आचार्यश्री ने तीन जगह प्रतिभास्थली बनवाई हैं और तीनों प्रतिभास्थली में जितने भी शिक्षिकाएँ हैं, सभी बाल-ब्रह्मचारिणी दीदी हैं, तो इसके आगे आचार्य श्री का क्या उद्देश्य था?
आचार्य श्री का क्या उद्देश्य है, यह तो वही जानते हैं। उनके मन की बात कोई दूसरा नहीं जान सकता। लेकिन फिर भी उन्होंने जो बहनों को दिया, उसके पीछे मुझे दो दृष्टिकोण प्रकट प्रतीत होते हैं। हो सकता है यह दृष्टिकोण गलत हो क्योंकि उनकी मन की बात को मैं नहीं बता सकता। पर मुझे यह लगता है कि जो निवृत्त होकर के, निवृत्त चित्त होकर के समर्पित भाव से कार्य करते हैं, वे ही सही कार्यकर्ता होते हैं। किसी गृहस्थ को यदि इसमें लगाया जाये, तो उनके लिए जीविका का प्रश्न है और जीविका के प्रश्न में उनके भीतर अर्थलोलुपता आयेगी। यह ब्रह्मचारी बहनों को आगे बढ़ाने से वह जीविका के प्रश्न से रहित होने के कारण निष्प्रह वृत्ति और समर्पित भावना से इस कार्य को आगे बढ़ायेंगी।
दूसरी बात, त्यागी व्यक्ति यदि किसी को अध्यापन कराता है, तो उसके साथ उसका चरित्र भी बोलता है, उनका त्याग भी बोलता है। तो बच्चों में शिक्षा के साथ संस्कार भी आते हैं।
और तीसरा आचार्य श्री समाज में एक समुन्नत परम्परा को विकसित करना चाहते थे। ताकि अच्छे संस्कार युक्त पीढ़ी प्रकट हो सके। शायद इसी भाव से दीक्षा के योग्य बहनों को दीक्षा न देकर इस तरफ लगाया और यह इस बात का द्योतक है कि हम दीक्षा लेकर साधु बने या समाज सेवा का कार्य करें, कम कोई नहीं है। निष्पृह भाव की समाज सेवा भी एक बहुत बड़ी तपस्या या साधना है, ऐसा समझना चाहिए।
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