मातृत्व रखे, ममत्व नहीं!
अभी बात माँ की, की गई। हम सबके जीवन का सबसे पहला रिश्ता माँ से जुड़ता है। बाकी सारे रिश्ते जन्म लेने के बाद से होते हैं लेकिन एक माँ हैं जिसका नाता जन्म के पूर्व से ही जुड़ जाता है। हमारे यहाँ जब भी माँ की बात की जाती है, हम बहुत भावुक हो जाते हैं क्योंकि माँ शब्द ही ऐसा है। वह ममता का मंगल कलश है। पर विडम्बना है, जो माँ सबसे पहले हमारे जीवन से जुड़ती है उसी माँ का मान खंडित हो रहा है, आज वही माँ उपेक्षा और तिरस्कार का पात्र बन रही है। आज मैं आपसे माँ की बात करूँगा, मातृत्व की बात करूँगा, ममता की बात करूँगा और आज के तथाकथित लोगों की निष्ठुरता की बात करूँगा। माँ! माँ! जिसे मान के प्रथम अक्षर के रूप में स्वीकारा गया, बच्चे के मुख से सबसे पहले अगर कोई शब्द निकलता है तो वह माँ है, वो माँ क्या है। एक पौराणिक संदर्भ रखकर के मैं अपनी बात को आगे बढ़ा रहा हूँ।
श्रीकृष्ण के जन्म से पूर्व उनके छ: भाई और भी जन्मे थे लेकिन कंस के क्रूर आतंक के कारण उनके जन्म को गुप्त रखा गया था। माँ देवकी उनका मुख भी नहीं देख पाई थी। सातवें पुत्र के रुप में श्री कृष्ण का जन्म हुआ। हम सबको पूरी कहानी पता हैं लेकिन कहानी का एक दूसरा भाग जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। मैं वह आज आप सबके बीच रखने जा रहा हूँ और वहाँ से अपनी बात को प्रारंभ कर रहा हूँ।
देवकी अपने घर में रोज की भांति मुनिराजों के पड़गाहन मनोभाव लेकर खड़ी थी। संयोग से उसके भाग्य से दो चारण रिद्धिधारी मुनिराज का उसके आंगन में आना हुआ। देवकी ने बड़े भक्ति भाव से उनका आहार करवाया लेकिन आहार के क्रम में भक्ति के साथ-साथ उसके हृदय में मातृत्व भी उमड़ने लगा। उन मुनिराजों को देखकर उसके आंचल भीग गए देवकी कुछ समझ नहीं सकी। निर्विघ्न आहार करवाया। मुनिराज आकाश मार्ग से वापस चले गए और उनके जाते ही वही के वही दो महाराज फिर आ गए। देवकी को आश्चर्य हुआ कि दिगंबर साधु तो चौबीस घंटे में केवल एक बार आहार ग्रहण करते हैं लेकिन अभी- अभी मैंने आहार करवाया, यहाँ से आहार करके गए और वापस कैसे लौट आये लेकिन देवकी ने समझदारी से काम लिया। उसने सोचा कि यह तर्क-वितर्क का क्षण नहीं, कर्तव्य पालन की घड़ी है और जिस समय सामने कर्तव्य हो उस समय कोई वितर्क नहीं लगाना चाहिए। उसने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मुनिराजों का आतिथ्य किया, आंगन में ले गई, चौक़े में ले गई, आहार कराना शुरू किया लेकिन यह क्या ! इस बार तो उनके ममता की सीमा और बढ़ गई। आहर हुआ, वह दोनों मुनिराज गए। उनको विदा ही नहीं की कि फिर से दो महारज आ गए और ये भी वही के वही महाराज, लेकिन इस बार तो उनके छाती से दुग्ध की धार बह निकली। मुनिराज ने आहार किया और वहाँ से प्रस्थान कर दिया। लेकिन देवकी के मन में एक गहरा सवाल खड़ा हो गया कि दिगंबर साधु चौबीस घंटे में एक बार आहार लेते हैं यह मेरे यहाँ तीन बार क्यों आए। यह नकली साधु तो नहीं होंगे क्योंकि आकाश मार्ग से आये हैं, यह योग्यता असली साधु में ही हो सकती हैं। ऐसी क्या वजह है कि तीन बार आये, क्यों आये? कहीं मेरे आंखों में कोई भ्रम तो नहीं है। और दूसरा सवाल कि मुनिराज को देखकर भक्ति भाव उमडना चाहिए, मेरे अंदर मातृत्व क्यों उमडा? मातृत्व क्यों उमडा! सीधे भगवान नेमिनाथ के चरणों में गई और भगवान के सामने अपनी मन की बात रखते हुए देवकी ने पूछा कि भगवन आज यह घटना घटी इसकी वजह क्या है? क्या एक ही महाराज तीन बार आये हैं, ऐसा हो तो नहीं सकता।
भगवान ने कहा- “देवकी! तुम बिल्कुल ठीक कह रही हो कि एक ही महाराज तीन बार नहीं आए। तीनो बार तीन अलग-अलग युगल आए और तीनों का रूप एक था क्योंकी तीनों सगे भाई थे। यह तीनों सगे भाई थे, इनका चेहरा एकदम हुबहू था इसीलिए तुम्हें भ्रम हुआ कि एक ही महाराज तीन बार आए।”
देवकी- “तो प्रभु यह बात तो समझ में आ गई पर मेरे अंदर का मातृत्व क्यों हो उमडा?”
