संयम संतोष से जीवन बदलें
भगवान के दरबार में एक सेठ गया। बहुमूल्य रत्न अर्पित करते हुए उसके भगवान से कहा, है भगवन! वर्षों से मैं तेरी पूजा-अर्चना करता आ रहा हूँ। मैंने अपनी मेहनत की कमाई से तेरा यह मंदिर बनाया, रोज मैं तेरी पूजा-अर्चना करता हूं लेकिन इसके बाद भी तू मुझ पर अपनी कृपा क्यों नहीं बरसाता। मैं कब से तेरे चरणों में प्रार्थना कर रहा हूँ कि तूने मुझे धन तो दिया पर नंबर 1 क्यों नहीं बनाया, तूने मुझे संतान तो दिया पर उसे इतना समर्थ क्यों नहीं बनाया, तूने मुझे सुंदर पत्नी तो दी पर उसे स्वस्थ क्यों नहीं बनाया। मेरे पास इतना विपुल धन है लेकिन मेरी प्रतिष्ठा वैसी क्यों नहीं, आखिर तू मुझ पर इतनी कृपा क्यों नहीं बरसाता। भगवान से उसने अपनी प्रार्थना की, प्रार्थना क्या की, अपनी भड़ास निकाली और निकल गया। उसके निकलने के थोड़ी देर बाद एक अंधा भिखारी भगवान के चरणों में पहुंचा और अहोभाव से भरते हुए भगवान के समक्ष अपना हृदय उदगार प्रकट किया और कहा। हे प्रभु! तूने मुझ पर कितनी बड़ी कृपा की, तेरी कितनी बड़ी कृपा और कैसी करुणा है मुझ पर, मैं तो उस लायक था ही नहीं कि तूने मुझे पैर दिए, जिस के बदौलत मैं आज तेरे पास आ जाता हूं। भले मेरी आंखें नहीं है पर क्या हुआ पैर तो है, आज मैं तेरे चरणों में आता हूं, मैं तुम्हें नहीं देख पाता, तुम्हारी नजर मुझ पर पड़ जाती है, मैं निहाल हो जाता हूँ। दो दृष्टियाँ है और दोनों के अलग-अलग परिणाम। एक ही व्यक्ति है जो सब कुछ होने के बाद भी रो रहा है और एक व्यक्ति है जो कुछ ना होने पर भी हंस रहा है। जीवन का सार कुल इस में है। आज बात ‘स’ की है, सुखी होने की है, सुखी होना या दुःखी होना, सब कुछ हमारे ऊपर निर्भर है।
हम खुद ही खुद को सुखी बनाते हैं और खुद से ही खुद को दुःखी बनाते हैं। हमें कोई बाहर से सुखी या दुःखी बनाने वाला नहीं है, हमें सुखी या दुःखी बनाता हमारा अपना नजरिया, हमारा अपना दृष्टिकोण। हम चीजों को किस दृष्टि से देखते हैं? हमें जीवन मिला है, जीवन की व्यवस्थाएं मिली है, हम जीवन और जीवन की व्यवस्थाओं को किस तरीके से देखते है, सब कुछ उस पर निर्भर करता है। हमारे मन में क्या है, शिकायत है या अहोभाव? ज्यादातर लोगों से आप मिलो तो कुछ ना कुछ शिकायत ही सुनने को मिलेगी और शिकायत सदैव कमियों की ओर इंगित करते हैं पर कभी अहोभाव मन में नहीं आता। भगवान के चरणों में तुम रोज जाते हो फरियादी बनकर, कभी धन्यवाद का भाव लेकर भगवान के चरणों में जाने का मन बना? फरियादी बनकर भगवान के चरणों में जाने वालों की तो लाइन लगी है, जो ₹10 का नारियल भगवान के चरणों में अर्पित करता है और करोड़ों की चाह लेकर भगवान के चरणों में जाता है लेकिन ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे, जो भगवान के चरणों में जाकर उन्हें कोटि-कोटि धन्यवाद दे की प्रभु तूने मुझे जितना दिया वह मेरे लिए कम नहीं। आज मैंने जो पाया वह मेरे लिए कम नहीं, हकीकत में तो मैं इसके लायक भी नहीं था। ऐसे लोग कहाँ है? बंधुओं! आज मैं आपको सुखी होने के कुछ मंत्र बता रहा हूँ, सबसे पहला सूत्र सकारात्मक बने, अगर आपका नजरिया सकारात्मक होगा तो शिकायतें अपने आप खत्म हो जाएगी और जब तक मन में शिकायतें हैं, तब तक जीवन दुःखी, दुःखी बना रहेगा। अपने मन की शिकायतों को समाप्त करना चाहते हो तो हर बात को सकारात्मक रूप में देखने की कोशिश कीजिए। जिस मनुष्य का दृष्टिकोण सकारात्मक होता है, उसकी कमजोरी भी ताकत बन जाती है और जिसका दृष्टिकोण नकारात्मक होता है, उसकी ताकत भी कमजोरी बन जाती है। कमियाँ हर मनुष्य में है, सारे संसार में हैं, संसार तो कमी की पर्याय है, किसी न किसी चीज़ की कमी तो सब में मिलेगी लेकिन संत कहते है- कमियाँ देखते रहोगे और कमियों को पूर्ण करने की कोशिश में लगे रहोगे, जिंदगी पूरी हो जाएगी, कमी पूरी नहीं होगी। क्योंकि संसार रिक्तता का ही नाम है, रिक्तता की पर्याय है, यहां कुछ ना कुछ रिक्त रहेगा, यहां