पूजन का अर्थ और संपूर्ण प्रक्रिया जानिये!
पूज्य की अर्चना को पूजा कहते हैं- भगवान के गुणों की आराधना को भक्ति कहते हैं, पूजा नहीं। जो पवित्र करे वो पूजा है- यह उत्पत्तिसुलभ अर्थ है।
पूजा का लक्षणागत अर्थ क्या है? पूजा का लक्षण क्या है? पवित्र होना तो उसका फल है। आचार्य वीरसेन महाराज से किसी ने पूजा का लक्षण पूछा – “गुरूदेव अर्चना-पूजा किसे कहते हैं?” तो उन्होंने जवाब दिया- “अष्टद्रव्य के माध्यम से अपनी भक्ति को प्रकाशित करने का नाम पूजा है।” मतलब क्या हुआ? अष्टद्रव्य है, तो पूजा, नहीं तो स्तवन! कई लोग बोलते हैं ना- ‘हम भाव पूजा करते हैं, द्रव्य पूजा नहीं।’ अरे भाई पूजा तो तभी पूजा है, जब अष्टद्रव्य हो और अष्टद्रव्य के साथ जब पूजा करोगे तो पूजा है – केवल शब्द बोलेंगे तो द्रव्य पूजा और मन लगाओगे तो भाव पूजा!
मुनियों के लिए स्तुति है और गृहस्थों के लिए पूजा है। हम अष्टद्रव्य कहाँ से लायेंगे? हमारे पास कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए मुनि महाराज पूजा नहीं करते, उनके छह आवश्यकों में स्तुति है, वन्दना है। पर लोगों के लिए पूजा है।
बिना अष्टद्रव्य के आपकी पूजा, पूजा नहीं होती। इस बात को दिमाग में बिठा लो। चलो अष्टद्रव्य तो ले आये पर भक्ति प्रकट नहीं की तो भी पूजा नहीं। अपनी भक्ति की अभिव्यक्ति, अपनी भक्ति को प्रकट करने का नाम पूजा है। मैंने विचार किया, इन अष्टद्रव्यों का उल्लेख क्यों? जैनियोंं में अष्टद्रव्यों से पूजा होती है। वैष्णवों में अष्टपुष्पी पूजा होती है। इसका मतलब क्या? आप अष्टद्रव्य चढ़ाते हो और आठ द्रव्यों में जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल ही क्यों? क्या कभी विचार किया आपने कि ऐसा क्यों? इसके पीछे मुझे कुछ मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक कारण प्रतीत होते हैं। आठ की संख्या रखी है, क्योंकि भगवान भी आठ गुणों से मण्डित हैं और हमें आठ कर्मों को काटना है। इसीलिए आठ द्रव्यों से पूजा करते हैं। आठ कर्म को काट कर आठ गुणों को पाने के उद्देश्य से इनकी संख्या आठ रखी। लेकिन ये ही आठ क्यों? ये बहुत महत्वपूर्ण सवाल है। सबसे पहले आप जल चढ़ाते हैं, क्योंकि जल समर्पण का प्रतीक है। जल सदैव नीचे की ओर जाता है। जल कहाँ जायेगा? नीचे की ओर जायेगा। जल ‘निम्नगा’ है। तो जल सदैव नीचे की ओर जाता है। जिसके भीतर समर्पण होता है वो आराध्य की ओर एकदम समर्पित हो जाता है। नदी जितनी समर्पित होती है उसका स्वरूप उतना ही विराट होता जाता है और नदी सागर में जाकर के पूर्ण विराटता को प्राप्त कर लेती है। भक्ति- पूजा, समर्पण का ही एक काम है और जब तक हम अपने भाव को भगवान के चरणों में पूरी तरह समर्पित नहीं कर लेते हमारी पूजा, पूजा नहीं कहलाएगी। इसलिए सबसे पहले जल भगवान के चरणों में अर्पित करते हैं।
