सरस जीवन की कला

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सरस जीवन की कला

किसी व्यक्ति की तस्वीर बहुत सुंदर हो और एक्स-रे खराब हो तो उसे क्या कहेंगे? निश्चित वह व्यक्ति चिंता में पड़ेगा। आज दुनिया के लोगों पर जब भी हमारी दृष्टि जाती है तो यही समझ में आता है कि इनका फोटो तो बहुत खूबसूरत है पर सब का एक्स-रे बिगड़ा हुआ है। बाहर से सब बहुत अच्छे दिखते हैं लेकिन अंदर से सब टूटे हुए हैं। लोग जीवन जी रहे हैं लेकिन जीवन का रस कोई नहीं ले पा रहा। सच्चे अर्थों में देखा जाए तो लोग जीवन जी नहीं रहे जीवन के नाम पर केवल जिंदगी को ढो रहे हैं। संत कहते हैं यह जीवन जीने की चीज है ढोने की नहीं। जिसमें रस हो उसे जिया जाता है और ढोया तो उसे जाता है जिसमें भार हो। तुम अपना जीवन कैसे जी रहे हो? जी रहे हो या जीने के मस बोझा ढो रहे हो? वही लोग सच्चे अर्थों में जीवन जीते हैं जो जीने की कला जानते हैं। जो जीने की कला से अनभिज्ञ हैं जीवन के बहाने केवल एक बोझ ढोते हैं। अपनी सांसों को खपाते हैं और विगत दिनों से मैं आपके बीच उसी जीवन जीने की कला पर चर्चा कर रहा हूं। आखिर इस संसार में रहते हुए हम अपने भीतर क्या घटित करें जिससे संसार की धूप में रहकर भी उसकी आंच से बचा जा सके। संसार के कीच में रहकर भी कमल की भांति अलिप्त रह सकें। क्या है वह रास्ता? बस धर्म हमें वही मार्गदर्शन देता है और इसका लाभ इसका मज़ा इसका आनंद हम तब ले पाएंगे जब हम अपने जीवन का ठीक तरीके से आंकलन करना सीखेंगे। मैंने अपने बात की शुरुआत में कहा था कि भारतीय तत्व चिंतकों ने जीवन को बिल्कुल अलग तरीके से देखा है और हमारे जीवन की उपलब्धियों में धन, पैसा, शोहरत, सेहत इन्हें नहीं गिना। उन्होंने जीवन की उपलब्धि के रूप में चार महत्वपूर्ण तत्व बताएं-

शांतम् तुष्टम् पवित्रं च सानंदमित् तत्वतः

जीवनम् जीवनम् प्राहों भारतीय सुसंस्कृतम्।

भारतीय संस्कृति में उसी जीवन को जीवन बताया गया है जिसमें शांति हो, तुष्टि हो, पवित्रता हो और आनंद हो। अभी तक शांति की बात चल रही थी। आज दूसरे क्रम में बड़े महत्वपूर्ण तत्व “तुष्टि” की बात है। तुष्टि यानी तृप्ति, तसल्ली, संतोष। जीवन का एक बड़ा महत्वपूर्ण गुण है। तुम्हारे पास कितना है यह मूल्यवान नहीं है। तुम कैसे हो यह मूल्यवान हैं। तुम्हारे पास क्या है यह महत्वपूर्ण नहीं, तुम कैसे हो यह महत्वपूर्ण है। तुम्हारा पति हो खरबपति हो वह ज्यादा मूल्यवान नहीं है, पर तुम शांत हो, सुखी हो यह बहुत मूल्यवान है। तुम्हारा जीवन कैसा है, तुम्हारे अंदर तृप्ति है या नहीं, तृप्ति है या नहीं, संतोष है या नहीं, तसल्ली है या नहीं? अपने मन को पलट कर देखो। जिसके ह्रदय में संतुष्टि है उसके जीवन में आनंद है और जिसके मन में रंच मात्र भी असंतोष है उसका जीवन दुखी है। हमने बचपन में कहावत सुनी है संतोषी सदा सुखी। इसी कहावत से एक अर्थ यह स्पष्ट हो रहा जाता है कि असंतोषी सदा दुखी। अब ज्यादा प्रवचन देने की जरूरत नहीं है। पूरा कर दूं यह प्रवचन? महाराज इसमें संतोष नहीं होगा।