भगवान ने कहा-”संतान को देखकर माँ का मातृत्व नहीं उमड़ेगा तो किसे देखकर उमडेगा? देवकी! यह जो मुनिराज थे ये और कोई नहीं श्रीकृष्ण के जन्म से पूर्व उत्पन्न हुए तुम्हारे ही छ: संतान थे जिनका तुमने कभी मुख भी नहीं देखा था और कंस के आतंक से बचाने के लिए कह दिया गया था कि यह मृत पुत्र हुए हैं। इन्हें गुप्त रूप से वहाँ से हटाकर भद्दलपुर (जो विदिशा हैं) वहाँ एक अरहतदास सेठ के यहाँ रखा गया था। वहाँ इनका पालन पोषण हुआ और बाद में इनको जीवन की वास्तविकता का बोध होते ही वैराग्य हो गया। यह सभी के सभी दीक्षित हो गए और ये महामुनि हैं आज तुम्हे यह सौभाग्य मिला और तुमने अपने संतान को, अपने पुत्रों को जीवन में पहली बार मुनि के रूप में देखा उसके बाद ही तुम्हारे हृदय में मातृत्व उमड़ पड़ा।” यह हैं मातृत्व।
काश लोग इस मातृत्व की महिमा को समझ पाऍं। माता! माता होती हैं, वो माँ होती हैं जिसके रग-रग में मातृत्व भरा होता हैं और यही मातृत्व हम सबके हृदय में ममत्व को जन्म देता हैं। सन्तान को माँ का मातृत्व मिलता है तभी संतान सुसंतान रह पाती है। माँ के मातृत्व के अभाव में सन्तानो में सुसंस्कार उत्पन्न नहीं होते। आज हमारा जो भी जीवन हैं, हमारा जो भी व्यक्तित्व हैं इसमें माँ की महत्वपूर्ण भूमिका है। सारे संस्कारों का पाठ एक माँ पढ़ाती है तो संतान को माँ की निकटता चाहिए, माँ का मातृत्व चाहिए और जब संतान माँ के मातृत्व से सराबोर होती है तब ही संतान का भावनात्मक विकास होता है और वह अपने नैतिक और चारित्रिक विकास के बल पर अपने जीवन को ऊँचा उठाने में समर्थ हो पाती है। माँ की बड़ी महिमा है दूसरा और तीसरा प्रसंग सुनाकर के आज से संबंधित कुछ बातें आप सब से करूँगा।
भगवान महावीर जब माँ त्रिशला के पेट में थे। उन्होंने अपने दिव्यज्ञान से जाना, उन्होंने सोचा कि मेरी हलन-चलन से मेरी माँ को तकलीफ होगी, मेरी हलन-चलन से मेरी माँ को तकलीफ होगी तो उनने अपनी हल-चल को कुछ देर के लिए बंद कर दिया। माँ हैं, मुझे जन्म दे रही हैं तो मेरी हल-चल से माँ को तकलीफ ना हो, इस भाव से उन्होंने अपना मूवमेंट रोक दिया। जैसे ही उनने अपनी हलचल को बंद किया कोहराम मच गया। त्रिशला घबरा उठी, यह क्या, मेरे गर्भ को कुछ हो गया है, कई कोई गड़बड़ ना हो, मेरे गर्भ को कुछ हो गया, क्या हो गया, त्रिशला एकदम भाव विफल हो गई, उसकी उस भाव विफलता को भगवान ने अपने दिव्यज्ञान से जाना तो सोचा, अरे धन्य हो यह माँ! कैसी माँ हैं, जिसके लिए मैं सोच रहा हूँ कि कष्ट ना हो, तो उसे कष्ट न देने पर कष्ट हो रहा हैं।
यह हैं माँ, और इसका नाम हैं मातृत्व। काश आज की संतान इस बात को समझ पाती, थोड़ी देर के लिए विचार करो अगर तुम्हारी माँ नहीं होती, तुम्हारे पिता नहीं होते, तो जो कुछ तुम आज हो, वो रह पाते, इस दुनिया को देख पाते, जन्म ले पाते, जीवन जी पाते, कितना बड़ा उपकार है, तुम्हारी माँ का तुम पर। जिसने नौ माह तक तुम्हें अपने पेट में रखा। तुम्हारे लिए अपने खाने-पीने उठने-बैठने सब प्रकार के मौज शौक का परित्याग किया। न केवल पेट में रखा, नौ माह तक उस पेट में रख कर उसकी पीड़ा को सहते हुए प्रसूति के कष्ट को झेला, कितना दर्द सहा, तुम्हे जन्म देने के लिए। इतना दर्द सहकर तुम्हारी माँ ने तुम्हें जन्म दिया, न केवल जन्म दिया, जन्म देने के साथ तुम्हे जीवन दिया, यदि माँ ने जन्म देकर तुम्हें लावारिस छोड़ दिया होता, तो तुम्हारा क्या होता, किसी झाड़ी में फेंक दिया होता तो तुम्हारा क्या होता, चील कौवे और गिद्ध तुम्हे अपना शिकार बनाते, यूही कही छोड़ दिया होता तो आज किसी अनाथालय में पल रहे होते। उन्होंने जन्म दिया, जन्म देने के बाद जीवन भी दिया, हमें समय पर खिलाया, पिलाया, स्वास्थ्य का ध्यान रखा, बीमार पड़ने पर डॉक्टर को दिखाया, खुद गीले में रहकर हमे सूखे में सुलाया। क्या नहीं किया? थोड़ी सी भी कुछ पीडा हो, तो हमारी पीड़ा का अनुभव पहले उसने किया हमें बाद में रखा। वो माँ हैं ! हमें न केवल जन्म दिया, हमे पालपोस कर बड़ा किया, हमे अच्छे संस्कार दिए, आज यह माँ-बाप के संस्कारों का ही फल है कि हम आज एक सभ्य-सुसंस्कारित व्यक्ति की तरह इस धरा पर जी रहे हैं। यदि हम संस्कारहीन होते, लूचे-लफंगे बनकर आवारा-अपराधी बनकर घूमते रहते या जेल के सीखचों में बंद हो जाते।
कितनी बड़ी भूमिका हैं माँ की! आपने कभी विचार किया? लेकिन क्या करूँ, माँ की महिमा को जानने वाले लोग नहीं हैं। और मुश्किल एक और हो गई है आज की माँ ही खो गई, माँ नहीं है, अब मम्मा रह गई, अब मम्मा भी नहीं अब तो मॉम हो गई। पहले माँ से मम्मी हुई, मम्मी से मम्मा हो गई, अब मम्मा से मॉम हो गई। अभी थोड़ी देर बाद इसकी चर्चा करूँगा कि कितना बड़ा फर्क हैं लेकिन थोड़ा माँ को आप और समझे। रूस में एक शोध हुआ। माँ की महिमा को आप समझ सकते हैं इससे। फ्रांस में सबसे ज्यादा क्राइम होता हैं। सर्वाधिक क्राइम फ्रांस में होता हैं ऐसा लोग बोलते हैं और वहाँ सर्वाधिक अवैध संतान है। उसकी वजह पर विचार करते हुए किसी ने शोध किया। उसकी मूल वजह बताते हुए कहा, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि वहाँ अधिकतम अवैध संतान होती हैं। उनका लालन-पोषण, लालन-पालन अनाथ आश्रमों में होता हैं। वहाँ उनका बौद्धिक विकास तो हो जाता हैं, शारीरिक विकास भी हो जाता हैं लेकिन भावनात्मक विकास नहीं हो पाता क्योंकि उन्हें सब कुछ मिलता हैं माँ नहीं मिलती। सब कुछ मिलता हैं एक माँ नहीं मिलती। इसिलए वो लोग अधिकतर क्रूर बन जाते हैं और अपराध करते हैं।
