ललक अपने में लीन होने की

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ललक अपने में लीन होने की

शिष्य ने गुरु से पूछा कि इतना धर्म सुनने के बाद भी धर्म के प्रति हमारा लगाव क्यों नहीं बन पाता? गुरु ने उत्तर दिया कि बस श्रवण मात्र से लगाव नहीं होता,लगाव तब होता है, जब हमारे मन में लगन लगती है। आज बात ‘ल’ की है। लगाव की चार बातें आप सब से कहूंगा,  

लगाव

ललक

लगन और

लीनता

लगाव हमारे जीवन की प्रारंभिक भूमिका है और लीनता साधना का चरम उत्कृष्ट रूप। हमें लगाव से लीनता की ओर यात्रा करनी है। लगाव बहुत प्रारंभिक भूमिका है, हमने सुना, थोड़ा सा आकर्षण मन में उत्पन्न हुआ, हमारा लगाव बढ़ गया लेकिन यह लगाव टिकता नहीं ऐसा इसलिए नहीं टिकता क्योंकि हमारा लगाव बहुत दूसरी चीजों से ज्यादा है, संसार की चीजों से ज्यादा है और एक शब्द और है लत। मनुष्य की कुछ लत ऐसी होती है जो उसे बदलने नहीं देती। संत कहते है- धर्म क्षेत्र में लगाव होना बहुत दुर्लभ है, बहुत थोड़े लोग हैं जिनके ह्रदय में धर्म के प्रति कुछ लगाव होता है। जो अपने जीवन के बारे में थोड़ा बहुत सोचते है, अपने कल्याण की जिनके ह्रदय में इच्छा जगती है, उनके मन में लगाव होता है लेकिन यह जरूरी नहीं कि जिनके मन में लगाव हो, उनके हृदय में ललक भी हो। लगाव सबसे प्रारंभिक भूमिका है, आप सब लगाव वश यहां तक आए हो। लगाव हुआ, जुड़ाव हुआ, हमने उसे एक अच्छा कार्य माना कि धर्म का कार्य अच्छा है, मुझे करना चाहिए, यह मनोभाव लगाव के साथ जुड़ता है। आपके हृदय में वो लगाव घट गया लेकिन लगाव को लगाव तक रखे, लगाव को प्रगाढ़ ना बनाए तो अलगाव होते देर नहीं होता। आज बहुत सारे लोग हैं, जिनके मन में जब साधु संतों का समागम होता है, धर्म के प्रति लगाव दिख जाता है, खूब अच्छी संख्या में दिखते हैं और अभी पर्युषण आने वाला है, आपके हृदय में धर्म का लगाव दशलक्षण के दिनों में दिखेगा, सारे मंदिरों में भीड़ दिखेगी, जो 12 महीने मंदिर नहीं जाते, वह 10 दिन मंदिर जाते है। लोग पूजा करेंगे, पाठ करेंगे, व्रत करेंगे, उपवास करेंगे, ऐसे-ऐसे लोग जो व्यसनों में भी लिप्त हो वो भी 10-10 दिन का उपवास कर लेते हैं, यह लगाव है। लेकिन 11 वें दिन, क्या हुआ, लगाव कहां गया? तो यही है लगाव का परिणाम, जो कब अलगाव में बदल जाए, कोई पता नहीं। लगाव हुआ और साथ ही साथ अलगाव की बात आ जाती है। लगे रहो, लगे रहो, लगाव बरसाती मेंढक की भांति होता है, बारिश में टर-टर करता है और बारिश खत्म होने के बाद उसका पता ही नहीं चलता। लगाव की भूमिका प्रारंभिक भूमिका है पर पर्याप्त नहीं हैं। तुम सब भाग्यशाली हो कि तुम्हारे मन में लगाव है लेकिन एक कदम आगे चलो, लगाव को ललक में बदलो।

लगाव और ललक में फर्क जानते हैं, ललक किसको बोलते हैं? तीव्र उत्कंठा, तीव्र पिपासा, उसके बिना में रह ही नहीं सकता, सब काम छोड़ दूँ, यह नहीं छोड़ सकता। यह ललक है, तुम्हारे अंदर कितना ललक है। तीन मित्र, एक होटल में चाय पीये, एक ने चाय पी और कप को उल्टा करके रख दिया, दूसरे ने चाय पी उसने कप को सीधा रख दिया और  तीसरे ने चाय पी उसने कप को लेटाकर रख दिया। उसके पीछे की टेबल में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर अपने कुछ छात्रों