बस इतनी सी बात है समझने की कि मन का असंतोष आकुलता देता है और मन का संतोष शांति। जिन बातों से हमारे जीवन में संतोष घटित होता है वहीं हमारे मन में प्रसन्नता की लहर उत्पन्न होने लगती है और जहां असंतोष आता है चित्त उत्तप्त हो जाता है। यह आपके जीवन का अनुभव है कि नहीं? बोलो। किसी एक का अनुभव है या सभी का सभी का अनुभव है? फिर जो अनुभव है उसे अपने जीवन में उतारते क्यों नहीं? विचार करो। जहर खाने से इंसान मरता है यह अनुभव है कि नहीं? कभी खा कर देखा? महाराज खाने वाले को देखा और तय कर लिया कि जिंदगी में कभी ज़हर नहीं खाएंगे तो जब ज़हर खाने से इंसान मरता है यह अनुभव हमने पाया और इस पर पक्का विश्वास जमा लिया। ज़हर खाने की बात तो दूर नाम लेना भी पसंद नहीं करते। बस ज़हर को तुमने अपने लिए घातक समझा तुमने तौबा कर ली जिस दिन असंतोष को अपने लिए घातक समझोगे उससे तौबा कर लोगे। संतोष के रास्ते पर आ जाओगे। हम मुख से कहते हैं- संतोषी सदा सुखी। पर हकीकत तुमको संतोष में सुख नहीं दिखता। तुम तो अपने मन की आकांक्षाओं की पूर्ति में लगे रहते हो और तुम्हें लगता है जब तक मेरे मन की आकांक्षाएं पूरी नहीं होगी मैं सुखी नहीं होऊंगा। ध्यान रखना जब तक तुम्हारे चित्त में आकांक्षाएं पलेगी, चाह पलेगी, दाह बनेगी। सबके मन में किसी न किसी प्रकार की चाह है। कहते हैं-

“रहता है झोपड़ी में मगर महलों की चाह है यह चाह ही तेरे लिए कांटो की राह है, इस चाह को तू मार ले बस हो गया भजन, आदत बुरी सुधार ले बस हो गया भजन, मन की तरंग मार ले बस हो गया भजन”।

यह चाह! तुमने अपने जीवन की राह किसे बनाई? यह समझने की बात है। जब तक चाह है तब तक का है बच नहीं सकोगे। इसलिए अपनी राह बदलो। संतोष के रास्ते पर चलो जीवन धन्य होगा। लेकिन लोगों की कहानी बिल्कुल उल्टी है।

दुष्यंत कुमार ने बड़ी सार्थक बात लिखी- “हाथों में अंगार लिए मैं पूछता रहा कोई मुझे इन अंगारों की तासीर बता दे”।

हाथ में अंगार है अब तासीर बताने की जरूरत है? सारा जीवन तुम्हारी चाह की दाह में झुलस रहा है अब तुम्हें बताने की जरूरत है कि चाह का मतलब क्या है? जानना अलग बात और मानना अलग बात है। जब तक तुम जानने से मानने की ओर नहीं मुडो़गे जीवन में रूपांतरण घटित नहीं होगा। हम लोगों के साथ एक बड़ी विडंबना है प्रायः लोग बुद्धि के स्तर पर बातें सुनते हैं। थोड़ी देर के लिए प्रभावित होते हैं। आज महाराज ने क्या बात कही बहुत लॉजिकल थी। लेकिन बंधुओं में आपसे कहता हूं बुद्धि के स्तर पर जो कुछ भी सुनोगे उससे तुम प्रभावित होंगे परिवर्तित नहीं। प्रभावित होने में बहुत लाभ नहीं लाभ तो तब है जब तुम परिवर्तित हो। और तुम परिवर्तित होगे कब जब हृदय के स्तर से श्रवण करोगे तब। अंदर से समझो यह चीज तुम्हारे अंतःकरण में बैठ जानी चाहिए कि रास्ता तो आखिर यही है। एकमात्र यही है और मुझे अब इसी रास्ते पर चलना है फिर ज्यादा उपदेश देने की जरूरत नहीं होगी।

