हम सब बड़े बड़े आचार्यों की टीकाएँ पढ़ते हैं, चाहे वो वीरसेन स्वामी हों या समंतभद्र स्वामी हों। जिन मन्दिरों में आचार्य नेमीचन्द सिन्द्धान्त चक्रवर्ती जी ने गोम्मटसार जीवकांड की पुस्तकें लिखी, उपदेश दिया, दक्षिण भारत के उन मन्दिरों की स्थिति आज ऐसी है कि वहाँ जानवर बांधे जाते हैं और मन्दिर खुले पड़े हुए हैं। कर्नाटक का कलगुंटी मन्दिर शिल्पकला का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है। हम जिन आचार्यों के द्वारा लिखे हुए शास्त्र पढ़ते हैं, उन आचार्यों के प्रति हमारी विनय कैसे सार्थक है? हमारे साथ जो दो चार लोग मन्दिर जीर्णोद्धार का काम कर रहे हैं, उन्हें णमोकार मन्त्र के अलावा जिन धर्म का कुछ नहीं आता। फिर भी क्या वो हमसे श्रेष्ठ नहीं हैं? और अगर श्रेष्ठ हैं, तो फिर हमारी ज़िम्मेदारी भी बनती है उन लोगों को कैसे जोड़े?
आपने एक बहुत गम्भीर मुद्दा समाज के बीच उठाया है। दक्षिण भारत में अपार जैन सम्पदा है। एक समय था जब दक्षिण भारत में उत्तर भारत से अधिक जैन धर्म का प्रभाव था और शास्त्रों में उत्तर से ज्यादा दक्षिण की मान्यता थी। धवला आदि ग्रन्थों में जब भी चर्चा आती तो उत्तर भारत से ज्यादा दक्षिण भारत के प्रति महत्त्व दिया जाता था, क्योंकि विशेष तत्वज्ञानी मुनियों, आचार्यों का वहाँ सद्भाव रहा करता था। दक्षिण भारत के साहित्य और पुरावशेषों को देखकर ऐसा लगता है कि एक युग था, जब दक्षिण जैनियों का गढ़ था। समय बदला, राज्याश्रय के अभाव के कारण जैन धर्म का विध्वंस हुआ और आज वहाँ बहुत थोड़े जैनी बचे हैं। लेकिन जिन लोगों ने जैन मन्दिरों का, मूर्तियों का, आयतनों का निर्माण किया वे आज भी अपने इतिहास की गौरव गाथा गा रहे हैं।
अभी मेरे पास ‘मुद्रई’ करके एक पुस्तक आई, मैंने उसे देखा। इससे पहले मैंने ‘तमिलनाडु का जैन इतिहास’ और ‘दक्षिण भारत में जैन धर्म का इतिहास’ ये दो पुस्तकें पढ़ी थी। पंडित कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित एक पुस्तक है, ‘दक्षिण भारत में जैन धर्म का इतिहास’। ये जब मैंने पढ़ा तो मेरे आँखों से आँसू निकल पड़े। एक साथ हजार-हजार मुनियों को सूली पर चढ़ाया गया। तमिलनाडु का जैन इतिहास पंडित मन्नालाल शास्त्री द्वारा लिखित चेन्नई से प्रकाशित है, वो पुस्तक मैंने पढ़ी रूह काँप गयी। अभी जो किताब मेरे पास आई वो किताब अभी मैं पढ़ ही रहा हूँ।
लेकिन दक्षिण भारत में बहुत सारे अवशेष हैं। मेरी अभी जब मधुर से चर्चा हुई तो उसने बताया कि रोज कोई न कोई भगवान हमें देखने को मिल जाते है, इतना भरा पड़ा है। सब आज से हजार-बारह सौ साल प्राचीन अद्भुत शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। पूरे देश भर की जैन समाज को यह चाहिए कि उस धरोहर की सुरक्षा करे। तीर्थ यात्रा कार्यक्रमों के अन्तर्गत तमिलनाडु की यात्रा पर विशेष बल दें, क्योंकि अवशेष ज्यादातर तमिलनाडु में ही हैं। अपने कार्यक्रम बनाएँ, उन क्षेत्रों का विकास करने में आगे आयें। वहाँ जो आवश्यकताएँ हैं उनकी पूर्ति करें ताकि हमारी ये जो धरोहर हैं वो बच सके। हम उनकी पूजा अर्चा करके लाभ ले सकें। एक जगह तो चौतीस प्रतिमाएँ उत्कीर्ण थीं। एक सौ चौसठ पर्वत पर उत्कीर्ण एक सी, नाम है उसका ‘कल्गूमलय’, जो अभी अभी प्रकाश में आया है। ये चीजें वहाँ दूसरे लोग जा करके इन्हें प्रकाश में ला रहे हैं तो जैन समाज के लोगों को भी इसमें आगे आना चाहिए।
मैं इतनी बात कहता हूँ कि धर्मायतनों की रक्षा और सेवा का फल महान बताया है। उसे देवायु और सातावेदिनी के उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध का कारण बताया है। पीढ़ियों का उद्धार हो जायेगा। इसलिए ऐसी जिन प्रतिमाओं की रक्षा के लिए आप सदैव तत्पर रहें, धर्म संस्कृति के लिए आगे आयें, उसके लिए जो कुछ भी आपको करना हो, करें। हर व्यक्ति को चाहिए कि इस क्षेत्र में जागरूकता के साथ आगे बढ़े। तुम लोग जो ये कार्य कर रहे हो, मैं तुम्हारे पूरे ग्रुप को आशीर्वाद देता हूँ। इस युवक ने मुझे बताया कि इनका ५०-६० लोगों का ग्रुप है अपनी salary (वेतन) का एक बड़ा भाग इस कार्य में ये लोग लगाते हैं और आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे युवकों के हाथों को मजबूत करने का दायित्व समाज का होता है। आगे आयें; एक और एक ग्यारह बनें तो तुम्हारा काम बहुत अच्छे से हो सकता है।
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