परनिंदा से कैसे बचें?
पर-निन्दा की एक प्रवृति हो जाती है और अनचाहे दूसरों की निंदा शुरु हो जाती है। निंदा एक बुराई है, यह अबुद्धिपूर्वक होती, बुद्धिपूर्वक नहीं। कब निंदा में व्यक्ति लीन हो जाता है, पता नहीं। हरिशंकर परसाई ने एक व्यंग्य लिखा था- निंदा रस! मैंने बहुत पहले पढ़ा था, उसका सार बताता हूं, उसमें लिखा कि- “दो व्यक्ति मिलकर जब तीसरे को टारगेट बनाते हैं और उसकी चर्चा शुरू होती है तो वहां निंदा रस का आविर्भाव होता है। यह रस एक बार प्रकट होता है तो बढ़ता ही जाता है।”
इससे बचने का आपने उपाय पूछा है, इसका बड़ा सरलतम उपाय यह है कि हम भगवान के सामने भावना भायें कि – “भगवान मैं कभी किसी की निंदा ना करूं!”
‘दोष वादे च मौनं!’
“जब भी किसी के दोष की बात आए तो मैं मौन धार लूँ।” और साथ में पता लगे कि हमने किसी की निंदा की, तो अपने आप को धिक्कारें और कम से कम 9 बार णमोकार मंत्र पढ़ें, भगवन से क्षमा याचना करें – “हे प्रभु! मैं गलत ट्रैक पर चला गया था, मुझे क्षमा करना, आगे इसकी पुनरावृत्ति न हो, ऐसी शक्ति देना।”
इस प्रकार करने से इस बुराई के प्रति एक जागरूकता प्रकट होगी, और यही जागरूकता आपको इस बुराई से मुक्ति दिला सकेगी।
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