मेरे संपर्क में एक युवक है। अमेरिका में एक मल्टीनेशनल कंपनी में था। बड़े हाई पोस्ट पर था। उस युवक ने आकर कहा कि महाराज जब तक में पढ़ाई-लिखाई करता रहा धर्म-कर्म बिल्कुल नहीं जाना। अमेरिका गया तो वहां केवल पैसा कमाने में लगा रहा। बस मां-बाप के संस्कार थे कि कोई गलत आदत नहीं है। लेकिन मेरे मन में धर्म-कर्म के प्रति कोई लगाव नहीं और एक समय तक पैसा ही मेरे जीवन का सबसे प्रमुख तत्व था। पर महाराज YouTube के माध्यम में से मेरे एक मित्र ने आपके प्रवचन मुझे सुनाएं और आपका पहला प्रवचन जो मैंने सुना वह संतोष पर था। महाराज जी मैं आपको झूठ नहीं बोल रहा हूं वह पहला प्रवचन सुना और उस पहले प्रवचन ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी। आपने उस प्रवचन में कहा कि यह विचार करो कि “पैसे का आखिर कितना उपयोग है”? महाराज यह प्रश्न मेरे दिल में बैठ गया कि आखिर पैसे का कितना उपयोग उसका लिमिट क्या है? कोई न कोई सीमा तो होनी चाहिए। महाराज जी उसी दिन से मैंने अपना चिंतन शुरू किया और साल भर मैंने निर्णय लिया, अपनी पत्नी से परामर्श किया और अपना पूरा काम वाइंडअप करके आज भारत आ गया और विशुद्ध तया धर्म ध्यान कर रहा है। मैं नाम भी ले सकता हूं उसका लेकिन उसने कहा मेरा नाम उल्लेख मत करना। अभी पुणे में है वह। लेकिन उसने अपने आप को मोड़ लिया और बड़ा खुश है कि अब मेरे पास पर्याप्त समय है मुझे जितना चाहिए था इतना है कि मैं और मेरे बच्चों को कोई चिंता करने की जरूरत नहीं होगी।

आप लोग कहेंगे कि वह आदमी बेवकूफ होगा, पागल होगा। देखो, तुम्हारे अंदर की परिणति क्या है तुम कहां जा रहे हो किस डायरेक्शन में जा रहे हो? चलिए थोड़ी देर के लिए हम पड़ताल करते हैं कि इतना सब सुनने के बाद भी हमारे मन का असंतोष दूर क्यों नहीं होता? और हमारे हृदय में संतोष प्रकट क्यों नहीं होता? यह सवाल तो है। सिद्धांततः आप सब लोगों में से कोई भी ऐसा नहीं होगा जो यह कहता होगा कि संतोष बुरी चीज है और असंतोष अच्छी चीज है। सब चाहते तो है लेकिन महाराज क्या बताएं इसके बिना काम नहीं होता। हम लोग पच गए हैं। महाराज आप तो केवल प्रवचन दिया करो हम लोग सुन ले और सुन कर ही संतोष कर लें। पर क्या वजह है? समझो। आप जब तक अपनी दृष्टि को नहीं बदलोगे आपके हृदय में संतोष की सृष्टि नहीं होगी। क्या है वजह? वजह को समझते ही दृष्टि बदलती है।

संतोष और असंतोष दोनों शब्दों को सामने रखकर देखो। दोनों में क्या अंतर है? क्या अंतर है? एक  “अ” का अंतर है। संतोष में अगर “अ” लगा दोगे तो क्या होगा? “असंतोष”। यह “अ” सबके पास है लाकर मुझे दे दोगे तो काम खत्म। “अ” को हटा दोगे तो सब सही। वह “अ” क्या है? “अ” है अभाव का “अ”, अल्पता का “अ”। मेरे पास इसका अभाव है, मेरे पास इसकी अल्पता है, मेरे पास इसकी कमी है और जब तक तुम अपने जीवन में घटित होने वाले अभाव को देखते रहोगे, उसके प्रभाव में रहोगे असंतुष्ट बने रहोगे। अगर अपने जीवन के अभाव को देखोगे तो संसार में ऐसा एक भी इंसान नहीं मिलेगा जिसके पास सर्व सद्भाव हो। है कोई? बोलो। किसी न किसी चीज की कमी तो किसी ना किसी के साथ लगी हुई है। किसी के पास धन संपन्नता नहीं है तो किसी के पास स्वास्थ्य नहीं है। किसी के पास धन संपन्नता और स्वास्थ्य है तो परिवार पूरा नहीं है। किसी के पास परिवार तो पूरा है, धन संपन्नता भी है, स्वास्थ्य भी है लेकिन तालमेल नहीं है। किसी का बेटा कहना नहीं मानता, किसी की पत्नी कर्कश है, किसी का पति व्याभिचारी है, किसी का पति शराबी है, किसी की बाप से नहीं बनती, किसी की मां से नहीं बनती, किसी की भाई से नहीं बनती। क्या है? कोई ना कोई, कोई ना कोई कमी तो सब में है। यह संसार है इसमें कमी तो रहेगी। अभाव रिक्तता का नाम ही संसार है। एक भी संसार में ऐसा प्राणी नहीं जिसके पास सर्व सद्भाव है। देखो, किसी के पास कुछ होगा, किसी के पास कुछ-कुछ होगा, किसी के पास बहुत कुछ होगा। कुछ हो सकता है, कुछ-कुछ हो सकता है, बहुत कुछ हो सकता है लेकिन सब कुछ किसी के पास नहीं हो सकता। सब कुछ केवल उसके पास होता है जो अपने पास का बहुत कुछ छोड़ देता है, उससे मुंह मोड़ लेता है। जो तुम बहुत कुछ जोड़ रखे हो उससे मुंह मोड़ दोगे तो सब कुछ पाओगे। सब कुछ तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं। देखना बंद करो। अपनी दृष्टि को मोड़ो। चित्त को परिवर्तित करो। जो मेरे पास है मुझे वह देखना है, मुझे वह नहीं देखना जो मेरे पास नहीं है। तुम सड़क पर चल रहे हो, नंगे पैर चलने का तुम्हें योग मिला है तो दूसरों के पांव के जूते देखकर अपने मन में तकलीफ पैदा मत करो कि उसके पास जूते हैं मुझे नंगे पांव चलना पड़ रहा है, अपितु भगवान को इस बात का धन्यवाद दो- हे प्रभु! तू मेरे प्रति कितना कृपालु है कि तूने मुझे कम से कम पांव तो दिए। दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके पांव भी नहीं हैं। लेकिन मुझे दिखता है कि लोगों को अपने पांव का महत्व समझ में नहीं आता। तुम्हारी दृष्टि सामने वाले के जूतों पर केंद्रित होती है। जो दूसरों के जूतों को देखेंगे वह जिंदगी भर जूते खाते रहेंगे।

