शिक्षक (टीचर) कैसा होना चाहिए?
गुरु और शिष्य का संबंध बिल्कुल अलग होता है। गुरु और शिष्य, दोनों के बीच का आंतरिक संबंध होता है, उसमें अभिभावक की कोई जरूरत नहीं होती। क्योंकि अभिभावक एक बार शिष्य को गुरु के चरणों में अर्पित कर देते हैं, शिष्य गुरु के चरणों में समर्पित हो जाता है और गुरु शिष्य के जीवन को गढ़ना शुरू कर देते हैं, उसे एक आकिंचन से महान बना देते हैं, पामर से परमेश्वर बना देते हैं। तो गुरु और शिष्य का संबंध तो बहुत ऊँचा है।
शिक्षक और छात्र के संबंध को मैं कतई गुरु और शिष्य के रूप में नहीं देखता; क्योंकि न तो आज के शिक्षकों में गुरु की गरिमा है और ना ही आज के छात्रों में ऐसा भाव! क्योंकि वर्तमान में शिक्षा पूरी तरह अर्थकरी हो गई है। यह profession हो गया है। इसीलिए शिक्षक है, जो शिक्षा-कर्मी है, शिक्षा का काम करता है, पढ़ाने का काम करता है, अध्यापन का काम करता है। लेकिन एक अध्यापक या शिक्षक की भी बहुत बड़ी भूमिका है। वह अगर ठीक ढंग से अपनी भूमिका को निभाये तो आपने पढ़ने वाले बच्चों को न केवल उसके बौद्धिक विकास मैं निमित्त बनें अपितु उनके भावनात्मक विकास में भी कारण बन सकते हैं। वे उनका चारित्रिक विकास कर सकते हैं, नैतिक विकास कर सकते हैं। तो मैं चाहूँगा कि जितने भी शिक्षक हैं वह चरित्रवान हों, उनकी दृष्टि अर्थकरी ना हो, वह अध्यापन का कार्य करें पर ज्ञान के साथ-साथ संस्कार भी दें।
ज्ञान के साथ संस्कार कैसे? मैं जब पढ़ता था, हमारे एक टीचर थे- केशव प्रसाद मिश्र। उनसे एक बार पूछा तीन और दो, पाँच ही क्यों होते हैं, चार और छह क्यों नहीं होते? यह सवाल आपसे पूछा जाएगा, आप क्या जवाब देंगे? “जब किसी तरह की दो वस्तुएँ हो और तीन वस्तुएँ हो, और हम उनको जब प्रारंभ से गिनती करेंगे तो एक, दो, तीन, चार और पाँच गिनेंगे। इसीलिए दो और तीन, पाँच होते है।” बस, यह आपका लॉजिक है और गणित का भी यही लॉजिक है। पर हमें जो उन्होंने पढ़ाया वह आज भी मेरे ऊपर अमिट छाप छोड़े हुए हैं। उन्होंने कहा “जब हम किसी से लें, तो तीन और दो पाँच की जगह छह नहीं ले लें और किसी को दें तो तीन और दो की जगह चार ना दें इसलिए तीन और दो, पाँच होते हैं।”
आजकल 3-5 ज्यादा होता है। संस्कार गढ़ना चाहिए! और जो हम संस्कार गढ़ें, तो उसकी छाप पड़ती है। जो शिक्षक खुद व्यसनी हो, मद्यपायी हो, धूम्रपान करता हो, गुटका मसाला खाता हो या अन्य प्रकार के कदाचारों से जुड़ा हो तो वह चाहे कि उसके छात्र पर उसका कोई असर पड़े तो शायद यह संभव नहीं। तो शिक्षक को खुद चरित्रवान बनना पड़ेगा।
छात्र को चाहिए कि वह शिक्षक का बहुमान करे क्योंकि शिक्षा कोई साधारण चीज नहीं है। कूरल काव्य में लिखा है कि “मनुष्य की जीती जागती दो ही आँखें हैं, अंक और अक्षर। अन्यथा आँख के नाम पर केवल दो छेद हैं।” बहुत गहरी बात है इसे समझियें, तो इस अंक और अक्षर को प्रदान करने वाला यदि कोई है, तो शिक्षक है। तो छात्रों को सारे जीवन शिक्षक का बहुमान करना चाहिए, सम्मान करना चाहिए तभी कुछ सीख सकते हैं। भले लौकिक ही सही, पर ज्ञान तभी मिलता है जब विनय होती है। छात्रों में विनय का भाव होना चाहिए।
अभिभावकों को चाहिए कि जहाँ वे अपने बच्चों के पढ़ाई के प्रति जागरूक रहें, वहीं उनके संस्कारों के प्रति भी ध्यान दें। जो पढ़ करके आए उसे जीवन में गढ़ने का मार्ग प्रशस्त करें। ऐसा ना हो कि वह पढ़ करके कुछ आए और घर में उसको कुछ आप दें, तो मामला उल्टा पुल्टा हो जाता है। यशपाल जैन ने एक प्रसंग लिखा कि-‘स्कूल में बच्चा गया, शिक्षक ने पढ़ाया “सदा सत्य बोला करो”। घर आया, मकान मालिक किराया वसूलने के लिए आया, पिताजी को खोजा, पूछा “पिताजी कहाँ है”, बेटे ने जाकर पिता से पूछा “पिताजी! बाहर एक सज्जन आए हैं, आपसे मिलना चाहते हैं, क्या करूँ?” “कह दो, मैं घर पर नहीं हूँ।” दूसरे दिन बच्चा स्कूल गया और उसे पढ़ाया गया-“सब जीवों से प्रेम करो।” घर आया, देखा किसी बात पर उसकी माँ और पिता आपस में झगड़ रहे थे। तीसरे दिन स्कूल भेजा गया और स्कूल में पढ़ाया गया-“सब जीवों पर दया करो।” घर आया, देखा उसका बड़ा भाई एक लाठी से अपाहिज भिखारी को खदेड़ रहा था। चौथे दिन उसे स्कूल जाने के लिए कहा गया, तो बेटे ने अपने पिता से कहा “पिताजी, मैं स्कूल नहीं जाऊँगा क्योंकि वहाँ ठीक नहीं पढ़ाया जाता।”
मैं समझता हूँ सारी बातें स्पष्ट हो गई होगी इसलिए शिक्षक, छात्र और अभिभावक तीनों को बहुत ध्यान रखना होगा।
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