के बैठे थे, छात्रों ने अपने प्रोफेसर से पूछा कि सर तीनों लोगों ने चाय पी, पर चाय के कप को तीनों ने अलग-अलग स्टाइल में रखा, इसकी वजह क्या है? यह इनके किस मनोवृत्ति को दिखाता है? तो कहा, यह तीनों की अलग-अलग मानसिकता का उदाहरण है, पहले जिसने एक कप को उलट कर रख दिया, वह इस बात को दर्शाता है इसके लिए चाय पर्याप्त हो गई, अब इसे चाय नहीं चाहिए। जिसने कप को सीधा रखा है, उसकी मनोवृति यह दर्शाती है कि इसे अभी चाय और चाहिए और तीसरा है वह बड़ा अलग है, वह बीच वाला है उसने कप को लिटा कर रखा है, मिल जाए तो ठीक, न मिले तो ठीक। तुम्हारा कप कैसा है, यह तुम्हें देखना है? संत कहते हैं- यदि तुम्हारे हृदय में ललक जग गई तो तुम्हारी कप हमेशा सीधी रहेगी, धर्म कि प्यास बनी रहनी चाहिए। एक है लगाव उसका विरोधी है लत और एक है ललक उसका विरोधी है लिप्सा। लिप्सा मनुष्य के हृदय में जगती है, लत का शिकार मनुष्य होता है लेकिन उसके भीतर लगाव जैसा होना चाहिए वो नहीं दिखता और उसके अंदर ललक जैसी होनी चाहिए, वह नहीं दिखती। धर्म की ललक जगाओ उसके बिना बेचैन हो जाए। मैं आपसे एक सवाल करता हूं, जिससे आपका प्रेम होता है, जुड़ाव होता है, लगाव होता है, उससे हर पल मिलने की इच्छा होती है कि नहीं होती, होती है, क्यों होती है? लगाव है। नहीं, प्रगाढ़ लगाव है, उसके प्रति मेरे मन में प्रगाढ़ लगाव है, इसलिए हर पल उससे मिलने की इच्छा होती है, उससे बात करने की इच्छा होती है, उसके बारे में सुनने की इच्छा होती है, उसका गुणगान करने की, उसकी प्रशंसा करने की इच्छा होती है, जहां चाहे देखे बस उसको, उसको, उसको देखने की मन में प्रबल उत्कंठा होती है। होती है, यह क्या है? यह ललक है, उसके बिना मन बेचैन हो जाता है। मैं पूछता हूं, तुम्हें धर्म की ललक है, परमात्मा की ललक है, प्रभु की ललक है, गुरू की ललक है या नहीं, देखो अपने भीतर जांच-परख कर देखो अगर ललक जग गई तो तुम बेचैन हो जाओगे, भाग-भाग कर आओगे, देखो आते है आने वाले। 8-10  दिन नहीं होते कहते है, महाराज! बेचैन हो जाते है, चलो आना है, मन को रिचार्ज कर लेना है तो संत कहते हैं- यह ललक तुम्हारे हृदय में जग गई तो तुम्हारी जीवनधारा बदल जाएगी। लिप्सा भोगों की होती है, लिप्सा पैसों की होती है, लिप्सा दुनियादारी की होती है, वह तो तुम्हारे अंदर दिनों-दिन बढ़ती है, वह उत्तरोत्तर बढ़ रही है, उस लिप्सा को घटाने के लिए ललक बढ़ाओ और उस लत को मिटाने के लिए इधर लगाव बढ़ाओ। लिप्सा कम करो, करना चाहते हो कम अपने आप? स्वभाविक है जिस मनुष्य का धर्म से गाढ़ जुड़ाव हो जाता है, लगाव हो जाता है, उसकी लिप्सा अपने आप कम होने लगती है। हमारे यहाँ आचार्यों ने लिखा है-

जैसे-जैसे हमारे हृदय में अपने भीतर के तत्व के प्रति ललक बढ़ती जाती है, हमारी विषयों की अभिरुचि अपने आप घटती जाती है, वो लिप्सा, वो भोग-आकांक्षा अपने आप शांत होने लगती है और जब वो मिटेगी तो हमारी प्रवृत्ति में सहजता और सरलता स्वत: प्रकट होगी। अपने भीतर की उस ललक को प्रकट करने का पुरुषार्थ करो, पहला काम लगाव बढ़ाओ और दूसरा लगाव है तो उसे ललक में परिवर्तित करो। ललक जग जाने का मतलब, ललक प्रकट होने का मतलब, हमारे जीवन की प्राथमिकताओं का बदल