आज हम लोगों में से ज्यादातर लोगों के मन में अपने साधुओं के प्रति, मुनियों के प्रति आहार और विहार दोनों में शिथिलता आ रही है? कृपया इसका समाधान करें?
आहार और विहार में शिथिलता आने का कारण आज की बदली हुई शैली है। पहले संयुक्त परिवार होता था। लोगों के पास ज्यादा समय रहता था। लोग साधु सन्तों की सेवा में लग जाते थे। अब एकल परिवार होने लगे हैं लोगों के पास समय का अभाव दिखने लगा है।
दूसरी बात पहले चार आदमी मिलकर एक धन्धा करते थे, आज एक आदमी चार धन्धे करता है। व्यावसायिक व्यस्ततायें और पारिवारिक प्रतिबद्धताएँ इतनी प्रबल हो गई हैं कि लोगों को धार्मिक कार्यों के लिए समय निकाल पाना थोड़ा कठिन हो गया है।
परन्तु मैंने एक नया विकास देखा है कि समाज में युवा अपने करोबारों में और घर गृहस्थी में ज्यादा उलझ रहे हैं लेकिन प्रौढ़ और बुजुर्ग वर्ग अब धर्म के क्षेत्र में काफी आगे बढ़ रहा है। उनके बेटे बड़े-बड़े शहरों में जाकर नौकरी कर रहे हैं और माता-पिता खाली हैं। मुझे ऐसा लग रहा है कि जितने रिटायर्ड हैं, ६० वर्ष के ऊपर वे सब अपने आपको गुरु चरणों में समर्पित रखकर ही खुश हाल दिखते हैं। जो इस कार्य में लग जाते हैं निश्चित ही उनका बुढ़ापा वरदान बन जाता है। आज के लोगों को देखकर लगता ही नहीं कि ६० वर्ष के हो गये हैं। आज कल समाज का ये वर्ग बहुत तेजी से धर्म, ध्यान के क्षेत्र में आगे आ रहा है। वह न केवल साधु की परिचर्या में सहायक हो रहा है अपितु खुद व्रत संयम के रास्ते पर चलकर अपना पथ प्रशस्त कर रहा है। हमें समय-काल के अनुरूप चलना होगा। आज हम ये कहें कि आज का प्रोफेशनल युवक अपना सारा कार्य छोड़कर साधुओं के साथ चले तो शायद व्यावहारिक नहीं होगा। लेकिन जिसने अपने सारे दायित्व पूरे कर लिए हैं वह साधु के बीच न रहकर अपने गोरख धन्धे में उलझे हैं, यह बड़ा आश्चर्य है।
मैं तो एक ही बात कहना चाहता हूँ कि यदि अपने बुढ़ापे को सार्थक करना चाहते हो तो पुण्यार्जन में जुटो, साधु के साथ जुड़ जाओगे तो रिटायर्ड भले हो जाओ लेकिन जिंदगी में ‘टायर्ड’ कभी नहीं होंगे और जीवन का पूरा आनन्द ले पाओगे।
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