मंदिर में, पूजन में, स्वाध्याय में, अभिषेक में तो बहुत अच्छे से मन लगता है; कौन कब आ गया, कब चला गया? कोई पता नहीं चलता। लेकिन माला फेरते समय सारी पूरी दुनिया याद आ जाती है इसका क्या उपाय करें कि माला फेरते समय मन लगा रहे?
हमारा मन बड़ा विचित्र है। इस मन को आलंबन चाहिए होता है। चौबीस घंटे हम अपने मन को कहीं न कहीं लगाए रखते, किसी न किसी में उलझाए रखते हैं, तो मन उसी में लग जाता है। पूजा पाठ करते समय भी हमारे पास शब्द होते हैं, पद होते हैं, पुस्तक होती है, सामने भगवान की मुद्रा होती है और पूजा के उपकरण होते हैं। हमारा मन उसमें लग जाता है। लेकिन जाप या सामायिक के लिए बैठते हैं उस घड़ी में आपके मन के पास कोई आलंबन नहीं रहता। तो मन को आज़ादी मिल जाती है। और वह घूमना शुरू कर देता है, निर्द्वन्द्व विचरना शुरू कर देता है। तो क्या करें?
आप जाप क्यों करते हैं? अपने मन को रमाने के लिए करते हैं। आप लोग जाप करने तो बैठ जाते हो मन को रमाने की चेष्टा नहीं करते। जब भी जाप करने के लिए बैठे, अपने मन को जाप में लगाने की कोशिश करें। कहते हैं “कर का मनका छोड़के, मन का मनका फेर”, कैसे? जाप लें, अगर आप माला के माध्यम से जाप करते हैं तो, उंगली से जाप करते हैं तो, और मन से जाप करते हैं तो, जैसे णमोकार का ही जाप करते हैं। आप जब णमो अरिहंताणं बोल रहे हैं, तो ‘अरिहंतो को नमस्कार हो’ यह भाव भी भीतर उमड़े। परम परमेष्ठी अरहंत, उनके स्वरूप का ध्यान तो आगे की बात है, णमो अरिहंताणं यानी इस शब्द उच्चारित करते समय-अरहंतों को नमस्कार हो! णमो सिद्धाणं-सिद्धों को नमस्कार! णमो आयरियांणं-आचार्यों को नमस्कार! णमो उवज्झायाणं उपाध्यायों को नमस्कार हो! णमो लोए सव्वसाहूणां-साधुओं को नमस्कार हो। यह साथ साथ चले। मन कहाँ भागेगा? मन को भागने की गुंजाईश ही नहीं रहती। लेकिन आप लोग क्या करते हैं – माला के मणकों को सरकाने का नाम जाप नहीं है, माला के मणकों में मन को रमाने का नाम जाप है। तो मणकों में मन को रमाईये। मन बड़ा बेईमान है और भरोसे लायक नहीं है। थोड़ा सा मौका मिलता भागता है। इसलिए उसको मौका ही मत दो। चौकन्ने हो जाओ और उसमें रुचि बढ़ाओ। इसका तात्पर्य यह भी है कि जितना तुम्हारी पूजा, स्वाध्याय और पाठ में रुचि है, जाप में नहीं है। जाप में रुचि बढ़ेगी तो यह काम भी बहुत सहजता से होगा।
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