जाना, मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता मेरा धर्माचरण हैं,। मैं और चीजें बाद में करूंगा पर पहले मेरा जो मूलभूत कर्तव्य है वह मुझे करना है। धर्म के आचरण की ललक का मतलब जीवन को सुधारने का प्रगाढ़ संकल्प लेना, अपने जीवन की पवित्रता का सत-प्रयत्न करना, मुझे अपने आप को सुधारना हैं, मुझे अपने आप को बदलना है, भीतर से पूरा परिवर्तन करना है और उसके लिए जो भी माध्यम है वह मुझे स्वीकारना है, तुम लोगों के अंदर ललक भी लग जाती है और वह ललक होती है लेकिन कभी-कभी प्रायः यह देखने में आता है कि जो ललक है वह धार्मिक क्रियाओं के प्रति तो बढ़ जाती है भीतरी धर्म के प्रति नहीं दिखती। धार्मिक क्रियाओं को तुम पूरी उत्कंठा के साथ करते हो, उसके प्रति तुम्हारी इतनी ललक, पिपासा कि नहीं मैं प्रवचन सुन लूंगा, मैं स्वाध्याय करूंगा, मैं पूजा-पाठ करूंगा, मैं गुरुओं के सानिध्य में रहूंगा, उनकी सेवा करूंगा और दान, कहीं मौका नहीं छोड़ते, कब मौका मिले और मैं आगे बढूं, निश्चित उनका ये कृत्य प्रसंशनीय है पर पर्याप्त नहीं है। इन क्रियाओं के प्रति तुम्हारी जितनी ललक है, जिसके लिए यह क्रिया कर रहे हो उसके प्रति ललक है, तुम्हारे अंदर ऐसी ललक कभी क्यों नहीं दिखती कि मैं अपने स्वभाव को बदल लूंगा, मैं अपने दोषों का शमन करूंगा, मैं अपनी दुर्बलताओं को दूर करूंगा, मैं अपने दुर्गुणों को नष्ट कर लूंगा, मैं अपनी आत्मा को पवित्र बनाऊंगा, अन्तस्करण को निर्मल बनाऊंगा, ये ललक, मुझे बनाना है, मुझे करना है, अब जो कुछ करना है खुद को सुधारना है। अगर यह ललक जग गई तो फिर ज्यादा उपदेश की आवश्यकता और अपेक्षा नहीं रहेगी। मेरे संपर्क में एक व्यक्ति है, जिस व्यक्ति का धर्म से कोई लगाव नहीं था, कोई लगाव नहीं बल्कि लोगों की निगाह में वह घोर नास्तिक और दुर्व्यसनी व्यक्ति था। एक रोज आया और मेरा केश-लोच हो रहा था, वह केश-लोच देख रहा था। आज से लगभग 27 बरस पुरानी बात जब मेरे बाल बहुत घने थे, केश-लोच करने में मेरी दोनों हाथों की चारों उँगलियाँ कट जाती थी, खून आते थे, बालों के घर्षण से खींच जाते थे, बड़े घने बाल थे। मैं केश-लोच कर रहा था और वो व्यक्ति 2 घंटे तक लगातार मेरे केश-लोच को देख रहा था और आंखों से आंसू की धार, रोए जा रहा था। मेरा लोच पूर्ण हुआ, उसके बाद उसने मेरे चरणों में शीश रखा, उसके बारे में मैं पहले से सुन रखा था, उसके परिवार के लोग मुझे कई बार उसके बारे में बता चुके थे लेकिन जब तक व्यक्ति का पुण्य नहीं जगता तब तक उसके लिए निमित्त नहीं मिलते। उसने अपना परिचय दिया और कहा महाराज मैं घोर पापी, अधम, नीच हूँ। मैंने हर वह कार्य किया जो मुझे नहीं करना चाहिए। आज आपके दर्शन से मेरा हृदय बदल गया और आज से मैं अपनी सारी बुराइयां आपके चरणों में छोड़ता हूं। मैंने देखा मिट्टी गीली है, इसको अभी आकार दिया जा सकता है। मैंने उसे सम्बोधा और कहा सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो भूला नहीं कहलाता। तुम एक संकल्प ले लो कि आज जो बुराइयां यहां छोड़े हो, उसे दोबारा कभी नहीं अपनाउंगा। उसने प्रतिज्ञा की, उस दिन से उसके जीवन में परिवर्तन आ गया, गाढ़ लगाव हो गया। दूसरे दिन सुबह पहले आ गया, पौ फटने के पहले से मेरे पास आ गया और देखा तो