जब हम कोई भी लक्ष्य तय करते हैं और उसमें कार्य करने के पश्चात् विफल होते हैं तो आलोचना का शिकार होना पड़ता है; और यदि सफल होते हैं तो ईर्ष्या का शिकार होना पड़ता है। इसका तात्पर्य है कि किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के कार्य करने पर या तो हमें आलोचना या ईर्ष्या का शिकार होना ही पड़ता है। एक सदैव लक्ष्यमान श्रावक अपनी मनस्थिति को हमेशा, प्रायोगिक तौर पर (practically) कैसी बनाए रखे ताकि वह स्वाभाविक एवं आनंदमय जीवन जी सके?
पहली बात, लक्ष्य की प्राप्ति केवल वही कर सकता है जिसकी आँखों के सामने केवल लक्ष्य होता है। दूसरी बात, यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि गाड़ी चलती है, तो पीछे धूल और धुआँ तो उड़ता ही है।
गाड़ी जितनी भी तेज चलेगी पीछे उड़ने वाली धूल और धुएँ की मात्रा भी उतनी अधिक होगी। हमारा प्रयास गाड़ी के गति को नियंत्रित रखते हुए आगे बढ़ाने का होना चाहिए। पीछे उड़ने वाली धूल और धुएँ को कभी नहीं देखना चाहिए।
हमें किसी लक्ष्य की पूर्ति करने का मन हो, तो उस घड़ी में हम अपना शत-प्रतिशत दें। कदाचित सर्व प्रयास करने के बाद भी हम सफल ना हों तो आलोचना से घबराएं नहीं, अपितु आलोचकों की बातों को गंभीरता से सुनें, देखें और उनमें अपनी खा़मियों को खोजें। उन खा़मियों को खोजने के बाद उसी आलोचना को अपने जीवन का वरदान बनाया जा सकता है। यदि आप अपनी ग़लतियाँ सुधार लें, तो आलोचना कतई बुरी नहीं है।
ईर्ष्या से प्रभावित होना उचित नहीं है। इसलिए, जो जलते हो उन्हें जलने दो। आप चल पड़े हो, केवल चलते रहो, चलते रहो, चलते रहो!
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