कुछ ना कुछ शेष रहेगा, यहां कुछ ना कुछ कमी बनी रहेगी, इसे हम मिटा नहीं सकते। यह तो चलेगा लेकिन यदि हमने अपने दृष्टिकोण को बदल दिया तो तत्क्षण हमारा जो दू:ख है वह सुख में परिवर्तित होगा। हम किस तरीके से चीजों को देखते है, यह जरूरी है। हम अपने नजरिए को बदलने की क्षमता अगर अपने भीतर विकसित कर ले तो हमारे जीवन में कभी कोई कठिनाई नहीं हो सकती। मेरे संपर्क में एक व्यक्ति जिसके पिताजी कैंसर से पीड़ित, एक भाई अर्ध-विक्षिप्त, पिताजी कैंसर से पीड़ित, एक भाई अर्ध-विक्षिप्त और माँ की किडनी खराब, सप्ताह में दो बार डायलिसिस होता है। आप सोच सकते हैं कि उस व्यक्ति की क्या स्थिति होगी लेकिन इसके बाद भी वह व्यक्ति बड़ा सहज जीता है, अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के बाद वह शासकीय सेवा में एक उच्च अधिकारी है, अपना कर्तव्य पालन करता है, धर्म ध्यान भी करता है, साधु-संतों की सेवा भी करता है और उस व्यक्ति के अंदर चेहरे में कोई शिकन नहीं, कोई शिकन नहीं। एक बार जब उसके बारे में लोगों ने मुझे बताया, मुझे पता नहीं था कि इसके घर की स्थिति ये है कि तीन-तीन लोगों की स्थिति खराब है, कर क्या सकते हैं, कर्मोदय के आगे किसका जोर चलता है। महाराज! हमारे हाथ में जो है, वह मैं कर रहा हूं और संयोगो के हाथ में जो है वह संयोग कर रहे हैं। आपसे हमने एक ही बात सीखा है, संयोग को स्वीकार कर लो मन दु:खी नहीं होगा और उसका प्रतिकार करोगे तो कभी सुखी नहीं होओगे, यह दृष्टिकोण है।
मैं आपसे पूछता हूं, कमोबेश हर मनुष्य के जीवन में किसी न किसी प्रकार की विसंगतियाँ आती है, जब तक तुम्हारे जीवन का क्रम सहज रुप से चलता है, तब तक तुम बड़े खुश रहते हो लेकिन कुछ भी गड़बड़ हो तो क्या करते हो? बोलो, मैं आपसे एक सवाल करता हूं, आप लोग गाड़ी ड्राइव करते हो, करते हो ना तो जब गाड़ी, सड़क एकदम सपाट-सीधी दिखती है तो कैसे चलते हो। महाराज! आराम से स्पीड का आनंद लेते हैं, लेते है लेकिन कोई घाटी आ जाती है, चढ़ाव आता है, तो क्या करते हो? उसी स्पीड से चलते हो, उसी रफ्तार से चलते हो, नहीं चलते ना और उस चढ़ाव को देखकर गाड़ी रिवर्स में ले आते है, नहीं लाते ना। क्या करते हैं? गियर चेंज करते हैं, गियर बदलना पड़ता है ना की टॉप की स्पीड पर गाड़ी चला देते हो, मुझे ज्यादा तजुर्बा नहीं है गाड़ी चलाने का लेकिन गियर बदलना पड़ता है, कि नहीं पड़ती। हमें चढाई चढ़नी है, गियर बदलनी पड़ती है, उसकी स्पीड को थोड़ी कम करनी पड़ती है, तब आप काम करते हैं। ऐसे मौके पर आप एक्सीलेटर पर कम ब्रेक पर विशेष ध्यान देते अगर डाउन हो तो और आप हो तो एक्सीलेटर पर कम और ब्रेक पर विशेष ध्यान देते हो अगर डाउन हो तो और अप हो तो एक्सीलेटर दबाते है पर साथ-साथ गियर का भी ध्यान रखते है, तब आप सफल हो पाते हैं और आप अपने गंतव्य तक पहुंच पाते हैं। यदि उसी रफ्तार से और उसी गियर में चलोगे तो क्या होगा, गाड़ी पलट जायेगी। ऐसी गलती तुम लोग करते हो, कभी नहीं करते ना, आज तक नहीं की होगी। संत कहते है- गाड़ी चलाते समय तुम्हें इतनी समझ है, जीवन की गाड़ी चलाते समय तुम्हारी समझ कहाँ खो जाती है’। वह समझ क्यों नहीं जगाते, समझ जगाओ। जब जीवन में सहज चल रहा है, तुम रफ्तार का आनंद लो लेकिन यदि जीवन में उतार-चढ़ाव आए तो गियर बदलने की कला सीख लो और गियर बदलने का मतलब ही क्या है, अपना दृष्टिकोण बदल दो, अपना नजरिया बदल दो, तुम्हारी गाड़ी गंतव्य तक पहुंच जायेगी, कोई कठिनाई नहीं होगी। लेकिन क्या करें? आप लोग इस टेक्निक को अपनाना नहीं चाहते, जानते तो हो। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसको इस टेक्निक का ज्ञान ना हो, ज्ञान है, इस तकनीक को आप सब जानते हैं लेकिन अपनाना नहीं चाहते हैं, इसीलिए आंसू बहाना पड़ता है। संत कहते है- ‘इस तकनीक को अपनाइए, जीवन में आने वाले संकटों को टालना तुम्हारे बस की बात नहीं है’। की हर संकट को तुम टाल लो, तुम्हारी क्या भगवान के बस की भी नहीं है कि भगवान तुम्हारे संकटों को टाल दे। जीवन में अगर संकटों को टालना तुम्हारे बस की बात नहीं है लेकिन संकटों का दृढ़ता से सामना करना, तुम्हारे बस की बात है। अपने भीतर वो जज्बा, ताकत तैयार करो। जज्बात जगाओ, साहस जगाओ, तुम अंदर से समर्थ बनोगे। ठीक है, यह संकट मेरे सामने आया है, मुझे इसका सामना करना है और उसके लिए सबसे पहला सूत्र है, सकारात्मक दृष्टिकोण रखो, उसके प्रति अपने नजरिए को बदल लो, आप को आनंद आएगा।