चौके में आहार देने के लिए आ गया। चौके में आहार देने आ गया तो जो शराब पीते हैं मैं उनसे आहार नहीं लेता, अगर मुझे मालूम है। अब चोक में आहार दिया, एक दिन पहले छोड़ा, पर पुराना अनुभव था कि बहुत से शराबी छोड़ तो देते हैं, पर तुरंत तोड़ भी देते हैं, उनके नियमों का भरोसा भी नहीं रहता। अब आहार देने आया, अब मेरे सामने दुविधा मनa करता हूँ तो मामला गड़बड़ और लेता हूँ तो मामला गड़बड़। क्या करूं? मैंने दिमाग से काम लिया, गर्मी का मौसम था, पसीने से अंतराय ना आए, इसलिए कुछ लोग गमछे से हवा कर रहे थे, मैंने उसे गमछा पकड़वा दिया, वह हवा करता रहा। आहार पूर्ण हो गया, मैंने उससे आहार नहीं लिया, उसने भी उस जगह पर कुछ प्रतिक्रिया नहीं की। जब मैं कक्ष में आ गया, आने के बाद उसने कहा महाराज मेरे अपराध को क्षमा नहीं करोगे क्या? मैं बोला क्षमा तो कर दिया तो महाराज आज आपने मुझसे आहार क्यों नहीं लिया। मैंने कहा, अभी तूने कल ही छोड़ा है, अभी तुझ पर मेरा भरोसा कायम नहीं हुआ है। जब भरोसा हो जाएगा तब तुझसे आहार लूंगा तो उसने कहा महाराज अब मैं भी पक्का ठान लेता हूँ, अपने आपको साबित करके आपको आहार दूंगा। आप आज्ञा दे चौके में आ सकता हूं । मैं बोला आ सकते हो। चौके में आओगे हवा करोगे और में तुम्हे ऑब्सेर्वे करूंगा, कुछ दिन देखूंगा, जिस दिन मुझे समझ में आ जाए कि अब तुम सुधर गए हो, तब तुम से आहार लूंगा अन्यथा नहीं लूंगा। वह रोज आया और एक दो बार लोगों ने कहा भैया दे लो। बोला, नहीं। मैं अभी परीक्षा दे रहा हूं, जब पास होऊंगा तो आहार दूंगा और आहार देकर ही रहूंगा और उसने मन ही मन संकल्प ले लिया कि जब तक आहार नहीं दूंगा और आहार इधर-उधर नहीं दूंगा अपने घर में चौका लगाकर के दूंगा और जब तक आहार नहीं दूंगा तब तक उसने कई सारे त्याग ले लिए। एक दिन किसी ने मेरे सामने उससे पूछा, भैया तुमने तो बड़ा बदलाव आ गया, तुम यह सब कैसे कर पा रहे हो। उसने कहा, बस गुरुवर ने ललक जगा दी है, अब मैं पाके ही छोडूंगा। उस व्यक्ति में जबरदस्त बदलाव 1 महीने तक मैंने देखा, मुझे भी लगा कि यह आदमी तो एकदम पश्चिम से पूरब में आ गया है, बदलाव हो गया। तब मैंने उससे कहा तुम्हारी पात्रता प्रकट हो गई है, अब तुम चाहो तो अपना काम कर सकते हो, फिर मैंने जब वह अपने घर में चौका लगाया तो उसके घर में आहार हुआ और उसके हृदय की ललक इतनी प्रगाढ़ हुई की वो ललक लगन में बदल गई और आज वो व्यक्ति सप्तम प्रतिमा का आराधक है। जीवन में इतना बड़ा बदलाव, लगाव और ललक, तुम्हारे हृदय में ललक जगे, प्यास जगे, पिपासा जगे नहीं यह तो मुझे करना ही है, यह तो मुझे पाना ही है, इतना तो मुझे करना ही है, इसे मुझे छोड़ना नहीं है ऐसी प्रगाढ़ ललक अपने अंतस में जगाइए फिर कुछ होगा ही नहीं। तो जैसा मैंने कहा, ललक जगाएं, कैसी?  