धार्मिक क्रियाओं एवं भावनाओं में सामंजस्य बनायें
धर्म का बाहरी रूप क्रिया है और भीतरी रुप विचार शुद्धि! हमें आचार और विचार दोनों के मध्य समन्वय बनाना चाहिए। अगर आपकी भाव शुद्धि नहीं है, तो आपको लाभ नहीं मिलेगा। हम लोग पढ़ते हैं, –
“यस्मात क्रिया प्रतिफलन्ति न भाव शुद्धया”
भाव शुद्धि के बिना क्रियाएं फलवान नहीं होती। इसलिए भाव-विशुद्धि का सदैव ध्यान रखना चाहिए और भाव शुद्घी पूर्वक ही अपनी सारी क्रियाएं करनी चाहिए। क्रियाओं का प्रयोजन यही है कि हम अपने भाव को विशुद्ध बनाए। लेकिन जब व्यक्ति अपनी धार्मिक क्रियाओं के मूलभूत प्रयोजन को भुला देते हैं तो क्रिया-रूढ़ हो जाते हैं और ऐसे क्रिया-रूढ़ व्यक्तियों को, जो क्रियाओं का रस मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता इसलिए जो भी क्रिया करें, अपनी विशुद्धि को बनाये रखते हुए करें। यह ध्यान रखना, हमारी यह बाहरी क्रिया हमारे भाव शुद्धि के लिए है; भाव शुद्धि नहीं है तो इस क्रिया का कोई मतलब नहीं है।
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