जब मैंने पूरे पूजा साहित्य का अध्ययन किया तो पाया कि आचार्य कुन्दकुन्द जी ने भी जिनेन्द्र भगवान की पूजा का जिक्र किया है। विधि भले ही नहीं बताई। पर अनेक महान आचार्यों ने पूजा का उल्लेख किया है। मुझे जहाँ तक ज्ञात है, उसके अनुसार अष्टद्रव्यों का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य वीरसेन के श्लोक में मुझे देखने को मिला। बाद में अन्य स्थानों में आया। पुराणों में आदिपुराण में आचार्य वीरसेन के बाद। पद्मपुराण में भी इसका उल्लेख मिलता है। लेकिन जो पूजा का जो वर्तमान स्वरूप है, ये बहुत पुराना नहीं है। देखों मैं आपको जो बातें बता रहा हूँ, बहुत गंभीरता से ध्यान देना। मेरी प्रवृत्ति अध्ययनशील रही है, और हर बात को बड़े ही समीक्षात्मक तरीके से समझने की मैंने कोशिश की है और मैं इसी के आधार पर कुछ सारतत्व बताने जा रहा हूँ।
जो अर्घावली आप पढ़ते हैं ये पुराने साहित्य में कहीं देखने को नहीं मिलती। वहाँ केवल देखने को मिलता है- भगवान के गुणों का वर्णन और अपनी लघुता की अभिव्यक्ति! “हे भगवान! मैं आपकी जल से पूजा करता हूँ। मैं आपकी चन्दन से पूजा करता हूँ, मैं आपकी अक्षतों से पूजा करता हूँ, मैं आपकी पुष्पों से पूजा करता हूँ, मैं आपकी नैवेद्य से पूजा करता हूँ, दीप से पूजा करता हूँ, धूप से पूजा करता हूँ और फल चढ़ा कर अपनी पूजा को सफल बनाता हूँ”, ऐसा उल्लेख मिलता है। ये बाद में जोड़ा गया। ये सब बाद का विकास है। कोई गलत नहीं है। लेकिन इसमें धारणा गलत हो जाती है, जो मेरा अनुभव है, इसमें व्यक्ति मानता है, कि हमने भगवान के चरणों में जल की धारा चढ़ा दी तो हमारा जन्म जरा मृत्यु का नाश हो गया। समर्पण की धारा से तुम्हारा जन्म-जरा-मृत्यु का नाश होगा, जल की धारा से नहीं। चक्रवर्तियों की पूजा, आदि पुराण में पढ़ो, पूजा क्या है? “भगवान! मैं जल से आपकी पूजा करता हूँ।” इसी भाव से जल चढ़ाओ और जल कैसे चढ़ाओ? पहले कलश भर-भर कर जल चढ़ाते थे। जल चढ़ाओ मतलब जल की धार छोड़ो। कई जगह मैंने देखा, चुटकी भर के जल छोड़ते हैं, चंदन छोड़ते हैं, तुम्हारी भक्ति कहाँ प्रकट होगी? समर्पण का प्रतीक है- जल!
