गृहस्थ जीवन में रहकर समाज कल्याण के साथ अपनी आत्मा का कल्याण कैसे करें?
दो-दो कल्याण? गृहस्थ जीवन में? बन्धुओं, ऐसा कहा जाता है कि गृहस्थी के झंझट में जो फँस गया सो फँस गया! बड़ी मुश्किल है। एक किस्सा मुझे याद आ गया जो मैंने कभी गणेश प्रसाद वर्णी जी के प्रवचन में सुना था, एक बहुत पुराने कैसेट के माध्यम से।
एक युवा व्यक्ति था पर उसने शादी नहीं की थी। शादी करूँ या न करूँ, इस विषय में सोच रहा था। एक गाँव से दूसरे गाँव में जा रहा था। जाते-जाते थक गया रास्ते में उसे चौड़े पाट का कुँआ मिला। कुँआ सूखा था उसने सोचा कि पाट चौड़ा है इसी पर विश्राम करूँ। वह कुएँ के पाट पर लेट गया और लेटते ही उसको सपना आना शुरू हो गया। सपने में वह देखता है कि उसका विवाह हो गया। उसकी एक खूबसूरत पत्नी है, दोनों एक साथ सो रहे हैं। दोनों का एक बच्चा भी हो गया। इसी बीच बच्चा रो रहा है। पति पत्नी से कह रहा है कि तुम खिसको और पत्नी पति से कह रही है कि तुम खिसको। पत्नी के कहने पर वह थोड़ा सा खिसका तो धड़ाम से कुएँ में गिर गया। जैसे ही कुएँ में गिरा बेचारा परेशान हो गया। भाग्य था कि पानी नहीं था। पुकार लगाई तो अगल-बगल में खेत में काम करने वाला व्यक्ति आया और उसने उसकी मदद की और उसे निकाला। निकालने के बाद उसने कहा ‘धन्य हो भैया! आपने मेरा जीवन बचा लिया। आप तो बिल्कुल सन्त पुरुष हो।’ उस किसान ने कहा कि ‘हम सन्त-वन्त नहीं हैं हम तो गृहस्थ हैं।’ तो वह चौंका और बोला कि तुम घर-गृहस्थी में रहकर जिंदा क्यों हो? हम तो थोड़ी देर के लिए गृहस्थ बने और कुँए में गिर गये। तुम अभी तक कैसे सुरक्षित हो?
यदि गृहस्थ चाहे तो अपने जीवन को सलामती के रास्ते पर ले जा सकता है। सबसे पहले गृहस्थ धर्म का जो उपदेश हमारे तीर्थंकर भगवान ने बताया है उसका पालन करें। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए अपनी क्रिया और चर्या में दृढ़ रहे। गृहस्थोचित कर्तव्यों का पालन करे। इसके साथ जितना बन सके समाज के लोगों के लिए अपना योगदान दे। सामाजिक उत्थान में अपना सहयोग दे।
मैं आपसे कहता हूँ कि कुछ नहीं करना है केवल सम्यक् दर्शन के आठ अंगों का ठीक रीति से पालन कर लो तो गृहस्थ जीवन में आत्मा के कल्याण के साथ समाज कल्याण भी किया जा सकता है।
निःशंकित, निःकांक्षित (निष्काम), निर्विचिकित्सा और अमूढ़-दृष्टित्त्व ये चार अंग जो स्व के प्रति केन्द्रित होते हैं और स्व के कल्याण के लिए बहुत जरूरी हैं। धर्म पर दृढ़ श्रद्धा – धर्म में, देव में, गुरु में दृढ़ श्रद्धा हो कि जो है वह यही है। कर्म सिद्धान्त पर दृढ़ आस्था रखो। सांसारिक भोगों के प्रति आसक्ति की उदासीनता, उनके प्रति बहुत ज्यादा आदर का भाव न होना। शरीर के ग्लानि-स्वरूप रूप को देखकर उसके प्रति ग्लानि करने की जगह आत्मा के गुणों के प्रति अनुराग रखना। अपनी आस्था को स्थिर बनाये रखना। किसी भी भय, दबाव अथवा प्रलोभन का शिकार बनकर कुमार्ग की तरफ न झुकना।
ये चार अंग आप अपनी तरह से प्रकट कर लेते हैं तो ये मान कर चलिए कि आपका जीवन अन्दर से सुरक्षित है। बाहर यदि समाज में किसी के जीवन में कोई बुराई हो तो उसको प्रकट मत करो। उसका उपगूहन करो। कोई गिर रहा है, तो उसे सहारा दो। सहधर्मी जनों के प्रति वात्सल्य का भाव रखो। समाज के कल्याण में जितना अच्छे से अच्छा कर सको करो। अपनी शक्ति, अपने संसाधन और अपने समय का उपयोग समाज के लोगों को ऊपर उठाने के लिए लगाओ।
आचार्य समंतभद्र जी कहते हैं कि, “न धर्मों धार्मिकैः विना”, धार्मिक जनों के बिना धर्म नहीं टिकता। जितना बन सके आप औरों को आगे बढ़ायें, औरों को प्रोत्साहित करें। अपनी हर चीज को, अपने तन, मन व धन से समाज के लिए आगे बढ़ायें। सबके प्रति वात्सल्य का भाव रखते हुए जैन धर्म की प्रभावना में अपना उत्कृष्ट योगदान दें तो मैं मानता हूँ कि स्व और पर के कल्याण के लिए इससे अच्छा और कोई काम नहीं होगा!
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