क्यों दूसरी तरफ देख रहे हो? जो है तुम्हारा वह तुम्हारे लिए पर्याप्त है और वही तुम्हारे काम में आने वाला है दूसरे का काम में आएगा क्या? लेकिन दृष्टि बार-बार वही जाती है। जब तक तुम्हारी दृष्टि पथ में दूसरा खड़ा रहेगा तुम्हारा जीवन नर्क बना रहेगा। तुम्हारी Requirement रिक्वायरमेंट कितनी है? सब कहते हैं- महाराज क्या चाहिए दो वक्त की रोटी। पर मुझे लगता यह है कि जो लोग कहते हैं हमें कुछ नहीं चाहिए वह और चीजों में इतना बिजी हो जाते हैं कि उन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती। रोटी के लिए वक्त नहीं है यह पागलपन नहीं है तो क्या है? किस दिशा में जा रहे हैं आप? यहां बहुत समझदारी की जरूरत है। सावधान होने की जरूरत है। मेरे जीवन की क्या रिक्वायरमेंट है? तुम्हारे शरीर के लिए भोजन की जरूरत है, रहने के लिए भोजन की जरूरत है, तुम्हारे आने-जाने के लिए घोड़ा-गाड़ी की जरूरत है, कुछ रुपए पैसों की जरूरत है, थोड़े बहुत बैंक बैलेंस की जरूरत है। उससे ज्यादा नहीं। कोई लिमिट है? नहीं महाराज, जब हमने शुरुआत की भीलवाड़ा में पहली पहली बार आए तो हमने सोचा कि चलो यहां सेट हो जाएं, व्यापार सेट हो जाएं। व्यापार सेट हो गया फिर सोचा कि एक अच्छा मकान बना लें। महाराज मकान बनवा लिया फिर क्या बताएं हमने अपना मकान पूरा नहीं किया कि पड़ोसी का मकान हमसे अच्छा बन गया और हमें हमारा मकान बुरा लगने लगा। अब जब तक वैसा मकान नहीं बना पाएंगे तब तक कैसे रह पाएंगे। पैदल चलते थे फिर हमने टू-व्हीलर लिया फिर थोड़े समर्थ हो गए फिर फोर व्हीलर लेकर आए। जिस दिन फोर व्हीलर लेकर आए उस दिन बड़ी खुशी हुई थी कि चलो मैं घर से निकला था तो कुछ भी नहीं था साइकिल पर आया था फिर मोटरसाइकिल लिया आज फोर व्हीलर घर के बाहर खड़ी है। बहुत अच्छी है पर तुमने फोर व्हीलर लिया और तुम्हारे पड़ोसी ने लग्जरी कार ले ली। उस कार को देखते ही तुम्हारी कार बेकार हो गई। बोलो कुछ ऐसी ही कहानी है तुम्हारी? अपने मन से पूछो कि तुम्हारे जीवन का दुख तुम्हारी रिक्वायरमेंट्स के पीछे है या डिजायर के पीछे? बोलो। याद रखना रिक्वायरमेंट्स को fullfil  किया जा सकता है लेकिन desire डिजायर तो endless है। उसका कभी एंड नहीं होने वाला। सावधान हो जाओ। अभाव को मत देखो जो है, जैसा है, जितना है उसे देखो कि वही तुम्हारे काम का है। उसे मत देखो जो तुम्हारे पास नहीं है। अगर तुम्हारे पास लाख है तो तुम करोड़पति बनने की चाह मन में मत जगाओ। क्योंकि ऐसा करके क्या होगा? करोड़पति तो तुम बन नहीं पाओगे लाख का सुख भी नहीं उठा पाओगे, अपितु 99 लाख के अभाव का दुख आमंत्रित कर लोगे। अभाव की ओर ही मनुष्य की दृष्टि जाती है। लाख का सुख नहीं मिलेगा 99 लाख के अभाव का दुख आमंत्रित हो जाएगा। इसलिए आज से तय करो संतोष के क्षेत्र में पहला कदम रखना है तो मैं उसे नहीं देखूंगा जिसका मेरे पास अभाव है। मैं अपनी दृष्टि सदैव उस पर केंद्रित करूंगा जिसका मेरे पास सद्भाव है। मैं अपनी दृष्टि को केवल वही केंद्रित करूंगा जिसका मेरे पास सद्भाव है यानी मैं उसे ही देखूंगा जो मेरे पास है। मैं उसे कभी नहीं देखूंगा जो मेरे पास नहीं है। एक बात बताऊं यदि तुमने अपने भीतर झांक कर देखना शुरू किया और अपने पास रहे हुए संसाधनों का सही मूल्यांकन करना शुरू किया तो तुम पाओगे कि तुमसे बड़ा शहंशाह इस धरती पर कोई दूसरा नहीं है। तुम अभाव का रोना रोते हो, उसके दुख का रोना रोते हो। अरे! भगवान ने, प्रकृति ने तुम्हें जो शरीर दिया है वही करोड़ों का है थोड़ा समझो तो। किसी व्यक्ति की आंख चली गई हो। तुमसे एक आंख मांगे और बोले 10 लाख दे देंगे तो तुम ले लोगे? कहेगा तुम्हारे पास दो आंखें हैं एक हमें दे दो, एक से तुम काम चला लेना, एक से हमारा काम चल जाएगा। कोई तुमसे कहे तो? किडनी भगवान ने दी है, एक हमें दे दो। 20 लाख ले लो। दोगे? मेरे पास कुछ नहीं है ऐसा क्यों बोलते हो, क्यों बोलते हो? अच्छा मैंने अभी केवल दो ही organs ऑर्गंस की बात की। पूरे का हिसाब लगा लोगे तो?