इसी पर एक शोध रूस में हुआ, रूस में शदप्रसूत बन्दरियों पर, बंदर के बच्चों पर एक प्रयोग हुआ। कुछ बन्दरियों को अपनी माँओं के पास रखा गया और कुछ को कृत्रिम मशीनी बन्दरियों के पास रखा गया। दोनों प्रकार के बंदरों को समान पोषण दिया गया। लेकिन जिन्हे माँओं के पास रखा गया वह तो पूरी तरह स्वस्थ थे और जिन्हे कृत्रिम मशीनी बन्दरियों के पास रखा गया वो शारीरिक रूप से तो विकसित हो गए लेकिन मानसिक रूप से सबके सब रुग्ण थे, बीमार थे, अशक्त थे। एक लंबे प्रयोगों के बाद यह निष्कर्ष निकला कि संतान के भावनात्मक विकास में माँ का महत्वपूर्ण स्थान हैं। जिन्हें माँ का सानिध्य मिलता हैं, मातृत्व मिलता हैं ,ममता मिलती हैं, उनका हृदय भावनाओं से भरा होता हैं और जो इससे वंचित होते हैं, वह शुष्कह्रदय हो जाते हैं, उनके अंदर निष्ठुरता आ जाती हैं।
बंधुओ, मैं माँ की बात कर रहा हूँ, मुझे अलग-अलग संदर्भों में अपनी बात करनी हैं। लोग माँ की महिमा जाने और माँ अपने मातृत्व के गौरव को पहचाने। माँ यदि संतान को जन्म देकर उसे अपनी निकटता देती हैं तो वह सुसंस्कारों को गढ़ती हैं और माँ यदि संतान को जन्म देकर उससे निकटता नहीं रखती वह माँ एक रुग्ण पीढ़ी को जन्म देने का अपराध करती हैं। माँ की महिमा हैं, जिनने माँ को पाया वह बड़े भाग्यशाली हैं। जिसने माँ बनने का सौभाग्य पाया वह भी भाग्यशाली हैं। जिनने माँ को पाया वह माँ को मान देना शुरू करें और जो माँ बन गई मातृत्व उड़ेलना शुरू कर दे समाज अपने आप स्वस्थ हो जाएगा। दोनों तरफ से गड़बड़ियाँ दिखती हैं एक और माँ का मान खंडित हो रहा हैं तो दूसरी तरफ आज मातृत्व भी सिकुड़ रहा हैं। संतान को जैसा मातृत्व मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा हैं। पाश्चत्य संस्कृति के अंधानुकरण ने सारी व्यवस्थायें बिगाड़ दी हैं। पहले माँ जब संतान को जन्म देती थी तो उससे हमेशा अपनी छाती से लगाये रखती थी। छाती से लगाए रखती थी, दिल की धड़कन को अपनी धड़कन से जोड़ती थी और माँ बेटे की हार्टबीट में एक अलग प्रकार का संप्रेषण होता था। आजकल तो सिस्टम ही बदल गया। अब तो बच्चों को माँ का मातृत्व बहुत दुर्लभता से मिलता हैं क्योंकि ज्यादातर माँये आजकल कामकाजी होने लगी हैं। और उन्हें संतान को जन्म देना और जन्म देने के बाद उसे पालना बड़ा बोझ लगने लगा हैं। ज्यादतार तो जल्दी से माँ बनाना ही नहीं चाहती और माँ बन जाए तो मातृत्व निभाना नहीं चाहती। कैसी विसंगति हैं। माँ जो एक स्त्री का सबसे गौरवशाली रूप है, माँ ही वह तत्त्व है जिसके कारण एक स्त्री, एक नारी, नारायण की जननी बनने का सौभाग्य प्राप्त करती है लेकिन यह कैसी विडंबना है कि आज नारी जल्दी से माँ बनने को राजी नहीं हैं। जिससे तुम्हारी जाति का मान बढ़ता है, आज तुम उसके लिए ही मानसिक रूप से तैयार नहीं तो फिर जीवन में उपलब्धि कैसे घटित होगी?
माँ को अपने मातृत्व का महत्व समझना चाहिए और उस मातृत्व का रस अपनी संतान पर उड़ेलना चाहिए। माँ मातृत्व बरसाएं और संतान माँ के महत्व को समझ कर उसे मान देना शुरू करें, मान देना शुरू करें। यह बहुत जरूरी है सब काम छोड़ दो पर संतान को सबसे पहले समय दो।
देखिये! महाभारत आप सब लोगों ने देखी और सुनी हैं। पांडव और कौरव दोनों भाई-भाई थे। लेकिन पांडवों को पूरी मानवता के आदर्श के रूप में देखा जाता हैं और कौरवों को मानवता के कलंक के रूप में जाना जाता हैं। आखिर इसके पीछे की वजह क्या हैं? मुझे एक बात दिखती हैं कि पांडवों को कुंती और माधुरी रुप माँ का साथ आपत्ति की घड़ी में भी मिलता रहा। वे वनवास के काल में भी अपनी माँ के साथ रहे, उनके हृदय में संस्कार भरे रहे। लेकिन दूसरी और कौरवों की माँ गांधारी, आँख वाली हो करके भी अपनी आँख पर पट्टी बाँधी रही। जीवन में एक बार भी पट्टी उतार कर अपनी संतान का मुख नहीं देखी। संतान में संस्कार कहाँ से आते? बात समझ में आ रही हैं न? तो यह माँ की महिमा हैं, इसे माँ समझे और संतान समझे। मातृत्व कोई छोटी मोटी बात नहीं हैं। मातृत्व की महिमा क्या हैं, उससे पूछो जो लंबा जीवन बिता देने के बाद भी माँ बनने का गौरव नहीं पा पाई। उस स्त्री से पूछो कि मातृत्व क्या हैं, जिसकी कोख नहीं भर पाई वह जानेगी कि मातृत्व क्या हैं? और जिनके के लिए यह सौभाग्य मिला वो अगर अपनी संतान को मातृत्व से न सीज पाए तो इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी?
