सकारात्मक सोच की ताकत
मैंने उसे पढ़ा है, ” The Secret, The Power”, यह पिछले १०-१२ वर्षों से भारत में बहुत तेजी से छाई हुई है। मैंने दोनों पुस्तकों को पढ़ा है, इस पर काफी मंथन भी किया। यह चीजें कुछ हद तक ठीक हैं, पश्चिम में इसको बहुत बढ़ावा दिया जा रहा है और लोग कह रहें कि ‘तुम्हारी सोच एक कल्पवृक्ष है, जो चाहे वो मिल जाएगा।’ पर जब मैं इसके पूरी गहराई में उतरा, तो मुझे लगा यह तो हमारे आचार्यों की वाणी है, यह तो आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा है। आध्यात्म तो हमें यही सिखाता है।
पश्चिम के लोगों ने पैसे और पदार्थ के लिए अपनी सोच का प्रयोग किया और भारत में परमात्मा और परमार्थ के लिए इसका आधार लिया गया। वो कहते हैं कि ‘थॉट्स बिकम थिंग्स (thoughts becomes things)’, तुम जो बार-बार सोचोगे वह मिल जायेगा। मुझे नहीं मालूम किसी को मिला या नहीं मिला क्योंकि मैंने सोचा ही नहीं, क्योंकि मुझे पदार्थ की चाह ही नहीं। तुम लोगों ने सोचा हो तो प्रैक्टिकल करके देख लेना। लेकिन, उसका राइटर, Rhonda Byrne, उसने बहुत ही उदाहरण दिए हैं, उसने पाए हो या न पाए हों। लेकिन, परमार्थ की दृष्टि से, आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि “तुम अपने परमात्मा को पाना चाहते तो २४ घंटे एक ही बात सोचो, ‘अहं ब्रह्मास्मि‘!, मैं परमात्मा हूँ, मैं परमात्मा हूँ, सोऽहं, सोऽहं।” यह ‘सोऽहं’ जैनियों का शब्द है।
आचार्य पूज्यपाद ने, आज से १५०० वर्ष पूर्व ‘समाधि शतक’ में लिखा, सोऽहं.. सोऽहं.. सोऽहं.. सोऽहं.., मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ … हर पल सोचो; मैं क्या हूँ?, मैं आत्मा हूँ, मैं क्या हूँ?, मैं आत्मा हूँ, मैं क्या हूँ?, मैं आत्मा हूँ। मैं परमात्मा हूँ, मैं परमात्मा हूँ, मैं परमात्मा हूँ। रात दिन इस में लग गए तो तुम्हें परमात्मा होने में देर नहीं लगेगी, समयसार यही बोलता है। लेकिन, हम लोगों का मन विचित्र है, थोड़ी देर के लिए मैं परमात्मा हूँ, फिर मैं प्रमाणसागर हूँ, मैं परमात्मा हूँ पर भिंडर में बैठा हूँ, मैं परमात्मा हूँ, तो शंका समाधान करता हूँ, मैं परमात्मा हूँ, तो प्रवचन करता हूँ; यह गड़बड़ है। यह भावना योग, उसमें तो एक लंबे टाइम तक करने की बात की गई।
हमारे यहाँ आचार्य अमृतचंदजी ने लिखा कि ६ महीने तुम यह प्रयोग करो, मैं परमात्मा हूँ, मैं परमात्मा हूँ, मैं परमात्मा हूँ, मैं परमात्मा हूँ, गारंटी से तुम परमात्मा बन जाओगे।