तुम्हें तो प्रकृति ने ही धन्नासेठ बनाकर भेजख है। पर तुम अपने आप को पहचानते कहां हो। पहचानो, किसी के पास करोड़ों हो वह मेरे लिए कोई काम का नहीं। मेरे पास एक शरीर है वही मेरे काम का है। यह दृष्टि अपने भीतर रखो। तो पहली बात संतोष को अपने ह्रदय में घटित करना है। अभावोन्मुखी दृष्टि से बाहर हो। भावोन्मुखी दृष्टि बनाओ। अब मैं अभाव को नहीं सद्भाव को देखूंगा। आज से यह तय कर लो दूसरों के पास क्या है, मैं उसे नहीं देखूंगा। मेरे पास क्या है, यह मैं देखूंगा। अगले ने क्या कमाया, यह मैं नहीं देखूंगा। मुझे क्या करना है, सदैव यह देखूंगा। मैं अपने जीवन की व्यवस्था खुद को केंद्र में रखकर बनाऊंगा, सामने वाले को अपने केंद्र में बिठाकर नहीं।

मैं आपसे यह नहीं कहता है कि संतोष रखना है तो हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाओ। मैं यह भी नहीं कहता कि संतोष रखना है तो तुम व्यापार-धंधा खत्म कर दो। मैं आपको यह नहीं कह रहा हूं। लेकिन इतना कह रहा हूं तुम्हें जो कुछ भी करना है यह सोचकर करो कि मैं यह क्यों कर रहा हूं और मुझे कब तक करना है, मेरे लिए है वह कितना है? और जो मुझे करना है वह मुझे करना है। बगल का आदमी क्या कर रहा है वह मुझे नहीं देखना। क्योंकि जो भी मैं कर रहा हूं वह अपने लिए कर रहा हूं। तो मैं अपनी बात देखूं सामने वाले की बात नहीं। अभावोन्मुखी दृष्टि असंतोष का सबसे प्रबल कारण है।

