बचपन से सल्लेखना की तैयारी की जाये?
‘सल्लेखना’ शब्द एक बहुत बड़ा शब्द है। इसके लिए एक शब्द है-आराधना! यह हमारी साधना एक परिष्कृत रूप है। यह सल्लेखना, साधना या आराधना यह सहज नहीं, अन्तिम सांस को भेद विज्ञान के साथ बिताना, प्रभु के नामस्मरण के साथ अपने जीवन की अन्तिम बेला में पार होना, यह बहुत ही दुर्लभ है।
इसके लिए एक अभ्यास चाहिए। प्रारम्भ से ही भेद विज्ञान, त्याग साधना का अभ्यास हमें करना चाहिए। अपने शारीरिक कष्टों को सहन करने का अभ्यास बहुत ज़रूरी है। ‘भगवती आराधना’ में एक बहुत अच्छी बात कही है, वहाँ एक प्रश्न उठाया गया कि “जब अन्त को सुधारने के लिए इतना बल दिया जाता है कि अन्त में हमने अपने अन्त को सुधार लिया तो हमारा उद्धार हो जायेगा, तो जिंदगी भर इतनी त्याग तपस्या करने की क्या ज़रूरत है? आखरी समय जब आयेगा तब तपस्या करेंगे और बेड़ा पार हो जायेगा। तो वहाँ बहुत अच्छा जवाब दिया कि “रणांगन में युद्ध यदा-कदा ही छिड़ता है, लेकिन युद्ध का अभ्यास पूरे जीवन करना पड़ता है। अगर सेना का युद्धाभ्यास होता है, तो अचानक छिड़ने वाले युद्ध में विजय की सम्भावना रहती है। किंतु यदि युद्धाभ्यास न हो और अचानक युद्ध छिड़ जाये तो सर्वनाश होगा। अतः सन्त कहते हैं कि “काल का तुम्हारे साथ कभी भी संग्राम छिड़ सकता है। इसलिये इससे पहले कि काल का संग्राम छिड़े तो उससे लड़ने का अभ्यास बनाये रखो।” तो युद्ध से पूर्व युद्ध के अभ्यास को जीवन भर बनाये रखने का नाम ही साधना और आराधना है।
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