आप लोग अपने जीवन में कई बार ऐसा करते हो और वैसा करके ऐसी जब परिस्थितियाँ आती है, आप बहुत सारी बातें सुनते है, जैसे मान लीजिए कोई अधिकारी है और उसका उच्चाधिकारी उसको डांट पिला रहा है तो उस समय क्या करते है, प्रतिवाद करते हैं, कुछ बोलते हैं, चुपचाप नीचे मुंडी करके सुन लेते है, भैया अब सुनना ही पड़ेगा। क्यों? अब इसकी नहीं झेलेंगे तो क्या होगा। सुनते है ना, जितनी बात आपके उच्चाधिकारी ने बोला, उसका दशमांश भी यदि कोई गैर बाहर आकर बोले तो बर्दाश्त करोगे, नहीं ना। हालाँकि, उच्चाधिकारी की बात भी आप ऊपर-ऊपर से स्वीकार रहे है, अंदर से तो गाली दे रहे होंगे लेकिन फिर भी आपने सहन किया है, यह आप की सहन-शक्ति है। उस समय आपने अपने चेहरे पर, अपने भाव-भंगिमा में कोई भी नकारात्मकता प्रकट नहीं की बल्कि कई-कई बार तो होता है कि सामने वाले की डांट को भी आपको मुस्कान से स्वीकार करना पड़ता है, ये रोज का अनुभव है, क्यों? वहाँ आप इस तकनीक का इस्तेमाल करते हो कि भैया कोई रास्ता नहीं है। अभी हमारा बॉस है, अधिकारी है, इसकी तो सुननी पड़ेगी। नहीं सुनेंगे तो मामला बिगड़ जाएगा। तो मनोनुकूल ना होने के बाद भी आपने उसे स्वीकार कर लिया क्योकि आपने सही तकनीक का इस्तेमाल किया,आप सहज बने रहे। संत कहते हैं- जीवन में जब भी कोई ऐसी स्थिति आए, जो तुम्हारे नियंत्रण से बाहर हो और जिसको झेलना तुम्हारी मजबूरी है, जिसका कोई दूसरा उपाय ना हो तो उसका एक ही उपाय है स्वीकार करो। क्या करो? स्वीकार करो। अगर तुम्हारे भीतर सकारात्मकता होगी तो जटिलतम स्थितियों को भी तुम स्वीकार कर लोगे और स्वीकार करते ही समर्थ बन जाओगे और सकारात्मकता नहीं है तो कोई भी बात तुम्हें हजम नहीं होगी, एक्सेप्टेंस आएगा नहीं, मन दु:खी हो जायेगा। तो जीवन में जब कभी भी कोई भी संयोग बने, स्वीकार करने की स्थिति होनी चाहिए, देखिए ये ताकत जब मनुष्य के अंदर आती है तो कैसा होता है? आजकल तो समाज में अनेक प्रकार की विकृतियां है और उन विकृतियों के कारण कई-कई बार व्यक्ति निर्दोष होने पर भी बड़ी-बड़ी आपत्तियों का शिकार हो जाता है। मेरे संपर्क में एक डॉक्टर है, उनका बेटा भी डॉक्टर, नेप्थोलॉजिस्ट। बहुत बड़ा डॉक्टर, भारत में नहीं बाहर है। विवाह हुआ और विवाह होने के 8 दिन बाद लड़की अपने मायके चले गई और मायके जाने के बाद जैसा आजकल होने लगा है, आरोप- प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। केवल 8 दिन लड़का लड़की साथ में रहें, आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ। लड़की के पिता एक बड़े एडवोकेट थे उनने केस ठोक दिया और केस किस का लगा, दहेज़ का,डोमेस्टिक वायलेंस का न जाने कितने प्रकार के केस लगा दिए और केस लगाया लड़के पर लगाया, लड़के की कुंवारी बहन पर लगाया, लड़के के माता-पिता पर लगाया और लड़के की एक 85 वर्षीय दादी पर भी लगा दिया। जबकि मैं उस परिवार को अच्छे तरीके से जानता हूं। बड़ा सरल, मिलनसार, सुहृदय व्यक्ति, जिस तरह के आरोप उस व्यक्ति पर लगे कल्पना भी नहीं की जा सकती, वो कभी कर ही नहीं सकता लेकिन इस तरह के आरोप और आप लोग तो जानते हो, आजकल ऐसे आरोप लगते हैं, संगीन आरोप होते हैं, जल्दी से जमानत नहीं मिलती, जमानत नहीं मिलती लेकिन जब ये स्थिति आई वो व्यक्ति कहा, भागने से कुछ होगा नहीं, बेटा बाहर था, भागने से कुछ होगा नहीं, पहले तो अपने समधी से संपर्क किया कि भैया, आखिर यह किस जन्म का बैर उतार रहे हो। तुम्हे हमसे कोई शिकायत