दूसरा कारण- “यथार्थ की अनदेखी करना”।

जीवन के यथार्थ को समझने वाला व्यक्ति कभी हाय-हाय नहीं कर सकता।

एक युवा उद्यमी, 40 साल की उम्र में उसने अपनी पहचान बनाई। काफी पैसा कमाया। व्यापारिक जगत में अपनी एक अलग छवि स्थापित की। एक दिन उसकी धर्मपत्नी ने उसके सामने मुझसे कहा कि महाराज इनको थोड़ा समझाइए मैंने बोला क्या बात है? बोली- महाराज जी महीने में 28 दिन बाहर रहते हैं, खूब पैसा है किसी चीज की कमी नहीं। लेकिन इनको कोई भी काम बता दे यह दौड़ जाते हैं। बेशक पैसा कमाते हैं पर महाराज जी हमें ऐसा पैसा नहीं चाहिए हमें अपना पति चाहिए। महाराज आप इनको कुछ समझाइए। मैं उसकी तरफ मुखातिब हुआ बोला- महाराज, कुछ नहीं थोड़े समय की बात सोच रहा हूं कि मेरे बच्चों को कुछ ना करना पड़े, थोड़ा बहुत कमा लूं। बच्चा बाजू में बैठा था उसने कहा पापा मुझे आपका एक रूपया नहीं चाहिए। आप मुझे पढ़ा लिखा रहे हो, इंजीनियरिंग मेरी हो गई है, मैं अपनी जिंदगी पूरी कर लूंगा। आप यह कहते हो कि मेरी वजह से आप पैसा कमा रहे हो तो मुझे आपसे केवल इतना कहना है कि आप हमारी चिंता मत कीजिए। अपनी चिंता कीजिए हमें आपके पैसों की कोई आवश्यकता नहीं है। आपने मुझे इतना लायक बना दिया कि मैं खुद अपने लिए जोड़ लूंगा और मेरा काम हो जाएगा। अगर आप हमारे प्रति कुछ अच्छा भाव रखना ही चाहते हैं तो हमें आपकी संपत्ति से सरोकार नहीं, आपके समय और स्नेह से सरोकार है। आप समय और स्नेह दीजिए, जंगलों की खाक मारना बंद कीजिए। उस आदमी का बीड़ी पत्ते का काम था।(अभी तो सीजन चल रहा है बीड़ियो का) जंगलों में महीनों रहना पड़ता है और छत्तीसगढ़, उड़ीसा नक्सल एरिया में रहना पड़ता है। पत्नी कह रही है, बेटा कह रहा है कि हमें पैसों की जरूरत नहीं और बाप कह रहा है। कमाल है। फिर मैंने उस युवक से एक सवाल किया। हमने कहा- एक बात बताओ कि तेरे पिताजी तेरे लिए कुछ छोड़ कर गए थे? बोला- महाराज, दिया था काफी दिया था। तेरे पिता ने जो तुम्हें दिया उसको तुमने भोग लिया? बोला- महाराज, भोगने की क्या जरूरत है, पिताजी ने जो मुझे दिया उससे आज मैं सौ गुना आगे हूं। फिर मैंने उसे समझाया कि जब तेरे बाप की कमाई तेरे काम नहीं आई तो तेरी कमाई तेरे बेटों के क्या काम आएगी। बेटों में अगर हुनर होगा तो कुछ नहीं होगा तब भी बहुत कुछ कर लेगा और यदि उस हुनर नहीं होगा तो तू उसके लिए करोड़ों का खजाना भी छोड़ेगा तब भी सत्यानाश कर देगा।

लोक में कहावत है- “पूत कपूत तो का धन संचय और पूत सपूत तो क्या धन संचय”।

है इस पर विश्वास? अरे! महाराज आप लोग तो कहते हैं, आप लोगों को अनुभव कहां? हम लोग गृहस्थ हैं थोड़ा-बहुत फ्यूचर के लिए तो चाहिए होता है, कुछ हो जाए तो। बंधुओं हम भी जो कुछ कह रहे हैं वह तुम्हारे फ्यूचर के लिए ही कह रहे हैं। पर क्या बताएं तुम सुधरते ही नहीं। तुम्हारा यह नेचर हो गया है।

