युवा पीढ़ी इन्टरनेट की ओर बढ़ रही है और धर्म से पीछे हट रही है, क्या करें?

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शंका

आज की युवा पीढ़ी internet की ओर क्यों ज़्यादा बढ़ रही है और धर्म से क्यों पीछे हट रही है? उनका धर्म बस दर्शन करने मात्र तक सीमित रह गया है?

समाधान

आपने पूछा कि युवा पीढ़ी internet या अन्य माध्यम से क्यों ज़्यादा जुड़ रही है? मेरी दृष्टि में इन माध्यमों से जुड़ने में धर्म की दृष्टि से कोई हानि नहीं है। इनसे जुड़ें, जो आधुनिक टेक्नोलॉजी है, एडवांस टेक्नोलॉजी (advance technology) है, उन सब से जुड़ें, लेकिन खतरा वहाँ है जब इन सुविधाओं का सीमा से अधिक उपयोग होने लगे। किसी भी सुविधा का जब तक आप सीमित उपयोग करो, तब तक सुविधा है; और सीमा का उल्लंघन कर देने पर वही दुविधा है। 

आज की ये टेक्नोलॉजी बड़ी fast (तेज) है हमारे काम को आगे बढ़ाती है, बढ़ाएं। हम अपने बच्चों को ये न कहें कि ‘तुम इनका use (प्रयोग) मत करो।’ हम अपने बच्चों को केवल ये कहें कि ‘तुम use (प्रयोग) करो लेकिन अपने विवेक की आँख खुली रखो। ऐसा मत करो कि इनका misuse हो जाए और वो तुम्हारे जीवन को ही fuse कर दें।’ ऐसा काम न करें उन्हें सही समझ और सही दिशा दें तो उन पर असर पड़ता है। 

एक बात का ध्यान हमें देना चाहिए कि हम किसी से भी किसी बात का निषेध करें तो मनोवैज्ञानिक तरीके से करें! हम लोग आज की पीढ़ी पर ‘हम ऐसा तो नहीं करते है’ ऐसा कहकर अपनी बात थोपते जाते हैं। थोपने से धर्म नहीं होता है, धर्म तो अन्दर की स्वीकृति का नाम है। उनको समझाएँ, एडवाइज़ (Advise) दें और इस तरीके से समझाएँ कि उनको सही लगे; ‘ये जो चीज़ है, वह बिल्कुल सही है और हमें ऐसा ही करना चाहिए।’ कभी गड़बड़ नहीं होगी।

 मैं कहता हूँ कि आज के इस विषम युग में यदि बच्चे मन्दिर जा रहे हैं तो ये भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। आप ऐसा न कहें कि आज के बच्चे धर्म को मन्दिर तक ही सीमित रखते हैं, वे बच्चे भाग्यशाली हैं और उनके माँ-बाप भी भाग्यशाली हैं जिनके बच्चे मन्दिर तो जा रहे हैं, दुनिया में ऐसे भी बच्चे हैं जो मन्दिर जाने को समय की बर्बादी मानते हैं, उनको मन्दिर के लिए समय नहीं है। इसलिए जो मन्दिर जा रहे हैं बहुत अच्छी बात है उन बच्चों को थोड़ी सी सही दिशा मिले, सही प्रेरणा मिले और तार्किक रूप से (logically) उनके दिमाग में बातें बैठा दी जाएँ और उनके ऊपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव (psychological effect ) सही पड़े तो उनके जीवन में बहुत बदलाव आ सकता है। तो धर्म की व्याख्या मनोवैज्ञानिक तरीके से ही की जानी चाहिए।

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