बाहर की भी और भीतर की भी। बाहर यानि धर्म की क्रिया की और भीतर यानि चित्त के शुद्धिकरण की। यह ललक जीवन में बदलाव लाती है, मेरे जीवन में जो बदलाव घटित हुआ, गुरुदेव को देखकर मेरे मन में लगाव हुआ धर्म से, जब तक मैंने गुरुदेव को नहीं देखा तब तक मुझे धर्म के प्रति आस्था ही नहीं थी। और गुरुदेव को देखकर धर्म से लगाव हुआ और जब उनके संपर्क में आया तो ऐसी ललक जगी, ऐसी ललक जगी कि मन में ठान लिया कि अब अगर मार्ग चुनना है तो यही मार्ग चुनना है, यही मार्ग चुनना है। जीवन का आदर्श रूप यदि कुछ है तो बस और बस केवल यही है उस ललक ने मुझे गुरु चरणों से लगा दिया और जब मैं गुरु चरणों में लीन हो गया तो आज जो सामने है वो आप सबके सामने हैं। मैं आप सब से कहता हूँ, अपने लगाव को ललक में बदलिए और फिर ललक जग जाये तो लगन लगा लीजिए। ललक के आगे क्या है लगन। लगन यानि तत्परता, एकदम तत्पर हो जाओ, उसमें अपना 100 % देना शुरू कर दो। किसी भी प्रकार का प्रमाद रखे बिना, समर्पित भाव से उसमें लग जाओ, यह है लगन। आप लोग बोलते हो, तुमसे लागी लगन ले लो अपनी शरण पारस प्यारा, मेटो-मेटो जी संकट हमारा, जब हम बोलते होंगे तो भगवान पारसनाथ मन ही मन हंसते होंगे कि ये लगन तो बोलता है, लगन मगन है नहीं क्योंकि औरों में मगन है, उसकी मेरे से क्या लगन होगी। जो दुनिया में मगन हैं उसका प्रभु से लगन नहीं हो सकता। ललक को लगन में बदलिए, एकदम तत्पर हो जाइए, समर्पित हो जाइए। समझ गए, वह लगन लगे, आप लोग बोलते है, लागी लगन नहीं तोड़ना, प्रभु जी मोरी लागी लगन नहीं तोड़ना। तब भगवान कहते हैं तोड़ने वाला थोड़ी हूं, ना मैं लगन लगाता ना तोड़ता हूँ, तू ही लगाता है, तू ही तोड़ता है। तेरे अंदर यह अगर भाव है कि मेरी लगी लगन टूटे नहीं, मेरी लगन लगी रहे कभी टूट ना पाए तो तुझे चाहिए बाकी सब के लगाव को घटाएं, अपने अंदर ललक जगाये और पूरा जो है यहां समर्पित कर दे। लगन निष्ठा से जुड़ा हुआ है। लगन और निष्ठा से पूर्ण श्रद्धा के साथ और तत्परतापूर्वक काम करो। हमने जो मार्ग पकड़ा है, उस मार्ग में मेरी पूर्ण लगन होनी चाहिए। मैं मुनि बना, आत्मा से लगाव हुआ, धर्म से लगाव हुआ, मुनि बना, आत्मा के कल्याण की प्रबल ललक जगी, मैंने दीक्षा ली और दीक्षा लेने के बाद जब मैं मुनि बन गया, आज भी मेरे मन में मेरे मुनिपने को निभाने की लगन है तब मैं मुनिपने में टिका हूँ। मेरी लगन अगर थोड़ी सी भी गड़बड़ा जाए, कमजोर हो जाए तो क्या होगा? तुम लोगों को मुनि दिखूंगा पर मैं भीतर से मुनि नहीं रह सकूंगा। तुम्हे मुनि दिखूंगा पर मैं भीतर से मुनि रह सकूँ, यह कोई जरूरी नहीं, क्यों, ललक नहीं है। तुम जो पाना चाहते हो, उसके लिए लगन लगाओ, लग जाओ, इधर-उधर मत देखो, फिर कहीं मगन नहीं होना, लगन लगेगी तभी लक्ष्य को प्राप्त कर पाओगे, बिना लगन के लक्ष्य नहीं होता, समझ गए। बिना लगन के लक्ष्य तक पहुंचा नहीं जाता, मेरे मन में कितना भी लगाव हो, कितनी भी ललक हो, ललक जब लगन में बदले, ललक तो अंदर की प्यास है और लगन भीतर का प्रयास है। प्यास मात्र पर्याप्त नहीं, प्यास के आगे प्रयास चाहिए। हां, जिसको प्यास होती है, वही प्रयास करता है। प्यास प्रबल होगी तो प्रयास के बिना रहोगे नहीं। किसी को पानी की तीव्र प्यास लग रही है, वह जहां चाहे वह पानी पायेगा, भले ही पाताल खोदना पड़े। तुम्हारे अंदर लगाव हो, ललक हो, प्यास जग जाए और उसके बाद जब तुम्हारे मन में लगन लगेगी, उस का प्रयास करोगे, तब परिणाम हासिल कर पाओगे। मैं एक धर्मी हूँ, बोलो धर्मी हो कि नहीं, बोलो इतना डर क्यों रहे हो, जोर से तो बोलो, धर्मी हो तो हमेशा धर्म की ललक जगाओ और धर्म में लगन लगाओ।