एक स्कूल में एक बच्चा था तो जब भी n a t u r e बोला जाता था तो बच्चा नटुरे बोलता था। एक दिन उसका पिता स्कूल पहुंचा और टीचर बोला अपने बच्चे को समझाओ यह नेचर को नटुरे बोलता है। बाप ने कहा छोड़िए ना सर कहां इसके पीछे पड़ते हो इसका फटूरे ही ऐसा है। बाप फ्यूचर को फटूरे बोल रहा है। बेटा नेचर को नटुरे बोल रहा है और बाप फ्यूचर को फटूरे बोल रहा है तो मुझे लगता है आपका फ्यूचर भी फटूरे ही है। अपने भविष्य को संवारो, कर्म सिद्धांत पर विश्वास होगा वह भविष्य के प्रति सावधान जरूर होगा, शंका नहीं करेगा । तुम कितना भी सहेज के रखोगे अगर कर्म तुम्हारे अनुकूल नहीं है तो सब कहां खिसक जाएगा पता नहीं, काम में भी नहीं आएगा और कर्म अनुकूल होगा तो तुम फटेहाल भी होगे तो मालामाल बन जाओगे। यह तो जीवन का सिद्धांत है। यथार्थ को समझने की कोशिश कीजिए। मैं किसके पीछे हाय-हाय करूं और फिर यह सोचो सब कुछ तुम्हारे चाहने से मिल जाता है क्या? आज तक तुमने क्या-क्या चाहा और मिला? संसार में ऐसा कोई कल्पवृक्ष नहीं है जो मनुष्य की हर चाह को पूरी कर दें। चाहने से चीजें नहीं मिलती। संत कहते हैं कि तुम जो चाहो वह तुम्हें नहीं मिले कोई चिंता नहीं, तुम्हें जो मिला है उसे चाहना शुरू कर दो कोई चिंता नहीं होगी। जो मिला उसे तो चाहो काम का तो वही है। महाराज वही तो नहीं होता तो हम क्या करें। अपने आपको टर्नअप करने की जरूरत है, दिशा को मोड़ने की आवश्यकता है। हमें अपनी चाह को सीमित बनाना है, अपने जीवन की दिशा को तय करना है, अपने जीवन में परिवर्तन घटित करना है। यह सोच जब हमारे भीतर डेवलप होगी अपने आप संतोष की धारा प्रकट होने लगेगी। ऐसा व्यक्ति धन पैसा जोड़ेगा संसार के और कार्य करेगा पर उनमें आसक्ति नहीं रखेगा, ह्रदय में उदारता रखेगा। वह अपने भीतर विकसित करें। हर कार्य में, हर क्षेत्र में मन में संतुष्टि होनी चाहिए। तो पहली बात- अभावोन्मुखी दृष्टि से बचना है। दूसरी बात- यथार्थ की अनदेखी नहीं करना। अपनी दृष्टिपटल में सदैव यथार्थ को लेकर चलना है।

तीसरी बात- “जीवन जीने का कृत्रिम तरीका”, “अस्वाभाविक तरीका”। आज जो लोग हैं सब स्टेटस के नाम पर मरे जा रहे हैं। लोक में कहावत है- “प्रतिष्ठा में प्राण गंवाना”। अपनी हस्ती, अपनी हैसियत की अनदेखी करके तुम जो जीवन जी रहे हो वह पूरी तरह आर्टिफिशियल है, बनावटी है, ऊपर से कुछ और और भीतर से कुछ और है। तुम होते कुछ हो और अपने आप को दिखाना कुछ चाहते हो और उसको मेंटेन करने के लिए पचास प्रकार के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। जीवन अंदर से टूट जाता है। आज दुनिया में ऐसे लोगों की बहुलता है जो केवल ऊपरी चमक में उलझ रहे हैं। अपने जीवन को मोड़िए।