दूसरे क्रम पर है चंदन! चंदन को कहाँ लगाया जाता है? माथे पर! यह शीतल करता है। माथे पर हम किसको बिठाते हैं? जिसके प्रति हमारे मन में उत्कृष्ट श्रद्धा होती है। तो समर्पण के बाद श्रद्धा, पूजा का ये दूसरा आवश्यक तत्त्व है। श्रद्धाशून्य पूजा का कोई मतलब नहीं! श्रद्धा कैसी? पूज्य के प्रति श्रद्धा, पूजा के प्रति श्रद्धा, पूजा के फल के प्रति श्रद्धा। परमपूज्य त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ प्रभु मेरे मूल आराध्य हैं और इनकी पूजा से मैं अपने मनोरथ को पूरा करूँगा। मैं अपने कर्म-आवरण को नष्ट करने में समर्थ हो सकूँगा। मैं इस संसार सागर से पार उतर सकूँगा। यही मेरे लिए कल्याणकारी क्रिया है। एक मात्र इस क्रिया कि बदौलत में अपना उद्धार कर सकता हूँ और कोई मेरे पास रास्ता नहीं। ऐसा मनोभाव हो तब तुम्हारी श्रद्धा होगी। ये श्रद्धा बहुत उथल है, कि ‘कर लो बिगड़े काम बन जायेंगे।’ असल में एक श्रद्धा होनी चाहिए कि भगवान की पूजा के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं, इस संसार से पार उतरने का।
तीसरे क्रम पर है- अक्षत! अक्षत एक मात्र ऐसा तृण धान्य है जिसका पुनः अंकुरण नहीं होता। क्यों नहीं होता? क्योंकि वह निरावरण है। उसके ऊपर के धान के छिलके को अलग कर दिया। तब अक्षत प्रकट हुआ। ये किसका का प्रतीक है। यह अक्षत भेद-विज्ञान का द्योतक है। “ये अक्षत मैं चढ़ा रहा हूँ। ये आपके बताये अनुसार हमारे भीतर की आत्मा का द्योतक है। आपने अपने भीतर के कर्मावरण को हटा दिया और इस अक्षय पद को प्राप्त किया। आपके चरणों में आने से मुझे पता चला। ये ऊपर का आवरण है। शरीर का, कर्म का, नौकर्म का, आराध्य विषय भाव कर्म का, मैं इन सबसे शुद्ध अखण्ड अक्षत की तरह आत्मतत्व हूँ।” इस भाव के साथ भेद-विज्ञान की पुष्टि करने वाला है, अक्षत।
चौथे क्रम में चढ़ाते हैं- पुष्प! पुष्प प्रेम का प्रतीक है। किसी भी व्यक्ति से प्रेम का इज़हार करने के लिए पुष्प भेंट किया जाता है। आजकल वैलेन्टाईन-डे के दिन फूल महंगे हो जाते है। पुष्प प्रेम का प्रतीक है। “हे भगवन! मेरे मन में आपके प्रति अपार प्रेम है और उस प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए ये पुष्प, आपके चरणों में चढ़ा रहा हूँ।” जल हो गया, चंदन हो गया, अक्षत हो गया, पुष्प हो गया।
पांचवां- नैवेद्य! नैवेद्य, निवेदन का प्रतीक होता है। लोक में किसी भी व्यक्ति को आप आमंत्रित करते हैं, किसी के पास जाते हैं तो कुछ न कुछ भेंट उन्हें देते हैं। भगवान को हमने प्रेम पूर्वक अपने घर बुलाया, भगवान के चरणों में आ गये तो उनके लिए कुछ अर्पित तो करें तो उनके लिए नैवेद्य अर्पित करें? देवता और गुरू के दर्शन कभी खाली हाथ नहीं करना, ऐसा विधान है और इसी भाव को प्रकट करने के लिए नैवेद्य भगवान के चरणों में अर्पित कर रहे हैं। हम जानते हैं कि भगवान किसी भी चीज का भोग नहीं करते। लेकिन मेरे भीतर की क्षुधा को शान्त करने के लिए, जो भोग साधन मात्र है, वे आपके चरणों में आने के बाद मुझे निरर्थक दिखने लगे। आपके चरणों में नैवेद्य अर्पित करता हूँ। ये मनोभाव नैवेद्य का है।