अगर तुम अपने आप को धर्मी कहते हो तो धर्म की ललक जगनी चाहिए और लगन लगनी चाहिए। धर्म के कार्य में तुम्हारी कैसी ललक है और धर्म के प्रति तुम्हारी कितनी लगन है, इसका आभास तुम्हारी तत्परता से होता है। तुम कितने तत्पर हो और सच्ची लगन लग जाए तो  तुम्हारी सारी प्राथमिकताएं बदल जाएगी। भैया, छोड़ो, पहले मेरा जो काम है वह मुझे करना है, बाकी काम बाद में। वह लगन लगनी चाहिए, एक बार लगन लग जाए, जीवन में आमूलचूल परिवर्तन आयेगा। मेरे संपर्क में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिनने अपनी लगन-निष्ठा के बल पर अपने जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन घटित किया। मैं एक स्थान पर था, पर्युषण पर्व में सार्वजनिक प्रवचन में 10 दिन बाहर पांडाल बनाकर के प्रवचन का कार्यक्रम रखा गया। सार्वजनिक प्रवचन के उस क्रम में बहुत लोग आते थे, हजारों लोग थे पर एक दाढ़ी वाले सज्जन एकदम आगे बैठते थे और प्रवचन के समय मैंने देखा कि उनमें बड़ी तन्मयता थी। उनकी भाव-भंगिमा को देखकर ऐसा लगता था कि यह व्यक्ति प्रवचन बहुत गहराई से सुन रहा है। कार्यक्रम पूरा हुआ। दशलक्षण के बाद पारणा का दिन आया, वहां सामूहिक पारणा की व्यवस्था थी। सभी लोगों को शोभा यात्रा में लेकर के पारणा के लिए ले जाया जा रहा था और जिन लोगों ने उपवास किया था वो लोग सब आशीर्वाद के लिए आए हुए थे। उसमें वह भी था। मैंने पूछा आपने भी उपवास किया। जी महाराज! आपके आशीर्वाद से किया। मेरा उनका कोई परिचय नहीं क्योंकि पर्युषण के पहले उस व्यक्ति की शक्ल भी मैंने नहीं देखी थी। आपके आशीर्वाद से मैंने उपवास किया है। मैंने कहा बहुत अच्छी बात है, पारना हो गई। उसके बाद दोपहर में मैं सामायिक से उठा, बाहर निकला तो देखा तो वह दरवाजे पर खड़ा था और मुझे देखते ही मेरे चरणों में गिर पड़ा। आंखों से आंसू की धार, करीब 1-2 मिनट उस व्यक्ति को सामान्य होने में लगे। जब सामान्य हुआ तो उस व्यक्ति ने कहा, महाराज! आपने मेरे जीवन की दिशा बदल दी, अब बस मैं आपके चरणो में इतना ही कहना चाहता हूं कि मेरा उद्धार कीजिए, मैं हाई सोसाइटी के नाम पर वह सब काम किया जो मुझे नहीं करना चाहिए। वह एक रेलवे की कंपनी में इंजीनियर थे, प्रोजेक्ट मैनेजर थे, कंस्ट्रक्शन कंपनी थी। बोला, महाराज जी! मैं यहां पर 3 साल से अपनी साइट पर काम कर रहा हूं, पता नहीं, मेरे साथ क्या हुआ, मैं दसलक्षण में भी मंदिर कभी नहीं आता था। अखबार में आपकी आपके प्रवचन के अंश पढ़े। मेरे मन में आकर्षण हुआ, चलो दसलक्षण है, दस दिन प्रवचन सुन लो। आप के पहले दिन के प्रवचन ने मुझे हिला दियाऔर मैंने तय किया कि अब मुझे बदलना चाहिए और अपने पापों का क्षय करना चाहिए। मैंने अब तक जो पाप किया उसे मुझे साफ करना है। महाराज मैंने पहले ही दिन यह संकल्प ले लिया कि मैं 10 दिन उपवास करूंगा। महाराज जी! आपके आशीर्वाद से 10 दिन के मेरे उपवास हो गए और बहुत अच्छे हुए। दसों दिन में मैंने केवल एक बार जल लिया। महाराज जी! मैंने यह  पाया कि 10 दिन में मैंने उपवास किया, इससे मेरा बड़ा शुद्धिकरण हो गया ।