राज्य हड़प लिया गया है। सुना, उनके मन में नकारात्मक प्रति-भाव आ गया। अच्छा, मेरा राज्य हड़पा है, मेरे बेटे और रानी को निर्वासित किया। अभी देखता हूँ, अभी भी मेरे बाहों में बल है, एक-एक को देखता हूँ, एक को भी जीवित नहीं छोडूँगा। उसी समय श्रेणिक उधर से गुजर रहा था और महाराज सब कुछ भूल गए। उन्हें ये भी पता नहीं रहा कि मैं महाराज़ हूँ और गुस्से में तमतमा गए। इधर श्रेणिक भगवान का धर्मोपदेश सुना, लौटकर देखा तो यहाँ का माजरा ही कुछ और था। महाराज को तो केवलज्ञान हो गया, देवता लोग उनका केवल ज्ञान कल्याणक मना रहे थे, श्रेणिक को आश्चर्य हुआ, भगवान की वाणी झूठी कैसे हो सकती हैं। अभी-अभी भगवान ने कहा था की श्रेणिक जिस समय तुम वहाँ से गुजर रहे थे, वह तीव्र रौद्र-ध्यान में मग्न थे और यदि अंतर्मुहूर्त तक इसी तरह रहे तो यह सप्तम नरक के योग्य हो जायेंगे, सप्तम नरक की आयु के बंध के योग्य हो जाएंगे। पर ये क्या हो गया, नरक जाने वाले को केवलज्ञान कैसे हो गया? श्रेणिक ने पुनः विचार किया कि भगवान ने सुनिश्चित भाषा का प्रयोग नहीं किया था, उन्होंने संभावना व्यक्त की थी कि यदि अंतर्मुहूर्त तक ऐसे ही टिके रहे तो सप्तम नरक के आयु के बंध हो जाएंगे। लेकिन इन्हें केवल-ज्ञान कैसे हो गया। तब पता लगा कि जिस समय श्रेणिक गुजरा उस समय उनके मन में बड़ा क्रोध था और जब भी उन्हें क्रोध आता वह अपनी कमर से तलवार निकालते और तलवार निकालते तो उनकी एक आदत थी अपना मुकुट संभालते, जैसे ही एक हाथ तलवार पर गया, दूसरा हाथ मुकुट पर गया लेकिन तत्क्षण आया। कहाँ मुकुट, कहाँ तलवार, कौन राजा, कौन राज्य, किस का बेटा, किस की रानी? धिक्कार है मुझे मैं किस के चक्कर में फँसा हूँ, मैं किस के चक्कर में फँसा हूँ, मैं किस मोह में फँसा हूँ। जिस राजपाट, वैभव को मैंने छोड़ दिया, इस जड़-जमीन के टुकड़े के पीछे मैं औरों का टुकड़ा करने लगा, आखिर किसी का राज्य है? कहाँ? यह राज्य तो आज है, कल रहे ना रहे, यह दो दिन का है। मुझे जड़-साम्राज्य की नहीं, मुझे अपने चेतन-साम्राज्य को संभालने की जरूरत है। धिक्कार है मेरे परिणामों को, मैंने अपने मोह में ऐसा कर लिया। हे भगवन! मेरा यह मोहभाव नष्ट हो, मेरा यह पाप नष्ट हो। तत्क्षण उन्होंने अपनी निंदा की, गर्हा की और अपनी निंदा-गर्हा करके अपना प्रायश्चित किया, अपने भाव को संभाला, आत्म-ध्यान में लीन हुए, केवल ज्ञान को प्राप्त कर लिए। यह है भाव का चमत्कार। बंधुओ, पहला प्रयास करो, भाव बिगाड़ो नहीं और यदि कदाचित् भाव किसी निमित्त को पाकर बिगड़ जाए तो संभालने में प्रमाद मत करो, तुरंत के तुरंत संभालो, ध्यान रखना, भाव सुधरेगा तभी भव सुधरेगा। अपने भाव को संभालो, अपने भाव को सुधारो, आजकल देखने में ऐसा आता है कि लोग अपनी क्रियाओं के प्रति तो बहुत जागरूक रहते हैं, पर भावों की तरफ बहुत कम ध्यान दे पाते हैं। संत कहते हैं- मूल भाव है तो पहली बात अपने अंदर के भाव को संभालो, शुभ भाव को बढ़ाओ, अशुभ भाव से बचो, अशुभ भाव से बचने