सोच को बदलने की आवश्यकता हैं। माँ, माँ है, उसके बाद कुछ और। और उसके गौरव का आधार उसका मातृत्व हैं। इसे उसे हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। माँ यदि अपनी संतान के लिए कुछ दे सकती है, कुछ उड़ेल सकती है, तो उसके पास सबसे बड़ी शक्ति है उसके मातृत्व की। जिसके बल पर वह सबको अपने अनुकूल भी बना सकती है। इसलिए मैं चाहता हूँ हर माँ अपने इस गौरव को समझें और अपनी संतान पर मातृत्व उड़ेलने में कोई कमी न रखें।लेकिन क्या हो रहा है? अब तो पूरी परवरिश ही अलग तरीके से होती है, सोच ही अलग है। आज की कन्यायें जब पढ़ती हैं, तो पढ़ते समय उसके दिल दिमाग में एक बात बैठ जाती हैं मुझे आगे चलकर जॉब करना हैं, पैसा कमाना हैं। घर के काम काजों कि प्रति उनका कोई रुझान नहीं और आगे चलकर माँ बनकर अपने दायित्व को निभाने के प्रति भी उनका कोई ध्यान नहीं। विचार करो, यदि तुम्हारी माँ ने जिस तरह से तुम्हारा पालन पोषण किया, तुम्हें अपने मातृत्व से सींचा, वैसा न करके यदि वह एक कामकाजी महिला होती और अपने व्यापार, कारोबार या नौकरी पेशा में ही लगी रहती, तुम पर पूरा ध्यान नहीं दिया होता, तो आज जो कुछ तुम बन पाए हो, क्या वह सब कुछ हो पाता? विचारने की बात हैं। मेरे संपर्क में बहुत सी ऐसी युवतियाँ हैं, जिन्होंने विवाह के बाद जॉब करने के बाद, बहुत शौक से पढ़ाई लिखाई की, बच्चे हुए और बच्चे होते ही उन्होंने अपनी एम.न.सी की बड़ी-बड़ी, अच्छे-अच्छे पैकेज की जॉब को छोड़ा और आज वह बहुत खुश हैं। मैंने चर्चा में पूछा- कि ऐसा क्यों किया ? उत्तर बहुत ही संतोषजनक था, महाराज ! हमने देखा -परिवार, बच्चे और पैसा इन तीनों में तालमेल बनाना मुश्किल हैं, हमें जॉब से ज्यादा जरूरत अपने बच्चों की संभालने की हैं। हम अपनी इच्छाओं को सीमित करेंगे, पर बच्चों का भविष्य गड़ेंगे। जिन्हे इनका बोध हैं, वह कभी ऐसा नहीं करते। और एक बहुत बड़ा परिवर्तन मेरे देखने में आया कि अच्छी-अच्छी महिलायें अपना जॉब छोड़ कर, घर के संचालन को और संतान के पालन को ही अपनी सबसे बड़ी जॉब के रूप में देख रही हैं और आज वह खुश हैं।
मैं यह नहीं कहता कि महिलाएं नौकरी, व्यापार और व्यवसाय नहीं करे। मैं यह कहता हूँ कि उनको सबसे पहले यह बात समझने की आवश्यकता है कि मेरी नौकरी, मेरे व्यापार या मेरे पैसे से बड़ी जवाबदारी मेरे मातृत्व को संभालने की हैं। पहले अपना मातृत्व संभाल ले, मातृत्व की कसौटी पर खरे उतर जाए फिर उसे जो करना चाहे, वह करें। उसमें कोई समझौता नहीं होनी चाहिए और उसके संस्कार बचपन से होने चाहिए। तो माँ मातृत्व की गरिमा को समझें उसे कहीं कम न होने दे और संतान मातृत्व को महत्व दें।
माँ, मातृत्व, महत्व और ममता।
यह चार बातें हैं आज की। मातृत्व को महत्व दे, समझे माँ के मातृत्व को माने कि माँ मातृत्व का क्या है?