है तो बैठो, बैठ कर बात करो, समझौता करो लेकिन वह ठहरा वकील। उसकी दृष्टि कुछ और थी, बात बनी नहीं तो इस व्यक्ति ने क्या किया? अब भागने से कोई फायदा नहीं, कर्म का उदय हुआ है, चलो हम सरेंडर करते हैं, जो होगा सो सामना करेंगे और वह सरेंडर करने का मन बनाकर जब जाने लगा तो उसके मित्रों ने कहा, भैया जमानत नहीं होगी, तुम क्या करोगे? बोले, हम जेल नहीं जाएंगे, हम यही सोचेंगे कि हम तीर्थ यात्रा में जा रहे हैं, हम कर्म काटेंगे। बड़ा स्वाध्यायी व्यक्ति था, उसका दृष्टिकोण सोचो और उसने धर्म को व्यवहारिक रूप में आत्मसात किया। बोला, भगवान ने कहा है, आगत कर्म को क्षमता से सहने में कर्म की निर्जरा होती है तो मैं जेल जाऊंगा। कर्म भोगने के लिए नहीं कर्म काटने के लिए यदि जेल भी जाता हूं तो वहाँ मेरी तपस्या होगी। मेरे लिए भवन और वन में कोई अंतर नहीं, उनने सरेंडर किया और सरेंडर करने के बाद जब मामला अदालत में पहुंचा। जज ने पूरे प्रकरण को समझा तो जज की भी तो अपनी समझ होती है, अंतरात्मा उनकी सब चीजों को समझती है। संयोगतः उन्हें बेल मिल गई, मात्र 15 दिन उनको अंदर रहना पड़ा और बड़े आसानी से बेल मिल गया और आज वह ठीक है और यह मामला 3 वर्षों तक चला। बाद में लड़की के पिता को भी समझ में आया, समझौता हुआ, आज ठीक हो गए। वह कहते हैं कि यदि मैंने इसे स्वीकार नहीं किया होता, मारा-मारा फिरता तो बर्बाद हो गया होता, तकलीफें भी पाता और अन्य रूप से भी बर्बाद होता, एक बार सामना करना पड़ा, हो गया, हो गया। लोग की दृष्टि में लोग पहले यह सोचते मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा, मुझे जेल जाना पड़ेगा, अरे तुम्हारी प्रतिष्ठा तो तुम्हारे अपने व्यक्तित्व से है। अगर मैं अच्छा हूं तो सारी दुनिया मुझे अच्छा कहेगी और अगर मैं गलत हूँ और अच्छा दिखूं तो वह ज्यादा दिन तक कभी नहीं टिकेगा। सबकी सहानुभूति उनके प्रति और बढ़ गई, इन्हे गलत फंसाया गया। आप लोगों को ऐसी बातें सुनकर आश्चर्य भी होता होगा और कुछ लोग अंदर ही अंदर सोचते होंगे, कैसा पागल है लेकिन यह रास्ता है। एक बात ध्यान रखना कर्म काटने के लिए हाथ में माला ले करके बैठना ही जरूरी नहीं है, पर्याप्त नहीं है, यह कर्म काटने के लिए जंगल में जाकर तपस्या करना ही जरूरी नहीं है, केवल जंगल में जाकर तपस्या करने वाले ही कर्म काटते हैं, ऐसी बात नहीं है। आप घर बैठे भी कर्म काट सकते हो और जेल जाकर के भी कर्म काट सकते हो। यदि आपके भीतर वह दृष्टि हो, घर बैठकर भी कर्म काट सकते हो, यदि तुम्हारे मन में क्षमता हो। ज्यादातर लोग कर्म को भोगते हैं, काटते नहीं। विषमता के साथ कर्म के फल का अनुभव करना, कर्म को भोगना है और क्षमता और धीरज के साथ कर्म का सामना करना कर्म को काटना है। तुम्हारे अंदर यह सकारात्मक दृष्टि विकसित हो जाए तो जीवन में चाहे कैसी स्थिति निर्मित क्यों ना हो, तुम्हारा मन कभी विचलित नहीं होगा।
संकट आयेंगे, कष्ट आयेंगे, मुश्किलें आएगी, मुसीबत आयेंगे लेकिन तुम्हारा मन दुःखी नहीं होगा और यही तो जीने का एक मार्ग है। अपने भीतर वह दृष्टिकोण विकसित कीजिए ताकि हम अपने जीवन में कभी दुःखी ना हो सके और एक बात गांठ में और बांधकर रखिए, चाहे तुम्हारे जीवन का दु:ख हो या सुख, सहना तो तुम्हें ही है, भोगना भी तुम्हे ही है। रो-धो करके भोगोगे तो भोगना है और सहज भाव से भोगोगे तो भोगना है। अगर तुम्हारे अंदर दृष्टि है तो तुम भोगोगे नहीं काट लोगे। मेरे संपर्क में एक सज्जन है, कोलकाता में महावीर जी बड़जात्या, उनकी किडनी failure है। आज लगभग उनको सप्ताह में 2 दिन डायलिसिस लगती है। आजकल तो ये बहुत आम हो गया, मैंने एक दिन जब उनसे बात किया, यह सुन रहे होंगे कार्यक्रम, मैंने एक दिन जब उनसे बात किया कि डायलेसिस में आपको जाना होता है, कितना टाइम लगता है, बोला 4 घंटा। मैं बोला, बड़ा कष्ट लगता होगा, कष्ट होता होगा। डायलिसिस में कष्टकारी क्रिया तो है ही। वो बोला महाराज जी! मेरा, जब जाता