पिछले दो दिनों से मेरे मन में बड़ा गंभीर चिंतन चल रहा है। यहाँ न्यायवेत्ता और विधिवेत्ता बैठे हुए हैं और आप श्री के मुख से भी यह बात बार-बार कही जा रही है और कि हमारी मंशा न्यायालय की अवमानना की नहीं है।” न्यायालय ने जो निर्णय दिया है वह कोई परमात्मा के द्वारा निर्णय नहीं दिया है, कोई सर्वज्ञ-प्रणीत निर्णय नहीं है। ये तो प्रजातंत्र है और प्रजातंत्र में जब कोई प्रतिकूलता का काम हो तो तत्काल उसके लिए ऐसा किया जा सकता है। लेकिन फिर ऐसा क्यों बार-बार कहा का रहा है कि यह न्यायालय की अवमानना नहीं है। क्योंकि न्यायालय तो जनता के द्वारा ही बनाया हुआ है। अभी नेपाल की घटना है कि वहाँ के प्रधानमंत्री ने कुछ किया तो बाकी जनता ने उसका बहिष्कार किया। इसलिए मेरी जिज्ञासा है कि बार-बार इस बात को हम क्यों कह रहे हैं? एक पाँचवीं पढ़ा हुआ व्यक्ति भी मुनि श्री के प्रवचन से यदि सल्लेखना का स्वरूप समझ ले तो वो भी यह कहेगा कि यह निर्णय अनुचित है। मुनि महाराज कृपया बताने की कृपा करें?
निर्णय से असहमति प्रकट करना कोई अपराध नहीं है और असहमति प्रकट करने का सबको अधिकार है। उस असहमति के कारण ही उच्च अदालत में व्यक्ति अपनी अपील करने जाता है पर भारतीय संविधान के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को न्यायपालिका के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर करना और बन्धना एक अनिवार्यता है। इसलिए व्यक्ति को उस न्यायपालिका का सम्मान करना पड़ता है, चाहे उसके लिए प्रधानमंत्री ही क्यों ना हो। तो हर भारतीय नागरिक को न्यायपालिका का, जिसके माध्यम से हमारा देश चलता है, ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। हाँ, कोई असहमति और आपत्ति है, तो उसके निवारण के लिए जो भी संभव हो वह सारे उपाय करने को वो स्वतंत्र है और जैन समाज वही करे।
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