पहले कर्म या धर्म
कर्म और धर्म की पूजा बाद में, पूजा को अपना धर्म मानो। न कर्म की पूजा करनी है, न धर्म की। पूजा को अपना धर्म मान कर चलो, तो सब काम हो जाएगा। आपके प्रश्न का आशय मैं यह समझ रहा हूँ कि “मैं कर्म को प्रमुखता दूँ या धर्म को प्रमुखता दूँ?” कर्म जीवन के निर्वाह का साधन है और धर्म जीवन के निर्माण का साधन। निर्वाह जरूरी है, पर निर्वाह पर्याप्त नहीं। निर्वाह तो एक पशु पक्षी भी कर लेता है। लेकिन निर्माण केवल मनुष्य करता है, मनुष्य निर्माण ही नहीं, मनुष्य निर्माण से ऊपर निर्वाण तक पा सकता है। इसलिए जीवन के निर्वाह के लिए जितना जरूरी है उतना कर्म करो, उससे आगे नहीं। केवल निर्वाह नहीं, निर्वाण! मनुष्य जीवन पाया है, तो अपने भीतर मनुष्यता को घटित करो। जो धर्म के आचरण से ही सम्भव है, कर्म से नहीं। केवल अगर कर्म की दुहाई दोगे, तो तुम पशु की तरह, और कर्म के साथ जब धर्म जुड़ेगा, तब तुम मनुष्य कहलाओगे।
शास्त्रकारों ने कहा है –
“आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत पशुभिः नराणां,
धर्मो हि तेषां अधिको विशेषः धर्मेन हीना पशुभिः समानाः”
अगर देखा जाये तो आहार, निद्रा, भय, मैथुन चारों संज्ञाओं की दृष्टि से मनुष्य और पशु दोनों समान हैं। निर्वाह जैसे पशु करता है, वैसे ही तुम करते हो, तो तुम में और पशु में अंतर क्या है? लेकिन धर्म ही एक ऐसा विशिष्ट तत्व है, जो तुम्हारे जीवन में वैशिष्ठ्य उत्पन्न करता है, धर्मेन हीना पशुभिः समानाः। तो पहले जब कर्म और धर्म की बात होती है, जब तक नीचे की भूमिका में हो, निर्वाह के साथ निर्माण की बात सोचो। दोनों में समन्वय को ले करके चलो। फिर इस से ऊपर की भूमिका है अध्यात्म की, जो वैराग्य की उत्पत्ति के बाद होती है और वह हमारे जीवन के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करता है। जो कर्म और धर्म से ऊपर उठने पर घटित होता है। तो जीवन के इन तीनों भूमिकाओं को समझते हुए आगे चलो। आप अभी जिस भूमिका में जी रहे हो, उसमें कर्म और धर्म दोनों में तालमेल बनाकर के चलने की जरूरत है। कर्म करो, खोटे कर्म मत करो, जितना बने सत्कर्म करो।
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