हूं, सप्ताह में 2 बार 4 घंटे का कार्योत्सर्ग हो जाता है, यह दृष्टिकोण। कार्योत्सर्ग हो जाता है, यह मेरी तपस्या है। मैं अब ऐसे तपस्या नहीं कर सकता, खड़े होकर नहीं कर सकता, ठीक है जा रहा हूं वहाँ लेटा हूं तो भगवान का ध्यान करो, आत्मा का ध्यान करो, प्रभु का स्मरण करो, कर्म काट गये। ये तपस्या है, काश तुम्हारे अंदर ऐसी दृष्टि विकसित हो। अगर सकारात्मकता है तो समस्या नहीं तपस्या है और नकारात्मकता है तो हर कदम पर समस्या है, जहाँ समस्या है वहाँ दुःख है तो आज इस बात को अपने गांठ में बांध कर रखने की कोशिश कीजिए।
दूसरी बात सहजता को अपनाएं, हर स्थिति में सहज रहने की कला भीतर विकसित कीजिए, सहज कब रहेंगे, जब आप निमित्तों से प्रभावित होंगे।आज आम आदमी को हम देखते हैं तो छोटी-छोटी बातों में असहज हो जाते हैं, अभी आपकी थोड़ी सी में तारीफ करूंगा तो आपका चेहरा खिल उठता है। तारीफ के दो शब्द सुनते ही चेहरा खिल गया, टिप्पणी कर दो तो खौल जाता है। क्या हुआ? पल मैं खिलने वाले को खोलते देर नहीं लगती और यह कैसी विडंबना है कि तुम्हें कोई भी चाहे जब खिला सकता है और चाहे जब तुम्हें कोई भी खौला सकता है। पानी को खोलने में तो फिर भी थोड़ा वक्त लगता है, 80 डिग्री टेंपरेचर जाता है तब पानी खोलना शुरू होता है तो पानी को खोलने में तो फिर भी वक्त लगता है पर व्यक्ति के चित्त को खोलने में कोई देर नहीं लगती। एक पल में खौल जाता है। संत कहते है- खिलो और खेलो, खोलते क्यों हो? अपने ऊपर अपना नियंत्रण हो, तब इससे बच सकते हैं। लोग मुझ पर कोई टिप्पणी न करें, यह मेरे हाथ में नहीं है पर मैं लोगों की टिप्पणी से प्रभावित ना हो यह तो मेरे हाथ में है। मैं आपसे पूछता हूं, कोई तुम पर टिप्पणी करता है, प्रभावित क्यों होते हो ?रोजमर्रा की जिंदगी में आपके मन में जो दु:ख या क्षोभ आता है। एक तो बुरी शक्तियों के कारण आता है या कोई बुरा व्यवहार कर देता तो आता है, दुर्वचन बोल दिया तो आता है। उसने मुझे ऐसा बोल दिया, आज तो दिमाग खराब हो गया, दिमाग खराब हो गया। क्या हो गया? दुर्वचन बोल दिया तो देखो तो कोई उसके जितने भी पुर्जे और पार्ट्स निकाल कर के देखो, कोई खराब नहीं दिखेगा। अगर ब्रेन को खोलकर देखा जाए तो किसी के बोलने से दिमाग खराब होता हो, ऐसा तो कोई मेडिकल साइंस ने नहीं बताया, नहीं बताया ना लेकिन खराब होता है, क्यों? हम उन बातों को पकड़ लेते है, खामोखा खराब करते हैं, क्यों? जिन बातों से मन में अशांति हो, जिन बातों से उद्वेग हो, जिन बातों से जीवन की सहजता खंडित होती हो, बातों को नजरअंदाज करने की कला सीखनी चाहिए। सहज बनने का अभ्यास कीजिए, मन कभी दुःखी नहीं होगा। मेरे संपर्क में एक सज्जन है, बड़े सरल परिणामी, सहज और सुहृदय भी है। उनकी धर्मपत्नी बड़ी कर्कश है, क्या बोल दे, कोई पता नहीं और औरों से तो अच्छा बोलती है पर अपने पति से कभी अच्छा नहीं बोलती तो ऐसे शब्दों का प्रयोग करें कि कोई भी जलील हो जाए। मैंने सुन तो रखा था, एक रोज मेरे सामने भी उसने पति को ऐसे शब्द बोल दिए, जो मेरे विचार से बोलने लायक नहीं थे पर वह व्यक्ति एकदम शांत रहा, कुछ नहीं मुस्कुराते रहा, बात को सुनकर के अनसुना किया। उसकी पत्नी बड़-बड़ा कर चली गई, मैंने बीच में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा। जब धर्मपत्नी चली गई तो उसके बाद मैंने उनसे पूछा, भैया तुम्हारी पत्नी का स्वभाव तो बड़ा तेज है, क्या करते हो? मैं यही सोचता हूं, यह उसका स्वभाव है और उसको चुपचाप सुन लो तो इसी से मेरी निर्जरा हो जाएगी, मेरे कर्म झड़ रहे हैं। ठीक है, ये इसका स्वभाव है, बदल सकते नहीं, सात फेरे पाल के लाया हूं और उस समय उनकी उम्र हो गई थी 65 साल की तो बोला, 65 साल की उम्र हो गई, शादी मेरी 25 साल की उम्र में हो गई थी, 40 साल निकल गए और निकल जाएंगे, आप लोग कहते है सब निकल जाएगा। क्या करें? उसका नेचर है, ऐसा बोलती है, दिल की अच्छी है, क्या होता है? यह दृष्टिकोण अगर