नारी अपना अपराध स्वीकार कर लेती है और उस का प्रायश्चित भी कर लेती है। फिर भी समाज की नारियाँ उसे सही ढंग से जीने नहीं देती तो उस समय वह क्या करें?
समाज की बड़ी कमज़ोरी है। कोई व्यक्ति यदि गलती करे और गलती करने के उपरान्त उसका प्रायश्चित लेकर अपने आप को सुधारने की कोशिश करे और सुधार ले तो समाज को भी चाहिए कि उसके प्रति अपना दृष्टिकोण बदले, उसे पूर्वाग्रहित दृष्टि से ना देखे। अन्यथा किसी का सुधार नहीं हो सकता।
हमारा धर्म कहता है पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। पतित से पतित व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन की सम्भावनाएँ सदा जीवित रहती हैं। इसलिए यदि व्यक्ति के भीतर परिवर्तन है, तो उसका निश्चित उद्धार होता है।
रहा सवाल इतना सब कुछ होने के बाद भी लोग दृष्टि ना बदलें तो क्या करें? वह उसे अपने कर्म का उदय माने और अपनी समता को बढ़ाए। किसी पर दोषारोपण करने की जगह यह सोचे “यह मेरे ही कर्म का कुपरिणाम है और इसे मैं समता से ही जीत सकती हूँ।” अगर ऐसी दृष्टि होगी तो निश्चित ही सफलता मिलेगी।
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