छटवां- दीप! दीप क्या करता है? जैसे ही दिया जला दो अंधेरा छंटता है, प्रकाश फैलता है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है। “हे भगवान! आपके चरणों में पूजा करने के लिए आया हूँ। ये दीप अर्पित कर रहा हूँ। अपने भीतर के दीप को जलाने के लिए, अपने अन्दर के अज्ञान को नष्ट करने के लिए, अपने भीतर ज्ञान की ज्योति को प्रकट करने के लिए। ये दीप अर्पित करता हूँ।”
फिर है धूप! धूप अग्नि में खेते हैं, सुवास करते हैं। तो ज्ञान का प्रकाश और सद्गुणों का सुवास। ये धूप मैं खे रहा हूँ। मेरे भीतर सद्गुणों का सुवास फैले इस भाव से मेरे भीतर के दुर्गुण जलें, मेरे अन्दर के कर्मसमूह जलें और मैं अपने सद्गुणों के सुवास के साथ आपके चरणों में ये धूप अर्पित कर रहा हूँ।
अंत में है फल! “आज आपके चरणों में आया हूँ। पूजा का फल चाहता हूँ। फल चढाउंगा तो फल मिलेगा, अभी तक ये फल ही मुझे फलीभूत दिखते थे लेकिन आज समझ में आया कि जीवन में जो मोक्ष फल पाना है, उसके आगे ये निष्फल है। इसलिए ये तुच्छ फल आपके चरणों में अर्पित करता हूँ और आपके जैसे मोक्ष फल पाने की कामना करता हूँ।” इस भाव से फल अर्पित किया जाता है।
मुझे ऐसा लगता है कि इन आठ द्रव्यों में से चार भगवान से निकटता लाने की, और चार में भगवान के गुणों की उपलब्धि, गुणों को ग्रहण की कामना प्रकट होती है। तो ये आठ अर्घ्य हो गये और इन आठ द्रव्यों को अर्पित करने के बाद आखिर में, अष्टद्रव्यों के समूह रूप अर्घ्य चढ़ाते हैं।
अर्घ्य किसे कहते हैं? अर्घ्य का मतलब होता है ‘भेंट’! आप भगवान के चरणों में सब चढ़ा रहे हैं। किस लिए? ‘अनर्घ्यपद’ के लिए! जिन्होंने इन सब मूल्यवान वस्तुओं से ऊपर उठकर अमूल्य पद को प्राप्त कर लिया। उनके चरणों में ये अर्घ्य अर्पण किया जाता है। इसमें ‘ॐ’ परमेष्ठी वाचक बीजाक्षर और ‘ह्रीं’ ऐ ‘माया’ बीजाक्षर हैं, और चौबीस तीर्थंकरों के प्रतीक हैं। ये ‘ॐ’ ‘ह्रीं’ लगाकर हम भगवान की पूजा, अर्चना आदि करते हैं।
ये पूजन हुआ, पूजन के बाद जयमाल होती है। जयमाल भगवान के विशेष गुणों के स्थल का प्रतीक स्वरूप होता है। वह जयमाल भाव पूर्वक पढ़ें। इसके बाद विसर्जन। आह्वान, स्थापना, सन्निधीकरण, पूजन, आखिरी में विसर्जन! आप लोग विसर्जन से पूर्व शांति पाठ करते हैं। पूरी पूजा का मूल उद्देश्य शांति पाठ में प्रकट होता है। लेकिन मुझे लगता है, सबसे ज्यादा अशांति, शांति पाठ में होती है। पूरी पूजा इत्मिनान से और शांति पाठ की बारी आयी तो कितनी गड़बड़ी! शान्ति पाठ में लोग भर भर के पुष्प अर्पित करते रहते हैं। कहाँ विधान है इसका? इसका कोई विधान नहीं। ये चला आ रहा है, परम्परा से। मुझे ऐसा लगता है, जो बच गया माल खत्म करो। मेरे विचारानुसार शांति पाठ शान्त चित्त होकर करना है। दोनों हाथ जोड़ भगवान की दृष्टि पर अपनी दृष्टि केन्द्रित करो, और भगवान से सारे लोक के मंगल की कामना करो। ये शांति पाठ है। तुम्हारी भाव दशा बदल जाती है, धैर्यपूर्वक शान्ति पाठ करते नहीं दिखते; ‘शशि उनहारी’- चंद्रमा की तरह कभी दिखते हैं शान्तिपाठ करते समय?
