आज आर्ट ऑफ लिविंग (Art of Living) के ऊपर सारी चर्चाएं हो रही हैं। आज यह संथारा सल्लेखना का विषय है, तो acceptance of death by natural way इस पर प्रकाश डालना जरूरी हो गया।
सबसे पहली बात, आर्ट ऑफ लिविंग की बात है। भारत का जो दर्शन है, संस्कृति है, वह हमारे जीवन की कला को ही बताती है। यह जीवन की कला जो भारतीय संस्कृति का मूल तत्व था, हमने इसे आर्ट ऑफ लिविंग में बदल दिया। आज यह दुर्दशा है भारत की कि ‘जीवन की कला’ बताने पर लोगों को समझ में नहीं आता और ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ कहने पर सबको समझ में आ जाता है। यह जो भाषा है यह ही गलत है। पहले तो हम इस भाषा पर ही आपत्ति करना चाहेंगे। जो जीवन के तत्व को ही नहीं जानते, वे लिविंग का अर्थ क्या बताएँगे? वह बहुत ऊपरी आर्ट है।
वस्तुतः जीवन जीने की कला, ऐसी कला जिसमें जीवन जीते हुए जीवन का रस मिले, सारे जीवन जीवन का रस ले सकें और इस जीवन से जब विदा लें तो भी जीवन का रस लेते हुए जाए।
सल्लेखना और संथारा की बात को जब लोग व्याख्यायित करते हैं कि यह मृत्यु को ठीक करने के लिए सल्लेखना-संथारा ली जाती है। यह अवधारणा गलत है। सल्लेखना मृत्यु का वरण नहीं, मोक्ष की प्राप्ति है। मुक्ति, जीवन-मरण से ऊपर उठने के लिए सल्लेखना ली जाती है। सल्लेखना और संथारा का जो लोग यह अर्थ लेते हैं कि acceptance of death, मृत्यु की स्वीकारता कर मृत्यु की शरण में जाना, यह बात ठीक नहीं है। अपितु इसका अर्थ यह है, जीवन के अन्तिम सांस तक आत्मा के साक्षात्कार पूर्वक जीते हुए इस शरीर से विदा लेना, इस जीवन का अन्त करना, यह सल्लेखना का मूल स्वरूप है। इसलिए मरने के लिए सल्लेखना नहीं ली जाती, बल्कि अन्तिम सांस तक प्रज्ञा पूर्वक, ज्ञान पूर्वक, धर्म पूर्वक, श्रद्धान पूर्वक जीने का नाम ही सल्लेखना है।
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