वह प्रतिदिन प्रवचन में भी आता था, तत्वार्थसूत्र में भी आता था, पूरे कार्यक्रमों में आता था। उन दिनों शिविर नहीं लगते थे, जो कार्यक्रम था उसको पूरा अटेंड किया। वो बोला मैं एकदम बदल गया आज मैं अपनी सारी बुराइयां आपके चरणों में छोड़ता हूँ। उसने कहा कि मैंने ऐसा कोई कर्म नहीं छोड़ा, जो मुझे नहीं करना चाहिए था। मैंने सब किया पर महाराज ह्रदय मेरा कचोट रहा है। आपके संपर्क में आने के बाद मुझे ऐसा लगा कि मैंने अपने जीवन के 45 वर्ष व्यर्थ खो दिए। महाराज! आँखे खुल गई है, लगन लग गई है। अब तो बस आप के मार्ग में ही लगना है। मैंने देखा, इस आदमी को अब ज्यादा उपदेश देने की जरूरत नहीं है। उसने संकल्प लिया और कहा महाराज मैं आगे बढ़ूँ, ऐसा आशीर्वाद दो। यह 1994 की घटना हैं, हमारा कटनी में प्रवास था, उसके बाद वह व्यक्ति 1996 में मेरे पास आया। इस बीच उसका ट्रांसफर कटनी से अजमेर हो गया और 1996 में जब वह व्यक्ति आया तो उसका तो हूलिया ही बदला हुआ था। सामान्य सा कुर्ता और पायजामा पहना था। बाल भी छोटे-छोटे रखे हुए थे और मुझसे मिला और बोला महाराज जी 1 साल से आपके पास आने की भावना रख रहा हूं लेकिन आ नहीं पाया, काम का लोड बहुत होने के कारण पर महाराज आज समय निकालकर आपके पास आया हूं और उसने जो अपनी चर्या बताई, उसे सुनकर मैं भी कुछ पल के लिए अचंभित रह गया। उस व्यक्ति ने प्रतिदिन दो बार सामायिक का नियम ले रखा था। प्रतिदिन दो बार सामायिक करता, सुविधानुसार भगवान की पूजा करता था, दिन में दो ही वक़्त खाने-पीने का नियम ले लिया, दो ही बार भोजन करेंगे, दो ही बार पानी पियेंगे। उसके अलावा कुछ नहीं करेंगे, एकदम बदलाव और बोला मैंने रिश्वत का त्याग कर दिया, ऊपरी कमाई का त्याग कर दिया, जो पहले करता था वह सब बंद कर दिया। महाराज! में स्वाध्याय भी करता हूं लेकिन एक दिन स्वाध्याय में मैंने पढ़ लिया कि बाहर का चला हुआ खाना नहीं खाना चाहिए तो महाराज ! मेरे साथ कई बार ऐसा होता है, अजमेर में मेरी साइट दूर है। मुझे 7-7:30 बजे घर से निकलना होता है और मैं खाना खा कर जाता हूं और सूर्यास्त के पहले लौटता हूं तो शाम को खाता हूं नहीं तो एक ही बार खाकर के रह जाता हूं। महाराज! इन दिनों मैंने अपने भीतर बहुत बड़ा बदलाव घटित किया है। पहले मुझे बात-बात में गुस्सा आता था, अब मैं बहुत शांत रहने लगा हूं। पहले मेरी सोच एकदम नकारात्मक थी, अब बहुत सकारात्मक हो गई। महाराज! अब तो यह सब नि:सार लगने लगा है। बस 2 बेटियां हैं, उनका संबंध हो जाए और मैं तो आपके ही मार्ग में लगना चाहता हूं। यह है लगन, लगन लग जाए तो कुछ भी असंभव नहीं है।

आप अपनी लगन लगाइए तो लगाव, ललक, लगन और जब लगन हो जाए तो मग्न। बिना लगन के लीनता हो ही नहीं सकती। किस में लीन हो जाओ? अपने आप में लीन हो जाओ, प्रभु में लीन हो जाओ, धर्म में लीन हो जाओ काम हो जाएगा। लगन से काम करो और  लीन होकर काम करो, लवलीन होकर काम करो। अगर हमारी लगन नहीं होगी तो हम लीन नहीं हो सकेंगे तो चाहे लोक का कार्य हो या लोकोत्तर हित की बात हो। अभी मैंने आपको जो भी बातें बताई, आध्यात्मिक उन्नति के संदर्भ में बातें बताइ, यदि ये चारों बातें आपने आत्मसात कर ली तो वह दिन दूर नहीं जब आप अपने जीवन में परिवर्तन घटित कर सको। अपने आप में रूपांतरण गठित कर सकूं और जब तक यह बातें घटित नहीं होगी, तब तक तो सब बातें आई-गई होगी। यहां बैठे लोग वर्षो से प्रवचन सुनते हैं और प्रवचन सुनकर के बड़ा आनंद लेते