इसके बाद आप विसर्जन करते हैं। विसर्जन का मतलब – पूजन के संकल्प का परित्याग, आह्वान-स्थापना-सन्निधीकरण के साथ मैंने पूजन का संकल्प लिया था। अब मेरी पूजा परिपूर्ण हो गयी। तो संकल्प की पूर्णता के उपरान्त, भगवान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए, हम उस संकल्प का विसर्जन करते हैं, और उस संकल्प के विसर्जन के काल में आप एक प्रार्थना करते हैं। आप पूजा में रोज क्या प्रार्थना करते हैं? क्या माँगते हो भगवान से आखिरी में? पूरी पूजा में जैन परम्परा की एक विशेषता है कि पूजा करने वाला अपने लिए कुछ भी नहीं माँगता। अपने लिए माँगता है, तो निराकुलता, लोक में मंगल और शांति। लेकिन पूजा के आखिर में सात कामना करते हैं। स्वयं के लिए सात कामनाएं! सात वचन तो आप देखते हो जब फेरे लगते हैं, वे तो फेरे में ही रह जाते हैं। भगवान से रोज सात कामना करके जाते हो। पता है, कौन-कौन सी? हे भगवान! मुझे शास्त्रों का सदैव सुखदायी पठन करने का मौका मिले। सत्संगति का लाभ हो। गुणवानों के गुणों को कहूँ। सबके दोषों को ढक दूँ। ये तीन प्रार्थना करते हो। फिर मुख से क्या बोलूँ? मधुर वचन बोलूँ! आपके रूप को ध्याऊँ। प्रार्थना तो ये करते हो- ‘शास्त्रों का हो पठन सुखद’, लेकिन जब शास्त्रों के पठन की बारी आए तो दुकान और घर का चूल्हा ध्यान में आने लगते हैं, भागते हो। ‘सत्संगति का लाभ हो’ तो संगति के लाभ की जगह दुनिया के लाभ में लग जाते हो। ये सात प्रार्थना पूर्ण मनोयोग के साथ करो तो आपके जीवन में बदलाव आएगा।
यह पूजा की पूरी प्रक्रिया है, और यदि इस तरीके से आप पूजा करेंगे तो अद्भुत आनन्द की अनुभूति कर सकेंगे। मैं समझता हूँ इसमें अपेक्षित पूरी तरह से पढ़ा गया। हाँ एक बात और, विसर्जन के उपरान्त कुछ लोग ठौने में जल डालते हैं, कुछ लोग ठौने के चावल को अग्नि में डाल देते हैं; कुछ कहते हैं कि-‘इसको ठंडा करो’, गरम हुआ था, क्या? जो ठंडा कर दो; और आशिका लेते हैं। ये तीनों क्रियाए ‘रूढ़ि’ हैं। विसर्जन का मतलब पूजा के संकल्प का परित्याग। आपने संकल्प लिया, विसर्जन पाठ बोला, क्षमापना हुई, बिन जाने व जानकर…. बोलकर। आपने पूजा संकल्प समाप्त कर दिया, अब आपको उल्टा करने की जरूरत नहीं है। उल्टा तो इसलिए कर देते हैं कि बाद में आने वाले को वहम ना हो कि इसके विसर्जन हुये कि नहीं हुये। इसलिए उलट देते है। ना पानी में डालने की जरूरत है, और ना अग्नि में डालने की जरूरत है। और उसकी आशिका क्यों लेंगे? ‘श्री जिनवर की आशिका….’ आज जिनवर हैं क्या? जब हम चौके में जाते हैं तो चौके में जाने पर हम लोगों की पूजा करने के बाद भी आशिका लेनी होती है। तो ठौने में आशिका लेते हैं। ठौने की आशिका मत लो। जिनकी आप पूजा कर रहे हो, श्री जिनवर जो सामने बैठे हैं उनकी लो। समझ गये, ये है पूजन की संपूर्ण प्रक्रिया।
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