यह ध्यान क्या है और ध्यान करते समय किसी आराध्य का ध्यान करना जरूरी है क्या? क्या ध्यान से इंद्रियों को वश में किया जा सकता है?
एकाग्र चिंता निरोध ध्यानम्!
चित्त का किसी एक ही वस्तु का आलंबन लेकर स्थिर हो जाने का नाम ध्यान है। इसे दूसरे शब्दों में, हमारे गुरुदेव कहते हैं,- “स्थिर ज्ञान का नाम ही ध्यान है”। अपने चित्त को स्थिर करना, अपने ज्ञान की धारा को अचंचल बना लेना, यही ध्यान है। तो ध्यान में कई तरीके से कार्य किये जाते हैं, सालबंन ध्यान भी होता है और निरालंबन ध्यान भी होता है। आलंबन सहित ध्यान में पदस्थ ध्यान, पिंडस्थ ध्यान, रूपस्थ ध्यान और रूपातीत ध्यान, यह सब सालम्बन ध्यान है। जिसमें मंत्र-पदों का आलंबन हो, वह पदस्थ ध्यान कहलाता है। अपनी आत्मा के स्वरूप का चिंतन करना यह पिंडस्थ ध्यान होता है। भगवान के समोशरण आदि के विराजमान रूप का अवलोकन करना रूपस्थ ध्यान है और स्व-स्वरूप चिंतन करना यह रूपातीत ध्यान है। यह सब सालम्बन ध्यान है। निरालम्बन ध्यान वह, जहां सारे आलम्बनों को छोड़कर स्वयँ का स्वयँ के साथ केन्द्रीय-करण होता है उसका नाम निरालम्बन ध्यान है, जो बड़े-बड़े योगियों को होता है।
उस ध्यान को प्राप्त करने के लिए क्या करें? हमारे आचार्यों ने कहा- ध्यान क्या है? परम ध्यान क्या है ?
मा चित्त, मा चिंत, मा जल्प, किंबि जेन होय ठिरो;
अप्पा अप्पम इरव इन्मेव हवई परम ध्यानम्!
कोई भी चिंता मत करो, कोई भी चेष्टा मत करो, कोई भी जल्प ना करो, मन से सोचो मत, वचनों से बोलो मत और शरीर में हलचल मत करो, स्थिर रहो, अपनी आत्मा को अपनी आत्मा में स्थिर रखो; इसी का नाम ध्यान है।
सन् 1986 की बात है, गुरूदेव आचार्य श्री पपौरा जी में विराजमान थे। वहां एक युवक आया। बड़ा तेजस्वी युवक था; आते ही उसने उनके सैकड़ों से snaps लिए और बैठा। फिर बोला – “मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से आया हूं और मैं ध्यान पर शोध कर रहा हूं। आप से मैं ध्यान के विषय में कुछ जानना चाहता हूं, आखिर ध्यान है क्या?” गुरुदेव ने इसी गाथा को बोलते हुए कहा कि “बस कुछ चिंता मत करो, कुछ चेष्टा मत करो, कुछ बोलो मत, आत्मा को आत्मा में स्थिर रखो, इसी का नाम ध्यान है। चर्चा को बीच में रोक कर वह दीवार से सटकर आधा घंटा तक बैठ गया, एकदम स्थिर! बाद में बोला- “महाराज जी! ध्यान की बात तो आपने बहुत अच्छी कही, लेकिन बड़ा कठिन लगा। बार-बार अपने आप को निर्विचार बनाने की कोशिश में था लेकिन लगता कुछ नहीं । यह लगता था कि मैं ध्यान तो कर रहा हूं। आखिर कैसे करूं ?” गुरुदेव ने कहा-“उस भूमिका में जाने के लिए बहुत लंबा जीवन चाहिए, साधना चाहिए, अभ्यास चाहिए, अभ्यास के बल पर ही विचार से निर्विचार हुआ जा सकता है।”
ध्यान करने से क्या करें? सालंबन ध्यान करो जो तुम्हारे विकारों का शमन करे और जब विकारों का शमन होता है तब विचारों का शोधन होता है, निर्विचार होते हैं। तो पहले विकार शुद्धि, फिर विचार शुद्धि, फिर विकार मुक्ति! यह ध्यान की क्रमिक अवस्थाएं हैं, विकार शुद्धि से विकार मुक्ति तक। इसलिए प्राथमिक भूमिका में सालमबन ध्यान ही अभीष्ट है।
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