कहा जाता है कि ‘जब बड़े गलती करें तो छोटों को उनकी गलती नहीं समझना चाहिए’। लेकिन जब बड़े स्वार्थी बनें और छोटों की मुश्किलों को न समझ सकें तो क्या करना चाहिए? घर में शांति बनाये रखने के लिए हम छोटे जितना चुप रहते हैं, उतनी ही ज़्यादा फालतू की बातें सुननी पड़ती हैं। हमेशा चिन्तापरक बातें सुनने को मिलती हैं। ऐसे में न तो धर्म ध्यान हो पाता है और न ही घर का काम कर पाते हैं। क्या करें?
बड़ों की गलती को देखना या बड़ों की गलती पर टोका-टाकी करना छोटों के दायरे से बाहर है, लेकिन बड़ों को भी अपने बड़प्पन का ध्यान रखना चाहिए। बड़े यदि अपने जीवन में अपने बड़प्पन को ध्यान में नहीं रखते तो छोटों के जीवन पर उसका कोई असर नहीं पड़ सकता। इसलिए जब इस तरह की स्थिति होती है, बड़े अपने बड़प्पन को भुला देते हैं, तो छोटों का मन विद्रोही बन जाता है।
इन्होंने पूछा है कि बड़े स्वार्थी बनें तो छोटों को क्या करना चाहिये?
छोटों को इनके विषय में पहले तो positive (सकारात्मक) होना चाहिए। सकारात्मकता का अर्थ, जैसे कई बार लगता है कि अपने से बड़े घर के चार बच्चों में से किन्हीं दो पर ध्यान दे रहे हैं या एक पर ध्यान दे रहे हैं, बाकी को नहीं दे रहे हैं, तो उस समय ये सोचो कि ‘ये हमारे पिताजी हैं। भले ही उन्होंने हमको कम दिया, वो पक्षपाती हैं; लेकिन उन्होंने हमें जो दिया वह कम नहीं है। आज मेरे पास जो कुछ है वह उन्हीं की कृपा का फल है।’ इस तरह अपने मन को समझाइए और मन में अशांति न होने दें।
एक बात ध्यान रखना कि बड़ों की कृपा पर छोटों का अधिकार नहीं होता है। वह उन की कृपा/ करूणा है। कृपा को अधिकार मानना धूर्तता की पहचान है, इसलिये जब कभी भी ऐसी स्थिति बने, बड़ों की बात को बड़ों के साथ रखिये। बड़े यदि अपने बड़प्पन की उपेक्षा करते हैं तो छोटे अपनी मर्यादा को लांघे यह बात भी ठीक नहीं है। दोनों में अशांति होगी। आप अपने संयम की मर्यादा बनाये रखें और चुपचाप वहाँ से चले जायें। ऐसी परिस्थिति को यथा सम्भव टालेंगे तो अशांति की सम्भावना नहीं होगी।
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