एक महिला कीमती गहने और आभूषणों से लदी थी। अच्छे कपड़े पहनी थी। काफी दिन बाद उसकी एक सहेली ने देखा। उसने पूछा क्या बात है आज तो तुम गजब छाई हुई हो, बहुत अच्छे कपड़े और बहुत कीमती गहने पहने हुए हैं। क्या तुम्हारे पति का बिजनेस बदल गया, उनकी इनकम बढ़ गई? बोली- नहीं, मैंने अपना पति बदल लिया। ऐसे लोगों को भगवान भी सुखी नहीं कर सकेंगे। पर विडंबना यह है कि यह मानसिकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है। स्वाभाविक तरीके से जीना शुरु कीजिए, कृत्रिम रास्ता अपनाना बंद कीजिए। मैं जो हूं जैसा हूं जितना है वह मेरे लिए ठीक है। जीवन सुखी होगा और यदि ऐसा आप नहीं समझेंगे तो जिंदगी में कभी भी सुखी नहीं हो सकेंगे। आप अपने भीतर देखिए आपका काम अगर सौ रुपए के शर्ट से चल रहा है और उतनी ही आपकी कमाई है और उतनी ही बचत है फिर भी आप हजार रुपए का ब्रांडेड शर्ट लेना चाहेंगे। आजकल ऐसा हो रहा है कि नहीं? मुझे सबके बीच रहना है, अगर किसी की जेब की ताकत हजार रुपए खर्च करने की है तो मुझे उससे कोई एतराज नहीं पर सो रुपया भी मुश्किल से खर्च करने की स्थिति रखने वाला हजार रुपए की चीज लेकर आएगा तो एक दिन उसका बंटाधार होगा कि नहीं होगा? आजकल हिंदुस्तान में क्या होता है कि loan लोन लो फिर सब चीजों की व्यवस्था है। मैंने सुना है आजकल बच्चा पैदा करने का भी लोन मिलने लगा है। ऐसा कहा मुझे किसी ने। क्या है यह? सब चीज लोन में।

एक आदमी बीमार था। डॉक्टर को दिखाया तो डॉक्टर ने कहा थोड़ा lawn लाॅन पर टहला करो। बोला- क्या बोलते हैं डॉक्टर साहब, मेरा तो पूरा परिवार ही लोन पर चलता है। ले लो कर्जा और घी पियो। यह सब तुम्हारी तृष्णा की अभिवृद्धि के निमित्त हैं। यदि तुम इन बातों को ध्यान में रखकर चलोगे जीवन में कभी असंतोष नहीं होगा। तीसरा कारण मैंने बताया जीवन जीने का कृत्रिम तरीका, अस्वाभाविक तरीका और चौथी बात- “आय से अधिक व्यय”। दोनों को साथ में जोड़कर मैं बात पूरी कर रहा हूं। स्टेटस के नाम पर आदमी अपनी क्षमता से ज्यादा खर्चा कर लेता है।

बुंदेलखंड में कहावत है- “आमद कम और खर्चा ज्यादा लछ्छण है मिट जाने का और कूवत कम गुस्सा ज्यादा लछ्छण है पिट जाने का”।

आय से अधिक व्यय करोगे मिटोगे। मेरी जितनी इनकम है उतना ही मुझे खर्च करना है, मेरा जो स्टेटस है मुझे उसी दायरे में रहना है मुझे दूसरों से होड़ नहीं करना। यह आय से अधिक व्यय करने की प्रवृत्ति तभी होती है जब व्यक्ति अपनी हस्ती और हैसियत की उपेक्षा करके दूसरों से होड़ करता है। स्टेटस के नाम पर मेरे लिए इतना sufficient है मैं ऐसे ही रह लूंगा वह ज्यादा अच्छा है। एक बात ध्यान रखना मनुष्य के जीवन में उसके रूप और उसके कपड़ों का मात्र 15% स्थान होगा 85% उसके आचार और विचार का असर होता है। अच्छे आचार, अच्छे विचार रखोगे तो जगत पूज्य बन जाओगे। बताओ  किसका स्टेटस बड़ा? तुम कपड़े वालों का या हम बिना कपड़े वालों का? बोलो अगर तुम किसी अपरिचित के घर में घुस जाओगे तो क्या होगा? ईमानदारी से बोलना। महाराज, धक्का देकर बाहर निकालेगा। बोलो निकालेगा कि नहीं? और हम किसी के घर चले गए तो क्या होगा? महाराज, पांव पखारेगा, आरती उतारेगा। बोलो तो किसका स्टेटस बड़ा? हमारे प्रति आदर भाव, यह बहुमान क्यों? यह हमारे वेष के कारण नहीं, यह हमारे चरित्र के कारण है। मनुष्य के जीवन का आधार उसका ऊपरी टिपटॉप नहीं, आंतरिक विचार, व्यवहार और आचार है। उस पर फोकस कीजिए। अपने जीवन को भी भीतर से परिमार्जित करने की कोशिश कीजिए। मन में कभी असंतोष नहीं पड़ेगा। आप अपने में संतुष्ट होकर मस्ती भरी जिंदगी जिएंगे और जीवन का परम रस लेने में समर्थ हो सकेंगे। ऐसी दृष्टि हमारे भीतर विकसित होते रहनी चाहिए और हम अपने जीवन को इसी तरीके से आगे बढ़ाएंगे तो एक दिन निश्चिततः परम आनंद से भर पाएंगे। संतोष का दिन है मैं चाहता हूं आज आप इतने में ही संतोष रखें।

 

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