के लिए मैंने जो चार सूत्र दिये, अपने संस्कारों को ठीक कीजिए और शुभ आलम्बनो को लीजिए, सत्संग, स्वाध्याय, स्वात्म-चिंतन, यह हमारे शुभ भावों की अभिवृद्धि का एक बहुत बड़ा माध्यम है। हम नित्य सत्संग करे, हम अपनी आत्मा का चिंतन करें, स्वाध्याय करें और प्रभु की आराधना करें, यह सब ऐसे निमित्त है जिनसे हमारे शुभ भावों की अभिवृद्धि होती है, इन्हें बढ़ाने की कोशिश कीजिए। ऐसे आलम्बनो का नित्य प्रति आश्रय लेने का अभ्यास कीजिए तो देखिए भाव कितने बदलते हैं। मैं आपसे पूछता हूँ जितनी देर तक सत्संग में रहते है, आप के भाव कैसे होते है। एक बार एक व्यक्ति ने कहा कि महाराज! जितनी देर आप के पास रहते हैं, भाव बहुत अच्छे रहते हैं तो मैंने कहा फिर जाते क्यों हो? महाराज जाना पड़ता है, मैं मानता हूँ जाना पड़ेगा, सबको जाना पड़ता है लेकिन मैं आप से कहता हूँ अगर भाव से आपने 1 घंटे का सत्संग किया तो यह आपके 23 घंटे के जीवन पर हावी रहेगा और आपको संभालेगा। जब कभी भी भाव बिगड़ते होंगे, आपका मन आपको अपने आप संभाल लेगा कि नहीं मैं ट्रैक से बाहर गया हूँ, मुझे अपने आप को संभालना है, वापस ट्रैक पर आना है, भाव को संभालना है तो यह निमित्तों का आश्रय लीजिए, आप के भाव संभलेंगे। दूसरी बात है, प्रति भाव। प्रति भाव का मतलब क्या होता है, किसी की बात को सुनकर, किसी के व्यवहार को देखकर, किसी प्रसंग और परिस्थिति से प्रभावित होने के परिणाम स्वरुप हमारा जो reaction हैं, वह है प्रति भाव। आपके शब्दों में कहें, रिस्पांस। प्रति-भाव, अभी मैं बोल रहा हूँ, भाव से बोल रहा हूँ। आप लोग भाव से सुन रहे हो कि नहीं सुन रहे? सुन ही नहीं रहे हो, आपका प्रति-भाव भी दिख रहा है। आपकी भाव-भंगिमा बता रही है कि आप तल्लीनता से सुन रहे है, मेरी बात आपको अच्छी लग रही है और आप सुन रहे है आपका यह प्रति-भाव मेरे भाव में उत्साह बढ़ा रहा है और तभी मैं बोलने के लिए उत्साहित हूँ। आप सब ठूंठ की तरह ऐसे बैठे रहो तो मैं कहूँगा पत्थर को थोड़ी सुनाना है। आपका प्रति-भाव है तो कहीं भाव और प्रति-भाव ना मिले तो अच्छा नहीं होता। प्रति-भाव तो होता है, होना भी चाहिए लेकिन यह प्रति-भाव दो तरह का होता है, एक सकारात्मक और एक नकारात्मक। आप अपने प्रति-भावों  को टटोलिए, किस तरह का प्रति-भाव अधिक होता है। यदि आपके भीतर सकारात्मक प्रति-भाव है तो तय मान करके चलिएगा, आप अपने जीवन को सकारात्मक दिशा में बढ़ा रहे है और नकारात्मक प्रति-भाव है तो आपका पतन अवश्यंभावी है। आप अगर थोड़े सजग होओगे तो हर बात पर आप सकारात्मक प्रति-भाव बना सकते है और कभी किसी का भाव बिगड़ जाए तो तुम उसे संभाल सकते हो। पहला, कुछ प्रयास करो कि मैं अपने भाव ना बिगाडूं और दूसरा यदि किसी का भाव बिगड़ा रहा है तो मैं उसके लिए सकारात्मक प्रति-भाव दूँ, नकारात्मक प्रति-भाव ना दूँ। बोलो सामने वाला गुस्सा में है तो आप क्या करते हैं, शांत रहते हैं कि आग में घी डालते हैं, क्या करते हैं, शांत रहने की कोशिश करते हैं