किसी के अंदर हो तो कभी असहज होगा लेकिन आप लोगों की स्थिति क्या है? इतनी बात तो बहुत आगे की है, रोज अच्छी बात करें और एक शब्द से अलग हो जाए तो आप असहज हो जाते हो। बोलो होते हो कि नहीं, हर दिन अच्छी-अच्छी बातें करने वाले, मनोनुकूल व्यवहार करने वाले, अगर एक दिन किसी एक प्रसंग में, एक शब्द अगर हमारे लिए उल्टा लग जाए तो चित्त खौल जाता है। इतना आप असहज क्यों होते हैं, है ना विचारणीय बात, एक सूत्र लीजिए कि मैं जब भी मेरे मन को खराब करने वाले कोई शब्द आएंगे, उसे बाईपास करूंगा, उसे नजरअंदाज करूंगा। अगर यह कला आपने विकसित कर ली तो आप कभी दुखी हो सकेंगे। हमको यह कला अपने भीतर विकसित करने की आवश्यकता है। एक बात मैं बड़ी स्पष्ट शब्दों में कहना चाहता हूं कि हमारे जीवन का सुख तो फिर भी किसी पर निर्भर हो सकता है।
हमारे जीवन का सुख तो फिर भी किसी पर निर्भर हो सकता है लेकिन हमारा दु:ख स्वयं की सृष्टि है, किसी दुसरो के कारण नहीं। दु:खी हम खुद होते हैं, अपने अज्ञान के कारण। अगर छोटी-छोटी बातों को हम नजरअंदाज करने की कला सीख ले तो कभी दु:खी होगे क्या? सूत्र लीजिए मुझे सहज रहना है और सहजता को मेंटेन करने के लिए जिन बातों से चित्त असहज होता है, उसे नज़रअंदाज़ करता है। छोड़ो, नज़रअंदाज़ करो, let’s go, काम खत्म। यही, यही, यही, यही छोड़-छोड़ कर के आगे निकलने की कोशिश कीजिए। यदि ऐसी दृष्टि आपके भीतर विकसित हो जाएगी तो जीवन में कभी दु:ख नहीं आएगा। कोई भी निमित्त आये, अपने आप को उस से अप्रभावित रखिये। कई रूप में आते हैं, केवल बात व्यवहार के निमित्त नहीं, जब भी कोई प्रतिकूल संयोग सामने आए, उसके प्रति सकारात्मक दृष्टि रखिए और उसमे अपने आप को सहज बनाए रखिए, असहज मत होइए। अगर आपके अंदर सकारात्मकता होगी, आप उसे स्वीकार करने में सक्षम होंगे तो आप असहज नहीं होंगे और यदि आप नजरअंदाज करने में समर्थ हो जाएंगे तो भी आप कभी असहज नहीं होंगे, नजरअंदाज कीजिए। एक बार एक युवक मेरे पास आया, बड़ा तमतमाया हुआ था, सामायिक के तुरंत बाद की बात है। चेहरा देखा तो एकदम बौखलाहट दिख रही थी। बोला, महाराज! आज तो एकदम दिमाग गरम हो गया, दिमाग गरम हो गया है तो मुझे थोड़ी मज़ाक सूझी। ठंड का समय था, मैं बोला, बता भैया, कितना गर्म है, मुझे बहुत ठंड लग रही है, ताप लूँ थोड़ा। नहीं, महाराज! मजाक की बात नहीं, आज बहुत दिमाग खराब हो गया। महाराज! आपकी याद आ गई तो मैं बच गया, नहीं तो पता नहीं क्या कर बैठता। हम बोले, क्या हुआ? महाराज! मैं दुकान से घर आया, खाना खाने के लिए और घर आकर देखा कि मेरी पत्नी अपने भाई से फोन पर बात कर रही है, मैंने पहले तो सोचा बात कर रही है तो कर रही है, पत्नी अपने बहन-भाई से बात नहीं करेगी तो किस से करेगी। वो तो भाई से बात कर रही थी और मेरी बुराई कर रही थी। उलटी-पुलटी बातें कर रही थी। मैं जान छिड़कता हूं और मेरी बुराई कर रही थी, मैंने सुन लिया। महाराज! मेरे अंदर आग लग गई। मैं बोला, दिखा तो आग कहाँ है, आग लग गई। मैं बोला, ठीक है ,बात क्या है? शांत हो थोड़ा सा, बात क्या है? एक बार बोल दी, भाई को बोल दी होगी, तुमने कुछ गलती की होगी। नहीं महाराज! उसकी बातों से लगा वो रोज-रोज बोलती है, ये रोज का धंधा है। इसलिए उसके भाई का व्यवहार मेरे प्रति अच्छा नहीं है। रोज बोलती होगी तो रोज-रोज तो तुम ऐसे नहीं तमतमाए, वो बोला इससे पहले महाराज मैंने सुना नहीं, आज सुन लिया, इसलिए तमतमा गया। मैंने कहा यह बता अगर तू 10 मिनट लेट आया होता तो सुनता क्या? बोले, नहीं सुनता। ये ही सोच ले तूने नहीं सुना तो मामला ठीक हो जाएगा। जिसे तुम ने पकड़ लिया उसे अगर तुम छोड़ दो तो कोई तकलीफ होगी। महाराज! आप जब बोलते है ना तब तो लगता है बात सही है लेकिन महाराज इसको छोड़ना बड़ा मुश्किल होता है। आप तो रुपया-पैसा छुड़वा लो लेकिन यह चीज नहीं छोड़ सकते, बहुत कठिन है लेकिन अपने भीतर हमें यह सामर्थ्य विकसित करनी चाहिए। यदि अपने जीवन को सुखी बनाना चाहते हो तो इसके अलावा हमारे पास और कोई दूसरा चारा नहीं है, सहज बनने का अभ्यास कीजिए।
