ऐसा कहा गया है कि यही बाह्य क्रिया कार्यकारी नहीं है तो अणुव्रत-महाव्रत ना कर केवल चित्त में ही लीन रहें और मोक्ष को प्राप्त करें। फिर इतना कष्ट उठाने के क्या आवश्यकता है गुरुदेव?
बाह्य क्रिया निरर्थक नहीं है, चित्त शुद्धि के अभाव में बाह्य क्रिया निरर्थक है। बाह्य क्रिया चित्त की शुद्धि के लिये की जाती है, अपने भीतर के राग-द्वेष की निवृत्ति के लिये हम धर्म का आचरण करते हैं। हम जिस प्रयोजन से धर्म करते हैं, जब वही खो जाये, तो धर्म करने का फल क्या? तो स्वयं को मात्र बाहरी क्रियाओं में ही रूढ़ मत करो, अन्तरआत्मा का स्पर्श भी करो। अन्दर की शुद्धि के लिये बाहर की क्रिया करना सार्थक है और केवल बाहर की क्रिया करना ठीक बात नहीं।
आप लोग बर्तन माँझती हो, अगर आप ऊपर ऊपर से ही बर्तन मांझती रहो और भीतर से नहीं माँझती तो क्या होगा? बर्तन को जैसे बाहर से माँझते हैं, भीतर से माँझना भी उतना ही जरूरी है।
Leave a Reply