तो उसका गुस्सा बढ़ता है कि जवाब देने पर बढ़ता है। समझ में आ गया आपको अपने प्रति-भाव का, सामने वाला गुस्सा कर रहा है उसके दो तरह के प्रति-भाव है, उसने टेढ़ा बोला, आपने तीखा जवाब दे दिया, आग में घी डाल दिया, आग में पेट्रोल डाल दिया, आग और भभक गई, मामला बिगड़ गया। और सामने वाले ने आपके लिए कोई ऐसी नकारात्मक टिप्पणी की या आवेश प्रकट किया, आपने उसे सहज भाव से ले लिया, हँस कर के टाल दिया तो क्या होगा, थोड़ी देर में उसका पारा ठंडा हो जाएगा और जब पारा ठंडा हो जाएगा तो हो सकता है, खुद आकर के एक्सक्यूज करें, आप से sorry कह दे, उसे अपनी गलती का एहसास हो जाए।

जीत किस में है? आप लोग कितने समझदार हो, आप लोगों को प्रवचन सुनाने की जरूरत नहीं है, सब पता हैं, महाराज ऐसे तो सब पता है, लेकिन moment में कुछ भी पता नहीं रहता, उस घड़ी कुछ पता नहीं रहता। आज से एक संकल्प लीजिए कि जब भी मुझे प्रति-भाव प्रकट करना होगा, कोई मेरे साथ बुरा करे तो मैं उसके प्रति अच्छा प्रति-भाव प्रकट करूँगा, नकारात्मक प्रति-भाव प्रकट नहीं करूँगा। देखिये, कितना अच्छा होता, कितना फर्क पड़ता? पिता-पुत्र एक थाली में खाना खाते थे, पिता-पुत्र एक साथ खाना खाते थे, एक दिन बेटा किसी बात से नाराज हो, उसने कहा पापा कल से मैं आपके साथ नहीं खाऊँगा, पापा कल से मैं आपके साथ नहीं खाऊँगा। पिता ने कहा कोई बात नहीं, बेटा, मैं तेरे साथ खा लूँगा। है यह प्रति-भाव। कर सकते है ऐसा, काश मनुष्य अपने भीतर केवल इतनी सी क्षमता ले आए तो फिर उसे कुछ कहने की जरूरत नहीं, लेकिन क्या कहूँ भावनात्मक आवेग का उद्वेग इतना तीव्र होता है की उसमे मनुष्य अपना सारा नियंत्रण खो देता है। सिचुएशन और इमोशन के मध्य तालमेल बनाना चाहिए, थोड़ा सा भी सिचुएशन बिगड़ा हमारा इमोशन खत्म। नहीं, चाहे कुछ भी हो, हम भावों में बहेंगे नहीं, वहाँ ठहराव लाएंगे। कोई आदमी अगर गुस्से में है तो सोचो इसका दिमाग गरम है, मैं तो ठंडा हूँ, मैं शांत हूँ, वह अभी आउट ऑफ कंट्रोल है, वह आपे से बाहर है तो मुझे चाहिए कि मैं अपने आपको संयत रखूं, उसे शांत करने वाले शब्दों का प्रयोग करूं, उसके साथ व्यर्थ का विवाद या विषम बात खड़ा न करूं, जब वो शांत हो जाएगा तब बोल लेंगे। आप बताओ, पागल से मुँह लगाते हो, आदमी पागल हो उससे मुँह लगाते हो, नहीं लगाते ना, कभी नहीं लगाते तो गुस्से वाला आदमी पागल होता है कि समझदार। गुस्सा करता है वह पागल करता है कि समझदार। जो समझदार होगा वह गुस्सा करेगा नहीं, वस्तुतः गुस्सा खुद में एक अस्थाई पागलपन है। जिसके मन में पागलपन सवार होता है वही गुस्सा करता है, जो होश में रहता है वह गुस्सा कर ही नहीं सकता। तो यदि कोई व्यक्ति गुस्से में हो और तुम होश में हो तो समझ लो यह पागल है, अभी पगलाया हुआ है, क्रोध में पागल है, चलो अभी इस से क्या मुंह लड़ाना। थोड़ी देर बाद जब इसका दिमाग ठीक होगा तब बात करेंगे। अगर इतनी सी समझ तुम्हारे भीतर विकसित हो जाए तो बोलो तुम्हारे जीवन में कभी