निजी जनों के मोह में पड़कर अपने स्वाभिमान को बनाये रखना चाहिए या खो देना चाहिए?
देखिये मोह में जो पड़ता है, उसका स्वाभिमान भी नष्ट होता है और स्वत्व भी नष्ट होता है, इसलिए मोह ही सबसे खतरनाक है। तो पहले मोह का शमन ही करना चाहिए और रहा सवाल निजी जनों के मोह में पड़कर स्वाभिमान को बनाये या रखें, जो निजी जनों के मोह में पड़ेगा उसके अन्दर लोभ होगा, लालच होगा स्वाभिमान कहाँ टिकेगा?
स्वाभिमान तो आत्मा का एक गुण है। मोही व्यक्ति के अंदर स्वाभिमान नहीं होता, वो तो कभी-कभी अभिमान को स्वाभिमान ज़रूर मान लेता है। तो अपने किसी के मोह में फँसकर अपना पतन करना कभी अच्छी बात नहीं है। सबसे पहले स्वाभिमान और अभिमान के अन्तर को समझते हैं। कई बार लोग अभिमान को ही स्वाभिमान मानने की भूल कर बैठते हैं। अभिमान और स्वाभिमान में अन्तर क्या है? सामने वाले से सम्मान की अपेक्षा रखने का नाम मान यानि अभिमान और मेरा कहीं अपमान न हो, इस प्रकार की सावधानी रखने का नाम स्वाभिमान।
अपनी गरिमा को बचाये रखना, अपने गौरव को बनाये रखना कि बस ठीक है, कल मुझ पर कोई ऊँगली न उठाये, मैं ऐसा कोई काम न करूँ। मुझे लोग प्रणाम करें, न करें, कोई दिक्कत नहीं है। मुझे लोग सम्मान दें, न दें, मुझे कोई फर्क नहीं है, पर मेरा अपमान नहीं होना चाहिए। मैं ऐसा कोई कृत्य न करुँ जिससे लोग मेरे ऊपर थूकने लगें, इस सावधानी का नाम स्वाभिमान है और यह मनुष्य का एक गुण है जिसे किसी भी हालत में खोना नहीं चाहिए। कुरल काव्य में लिखा है कि उत्तम पुरुष का यही लक्षण है कि वह प्राणान्त होने पर भी अपने कुलीन संस्कारों को नहीं खोते, उसकी मर्यादा को हमेशा बनाये रखते हैं।
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