एक बार एक युवक मेरे पास आया, उसने कहा-महाराज बड़ी दुविधा है। मैं ने कहा-क्या हुआ? तो बोला- ‘अरे महाराज! मेरी माँ का नेचर बड़ा खराब है, मेरी माँ बड़ी खराब है, माँ बड़ी खराब है’। मैंने कहाँ – ‘तेरी माँ बड़ी खराब है तो तू अच्छा कहाँ से हो गया? खराब माँ की संतान तो खराब होगी’। नहीं, नहीं महाराज! माँ का नेचर खराब है। मैंने कहाँ- ‘क्या हो गया, माँ के नेचर को ‘। बोला- ‘बहुत चिड़-चिड़ापन आ गया है। उसकी तबीयत तो खराब होती है, दिन भर चिड़चिड़ाती है। महाराज! मैं तो जैसे तैसे थोड़ा बहुत सह भी लेता हूँ, झेल भी लेता हूँ पर मेरी पत्नी उसे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाती। अब क्या करूँ महाराज? कैसे एडजस्ट करूँ? कुछ समझ में नहीं आता। कही माँ को बाहर किसी तीर्थ स्थान में नहीं भेज सकते, कोई रास्ता नहीं। माँ कुछ समझती नहीं, मैंने उससे कहा – ‘भाई तुझे तेरी माँ खराब लगती है, पत्नी अच्छी लगती है। अब जो भी है, पर ध्यान रख, पत्नी तो तू अपनी पसंद से ले आया, माँ तो जो मिली है उसे ही पसंद करना पड़ेगा। माँ पसंद करके नहीं लाया जा सकता। तूने कहा- ’मेरी माँ खराब है, देख तू आज एक अच्छा इंसान बना किसकी कृपा से बना? तू कहता है – मेरी माँ का नेचर खराब है, मेरी माँ पढ़ी-लिखी नहीं है। गनीमत है कि तेरी माँ पढ़ी-लिखी नहीं है। यदि तेरी माँ आज की पढ़ी-लिखी माँओं की तरह तुझे पेट से परलोक पहुँचा दी होती, तो तेरा क्या होता? कभी विचार किया? कितनी बड़ी कृपा है। आभार व्यक्त कर अपनी माँ का कि उसने तुझे जन्म दिया, नौ माह तक अपने पेट में रखा और जन्म देने के बाद तेरे लिए कितना मातृत्व उड़ेला। तूने कितनी बार उसकी गोद गीली कियी, कितने बार उसके बिस्तर गीले किये और आज तू उसकी आँखें गीली कर रहा है। कैसी प्रवृत्ति है तेरी? विचार कर, तेरी हरकतों को तेरी माँ ने कितने प्यार से स्वीकारा। जब तू बच्चा था, तू कहता है मेरी माँ कुछ समझती नहीं। यह बता जब तू बच्चा था तो तुझमें कितनी समझ थी। उस समय तो तेरे पास इतनी भी समझ नहीं थी कि कौआ आकर तेरी आँखें निकाल ले और तो तू उसे भगा सके इतनी भी समझ नहीं। कहाँ मल करना, कहाँ मूत्र करना तुझे इसकी भी समझ नहीं थी, कब क्या बोलना, तू एक अक्षर भी बोलना नहीं जानता था। आज तेरे भीतर जो भी समझ आई है ना वह तेरी माँ की कृपा से आई है, तेरे पिता की कृपा से आई है। और तू इतना समझदार हो गया कि तुझे तेरी माँ ही नासमझ लगने लगी। मुझे तेरी समझदारी पर शंका है। इतना समझदार बन जाए कि माँ ही तेरे लिए नासमझ लगने लगे धिक्कार है! तुझे जब तेरी नासमझी के दिनों में तेरी माँ ने तुझे निभाया, बचपन में तुझे अपने प्यार से सींचा तो तुझे चाहिए कि बुढ़ापे में माँ को उतनी ही श्रद्धा से सीचों, भक्ति से सीचों। उसके प्रति अपनी सद्भावना रखो, यह तुम्हारा कर्तव्य है। तुम सोचते हो कि किसी तीर्थ स्थान पर माँ को पहुँचा दे, मैं तुझसे कहना चाहता हूँ- अपनी माँ को और अपने पिता को तीर्थ मानकर उसका सत्कार कर लो, तेरा घर ही तीर्थ बन जाएगा। वस्तुतः जिस घर में माँ-बाप का सम्मान होता है उस घर में भगवान का आशीर्वाद हमेशा फलता-फूलता रहता है। उसमें कुछ सोचने की बात नहीं है। पर बंधुओ ! यह कैसी विडंबना है? मेरे कहने से उसको कुछ समझ में आया। आज अच्छा है कि माँ है घर पर है लेकिन माँ तो माँ ही होती है। लोग माँ के मातृत्व की उपेक्षा करते है।
ऐसे-ऐसे कुसंतान हैं, जिनने अपनी-अपनी माँऔ के साथ किस-किस स्तर का निकृष्ट व्यव्हार किया। अभी कुछ दिन पहले कोटा से एक समाचार पूरे देश में प्रसारित हुआ। दो भाइयों ने अपनी माँ को कैद में करके रखा। ताले में बंद करके रखा, लंबी चौड़ी डेढ़ सौ बीघा से ज्यादा की संपत्ति माँ से तो हड़प ली, लेकिन माँ के लिए कुछ नहीं दिया। “अपना घर” एक संस्था है, कोटा में। मनोज आदिनाथ उसके एक अच्छे कार्यकर्ता हैं उनको मालूम पड़ा पत्रकारों से। वह अपनी टीम के साथ वहाँ गए। उसके बाद उसकी वीडियो भी मेरे पास तक आई है। आप लोगों ने भी देखा होगा टीवी चैनलों में। हर किसी के मन को मर्माहत कर दे। एकदम सुखकर काठ बनी हुई वृद्धा एक खाट पर, वही उसका मल-मूत्र पड़ा हुआ है, उल्टियाँ पड़ी हुई हैं। एक पल को कोई खड़ा ना रह सके, वैसी जगह में महीनों से रह रही थी। उनको वहाँ से मुक्त करा कर “अपना घर” में रखा गया। और तब कहीं जाकर बदनामी के डर से, पहले तो लोगों ने धमकाया कि ऐसा क्यों कर रहे हो, लेकिन जब स्वयं सेवी संस्थाओं ने आगे आकर दृढ़तापूर्वक उनका प्रतिकार किया तब आगे चलकर उनके बेटे आगे आए।