लड़ाई-झगड़े होंगे, झंझट-झमेला होगा, कभी नहीं होगा। लेकिन लोग है की इस बात को समझने की कोशिश ही नहीं करते, यह कोशिश होनी चाहिए और ऐसी कवायद हमारे द्वारा होनी चाहिए। तो तय कीजिए भाव हो और प्रति-भाव हो तो नकारात्मक प्रति-भाव हम कभी नहीं करेंगे और सकारात्मक प्रति-भाव में हम कभी भी पीछे नहीं रहेंगे। अब आप कहीं जा रहे है, कोई आपसे जय-जिनेंद्र कर रहा है और आप उसको देख कर अनदेखा कर दे तो क्या होगा, बोलिए, सामने वाला क्या कहेगा, बड़ा अभिमानी है, बड़ा ऐंठ कर चला गया, मेरी तरफ देखा ही नहीं और ऐसे व्यक्ति के साथ आपके संबंध कैसे होंगे, मधुर होंगे क्या, कतई नहीं होंगे चाहे छोटा हो या बड़ा, अगर उसने आप को प्रणाम किया और आपने भी प्रति-भाव स्वरुप दोनों हाथ जोड़कर एक छोटी सी स्माइल दे दी, क्या होगा, उसके दिल में आपका अलग स्थान बनेगा, आप उससे बड़े ऊँचे स्टेटस के हो, वह व्यक्ति आपके आगे सामान्य है लेकिन उसने आपको सम्मान दिया प्रति-भाव स्वरूप, आपने भी उस को सम्मान दिया तो आपके इस सम्मान से उसके हृदय में आपके प्रति सम्मान बढ़ेगा या घटेगा। तुम लोग क्या करते हो? कोई सामान्य हैसियत का व्यक्ति यदि तुम्हारे प्रति बहूमान व्यक्त करता है तो तुम उसका सत्कार करते हो या उपेक्षा? अपने मन से पूछना है, इतनी जल्दी में जवाब नहीं देना।

आज से ये सीख लो कि मैं हर किसी के प्रति अच्छे व्यवहार में अच्छा प्रति-भाव प्रकट करूँगा। आप एक बात बताइए, आपने कोई उपलब्धि अर्जित की हो और इस उपलब्धि को सुनकर के अगर कोई व्यक्ति आप का अपना व्यक्ति, दुनिया तो आपकी प्रशंसा कर रही है और आपका अपना व्यक्ति आपके लिए एक शब्द भी नहीं बोल रहा है, आपके मन में क्या प्रतिक्रिया होगी? दुःख होगा ना। और आपने कोई अच्छा कार्य किया और सामने वाले ने उसे आपके कहने के पहले ही सुनते ही आपके प्रति आपको बधाई देना शुरू किया, आपकी प्रशंसा करना शुरू कर दिया, आपके मन में उसके प्रति क्या भाव होगा, आप उसे अपना शुभचिंतक मानोगे, आप के अंदर की प्रसन्नता बढ़ेगी और उसकी प्रेरणा और प्रोत्साहन से आप अपनी योग्यता का भी विकास करोगे। यह सब चीजें एक साथ जुड़ी हुई है तो मैं आप सब से यही कहना चाहता हूँ, जो स्थिति तुम्हारे साथ है वो ही स्थिति औरों के साथ है। यदि कोई दूसरा अच्छा करे तो तुम उसके प्रति अच्छा प्रति-भाव प्रकट करने में कोई कसर मत रखो, उसकी प्रशंसा करो, उसको धन्यवाद दो, उसको उत्साहित करो, उसके प्रति आभार व्यक्त करो, यह प्रति-भाव होना चाहिए। लेकिन मैं क्या कहूँ, औरों की बात तो जाने दीजिए कि कई-कई बार ऐसा देखने में आता है, पिता बेटे से कुछ कह रहे हैं और बेटा उसे अनसुना कर के जा रहा है। आजकल के छोकरों के साथ यह स्थितियाँ हो रही है। बेटा अपने आप को बाप से बड़ा मानना शुरू कर देता है, उसे लगता है कि मैं पढ़-लिख गया हूँ, मेरे बाप को तो कुछ आता ही नहीं, वो कुछ जानते ही नहीं तो यह जो चीज है, उस घड़ी उस पिता के मन में क्या वेदना होती है। कभी आपने सोचा, उसे केवल वही और वही महसूस करता है जो इस दौर से गुजर चुका है। बोला तो या तो कोई जवाब नहीं और जवाब भी दिया तो एकदम टके सा। प्रति-भाव नहीं या प्रति भाव तो नकारात्मक प्रति-भाव। उस समय व्यक्ति को बहुत गहरा झटका सा लगता है, जीवन में ऐसा कभी मत करना , जीवन में ऐसा कभी मत करना और तुम्हारे साथ यदि कोई करें उसके प्रति समभाव रखना।