नंबर 3 संयम रखिए, अपने भाव और बर्ताव में संयम होना चाहिए। संयमपूर्ण व्यवहार हो, संयत व्यवहार हो, नियंत्रण होगा तो संयम होगा। जब भी आपके सामने कोई भी असहज स्थिति निर्मित हो या प्रतिकूल परिस्थितियां आये, घबराइए मत, धैर्य और संयम से काम लीजिए। अपने मन का संयम मत खोइये। संयम शब्द बहुत ही व्यापक है, प्रायः आप जब संयम की बात करते हैं तो खाने-पीने में संयम, उठने बैठने में संयम, हम अपने आचार-विचार के संयम की बात की जाती है। निश्चित वो संयम है, लेकिन ये ऊपरी संयम है। असली संयम है, अपनी भावनाओं पर नियंत्रण। उस पर नियंत्रण करने की कला अपने भीतर विकसित होनी चाहिए। आत्मनियंत्रण नहीं खोने देना चाहिए, सेल्फ कंट्रोल को डेवलप करना चाहिए। नहीं, मुझे संयम से काम लेना है। आप लोग क्या करते हैं, कुछ बात आपने सुनी तुरंत प्रतिक्रिया, एकदम फायर। क्या होता है उससे, आग लगती है, आपको जब भी ऐसे कोई कटु प्रसंग आए तो उसे पचाने की शक्ति और सामर्थ्य विकसित करनी चाहिए। मुझे उसे पचा करके चलना है, संयम रखना ही नहीं। इस समय यदि मैंने ऐसा संयम नहीं रखा तो परिणाम गलत होंगे। आजकल जो लोग मैनेजमेंट की बात सिखाते हैं, वह भी आप को संयम का पाठ पढ़ाते हैं, व्यापार हो, खेल हो या जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, उस समय कहा जाता है कि कोई भी बात है तो संयम रखना शुरू करो। अगर आप भावनाओं के बहाव में बह जाओगे तो वह आपके भविष्य के लिए खतरा है तो वहाँ आप लोग ध्यान रखते हो, संयम रखते हो। संत कहते है- संपूर्ण जीवन व्यवहार में संयम रखने की कला सीख लो, कभी दु:खी नहीं होओगे। एक सूत्र अपने मन मस्तिष्क में अंकित कर लो, जब भी प्रतिकूलता आये, मुझे संयम से काम लेना है। भैया, संयम से काम लो। आप लोग दूसरे शब्दों में बोलते हैं, ठंडे दिमाग से सोचो। क्यों? गर्म दिमाग में तो उफानी है, ठंडे दिमाग से सोचो तो दिमाग को ठंडा रखने के लिए हमें अपने अंदर आत्म-संयम विकसित करना होगा, वो संयम यदि विकसित हो गया तो तय मान करके चलना, हम अपने जीवन को नई ऊंचाई देने में समर्थ हो जाएंगे। वो उत्तरोत्तर विकसित होना चाहिए। हमारा व्यवहार वैसा हो ताकि हम संयमित बने। आजकल इसकी बड़ी कमी होने लगी है, पहले लोग इस संयम के कारण एक दूसरे की मान-मर्यादा रखते थे। अब तो किसी के मुंह में कोई संयम नहीं, वचनों में संयम हो, व्यवहार में संयम हो, प्रवृत्ति में संयम हो। इनमे संयम रहेगा, आप खुद सुखी रहेंगे और आपको कोई दु:खी नहीं कर पाएगा। आप किसी को दु:खी नहीं कर सकेंगे। संयम मनुष्य को प्रतिक्रिया से शून्य करता है और जीवन को आगे बढ़ाने के लिए और सहज बनाए रखने के लिए प्रतिक्रिया वृत्ति का अभ्यास आवश्यक है। प्रतिक्रिया वृत्ति का मतलब क्या है, कोई रिएक्शन नहीं करना, खासकर नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं देना। देखिये, प्रतिक्रिया क्या होती है? आपको किसी ने एक अपशब्द बोला, शब्द आपके कान में गए, सपोज, किसी ने आप को कह दिया, गधा कहीं का या कैसा गधा है या वो आदमी तो एक दम गधा है। आपने वो शब्द सुन लिया, अच्छा, मुझे गधा कहता है, क्या समझ रखा है अपने आपको, बहुत बढ़ गया है। मुझे गधा कहता है, औकात दिखा दूंगा उसे गधा कहने की। मुझे गधा कहता है, आने दो मौका मैं बताऊंगा उसे, मुझे गधा कहने वाला कौन होता है। सामने वाले ने केवल एक बार गधा कहा और खुद ने खुद को 5 बार गधा बना दिया। बोलो, ऐसा आदमी गधा है कि समझदार। वो कहाँ है, थोड़ा अपने अंदर झांको और देखो मेरे भीतर कोई ऐसा गधा तो नहीं पल रहा है। एक शब्द कान में गया जैसे शांत-सरोवर में हमने एक कंकर फेंका, उसमे वलय, इधर वलय, इधर वलय व्याप्त होते जाते हैं। वैसे ही हमारे कान में एक शब्द जाता है और वो गूंजते रहता रहता है, गूंजते रहता है, चलता रहता है। क्यों? अगर हमने थोड़ा संयम रख लिया हो और फिर एक की प्रतिक्रिया हम चार करते है। आपको किसी ने एक गाली सुनाई, आप 10 गाली दोगे तो फिर क्या होगा। वो ही वो चलता रहेगा। भैया, हमने थोड़ा सा संयम रख लिया , सुनकर के अनसुना कर दिया, कोई जवाब नहीं दिया, मामला वही रफा-दफा। झगड़े बढ़ेंगे, अशांति होगी, दु:ख होगा, सब जानते हो तुम लोग। नहीं जानते हो ऐसी बात नहीं है, पर करते वही हो जो आज तक करते आए हो। संयम रखना सीखिए और नंबर 4 संतोष अपनाइये।