संपत्ति का उपभोग करने के लिए तो सब राजी, लेकिन माँ की सेवा करने के लिए कोई तैयार नहीं। लेकिन सबसे बड़ी मातृत्व की बात तो मैं यह कहूँगा कि माँ ने कहा- ‘कोई बात नहीं, हमारे बच्चों की गलती नहीं। हमारा अपना कर्म हैं उनको कुछ मत कहो।’ यह होता है मातृत्व! कहाँ जा रही है समाज, दिशा क्या है? विचार करने कि जरूरत है।
एक माँ ने वैधव्य अवस्था में अपने बेटे को पढ़ा लिखा कर डॉक्टर बनाया। डॉक्टर ने गाँव से बाहर शहर में अपना एक नर्सिंग होम खोला। माँ गाँव में अकेले रहती, महीना-पंद्रह रोज में एक-आद बार बेटा फोन कर लेता। माँ घर पर रहती, बेटा शहर में रहता। संयोग से माँ बीमार पड़ी। माँ के बीमार पड़ जाने के बाद जब बेटे को सूचना दी गई, बेटा आया और माँ को अपने अस्पताल में रखा। एक माह तक माँ का वहाँ इलाज हुआ। एक माह तक इलाज हुआ माँ ठीक हो गई और एक रोज बेटे ने माँ को वापस अपने गाँव में छोड़ दिया, माँ खुश थी। सप्ताह भर बाद उसकी डॉक्टरनी बनी बहू का एक पत्र माँ के पास आया। माँजी प्रणाम ! आशा है अब आप पूरी तरह से स्वस्थ हो गए होंगे, आप हमारे हॉस्पिटल में एक माह तक रहे, आपने इलाज कराया, बाकी सारी व्यवस्थाएं तो हम सब कर लेंगे पर हमारे अस्पताल के कुछ नियम हैं। आप हमारे अस्पताल में एक माह तक रहे, आपको एक विशेष कक्ष में रखा गया जिसका प्रतिदिन के हिसाब से पाँचसौ रूपये प्रतिदिन का किराया था। पंद्रह हज़ार का किराया और हमारे जो पैरामेडिकल स्टाफ का खर्च है वह दस हज़ार रूपए। कृपया कर पच्चीस हज़ार रूपए आप भेज दे। माँ ने उसे पढ़ा तो स्तब्ध रह गई। लेकिन अगले ही क्षण अपने आप को संभाला और उसने दूसरा पत्र लिखा- बहुरानी, आशीर्वाद। तुम्हारा पत्र मिला और तुम्हारे अस्पताल में मेरी चिकित्सा हुई और मैं ठीक होकर घर आ गई इनके लिए तुम दोनों को मेरी ओर से आशीर्वाद, अनेक आभार। अच्छा हुआ मैं आ गई हिसाब का ख्याल नहीं था। पर अच्छा हुआ तुमने मुझे हिसाब का ध्यान दिला दिया और बिल्कुल ठीक कहा है। पच्चीस हज़ार रूपए की देनदारी है और जब हिसाब की ही बात आई तो मैं ने सोचा कि अब हिसाब पूरा हो ही जाना चाहिए। मैंने तुम्हारे पति को नौ महीने तक अपने पेट में रखा, पच्चीस साल तक पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया डॉक्टर बनाया, आज एक अस्पताल खोला। आज तुम्हारा पति है। और जब हिसाब की ही बात है तो मैं यह सोचती हूँ कि पच्चीस साल की पढ़ाई लिखाई और पालन पोषण कि अगर देखें तो एक साल का अगर लाख रूपये का भी खर्च देखते हैं तो पच्चीस लाख रुपया तो यह होता है। और नौ महीने मैंने तेरे पति को अपने पेट में रखा है प्रतिदिन के सौ रुपए के किराए के हिसाब से भी अगर देखें तो तीन हज़ार महीना होता है। नौ महीने के पूरे सत्ताईस हज़ार होते हैं। ऐसा कर तेरे पति के पालन-पोषण और पढ़ाई- लिखाई के खर्च को तो मैं छोड़ती हूँ, मेरे पेट के सत्ताईस हज़ार के किराए में से अपना पच्चीस हज़ार काट ले और बाकी भेज दे। बहू की आँखें खुल गई।
काश मातृत्व को लोग समझे! जिस दिन तुम इसे समझोगे तुम्हारे भीतर मातृभक्ति अपने आप प्रकट हो जाएगी। संतान मातृत्व को समझेंगे, माँ को महत्व देंगे और माँ मातृत्व को समझेगी तो कभी भी गलत कार्य नहीं कर पाएगी। कहाँ माँ को मातृत्व की मूर्ति कहा गया, ममता का मंगल कलश कहा गया, वही माँ आज ऐसी भी माँ बन गई कि जो पेट से ही अपनी संतान को परलोक पहुँचा रही है। कहाँ गया उसका मातृत्व? विचार करो और इस तरह के कुकृत्य कितने बढ़ रहे हैं यह कितनी बड़ी हिंसा है,आपने कभी सोचा हैं? थोड़ी देर के लिए विचार करो कि तुम्हारे गोद में जो बच्चा पलता है उसके लिए तुम कितना प्यार उड़ेलते हो और जो कोख में पल रहा है उसकी हत्या। यह कैसा मातृत्व? उसका अपराध क्या है? यही है कि तुम्हारी इच्छा के बिना हुआ है। जब तुम्हे संतान चाहिए ही नहीं थी ऐसा किया क्यों? ऐसा क्यों किया? बीज बोया है तो फल तो खाना ही होगा। कितना बड़ा क्रूर कृत्य है, आप इसके बारे में सोच सकते हैं। लेकिन आजकल आम हो रहा है लड़के और लड़की के फर्क की मानसिकता ने लिंगानुपात बिगाड़ दिया। समाज की दशा बिगड़ रही है। आखिर इसे कराने वाली भी एक माँ है, कहाँ खो रहा है उसका मातृत्व, कहाँ जा रही है वो, ध्यान रखना गर्भपात मातृत्व पर कलंक है। यह एक सामान्य हत्या नहीं। यह हत्या है करुणा की, यह हत्या है मातृत्व की, यह हत्या है वंश की, यह हत्या है धर्म की। बहुत बड़ा क्रूर कृत्य है, जीवन में कभी इसके बारे में सोचना तक मत।