तीसरा क्रम समभाव का है, औरो के प्रति कभी ऐसा प्रति-भाव मत रखना और यदि तुम्हारे साथ कोई ऐसा प्रति-भाव रखें तो तुम उससे प्रभावित मत होना, उसके प्रभाव में मत आना, समभाव बना कर के रखना, सोचना, चलो यह इसका स्वभाव है, यह इस का नेचर है, चलो इग्नोर करो, कोई बात नहीं उसने नहीं किया तो क्या किया, मैं अपने कर्तव्य का पालन करूँ। आज मेरा बेटा मेरा नहीं सुनता, आज मेरी बहू मेरी बात नहीं मानती, आज मेरा भाई मेरा कुछ नहीं सुनता, आज मेरे घर में मेरी नहीं चलती, कोई बात नहीं जब नहीं चल रही तो चलाने की कोशिश क्यों कर रहे हो, समभाव रखो, मेरे कर्म का उदय है मेरा पुण्य इतना क्षीण है कि आज मेरा प्रभाव कम पड़ रहा है, यदि मेरे पुण्य में ज़ोर होता तो मुझे बोलने की बात ही बहुत दूर की है, मुझसे पूछे बिना लोग कुछ करते ही नहीं। आज कोई नहीं सुन रहा है तो कहीं न कहीं मेरे व्यक्तित्व की कमी है, जो मेरे पुण्य की क्षीणता से है। चलो, इसे मैं सहज भाव से स्वीकार करता हूँ, इसे मैं सहन करता हूँ, चुपचाप सहन करो, अपने अंदर का समभाव बढ़ाओ तो फिर कुछ गड़बड़ होगा? होता क्या है, कही तुम्हारी उपेक्षा होती है, तिरस्कार होता है, अपमान होता है और तुम अपने आप को उपेक्षित या अपमानित महसूस करना शुरू कर लेते ह, तो या तो उस से लड़ पड़ते हो या भीतर ही भीतर घुटते रहते हो, यह दोनों भयानक दुर्बलता है। इन दोनों स्थितियों से मनुष्य को उभरना चाहिए, बचना भी ठीक नहीं, घुटना भी ठीक नहीं अपितु क्या करो, उसको घोट करके पी लो और हजम कर लो, जीवन धन्य हो जाएगा। समभाव को बढ़ाने का प्रयास कीजिए, अपनी क्षमता की अभिवृद्धि करने का प्रयास कीजिए। नहीं, मुझे अपनी क्षमता बढ़ानी है। लोक जीवन में तो फिर भी आप अपनी क्षमता को बढ़ा लेते है। सड़क चलते आपको कोई उल्टा-पुल्टा बोल देता है या आपके व्यापार प्रतिष्ठान में कोई ऊँची-नीची बात हो जाती है, वहाँ तो आप अपने समभाव को बना लेते हैं। लेकिन घर-परिवार में, जबकि सबसे ज्यादा आपको उन्हीं के बीच रहना है, तुम्हें जिनके साथ रहना है, जिनके बीच रहना है उनके साथ अपनी क्षमता की वृद्धि करो, वहाँ समभाव लाओ, जीवन में ठहराव आएगा अन्यथा भटकाव से अपने आप को नहीं बचा सकोगे। और वहाँ अगर अभ्यास हो गया तो फिर सब जगह का अभ्यास होगा तो समभाव अपने भीतर बढ़ाइए, जीवन ऊँचा होगा। आखिरी बात है भक्ति-भाव, भक्ति-भाव रखो, किसके प्रति प्रभु के प्रति भक्ति-भाव, प्रभु भक्ति से अपने मन को सराबोर करो, उन्हें अपने जीवन का आदर्श बनाकर अपने ह्रदय में स्थान दो, जितना बन सके उनके प्रति अनुराग भाव रखते हुए उनकी सेवा करो, पूजा करो, आराधना करो, यह