वह भोगवादी संस्कृति है, वह लोग उस तरीके से सोचते हैं। हमारी आध्यात्मिक संस्कृति है, परमार्थिक संस्कृति है। उन्होंने हमेशा हमारे भीतर के Wealth (संपत्ति) को विकसित करने की बात की है, वस्तुतः सही वेल्थ वही है जो हमारे भीतर का विज़डम( ज्ञान) है। उसको हमें प्राप्त करना है, हम बाहर की चीजों को न देखें। इसलिए, वह जो द सीक्रेट और द पावर ऑफ सबकॉन्शियस माइंड है, उनका सही यूटिलाइजेशन( उपयोग) करो, अपने इमोशंस(भावनाओं) को कंट्रोल करने के लिए करो, चीजों को पाने के लिए मत भटको, मृग तृष्णा है! कदाचित तुम पा भी लोगे, तो हालत खराब होगा। एक बात बोलूँ, चीजों की उपलब्धि उतनी मूल्यवान नहीं, उनका उपयोग करना सबसे मूल्यवान है।
रविंद्रनाथ टैगोर की एक कविता याद आ गई, उसका भाव सुनाता हूँ। एक आदमी एक ऐसे जंगल में भटक गया, जहां सर्वत्र सूखे सूखे पेड़ थे, प्रचंड गर्मी का समय था, धूप से उसकी हालत थक कर चूर हो गई। कुछ २ मील की दूरी पर उसे एकमात्र हरा भरा पेड़ दिखाई पड़ा। वह उस पेड़ के पास गया, पेड़ की छाया में जाते ही उसे बड़ी राहत की अनुभूति हुई, अपूर्व शान्ति हुई। मन में भाव आया; काश पानी मिल जाता कंठ सूख रहा है। सोचना ही था कि उसके पास शीतल पेय आ गए। उसने पानी पिया, थोड़ी देर बाद भूख सताने लगी; काश! सुबह से कुछ खाया नहीं, कुछ भोजन का प्रबंध हो जाए। देखते ही देखते वहाँ भोजन की थाल आ गयी, छककर खाया। फिर सोचा खा तो लिया हूँ, थोड़ा सुस्ताने का इन्तज़ाम हो जाता, धरती उबड़ खाबड़ है। सोचना ही था कि वहाँ पर सेज बिछ गयी। उस पर लेटा तभी उसे ख्याल आया, मैं सो तो रहा हूँ कहीं दिन न ढल जाए। देखते-देखते दिन ढलने लगा। अरे, दिन ढल रहा है, रात ना हो जाए। अरे, रात होने लगी, जंगल है कही शेर न आ जाय। शेर आ गया। अरे शेर आ गया, कही मुझे खा ना जाए। कहते हैं, शेर ने उसे खा लिया! समझ गए!
दरअसल बात यह थी कि वो व्यक्ति जिस पेड़ के नीचे था वह साधारण पेड़ नहीं था, कल्पवृक्ष था! जिसके विषय में यह कहा जाता है कि उस पेड़ के नीचे जाकर तुम जो माँगो वह मिलता है, जो मन में इच्छा वह प्रकट हो जाती है। उसे इसका पता नहीं था कि मैं कहाँ बैठा हूँ। काश उसे पता होता और उसके अन्दर इतनी समझ होती कि मैं अपने जिस संकल्प से शेर को बुला सकता हूँ उसी संकल्प से शेर को वापस लौटा भी सकता हूँ, तो उसकी यह दुर्दशा नहीं होती!
सबसे पहले अपने विवेक को जगा कर के रखो। तीन लोक की सम्पदा भी आएगी ना, तो भिखारी ही बने रहोगे, एक दिन शेर खा जाएगा! इसलिए, कल्पवृक्ष को पहचानो और जब कल्पवृक्ष के नीचे आए हो, तो कामना की पूर्ति मत करो, निष्काम होने का मार्ग अपनाओ। तब हम अपने जीवन को सार्थक बना सकेंगे। यही भारत की संस्कृति है, यही भारत की पहचान है! भारत में अर्थ से ज्यादा परमार्थ को महत्व दिया गया। यहाँ पदार्थ को नहीं, परमात्मा को खोजा गया। इसलिए हम इस तरह दृष्टि रखें, उनमें न उलझें!
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