कई-कई बार ऐसा होता है अभी मैं जब उदयपुर में था माँ अपने बेटे के साथ आई। अठ्ठारह साल का बेटा, बोली महाराज, मुझसे बहुत बड़ा अपराध हुआ लेकिन पुण्य है कि मैं बच गई। बेटे की तरफ बताते हुए बेटे को बाहर करके उसने अकेले में मुझसे कहाँ, रोती आँखों से कहाँ कि महाराज जब यह मेरे पेट में था, मेरी दो बेटियाँ पहले से थी, जाँच कराने के बाद मालूम पड़ा कि यह तीसरी भी बेटी है। मेरा मन अबॉर्शन कराने का हो गया। मेरे पति का अबॉर्शन कराने के लिए विशेष दबाव था। महाराज जी! मैं अबॉर्शन कराने के लिए चली भी गई थी। एक परिचित डॉक्टर के पास गई। वह डॉक्टर जैन थी और उसने मुझे समझाया कि तुम यह पाप क्यों कर रही है जो जीव आ रहा है उसे आने दो, इस तरह का अपराध मत करो। महाराज! उसके समझाने के बाद उसने मुझे डरा भी दिया कि ऐसा करोगे तो तुम्हारे साथ बहुत सारे कॉन्प्लीकेशंस आ सकते, यह आ सकते, वह आ सकते, उसने मुझे कई तरीके से डराया और महाराज मैंने अपना निर्णय बदल लिया मैं वापस आ गई। महाराज! नौ मास पूर्ण होने के बाद मैंने इस बेटे को जन्म दिया और महाराज यह बहुत ही अधिक प्रतिभाशाली है, एक्स्ट्राआर्डिनरी पर्सनल्टी है और महाराज इस बच्चे ने आई.आई.टी में दौ सौ सेतींसवी रैंक पाया हैं और आज वह आई.आई.टी कर रहा हैं। मैं सोचती हूँ कि ऐसा में यदि कर बैठती तो कितना बड़ा अपराध होता महाराज! मुझे प्रायश्चित दीजिए कि मैंने हत्या करने का मन तो बना ही लिया था।
मैं आप से कहता हूँ- उस मासूम कली को खिलने से पहले कुचलने के पाप का आभास है? तुम माँ हो मातृत्व से भरी हो। बेटा हो या बेटी, उसके भीतर छिपी हुई संभावना को पहचानो और ऐसा कुकृत्य करने की कभी कल्पना भी मत करो। यह मातृत्व पर कलंक है जो आज आए दिन हो रहा है, विचार करने की जरूरत है जीवन में कभी ऐसा कृत्य करना मत और यदि कदाचित करने में आए तो उसका प्रायश्चित जरूर लेना। क्योंकि जिनने भी अपने जीवन में गर्भपात किया या कराया है वह सब महापातक के भागी हैं, वह सब सूतक ग्रस्त है, वह हत्यारिन हैं, हत्यारिन हैं किसकी ? अपने ही कलेजे के टुकड़े के टुकड़ा करने का अपराध किया हैं उनने। अपने ही खून का खून करने का अपराध किया है उनने। अपने ही जी के लाल को हलाल करने का पाप किया है उनने। उसका उसे प्रायश्चित लेना चाहिए और मैं तो कहता हूँ जब तक गुरु से प्रायश्चित ना ले ले तब तक ना तो उन्हें भगवान का अभिषेक पूजन करना चाहिए, न ही मुनियों को आहार दान देना चाहिए क्योंकि उनके हाथ अपवित्र हाथ हैं।
माँ; माँ बने, वो कुमाता ना बने और माता, माता तभी रहेगी जब तक कि उसका मातृत्व सुरक्षित है। मातृत्व रखे ममत्व नहीं रखें। मातृत्व और ममत्व में क्या अंतर है। मातृत्व का मतलब है अपने संतान को स्नेह भाव से सींचते रहना और ममत्व का मतलब है उसके प्रति मोह ममता रखकर उसके सब प्रकार के मनोभाव पूरा करना और उसके संस्कारों को बिगाड़ डालना। माँ में मातृत्व होगा तो संतान को सुसंस्कार देगी। और माँ केवल ममता से भरेगी तो उसके ममत्व से भरेगी, उसके हर अच्छे बुरे कार्य में अपना साथ देगी, उसकी बुराइयों को ढाकने की कोशिश करेगी, उसे गलत मार्ग में आगे बढ़ाएगी और नतीजा उसका जीवन बर्बाद होगा। आजकल ऐसा घर परिवारों में हो रहा है कई बार माँ ये अपने ममत्व के कारण अपने संतानों की गलतियों को छुपाए रखती है। अपने पति को भी नहीं बताती, पिता को भी उसकी भनक नहीं लगने देती और अंदर ही अंदर नासूर पलता रहता है, पलता रहता है और जब वो पक जाता है तब पानी तो सिर से निकल जाता है कुछ नहीं रह पाता। यह तुम्हरे ममत्व तुम्हारे और तुम्हारे संतान दोनों के भविष्य को अंधकार में बनाने वाला है। ममत्व नहीं रखना चाहिए, मातृत्व के सिरे से सिंचित करो। लेकिन संतान यदि कुछ गलत करें तो उन्हें समय-समय पर नसीहत दो, सही सीख दो ताकि वह कोई गलत कार्य करने में उतारूँ ना हो सके। यह माँ की एक जिम्मेदारी है क्योंकि ममत्व कि अधिकता संतान को बिगाड़ देती है और जब एक बार संतान बिगड़ जाती है तो बात को संभालना बहुत मुश्किल हो जाता है। तो यह ममता दुःख कि खान है। ऐसा ममत्व अपने ऊपर कभी हावी मत होने देना जो संतान को बिगाड़ दे।
