चोरी पाप ही नहीं, अपराध है!
“अदत्ता दानं स्तेयं” बिना दी हुई चीज़ को ग्रहण करना चोरी है। पता नही, यह किसका वाक्य है कि ‘चोर के घर चोरी करना चोरी नहीं मानी जाती’ पर जैन धर्म इसे नहीं मानता। जैन धर्म में तो किसी की भी सस्वामीक वस्तु को बिना अनुमति के लेना चोरी है। इसलिए हमें किसी की भी बिना दी हुई चीज़ को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
सवाल है – चोरी को पाप क्यों माना गया है? आप थोड़े से अपने पिछले अनुभवों को ध्यान में रखें। आपकी कोई मूल्यवान या उपयोगी वस्तु को किसी ने उठा ली, आपको पता नहीं, आप उसे खोज रही हैं, आपका मन परेशान होता है कि नहीं होता? जब तक वो वस्तु नहीं मिलती, मन बड़ा बेचैन हो जाता है, परेशान हो जाता है, कई लोगों की तो रातों की नींद उड़ जाती है। किसी के मन का परेशान होना, बेचैन होना, हिंसा है कि नहीं? आपने चोरी के माध्यम से हिंसा की या नहीं? कई बार ऐसी भी स्थिति होती है, कि जिस वस्तु को आपने उठाया है, वह उसके जीवन का आधार हो, उससे उसके सारे सपने जुड़े हों; उसको कितनी तकलीफ़ होगी!
मैं आपको एक व्यक्ति की बात बता रहा हूँ। घर में उसकी पत्नी बीमार थी। उसे तनख्वाह मिली। वह एक किराने की दुकान में नौकरी करता था और कुल ६,००० रुपए महीने का तनख्वाह थी। वो तनख्वाह लेकर के निकला, ₹६,००० थे, उससे उसको अपनी पत्नी की दवाईयाँ लेनी थी और महीने भर का राशन भी लेना था। किसी ने पॉकेट मार लिया। वह इतना फूट-फूट के रोया, मानो उसका सब कुछ चला गया। यह क्या है? गरीब आदमी था, उसका किसी ने पॉकेट मारा, चोरी हुई। वह मेरे पास आया। उसको बहुत वेदना हुई। लोगों ने आकर उसको सहयोग दिया। वो लेना नहीं चाह रहा था, लेकिन फिर भी लोगों ने सहयोग देकर, उसे सम्भाला।
मैं कहना केवल यह चाह रहा हूँ, चाहे बड़ा हो या छोटा, किसी की भी कोई चीज़ जब खोती है, या कोई चुराता है, तो उसे बड़ा कष्ट होता है। यह कष्ट देना एक प्रकार की हिंसा है। इसलिए चोरी पाप है और पाप ही नही, अनैतिक कर्म है! आई.पी.सी के अन्तर्गत चौर्य कर्म को एक दंडनीय अपराध निरूपित किया है। अपराध तो पाप से भी ऊँचा होता है। पाप तो केवल स्वगत होता है; अपराध स्वगत और परगत दोनों होता है। इसलिए हमें ऐसी अपराधिक प्रवत्तियों से बचना चाहिए, चोरी से बचना चाहिए। इसलिए चोरी को पाप, एक अनैतिक कर्म और एक अपराध के रूप में देखते हुए उससे दूरी रखनी चाहिए।
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