एक बार आपने शंका समाधान में कहा था, कि “आपने अपनी बुद्धि को गुरु चरणों में समर्पित कर दिया।” मैं जानना चाहती हूँ कि आप इतने प्रश्न कैसे करते थे कि जो आपके संघस्थ तपस्वी थे, उन्होंने आपको शंका सागर की उपाधि दी और आचार्य श्री ने इसे अस्वीकार करके आपका “प्रमाण सागर” नामकरण किया।
देखिए, निश्चित रूप से शिष्य वही होता है जो अपनी बुद्धि को गुरु के चरणों में समर्पित कर देता है। मैंने अपनी बुद्धि को गुरू के चरणों में ही समर्पित किया है और हमेशा उनकी बुद्धि से ही चलना सीखा है, अपनी बुद्धि से नहीं। लेकिन, जब कोई भी चीज सीखना होता है, स्वाध्याय करना होता है, किसी ग्रन्थ का मन्थन करना होता है, तो उस समय गुरु ही कहते हैं कि इसको हृदयंगम करो, पूरी तरह समझो और जब तक समझ में नहीं आए तब तक वितर्क करते रहो। उनकी आज्ञा और अनुमति से ही मैं वितर्क करता था। इसलिए मैं जितना वितर्क करता था वो मुझे उतना ही प्रोत्साहित करते थे। मेरे वितर्क का उद्देश्य गुरु से शास्त्रार्थ करने का नहीं, मेरे वितर्क का उद्देश्य विषय को खोलने का होता था ताकि गुरु के भीतर जो स्रोत है वह और प्रकट हो सके और हम सब लोग उन से लाभान्वित हो सके। मैं उनसे पूछता था, संघ में जब तक रहा, मैं उनसे बहुत पूछा करता था और जब मैं पूछता था तो मेरे पूछने के निमित्त से नित्य नए विषय आते थे और उनका मुझे उतना ही आशीर्वाद मिलता था। जब वे हम लोगों को व्याकरण पढ़ा रहे थे, तो व्याकरण में तर्कना बहुत होती है। एक-एक सूत्रों की सिद्धि में अनेक अनेक सूत्र जुड़ते हैं। उसमें रिजनिंग ( reasoning) होती है, तर्कना होती है। मैं उसमें तर्कना किया करता था और कभी कभी ऐसा होता था कि डेढ घंटे के क्लास में एक भी सूत्र पूरा नहीं होता था। मैं ऐसा पूछता था, तो एक दिन एक किसी सूत्र की सिद्धि में काफी लंबी चर्चा हुई। चर्चा करते-करते मेरे किसी साथी ने कहा कि ‘यह तो पूरे शंका सागर हैं”, तब मैं ब्रह्मचारी था; और तभी गुरुदेव ने कहा कि “शंकासागर नहीं प्रमाण सागर हैं।” मुझे कुछ पता नहीं था। ३ दिन बाद मेरी छुल्लक दीक्षा हुई और उन्होंने मुझे प्रमाण सागर के नाम से पुकारा।
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