देखिये! ममत्व युक्त माँ कैसे अपनी संतान को बिगाड़ती है, ममता रहित माँ अपनी संतान को रास्ते पर कैसे लाती है दो घटना मैं आपको बता रहा हूँ, जो लोगों ने मुझे आकर बताया मेरे संपर्क से जुड़े लोगों की बात मैं आपसे कह रहा हूँ। एक माँ अपने बेटे के प्रति बहुत ममत्व रखती थी और ममत्व ऐसा कि बेटा कुछ भी करें उसको प्रोत्साहित करती थी। बेटे ने जैसा कहा वैसा किया और बेटे के कहने पर उसने अपने पति के मनाही करने पर भी उसे कैसे स्कूल में दाखिल कर दिया जो उसके लायक नहीं था। बेटा चित्त का चंचल था। बेटा वहाँ गया और बेटा रोज माँ से पैसे की मांग करें। माँ अपने पति से छिपा छिपाकर उसको पैसा देते गई देते गई, देते गई नतीजा यह निकला कि वह लड़का टेंथ क्लास में ही ड्रग का एडिक्ट हो गया, ड्रग का एडिट हो गया उसे वापस वापस बुलाना पड़ा। आठवीं क्लास में बच्चों को भेजा दो साल में बच्चा बिगड़ गया। पहले से बिगड़ा था और बिगड़ गया। अब हालत खराब। माँ ने आड ले ली। बाद में जब मालूम पड़ा कि सारी सुविधाएं माँ के द्वारा दी गई थी उसे अपनी सुविधाओं को देने का पछतावा हुआ कि मैं क्या करूँ, मैं अपने मोह वश अपनी बात कि, एक ही बेटा है इसको कोई कष्ट नहीं होना चाहिए, देते गई बेटा बर्बाद हो गया।
एक दृश्य तो यह है ऐसे कई घरों में होता है। आप लोग देखिए चाहे बेटे की बात हो चाहे बेटी की बात हो। माँ ममता से भर कर भावनाओं में बहकर उसका पक्ष लेती है, बुद्धि का प्रयोग नहीं करती तो वह बर्बाद हो जाते हैं, ट्रैक से बाहर हो जाते एक यह रूप है।
और एक दूसरा रूप एक ऐसी माँ का, जिसका बेटा पढ़ रहा था। माँ ने पहले से ही अपने बेटे को बता दिया था कि देख मेरे घर की यह सीमा रेखा है, तेरे जीवन की यह सीमा रेखा है, तुझे अब अपने जीवन में इसे कभी लांघना नहीं है चाहे जो हो। बेटा पढ़ रहा था, ग्रेजुएशन कंप्लीट हो गया था एम .बी. ए. कर रहा था। एक दिन बेटे ने अपनी माँ से कहा कि मैं अपने पसंद की लड़की से विवाह करना चाहता हूँ, अपने पसंद की लड़की से विवाह करना चाहता हूँ। माँ ने सुना और माँ ने कहा – ठीक है तू लड़की को अपने पसंद की कर लिया तो तू अपनी पसंद से जियेगा फिर मुझे भूल जाना यदि तू मुझे अपनी माँ समझता है तो मैंने तुझे एक जो सीमा रेखा खींच दी उसके भीतर तुझे जो करना है सब स्वीकार है लेकिन यदि तू इन मामलों में मेरी पसंद को स्वीकारे बिना कुछ करेगा तो तू स्वतंत्र है। मैं अपने घर में इस बात को नहीं रहने दूँगी बेटे ने कहा- माँ! दुनिया तो बहुत आगे बढ़ गई इस तरीके से इतना नियंत्रण करने की क्या आवश्यकता है? माँ ने कहा- बेटे तुझे मैंने अपना दूध पिलाया है और मुझे अपने दूध पर भरोसा है। मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता अगर करता है तो मेरा बेटा नहीं भूल जाना, तुझे जो करना है तू अपनी तरीके से कर। पिता ने कहा- ठीक है बेटे को करने दीजिए लड़की, ठीक है सब, कुछ होगा नहीं I माँ बोली नहीं-लड़की से जब तक मैं बात नहीं करूँगी इसके विवाह में मैं सम्मति नहीं दूँगी। माना कि यह संबंध अपने बिरादरी का है लेकिन मैं जानती हूँ बच्चे जो भी निर्णय लेते हैं वह अनुभव पूर्ण नहीं होते, वह केवल भावनात्मक आवेग में निर्णय लेते हैं और हमारा निर्णय है वह अनुभव से भरा होता है, हम इस निर्णय के लिए बच्चे को अनुकूलता नहीं देंगेI थोड़े दिन घर में ऐसा चलता रहा लेकिन आखिर वह माँ अड़ी रही और अड़ी रहने के बाद विवाह नहीं हो पाया और दो साल तक लड़का ऐसे ही रहा। और एक रोज रात के ग्यारह बजे बदहवासी हालत में बच्चे ने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोलो पापा! दरवाजा खोलो मम्मी! दरवाजा खोलो क्या, क्या बात है? बहुत जरूरी बात है अभी ? सुबह कर लेना नहीं, अभी करना है। दरवाजा खोला तो देखता है कि बेटा एकदम बदहवासी हालत में और एकदम आपे से बाहर, क्या हो गया ? आपने जो कहा था वह बिल्कुल सही था अब हमें उससे विवाह नहीं करना, पचास तो गालियाँ सुनाई। पिता ने पूछा- क्या बात हो गई, क्या हो गया बेटे- बोला आज मुझे उसका फेसबुक का पासवर्ड मिल गया और मैंने देखा तो वह किसी और लड़के से चैट कर रही थी। और मैंने उसका पूरा चिट्ठा खोल लिया। मैंने देखा कि अरे ! मैं कितना गलत था। आप लोग कितने सही थे। यदि आपकी बात को मैं पहले मान लिया होता तो ऐसा नहीं होता। आप सही हो हम गलत हैं। मेरे रोने-धोने पर मेरे मोह में आपने मेरा ऐसा संबंध किया होता तो मेरा जीवन बर्बाद हो गया होता। आपने हमें मुझे बचा लिया आप धन्य हो और वही उसका संबंध खत्म हुआ। आज उसकी गृहस्थी बस गई वो बड़ा खुश है। मैं आपसे केवल इतना कहता हूँ अगर माँ बाप बेटे के ममता में पहले सम्मति देते तो उसके जीवन से खेलते या नहीं खेलते बस मैं इतना ही कहता हूँ –भावना के बहाव में मत बहो, बुद्धि से विचार करके निर्णय लो तभी हमारा जीवन सफल होगा तो माँ मातृत्व को, ममत्व को, चारों बातों को हम ध्यान रखे माँ की महिमा को समझे, मातृत्व की महिमा को समझ कर उसे बरकरार रखें और माँ के मातृत्व को महत्व दें और माँ बच्चों के प्रति मातृत्व उड़ेले ममत्व नहीं। इसी भाव के साथ यहीं पर विराम बोलिए परम पूज्य आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज।