सूतक-पातक के पीछे का महत्त्व!
यह सामाजिक रीति है। सूतक-पातक के विषय में मैंने पहले भी कहा है, लेकिन यह ऐसी चर्चा है जिसको हर बार बीच-बीच में दोहराते रहना चाहिए, ताकि लोगों की अवधारणा और स्पष्ट हो।
आज आपने जो पूछा है कि सूतक-पातक में धार्मिक क्रियाओं से दूर क्यों रखा जाता है? मेरा सूतक-पातक के विषय में जो अपना सोचना है, पुराने जमाने में किसी का भी जन्म घर में होता था और घर में प्रसूति होती थी, तो प्रसूति के साथ अशुद्धि होती थी। उस अशुद्धि से नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बहुत होता है। इसलिए अपने यहाँ विधान है कि 40 दिन तक अलग रखते हैं। ताकि वहाँ नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह न रहे और पहले घर परिवार कुटुम्ब में अनेक लोग रहा करते थे। कई पीढ़ियाँ एक कुटुम्ब में रहती थीं, लोगों का आना जाना होता था, उठना बैठना होता था, उसमें छुआछूत भी होती थी, तो उसमें यह नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव एक दूसरे पर रहता था, इसलिए यह नकारात्मकता जिनालय में न जाये, इस अपवित्रता के साथ आप मन्दिर में न जायें, ताकि वहाँ की जो शुद्धि है वह प्रभावित ना हो। अगर मन्दिर की पवित्रता को आप अक्षुण्ण नहीं रखेंगे, तो मन्दिर की जो ऋद्धि सिद्धि है वह कम हो जायेगी। जिससे वह प्रभावित ना हो शायद इसलिए यह व्यवस्था बना दी गई कि लोग मन्दिर ना जायें और उसमें भी पीढ़ियों को जोड़ दिया गया जो जितनी नजदीक की पीढ़ी है, उनको उतना अधिक सूतक, और जितनी दूर की पीढ़ी है, उनको उतना कम सूतक। एक ही घर में रहने वाले तीन पीढ़ी तक 10 दिन का सूतक बोला और चौथी पीढ़ी से 6 दिन बोल दिया। तो उसके पीछे कारण है कि जो जितने नज़दीक के थे उनका आना जाना ज़्यादा, और ज़्यादा दूर वाले रहते थे उनका आना जाना कम हो जाता था। तो इस तरीके से पीढ़ियों के पीछे यह कारण रहा होगा।
इसी तरह किसी व्यक्ति की मृत्यु से जब व्यक्ति का मन शोक सन्तप्त हो जाता, तो शोक सन्तप्त स्थिति में भगवान के सामने आने पर यदि सामने वाले की स्मृति हो, तो यह भगवान की असाधना है। तो उस समय तनाव-ग्रस्त स्थिति में धर्म ध्यान करना अनुकूल नहीं बनता और शायद इसलिए व्यवस्था बना दी गयी कि कम से कम 3 दिन, तो तीसरे दिन भगवान के दर्शन करो, 2 दिन तो नकारात्मक ऊर्जा शमशान में जाकर दाह संस्कार करने से होती है और फिर आपके यहाँ जाकर के एक दूसरे के प्रति जुड़ाव की अधिकता होने के कारण मानसिक रूप से व्यक्ति स्थिर नहीं होता। इसलिए भगवान के दर्शन करने के लिए जाओ और ध्यान करो। इसी वजह से किसी का पति अगर असमय में चला जाता है, तो पत्नी को 40 दिन तक मन्दिर नहीं जाने की भी लोगों ने व्यवस्था बना दी होगी, ताकि उसके मन में शोक भाव न आता रहे।
हालाँकि शास्त्रों में ऐसा नहीं है। लोगों ने अपनी परम्परा बना दी। इसके पीछे उनका जो मनोभाव रहा होगा, केवल यही कि भगवान के सामने भगवान दिखे, वो न दिखे जो चला गया। एक व्यवस्था थी और इस को पीढ़ियों के अनुरूप बनाया गया है और आज सामाजिक धर्म है। अब आज स्थितियाँ भिन्न हो गयी हैं, आज न घर में जन्म होता है, न घर में मरण होता है। इंसान प्रायः जन्म तो अस्पताल में ही लेता है, और मरता प्रायः अस्पताल में है। और अब वह कुटुम्ब व्यवस्था खत्म हो गयी है। लोग दूर देश में रह रहे हैं और यहाँ सूतक लग रहा है। इन सब बातों को लोग पूछते हैं कि से कैसे करें, तो मैं तो एक ही उत्तर देता हूँ जो चल रहा है चलने दो। यह समाज की रीति है। एकमात्र सूतक-पातक ही ऐसा विधान है जिसके माध्यम से आप अपने खानदान को पहचान सकते हैं। अगर सूतक-पातक खत्म कर दें, तो खानदान को पहचानने के सारे आधार खत्म हो जायेंगे, इसलिए जो चल रहा है उसको चलने दो।
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