गुरु चरणों में कार्य कर रहे व्यवस्थापक कैसे व्यवस्था बनायें?
व्यवस्थापक को चाहिये की ऐसी व्यवस्था बनाये जो अधिक से अधिक लोगों को लाभान्वित कर सके। लेकिन व्यवस्था की दृष्टि से कई बार लोगों को वंचित होना पड़ता है। उसमें अन्तराय कर्म का बंध नहीं होता पर व्यवस्थापक की कुशलता से कइयों का अन्तरार्य कर्म टल भी जाता है।
सन् १९९३ की बात है, मैं गुरूदेव के चरणों में था, रविवार का दिन था गुरुदेव को बुखार आ रहा था। उन्होंने मुझे बुलाया कहा कि आज प्रवचन तुम्हें करना है। मैंने प्रवचन किया। प्रवचन करके लौटा सब लोगों को दर्शन कराया। आचार्य श्री को उस समय १०३° ज्वर था, उस स्थिति में भी उन्होंने सब को दर्शन दिए। करीब २० मिनट तक सब लोगों ने दर्शन किए। फिर मैंने वहाँ उन्हें लेटाया, थोड़ी देर वैयावृती भी की; बाहर निकला। करीब ४:४५ के आसपास का समय था, बाहर निकला तो तीस-पैंतीस लोग गुरूदेव के दर्शन के लिए आतुर थे। व्यवस्थापक ने उन्हें कह दिया, छः बजे के पहले दर्शन नहीं होगा आचार्य भक्ति होगी तभी दर्शन होगा, आचार्य श्री का स्वास्थ्य ठीक नहीं है।
पर उसमें एक परिवार मिज़ोरम से आया था, जिसने कभी जैन मुनी का दर्शन नहीं किया और उन्हें मालूम पड़ा नागपुर में आचार्य विद्यासागर महाराज है। पाँच बज रहे हैं, आठ बजे के आसपास की उनकी फ्लाइट थी। गुरुदेव के दर्शन की प्रबल भावना थी। उन लोगों ने हमसे कहा कि- ” हम अभी बस पन्द्रह मिनट पहले पहुंचे, आप कैसे भी दर्शन करा दो बड़ी कृपा होगी।” मैंने कार्यकर्ताओं से बोला कि इन पांचों को आने दो, बाकी सबको रोको, बाकी लोग आचार्य भक्ति के बाद दर्शन करेंगे। मैं उनको लेकर आया और रामटेक में आचार्य श्री तो दलान में रहते थे उनके कमरे में दरवाजा नहीं था एक चटाई लटकी थी। उन सब को मैंने चटाई के बाहर खड़ा कर दिया कि – “देखो! तुम्हारे भाग्य में होगा तो दर्शन मिल जाएगा, शांति रखो।” चटाई हटा करके अन्दर गया, गुरूदेव की निगाह पड़ी, अभी गया और फिर आ गया क्या मामला है? हमने कहा “महाराज! बहुत पुण्य से गुरुओं के दर्शन बनते हैं, एक परिवार मिज़ोरम से आया है, जिसने कभी दिगम्बर साधु के दर्शन नहीं किये है, आपका नाम सुनकर के पहली बार आये हैं और आठ बजे की उनकी फ्लाइट है अभी उनके पास पाँच सात मिनट का समय है।” कौन है? कहाँ है? उन्होंने पूछा, हमने दर्शन करा दिये। उनको इतनी खुशी हुई कि मत पूछो, मैं यह कह देता नियम तो नियम है, वह परिवार वंचित हो जाता। मैं जाकर गुरुदेव से कहता कि “महज २ मिनट उठ कर बैठ जाइए, कुछ लोगों को दर्शन कराना है वह अवज्ञा हो जाती।”
तो आप किसी प्रकार की गड़बड़ी ना करो, गुरु की अवज्ञा और असुविधा भी ना हो और श्रावक उससे वंचित भी ना हो। व्यवस्थित करके काम किया जा सकता है। पर क्या बताएँ कभी-कभी लोग भी नहीं मानते। एक बार तो एक महिला को हमारे ब्रह्मचारी भैया ने आहार देने से रोका तो एक चांटा खींच दिया। विवेक खोना नहीं चाहिए, व्यवस्था भी ऐसी बनाएँ जिसमें अतिरेक ना हो।
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