हैं लेकिन मैं आप से कहता हूं प्रवचन सुन कर आनंद लेना, प्रवचन का आनंद लेना और प्रवचन सुनकर जीवन को आनंद से भरना इन में बड़ा अंतर है। प्रवचन का आनंद लेना, प्रवचन सुनकर आनंदित होना इनमे अंतर है। प्रवचन सुनकर जीवन को आनंदित करो तब जीवन में स्थाई बदलाव होगा वह तुम्हारे जीवन की सच्ची उपलब्धि बन सकेगी। उस दिशा में अपना पुरुषार्थ होना चाहिए, प्रयास होना चाहिए। हमें ऐसी लगन लगे कि उसके बिना मन बेचैन हो उठे। शिष्य गुरु के चरणों में था और शिष्य ने गुरु से कहा, गुरुदेव आपने कहा था कि मैं तुम्हें परमात्मा का साक्षात्कार कराऊंगा। अरसा बीत गया है पर अभी तक परमात्मा के साक्षात्कार की बात तो बहुत दूर, उसका रंचमात्र आभास तक नहीं हुआ है। क्या आप की शरण में आने के बाद भी मेरी साधना निष्फल होगी? शिष्य की बात सुनकर गुरु मुस्कुरायें और उन्होंने कहा वत्स तेरे साथ कुछ विलंब हुआ है। चल आज मैं तुझे परमात्मा साक्षात्कार का रहस्य बताता हूं पर इससे पहले नदी में स्नान कर ले। गुरु की कुटिया के पास ही एक नदी बहती थी और गुरु-शिष्य दोनों कमर तक पानी में उतरे, और जैसे ही दोनों पानी में उतरे। अचानक गुरु ने शिष्य के गर्दन को झटके से पकड़ा और  पानी में डुबो दिया और जैसे ही पानी में डूबा शिष्य एकदम घबरा उठा और पूरी ताकत के साथ प्रतिकार करके उठ खड़ा हुआ। शिष्य जवान था, गुरु के ऊपर उसका ताकत लग गया और वह उठ कर खड़ा हुआ। गुरुदेव, यह क्या किया? गुरु ने कहा, यह बता आज तक तूने मेरे किसी भी बात का प्रतिवाद नहीं किया, आज यह प्रतिवाद क्यों किया? बोला , गुरुदेव क्या करता, नहीं करता तो मरता क्या? वहां तो सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था, सांस के अभाव में घुटन हो रही थी इसलिए मैंने ऐसा प्रतिवाद किया तो गुरु ने शिष्य को संबोधा कि जिस तरह सांस के अभाव में घुटन होने के कारण तूने यह प्रतिवाद किया, उसी तरह जिस दिन परमात्मा के अभाव में तेरे भीतर घुटन होगी, तू परमात्मा का साक्षात्कार कर लेगा। वह घुटन होगी, वह पीड़ा होगी, वह तड़प होगी, तब तुम परमात्मा का साक्षात्कार कर सकोगे अन्यथा नहीं। आप लोग भगवान को सुना तो देते हो- तुम बिन मैं व्याकुल भयो जैसे जल बिन मीन, जन्म जरा मेरी हरो करो मोहि स्वाधीन। यह भगवान से कहते हो, भगवान कहते हैं, जिस दिन तुम मेरे अभाव में मछली की तरह तड़पोगे, उसी दिन तुम्हारे जन्म जरा हर जाएगी, वही सम्यग्दर्शन हो जाएगा, उसी में तुम्हारा कल्याण होगा, उसकी तरफ तुम्हारी दृष्टि तो होनी चाहिए। वो दृष्टि ही नहीं तो क्या होगा? तो बंधुओ! बात लगाव से लीनता की है, लीन होइये, अपनी -अपनी भूमिका है, हम जब भी सत्य पथ पर आगे बढ़े तो आज से ये संकल्प बनाएं पहले चरण में लगाव को ललक में बदले, ललक जागेगी तो लगन लगेगी, इसमें कोई संशय नहीं है। और ललक जब लगन में परिवर्तित हो जाएगी तो लीन होने का अवसर अपने आप प्राप्त हो जाएगा। आज तक जो अपने भीतर लीन हुए है, वह इसी प्रक्रिया के तहत हुए हैं। किसी को क्रम से होता है, किसी को एकाएक होता है, मार्ग तो केवल और केवल यही है, हम इस मार्ग का अनुकरण करेंगे तभी अपना उत्कर्ष कर पाएंगे। बंधुओं! आगे बढ़ने की हमें जरूरत है।

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