क्या प्राचीन रचनाओं, स्रोत आदि को नई धुनों पर गाना सही है?
कई बार बहुत गड़बड़ हो जाता है। एक स्थान पर एक बच्चे के बारे में उसके पिता ने बोला “महाराज जी! यह १०० तरीके से णमोकार पढ़ लेता है!” मैं बोला- “कैसे पढ़ता है, बताओ?” उसने ‘नदिया के पार’ के गाना के लय में णमोकार सुना दिया। हमने कहा- “भैया! यह क्या कर रहा है? तू गाना गा रहा है कि मंत्र पढ़ रहा है?”
मंत्र, स्तोत्र और छंद, जितने भी श्लोक हैं, ये खुद संगीतमय हैं, उनका अपना संगीत है, उनकी अपनी धुन है, उनकी अपनी लय है। उन्हें उसी रूप में पढ़ने से उसका वांछित परिणाम मिलता है क्योंकि इनका phonetic effect (ध्वन्यात्मक प्रभाव) भी होता है, ध्वनि विज्ञानात्मक प्रभाव! और यदि आप उसमें उलट- पलट करते हैं, जिसको बोलते हुए अक्षर की अशुद्धि हो जाए, शब्द के अर्थ की अशुद्धि हो जाए, व्यंजन की अशुद्धि हो जाए तो यह गलत हो जाता है। अर्थ शुद्धि, व्यंजन शुद्धि और तद्भय शुद्धि होनी चाहिए। इसलिए उलट पलट कर के लयों का इस्तेमाल करना उचित नहीं हैं।
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