जब किसी रिश्तेदार की मृत्यु होने पर जो उनकी मृत्यु की तिथि होती है, उसे लोग मनाते हैं, विधान करते हैं, भोजन भी कराते हैं, क्या यह सब करना उचित है?
लोग कहते हैं कि “पुण्य तिथि मनाओ”, वह तो पाप तिथि है।
अगर किसी के मरने को तुम पुण्यतिथि कहते हो इसका मतलब तुम बाट जोह रहे थे कि वह व्यक्ति कब मरे! मर गया तो सब पुण्यतिथि मनाने लगे। मरना तो एक स्वाभाविक नियोग है, आना-जाना तो लगा हुआ है, उसे पुण्यतिथि कहना नादानी है। उस दिन विधान करना-इस भाव से कि उसकी आत्मा को शान्ति मिले-गलत बात।
तुम यहाँ हो और वह वहाँ। तुम यहाँ पानी डालो और स्वर्ग में फसल हो जाये, ऐसा संभव नहीं है। यहाँ का काम यहीं काम आयेगा। “तो क्या पूजा-विधान बंद करें?” नहीं! पूजा- विधान करो, यह सोचकर कि ‘मेरी धर्म की श्रद्धा इस निमित्त से बढ़े, मेरे वैराग्य का भाव बढ़े।’ उस दिन को याद करके जीवन की नश्वरता को समझना शुरू करो, जीवन की सच्चाई को मानना शुरू करो, तब यह तुम्हारे लिए पुण्यतिथि होगी। जिस दिन तुम्हारे भीतर पुण्य भावों की वृद्धि हो वह पुण्यतिथि है।
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