परमार्थ और व्यवहार में समन्वय कैसे बनाएँ?
परमार्थ और व्यवहार- सच्चे अर्थों में देखा जाए तो परमार्थ हमारे व्यवहार को कहीं बाधित नहीं करता, अपितु व्यवहार को सन्तुलित बनाता है। जिसकी दृष्टि परमार्थ मूलक होती है उसका व्यवहार बहुत सधा हुआ होता है और जो परमार्थ की उपेक्षा करते हैं उनके ही व्यवहार में विसंगतियाँ नजर आती हैं। अपने व्यवहार को शालीन, संयमित और सन्तुलन बनाना एक परमार्थी जीवन का लक्ष्य होता है।
परमार्थी होने का मतलब यह नहीं है कि आप सारे व्यवहारों से दूर हो जाएँ। परमार्थी होने का मतलब है, आप अपने व्यवहार को अच्छे तरीके से निभाएँ। अपने व्यवहार में किसी भी प्रकार की विसंगति न आने दें। हाँ, वो व्यवहार कर्ता-भाव से नहीं, कर्तव्य की भावना से करें। जो कर्तव्य की भावना से व्यवहार को अपनी ड्यूटी और ज़िम्मेदारी मान करके निभाता है। वह व्यवहार को निभाते हुए बहुत आगे बढ़ सकता है।
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