हम चौबीस तीर्थंकर भगवान की पूजा करते है, उसमें पंचकल्याणक के अर्घ्य होते हैं। मगर शांति विधान करें या आदिनाथ विधान करें उनमें पंचकल्याणक के अर्घ्य क्यों नहीं होते?
ये विधान रचियताओं के ऊपर निर्भर है। तीर्थंकर की पूजा और विधान में अन्तर है। शांति विधान का मतलब शांतिनाथ भगवान की पूजा नहीं; शांतिनाथ भगवान को स्मरण करते हुए एक इष्ट अनुष्ठान करना है। यद्यपि उसमें शांतिनाथ भगवान की आराधना है पर चूंकि पुराने समय में रचे गये विधानों में कुछ ऐसी चीजें जोड़ी गयी- कामनाओं की, कि उसमें भगवान कि पूजा का रूप दूसरा हो गया। इसलिए केवल पूजाएँ रह गयी, कल्याणक गौण हो गये। पर यथार्थ में आप किसी भी तीर्थंकर की आराधना करना चाहते हैं तो ‘पंचकल्याणम् सम्पन्नानाम्, अट्ठ प्रातिहार्यम्’ पाँच महाकल्याणक और अष्ट प्रातिहार्य से संयुक्त तीर्थंकरों की पूजा-अर्चा होनी चाहिए। ये पूजा होती है। अब विधान कर्ताओं ने विधान किस तरीके से रचा? पुराने जमाने में आदिनाथ, पारसनाथ आदि के विधान नहीं मिलते थे। शांति विधान भी बहुत प्राचीन नहीं है। शांति यन्त्र प्राचीन देखने को मिलता है शांति विधान का जो वर्तमान रूप है, ये बहुत अर्वाचीन है। तो विधान कवियों द्वारा रचित है। उन्होने अपनी किस भावना और कल्पना से इस तरह की रचना की, उसकी अर्घावली निश्चित की, इसके लिए मैं कुछ कह नहीं सकता। “इसके लिए क्या हमें शांति विधान नहीं करना चाहिए?” जब शॉर्ट में आपको काम करना होता है, तो बहुत सारे मामले जल्द निपटा लेते हो। आप जब चौबीसी पूजा करते हैं तो एक भी कल्याणक के अर्घ्य नहीं चढ़ाते और चौबीस के नाम हो जाते हैं, होते हैं न? मतलब हम लोग बहुत होशियार हैं। सब चीज को अवसर के हिसाब से जोड़ लेते हैं, तो जहाँ जैसा मौका आ जाये वैसा करते हैं।
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