तुम्हारे अंदर की नकारात्मकता को दूर करेंगे। दूसरी भक्ति गुरु के प्रति, प्रभु के प्रति भक्ति-भाव, गुरु के प्रति भक्ति-भाव, गुरु के प्रति श्रद्धा और समर्पण भाव से अपने हृदय में स्थापित करो, अपने जीवन का मूल आदर्श बना करके चलो, तुम्हारा जीवन अपने आप नियंत्रित होगा। आप प्रभु के प्रति भी भक्ति रखते है, गुरु के प्रति भी भक्ति रखते है लेकिन भाव का मतलब क्या जाकर के पूजा की पंक्तियाँ सुना देना यही भक्ति है, अपने हाथों से द्रव्य चढ़ा देना, यही भक्ति है। गुरु के चरणों को दबा लेना यही भक्ति है, उनकी सेवा में कुछ अर्पित कर देना ही यही भक्ति है, यह तो ऊपर की भक्ति है। वस्तुतः असली भक्ति उन्हें अपना आदर्श बनाकर उनके आदर्शों के अनुरूप चलने का भाव जगाना, यह भक्ति-भाव है। मैंने एक दिन कहा था कि गुरु के फैन तो सब बन जाते है, फॉलोवर कोई बिरला बनता है, फैन नहीं फॉलोवर बनने की कोशिश करो, यह सच्ची भक्ति है। वो भक्ति जैसे-जैसे बढ़ेगी, जीवन धन्य होगा। तीसरे क्रम में माता-पिता के प्रति भक्ति भाव रखो। मां-बाप के प्रति भक्ति भाव होना चाहिए, माता-पिता को केवल मां-बाप की दृष्टि से मत देखो उन्हें भगवान और भगवती के रूप में देखो। हमारी वह संस्कृति है, जहाँ कहा गया- मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव: और अतिथि देवो भव:। जहाँ माता-पिता को देवता के समान देखने की बात की गई, उनके प्रति तुम्हारे ह्रदय में भक्ति होनी चाहिए। आज उन्हें ही तुम अपनी उपेक्षा के पात्र बना रहे हो। आज भी इस दुनिया में बहुत से लोग है, एक सज्जन है मेरे संपर्क में, आज उनकी उम्र हो गई 72-74 साल की, उनका बेटा पिछले लगभग 40-45 सालों से कारोबार संभाल रहा है, आज वह कुछ नहीं करते लेकिन धन्य है उनका बेटा रोज की कमाई आज भी अपने पिता को देता है और कोई दिन ऐसा नहीं होता जब अपने पिता के पांव सहलाए बिना सोता हो, यह भक्ति भाव है। आंखों में आंसू भर करके उसने खुशी से कहा कि महाराज यह सौभाग्य मुझे मिला है कि आज मेरा बेटा और जब बेटा करता है तो बहू भी करती है और नाती-पोता भी करते है और उसका यह परिणाम निकला कि बेटा अपने पिता के पैर दबाता है तो उसका बेटा भी अपने पिता के रोज पांव दबा करके सोता है, यह परंपरा, ऐसी भक्ति भावना तुम्हारे ह्रदय में होनी चाहिए। कहाँ रहा यह आदर्श? आजकल तो बच्चों को बोलो पांव दबाने तो जल्दी से पांव दबाने तैयार नहीं होते, पहले ये संस्कार में मिलते थे। ये अंतर है अपने ह्रदय में भक्ति भाव जगाओ और प्रभु के प्रति, गुरु के प्रति, मां-बाप के प्रति और चौथे क्रम में जो तुम्हारा कल्याण मित्र है, जो तुम्हें हित के पथ पर लगाता है, उसके प्रति भक्ति भाव रखो। यह भक्ति भाव होगा तो जीवन का उत्कर्ष होगा, अपने अंदर ऐसी भावना बनाइये। भाव ही हमें चढ़ाते है, भाव ही हमें गिराते है तो हम भावों को चढ़ाएं जिससे जीवन को हम ऊपर उठा सके, गिराने वाले भाव को कभी ना लाएं तो नया जीवन होगा।

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