संतोष, जब कभी भी संतोष की बात आती है तो लोगों का ध्यान केवल रुपयों-पैसे के मामले में संतोष पर केंद्रित हो जाता है, निश्चित धन-पैसे की तरफ संतोष तो रखना चाहिए, रखते ही है लेकिन केवल धन-पैसे के प्रति संतोष की बात नहीं है। हर मामले में संतोष, मन में असंतोष की ज्वाला मत जलने दीजिए, अपनी इच्छा-आकांक्षाओं का विस्तार ही असंतोष है। उससे अपने आप को बचाइए और संतोष को धारण करने का अभ्यास बनाइए। ठीक है, कुछ अपने मनोनुकूल नहीं हो रहा है, संतोष। अपने मन की तृष्णा को ज्यादा मत बढ़ने दे, कुछ बात किसी ने कह दिया संतोष रख लीजिए। जो भी नकारात्मकताये हैं, उन्हें अपने मन में संतोष रखने का आपने अभ्यास बढ़ा लिया तो आपके अंदर कभी भी कोई भी कष्ट नहीं हो सकता। अरे भैया, चलो थोड़ा संतोष रखो ना, क्या फर्क पड़ता है, बोल दिया सो बोल दिया, हो गया सो हो गया, मनोनुकूल नहीं हुआ है तो ठीक है। जितना तुमने पाया, उतने में ही संतोष रख लो ना, जो तुम्हें मिला है, उतने में ही संतोष रख लो ना। सामने वाले ने जितना कह दिया, उतने में ही संतोष रख लो ना। कई बार तो देखो, आप लोगों के साथ क्या स्थिति बनती है। किसी ने आप की प्रशंसा की, निंदा नहीं की प्रशंसा की लेकिन अपेक्षित प्रशंसा नहीं की तो आपको तकलीफ होता है कि नहीं। उसने मेरे प्रशंसा में बोला तो पर पूरा नहीं बोला, मेरा ढंग से परिचय नहीं दिया, मैं इतना बड़ा आदमी हूं। क्या हो गया? उसने जो प्रशंसा के 4 शब्द भी बोले, उसका तुम्हें सुख नहीं, मेरा परिचय ढंग से नहीं दिया, इसका दु:ख है। यह असंतोष हो जाता है, अच्छों-अच्छों को हो जाता है। मैं एक स्थान पर था तो बहुत टाइट कार्यक्रम था। मैं फॉर्मेलिटीज को ज्यादा पसंद नहीं करता। अब उस कार्यक्रम में बहुत सारे लोग, पूरे देश भर के लोग आये हुए थे और उसी क्रम में समाज के एक थोड़े भारी-भरकम व्यक्ति थे, जो अपने आप को बड़ा भारी-भरकम मानते थे। वह बीच में आए उनकी पूर्व सूचना नहीं थी, उनने अपनी पर्ची लिख करके भेजी। अपना परिचय, परिचय में उनके बहुत सारे designation थे और संयोजक मेरे पास आया और बोला, महाराज! क्या करना है इनका, वो बोले सीधे-सीधे उनका नाम लो और श्रीफल चढ़वा दो। वो बोला इतने सारे नाम बोलने में 1 मिनट लग जायेगा। हम बोले- 1 मिनट तो कीमती है, नाम लो और बुला लो। फिर भी उनने उनकी प्रशंसा के लिए दो शब्द बोलते हुए समाज एक वरिष्ठ समाजसेवी कर्मठ कार्यकर्ता आए और श्रीफल चढ़ाएं, पहले एक बार नाम बोला वह उठे ही नहीं। दोबारा बोला तो बाजू वालों ने कहा, उठो, चेहरा देखे तो जैसे किसी ने उसके ऊपर 2-4 घड़ा पानी डाल दिया हो। पूरी बात नहीं बोली और मरे मन से श्रीफल चढ़ाया और मेरे सामने तो कुछ बोल नहीं सकता। बाद में मेरे कमरे के बाहर उसको झाड़ लगाना शुरु किया, तुम मुझे पहचानते नहीं, मुझे तुमने ऐसे बुलाया। मैं कमरे से बाहर निकला और बोला वाकई में अब तक तो मैं भी नहीं पहचाना था, आज मैं पहचान गया। अभी तक मैं भी नहीं पहचाना था, आज पहचान गया। यह है हमारे मन का मान। असंतोष, प्रसंशा हुई है निंदा नहीं हुई लेकिन पर्याप्त प्रशंसा नहीं तो असंतोष। पर्याप्त उपलब्धि नहीं, जैसा हम चाहते हैं वैसा नहीं, यह असंतोष तुम्हें हमेशा उलझा करके रखेगा। अपने इस उलझाव को आगे बढ़ाने की कोशिश करो उलझाव को मिटाने का प्रयास करो और अपने जीवन में संतोष धारण करें। आपसे मैंने 4 बातें आपसे कि सकारात्मक रहिए, सहजता को अपनाइए, संयम रखना सीखें और संतोष धारियें। हमेशा सुखी बने रहेंगे फिर जीवन कभी दु:खी नहीं होगा।